Friday 1 July 2011

प्राथमिक शिक्षा में विशिष्ट आवश्यकता वाले असमावेशित बच्चों का समावेषण: समस्याएं एवं समाधान



डाॅ प्रेमशंकर राम
डाॅ सुरेन्द्र राम
नीता मिश्रा

शिक्षा मानव निर्माण की प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित किया जाता है। किसी भी राष्ट्र एवं समाज का विकास उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों की योग्यता, कुशलता एवं कार्य क्षमता पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि राष्ट्र अपने सभी नागरिकों के लिए उचित शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधा सुनिश्चित करने हेतु प्रयत्न करे। बच्चे किसी भी राष्ट्र या समाज के भविष्य होते हैं। अतः भावी समाज एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबन्ध करना प्रत्येक राष्ट्र एवं समाज का पुनीत कर्तव्य हो जाता है। उक्त महत्व को ध्यान में रखते हुए विश्व के अनेक राष्ट्रों द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने हेतु प्रयास प्रारंभ किये गये। भारत में 6-14 वर्ष आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे की शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में घोषित कर दिया गया है तथा गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने की दिशा  में प्रयत्न जारी है । इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि कतिपय कारणों से समस्त बच्चों का प्राथमिक शिक्षा की सुविधा सुलभ कराना कराना सुनिश्चित नही हो पा रहा है जिसका प्रमुख कारण बच्चों द्वारा विद्यालय का परित्याग करना है। यदि सम्बन्धित आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा सुलभ है तो हमें इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने सम्बन्धी उपायों पर विचार करना ही होगा।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों से आशयः
जिस प्