Friday 1 July 2011

आर्थिक सुधार काल में निर्धनता का परिदृश्य


आलोक कुमार


    जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उसे विरासत में मिली एक पंगु अर्थव्यवस्था जिसमें गरीबी और बेरोजगारी की जड़े बरगद के वृक्ष के समान पनप चुकी थी। जबकि नब्बे के दशक के प्रारम्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में घिरी थी और आर्थिक सुधारों का वर्तमान चरण को जुलाई 1991 से आरम्भ किया। वैसे इसकी शुरूआत 1980 के दशक से आरम्भ हो चुका थी। माना ये जा रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस संकट को समाप्त कर देश का एक चैमुखी विकास करेगी। परन्तु पिछले दशक से इस अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि क्षेत्र स्वयं संकट का पर्याय एवं चर्चा का विषय बन गया है। ये अत्यन्त कष्ट की बात है कि देश का अन्न दाता चिन्ता, निराशा व आत्महत्या के दुष्चक्र में जकड़ा हुआ है। इस दिशा में स्थिति सुधारने की जगह प्रत्येक दिन और खराब होती जा रही है। हमें जल्द से जल्द इस गम्भीर समस्या पर मंथन एवं चिन्तन कर समाधान निकालने की आवश्यकता है। “ जिनको ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से पोषक शक्ति नहीं प्राप्त होती है उनको गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है। ” प्रस्तुत आलेख में आर्थिक सुधार काल में निर्धनता का परिदृश्य के संकट के कारणों एवं इसके फलस्वरूप उत्पन्त प्रभावों तथा एक विकास परख समाधान के प्रयास की चर्चा की गयी है।
    भारतवर्ष में गरीबी की समस्या का विश्लेषण करने से पूर्व अर्थव्यवस्था की संरचना एवं स्वरूप को समझना अति आवश्यक है। प्रारम्भ में जब अंग्रेजों ने भारत में आधिपत्य स्थापित किया तो उन्होंने देश की सम्पत्ति तथा संसाधनों का पूरी तरह से विदोहन का प्रयास किया जो उनके निहित स्वार्थों के पक्ष में था। उन्होने भारतीय शासकों जमीदारांे एवं सामान्य जनता तथा व्यापारियों से जबरदस्ती वसूली की वहीं दूसरी ओर भारतीय कारीगरों, नील की खेती करने वाले किसानों और व्यापारियों का शोषण भी किया तथा भारत में उपलब्ध अतिरेक को ब्रिटेन ले जाकर अपने देश की समृद्धि हासिल की।
    दादा भाई नौरोजी जिन्होने अपनी 1878 में प्रकाशित पुस्तक “भारत में गरीबी तथा अब्रिटिश राज्य, अपना निकास का सिद्वान्त” प्रतिपादित किया तथा चेतावनी दी कि विदेशी तिजोरी में भारत का धन धीरे-धीरे निकल कर जा रहा है। और भारत कमजोर हो रहा है। उनके अनुसार निकास भारत को पूँजी कायम करने के लिये रोकता है अंग्रेज उस पूँजी को जिसको कि वे निकालकर वापस ले गये थे वापस देश में लाकर सारे व्यापार तथा महत्वपूर्ण उद्योगों पर एकाधिकार कायम कर लेने के लिये लगाते हैं। और फिर भारत का शोषण करते है और इस धन को निकाल लेते हैं। इस बुराई का एक मात्र स्रोत सरकारी निकास है- यूरोपियन आॅफिसियल द्वारा बचत का यूरोप भेजना तथा दूसरे गैर आॅफिसियल यूरोपियन द्वारा यूरोप को भुगतान भेजना। उनके अनुसार इस प्रकार के आर्थिक लूट के कारण भारत आर्थिक रूप से की लगातार आर्थिक बर्वाद और कमजोर होता चला गया।
    1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उसे विरासत में मिली एक पंगु अर्थव्यवस्था जिसमें गरीबी और बेरोजगारी की जड़े बरगद के वृक्ष के समान पनप चुकी थी। सरकार के सामने समस्या थी कि कैसे अर्थव्यवस्था को गरीबी के जाल से निकाला जाय तथा देश में तीव्र तथा आत्मनिर्भर आर्थिक विकास लाया जाये भारत में आर्थिक विकास की इन समस्याओं को हल करने लिए बाजार व्यवस्था के साथ नियोजन काल में मिश्रित आर्थिक प्रणाली को चुना। और 1951 से पहली पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ किया। अब तक दस पंचवर्षीय योजना पूर्ण हो चुकी हैं और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है। एक लम्बी अवधि के अन्तराल के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। जिसमें 90 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधार के रुप में इन समस्याओं के निवारण हेतु क्रान्तिकारी पहल शुरु हुई। जैसा कि आर्थिक सुधारों से अर्थव्यवस्था में उछाल आया है किन्तु वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में एक विरोधाभास दृष्टिगोचर हो रहा है। और यह विरोधाभास है, रोजगार सृजन एवं गरीब लोग की संख्या में कमी के बिना आर्थिक संवृद्धि का बढना। जबकि गरीबी पर चोट तभी पहुँचाई जा सकती है जबकी विकास के ऐसे ढाँचे को प्रोत्साहित किया जाय जिसमें श्रम का कुशल प्रयोग किया गया हो और गरीबों में मानवीय पूँजी के लिए विनियोग किया जाए। ये दोनो तत्व अनिवार्य है। गरीबों को ऐसे अवसर प्रदान करे जिनसे वे अपनी सबसे अधिक प्रचुर परिसम्पत्ति अर्थात श्रम का प्रयोग कर सकते हैं। साथ ही कल्याण में वृद्धि के साथ नव सृजित सामथ्र्य का लाभ उठा सकें एवं आय जनित कर सकें। लेकिन संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रमों द्वारा गरीबी निराकरण एवं रोजगार सृजन पर विशेष प्रभाव नहीं पडा। जैसा कि तथ्यों से स्पष्ट होता है कि आर्थिक सुधारोत्तर काल में गरीबी अनुपात तो घटा है किन्तु गरीबी की ह्मस दर मन्द हो गई, आर्थिक सुधारों के बाद रोजगार वृद्धि दर में ह्मस  आया है, गरीबी सम्बन्धी अन्तर्राज्यीय वैभिन्यता बढ़ी है। अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के मापदण्ड का मापन केवल आर्थिक संवृद्धि सें किया जा रहा है जबकि एक अर्थव्यवस्था के सुदृढता के लिए व्यापक आधार होना चाहिए जिसमें रोजगार, आर्थिक गुणवत्ता, आर्थिक संरचना और लोगो के रहन सहन के स्तर में आए परिर्वतन को समाहित करना चाहिए। आर्थिक सुधार काल की मुख्य परीक्षा बेरोजगारी एवं गरीबी में कमी की अवधारणा तथा बहुसंख्यक समाज के जीवन स्तर में परिवर्तन में निहित है।
गरीबी का परिदृश्य
गरीबी से आशय उस सामाजिक अवस्था से है जिसमें समाज का एक भाग अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित रहता है। जब समाज का एक भाग न्यूनतम जीवन स्तर से भी नीचे जीवन यापन के लिए विवश होते है तो यह स्थिति गरीबी की स्थिति कहलाती है। विश्व के सभी देशों में गरीबी को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। परन्तु इन सबका आधार न्यूनतम या अच्छे जीवन स्तर की कल्पना है। यद्यपि गरीबी को कई दृष्टिकोण से परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। एक दृष्टिकोण में गरीबी को आधारिक सुविधाओं यथा भोजन, आवास, शिक्षा तथा चिकित्सा से सम्बद्व कर परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। आय के स्तर पर विचार किए बिना यदि किसी परिवार में इस आधारिक सुविधाओ की कमी रहती है तो उस परिवार को गरीब माना जाता है। इस दृष्टिकोण का सबसे बडा दोष यह है, कि इसमें वे भी परिवार गरीबी की सूची में सम्मिलित कर लिए जाते है जिनकी आय अधिक है परन्तु अपनी बुनियादी आवश्यकताओं पर व्यय नही करते है। और दूसरी ओर वे परिवार सम्मिलित नहीं होते है जिनकी आय तो नगण्य है परन्तु वे ऋण, पूर्व बचत को कम करके रिश्तेदारों और मित्रों से सहायता लेकर अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है। एक दूसरे दृष्टिकोण में एक परिवार की न्यूनतम आवश्यकताओं का आकलन तथा फिर एक आधार वर्ष की कीमत के आधार पर अपेक्षित आय में रुपांतरित कर दिया जाता है। भारत में इसी दृष्टिकोण के आधार पर गरीबी को परिभाषित किया जाता है।
ष्च्वअमतजल ंे उपदपउनउ मगचमदकपजनतम वित उंपदजंपदपदह सपअमसपीववक वदसलए ूीमतम जीम बवेजे व िविवकए बसवजीपदहए ीवनेपदहए तमदजए निमस ंदक वजीमत दमबमेंतल कवउमेंजपब मगचमदकपजनतम ंतम पदबसनकमक पद पजण्ष्
राउन्ट्री ने गरीबी को भिन्न रूप से परिभाषित करते हुए लिखा है कि - ष्ज्ीम डपदपउनउ दमबमेंतपमें वित जीम उंपदजमदंदबम व िउमतमसल चीलेपबंस मििपबपमदबलण्ष्

गरीबी की माप
गरीबी की माप के लिए सामान्यतः दो प्रतिमानों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार है.
1. सापेक्षित प्रतिमान: गरीबी के सापेक्षित माप के अन्र्तगत देश की जनसंख्या की सम्पत्ति उपभोग अथवा आय स्तर के आधार पर विभिन्न क्रमिक वर्गो में विभक्त किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त वर्गों को सम्पति, आय, उपभोग के बढ़ते या घटते हुए स्तरो के आधार पर क्रमबद्व किया जाता है। तत्पश्चात उच्चतम 5 प्रतिशत या 10 प्रतिशत निवासियों के अंश से की जाती है। सापेक्षित प्रतिमान के आधार पर प्राप्त जानकारी गरीबी की अपेक्षा आय, सम्पत्ति तथा उपभोग के वितरण में व्याप्त विषमता का बेहतर चित्रण करती है। इसकी सीमा यह है कि इसके द्वारा गरीबी की माप करने पर विकसित देशों में भी जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी की श्रेणी में आयेगा। यद्यपि उन देशो के गरीबों के रहन सहन का स्तर विकासशील देशों के गरीबों की तुलना में अधिक बेहतर होगा। वस्तुतः यह प्रणाली गरीबी की वास्तविक माप का चित्रण नहीं करके आर्थिक विषमता का चित्रण करती है। यही कारण है कि भारत में गरीबी की माप इस विधि से नहीं की जाती है।
2. निरपेक्ष प्रतिमान: गरीबी माप की इस विधि के अन्र्तगत गरीबी की माप के लिए देश में विधमान एक न्यूनतम उपभोग स्तर को जीवन यापन की अनिवार्य आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित किया जाता है। न्यूनतम उपभोग स्तर से कम उपभोग करने वाले व्यक्ति को गरीबो की श्रेणी में रखा जाता है। भारत में इस न्यूनतम उपभोग स्तर को गरीबी रेखा की संज्ञा दी गयी है। गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए जीवन यापन हेतु अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं की न्यूनतम मात्रा को पोषकता की न्यूनतम मात्रा के आधार पर ज्ञात किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भौतिक मात्राओेेेें की कीमत से गुणा करके मुद्रा के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। प्राप्त मौद्रिक मान प्रति व्यक्ति न्यूनतम उपभोग व्यय को प्रदशर््िात करता है। यही न्यूनतम उपभोग व्यय गरीबी रेखा को व्यक्त करता है। गरीबी रेखा में सम्मिलित व्यय न्यूनतम उपभोग व्यय गरीबी रेखा को व्यक्त करता है। गरीबी रेखा में सम्मिलित व्यय न्यूनतम आवश्यक पोषकता प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थो पर किए जाने वाले व्यय को प्रदशर््िात करता है। इस व्यय में अनिवार्य आवश्यकताओं यथा वस्त्र, आवास तथा ईधन पर किए जाने वाले व्यय को सम्मिलित नहीं किया जाता है। अत; गरीबी रेखा केवल जीवन यापन हेतु आवश्यक खाद्य पदार्थो पर किए जाने वाले व्यय से संबधित होती है। ज्ञातव्य है कि गरीबी की माप के लिए निरपेक्ष प्रतिमान का प्रयोग सर्वप्रथम खाद्य एवं कृषि संगठन के प्रथम महानिदेशक ब्याएड आर ने 1945 में किया तथा इसके आधार पर गरीबी की माप करने के लिए क्षुधा रेखा की संकल्पना का प्रतिपादन किया। यही संकल्पना विश्व के सभी देशों में किसी न किसी रूप में विद्यमान है।
भारत में गरीबी की माप करने के लिए निरपेक्ष प्रतिमान का ही प्रयोग किया जा रहा है। इसी प्रतिमान के आधार पर निर्धारित किए गये न्यूनतम उपभोग व्यय को गरीबी रेखा की संज्ञा दी जाती है। इस विधि के माध्यम से गरीबी की माप करने की विधि को हेड काउंट रेशियो भी कहा जाता है।
देश में गरीबी अनुपात ;च्वअमतजल त्ंजपवद्ध के ताजा आँकड़े योजना आयोग ने मार्च 2007 में जारी किये हंै। राष्ट्रीय नमूना सर्वेंक्षण संगठन ;छैैव्द्ध ने गरीबी की स्थिति के आंकलन के लिये 2004-05 के अपने सर्वेंक्षण में दो तरह की प्रश्नावली का प्रयोग किया है। जिसमें प्रथम 30 दिन के यूनीफार्म रिकाॅल पीरियड ;न्त्च्द्ध उपभोग व्यय व दूसरा 365 दिन के संदर्भ वाले मिक्स्ड रिकाॅल पीरियड ;डत्च्द्ध पर आधारित था। इन दोनों ही आधारांे पर गरीबी अनुपात अलग-अलग आँकलित किया गया है। न्त्च् आधारित आंॅकलन में देश में गरीबों की संख्या 2004-05 में 30.7 करोड़ बतायी गयी है, जबकि डण्त्ण्च्ण् आँकड़ों में यह 23.85 करोड़ है जिसमें ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गरीबों की कुल संख्या क्रमशः 17.03 करोड़ व 6.82 करोड़ आँकलित है। इससे पूर्व 1999-2000 के आँकड़ों में देश के गरीबों की कुल संख्या (गरीबी रेखा से नीचे कुल जनसंख्या) 26.02 करोड़ (ग्रामीण क्षेत्रों में 19.32 करोड़ व शहरी क्षेत्रों में 6.7 करोड़) थी।
हमारे देश में गरीबी के माप हेतु गरीबी रेखा के निर्धारण करने का प्रयास सर्वप्रथम सरकार द्धारा गठित एक विशेषज्ञ दल द्धारा 1961 में किया गया। इस विशेषज्ञ दल ने 1960-61 की कीमतों पर 240 रु0 वार्षिक या 20 रू0 मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय को गरीबी रेखा माना था। इस विशेषज्ञ दल ने न्यूनतम उपभोग व्यय में शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले व्यय का भार को नहीं लिया क्योंकि इनको सरकार स्वंय वहन करती है। उक्त विशेषज्ञ दल ने यह भी कहा था कि बाद के वर्षो के लिए गरीबी रेखा का अनुमान कीमत वृद्धि से उक्त राशि को समायोजित कर प्राप्त किया जा सकता है। इसी आधार पर समय-समय पर विशेषज्ञो ने गरीबी रेखा तथा गरीबी के स्तर का अनुमान लगाया गया है। 1973-74 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता को ध्यान में रखकर ग्रामीण क्षेत्र के लिए 49‐1 रू0 तथा नगरीय क्षेत्र में 56‐6 रू0 मासिक व्यय से कम को गरीबी रेखा माना गया। बाद में इसमें संशोधित करके 1984-85 की कीमतों पर ग्रामीण क्षेत्रों में 107 रू0 तथा नगरीय क्षेत्रों में 122 रू0 मासिक व्यय को गरीबी रेखा की संज्ञा दी गयी। 2004-05 में इसमें पुन; संशोधित करके प्रतिव्यक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में 356‐00 रू0 और शहरी क्षेत्रों में 538‐6 रू0 मासिक व्यय को गरीबी रेखा की संज्ञा दी गयी। इससे स्पष्ट है कि हमारे देश में गरीबी रेखा का निर्धारण भौतिक अतिजीवन की संकल्पना के आधार पर किया गया है।
    इस न्यूनतम उपभोग के लिए आवश्यक आय के विषय पर अर्थशास्त्री एकमत नहीं है। 7वें वित्त आयोग ने एक नयी वर्द्धित गरीबी रेखा की अवधारणा की संकल्पना का प्रतिपादन किया। इस वर्द्धित गरीबी रेखा के निर्धारण में मासिक वैयक्तिक उपभोग व्यय में सरकार द्धारा शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, समाज कल्याण आदि पर किए जाने वाले प्रति व्यक्ति मासिक व्यय की राशि भी जोड़ दिया। इस प्रकार प्राप्त हुई धनराशि को वद्र्वित गरीबी रेखा का नाम दिया गया। वद्र्वित गरीबी रेखा पूरे देश के लिए समान नहीं होगा बल्कि इसका निर्धारण प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग होगा। इस कारण योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा निर्धारण के सम्बन्ध एक वैकल्पिक परिभाषा स्वीकार की जिसमें आहार सम्बन्धी जरुरतों को ध्यान में रखा गया है। इस अवधारणा के अनुसार “जिनको ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से पोषक शक्ति नहीं प्राप्त होती है उनको गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है।”    
योजना आयोग द्वारा आंकलित गरीबोें की संख्या को लेकर विवाद बना रहता है। 1993-94 में योजना आयोग ने प्रसिद्व अर्थविद डी0 टी0 लकड़वाला की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ दल द्वारा योजना आयोग के पूर्व आँकडों को अविश्वसनीय बताते हुए गरीबी की माप के लिए वैकल्पिक फार्मूले का उपयोग करने का सुझाव दिया। जिसके अंतर्गत शहरी गरीबी के आंकलन के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एवं ग्रामीण क्षेत्रो में इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कृषि श्रमिको के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाया। 11 मार्च 1997 को योजना आयोग की पूर्ण बैठक में गरीबी रेखा की माप के लिए लकड़वाला फार्मूले को स्वीकार कर लिया गया।
बृहद अर्थो में गरीबी से आशय उस सामाजिक क्रिया से है जिसमें समाज का एक भाग निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते है। इस न्यूनतम उपभोग के लिए आवश्यक आय के विषय पर अर्थशास्त्री एकमत नहीं है। इस कारण हमारे देश में योजना आयोग द्वारा गरीबी निर्धारण के सम्बन्ध में एक वैकल्पिक परिभाषा स्वीकार की जिसमें आहार संबंधी जरुरतो को घ्यान में रखा गया है। इस अवधारणा के अनुसार उपभोग व्यय से सम्बन्धित जो जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के अनुमापन का प्रयास किया गया। जिनसे ग्रामीण क्षेत्र में एक व्यक्ति के प्रतिदिन के भोजन में 2400 कैलोरी तथा शहरी में में एक व्यक्ति के प्रतिदिन कें भोजन में 2100 कैलोरी प्राप्त होनी चाहिए। जो व्यापक गरीबी की स्थिति को बताता है। जिसका विद्यमान होना चिन्ता का विषय है। इसी  अवधारणा पर आधारित योजना आयोग राष्द्रीय नमूना सर्वेंक्षण एवं विश्व बैंक द्वारा उपभोग व्यय से सम्बन्धित जो जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर शहरी व ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी के अनुमापन का प्रयास किया गया। जिनसे प्राप्त आँकडो का विश्लेषण करते है कि हमारे देश में आर्थिक सुधारों को लागू करने के बाद व्यापक गरीबी से कितने लोगो को मुक्ति दिलाने में सफल हुआ।
          विभिन्न राज्यों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या
                      (वर्ष 1993-94 से 2004-05)

राज्य ग्रामीण शहरी कुल प्रतिशत
1993-94 2004-05 1993-94 2004-05 1993-94 2004-05
जम्मूकश्मीर 30.3 4.6 9.2 7.9 25.2 5.4
पंजाब 11.9 9.1 11.4 7.1 11.8 8.4
हिमाचल प्रदेश 30.3 10.7 9.2 3.4 28.4 10.0
हरियाणा 28.0 13.6 16.4 15.1 25.1 14.0
दिल्ली 1.9 6.9 16.0 13.2 14.7 14.7
केरल 25.8 13.2 24.5 20.2 25.4 15.0
आन्ध्र प्रदेश 15.9 11.2 38.3 28.0 22.2 15.8
गुजरात 22.2 19.1 27.9 13.0 24.2 16.8
असम 45.0 22.3 7.7 3.3 40.9 19.7
राजस्थान 26.5 18.7 30.5 32.9 27.4 22.1
तमिलनाडु 32.5 22.8 39.8 22.2 35.0 22.5
प0 बंगाल 40.8 28.6 22.4 14.8 35.7 24.7
कर्नाटक 29.9 20.8 40.1 32.6 33.2 25.0
म्हाराष्द्र 37.9 29.6 35.2 32.2 36.9 30.7
उ0 प्र0 42.3 33.4 35.4 30.6 40.9 32.8
म0 प्र0 40.6 36.9 48.4 42.1 42.5 38.3
बिहार 58.2 42.1 34.5 34.6 55.00 41.4
उड़ीसा 49.7 46.8 41.6 44.3 48.6 46.4
सम्पूर्ण भारत 37.3 28.3 32.4 25.7 36.00 27.5
स्रोत: योजना आयोग एवं राष्ट्रीय नमूना सर्वेंक्षण

1. गुजरात और तमिलनाडु ऐसे राज्य थे जहाँ 1993-94 मंे ग्रामीण गरीबी शहरी गरीबी से कम थी, परन्तु सुधारों के दौर शहरी गरीबी में विशेष कमी हुुई उस रुप में ग्रामीण गरीबी नहीं घटी।
2. अनेक सम्पन्न राज्यांे में शहरी गरीबी मंे जिस अनुपात में कमी हुई उस अनुपात में ग्रामीण गरीबी में कमी नहीं हुई जैसे आन्ध्रप्रदेश में ग्रामीण गरीबी में कमी 4.7 प्रतिशत की हुई जबकि शहरी गरीबी में 10 प्रतिशत की कमी हुई। गुजरात में ग्रामीण में 3.1 प्रतिशत और शहरी गरीबी में 14.9 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई और तमिलनाडु में ग्रामीण गरीबी में 9.7 प्रतिशत की एवं शहरी गरीबी में 17.6 प्रतिशत की कमी हुई।
3. दिल्ली ऐसा प्रदेश रहा जहाँ ग्रामीण गरीबी 1.9 प्रतिशत से बढ़कर 6.9 प्रतिशत हो गई।
4. जम्मू कश्मीर,पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, केरल, असम, राजस्थान, प0 बंगाल एवं कर्नाटक में ग्रामीण गरीबी में विशेष सुधार हुआ।
5. हिमाचल प्रदेश (5.8), आन्ध्र प्रदेश (10.3), गुजरात(14.9), तमिलनाडु (17.6), पं0 बंगाल (7.6), कर्नाटक (7.5) आदि सम्पन्न राज्यो में शहरी गरीबी में दस प्रतिशत से अधिक या उससे थोडी कम की कमी हुई।
6. गरीबी का सर्वाधिक प्रतिशत उड़ीसा में 46.4 प्रतिशत था और सबसे कम अनुपात जम्मू और कश्मीर में 5.4 प्रतिशत था।
7. महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड में गरीबी अनुपात 30 प्रतिशत से अधिक था। जबकि झारखण्ड, छत्तीसगढ, बिहार और उड़ीसा में गरीबी अनुपात 40 प्रतिशत से अधिक रहा। और दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू और कश्मीर ऐसे राज्य थे जहाँ गरीबी अनुपात 15 प्रतिशत से भी कम है।
निष्कर्ष
  आर्थिक सुधारों के इस काल में जहाँ राज्यों गरीबी की ह्नास दर मंद तो हुई ही है परन्तु गरीबी में जो कमी परिलक्षित हो रही वह विशेष कमी भी सम्पन्न राज्यों में हुई वहां भी यह शहरी गरीबी ही घटी ग्रामीण गरीबी की ह्नास दर अत्यन्त मंद रही। दिल्ली जैसे केन्द्रशासित प्रदेश में तो ग्रामीण गरीबी की दर बढ़ ही गई। शहरी गरीबी में जिस अनुपात मंे घटी ग्रामीण गरीबी उस अनुपात में नहीं घटी है।
सन्दर्भ
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2. अग्रवाल ए0एन0, (2006) ‘‘इण्डियन इकोनाॅमी (प्रोब्लम आॅफ डेवलपमेंट एण्ड प्लानिंग)’’ आशीष पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली।
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5. अजीज, अब्दुल, (1994) ‘‘पावर्टी एलीवेशन इन इण्डिया पाॅलिसीज एण्ड प्रोग्राम्स’’, आशीष पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली।
6. बाॅमोल, विलियम जे0, (1951) ’’इकोनाॅमिक डाइनामिक्स’’, न्यूयार्क।
7. बनर्जी, ए0 सिंह, एस0के0 (2005), ’’बंैकिंग एण्ड फाइनेन्सियल सेक्टर रिफाम्र्स इन इण्डिया’’, दीप एण्ड दीप पब्लिशर्स, नई दिल्ली।

’ (शोधछात्र) समाजशास्त्र विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र)             म्उंपस­ंसवोतपअंेजंअं540/हउंपसण्बवउ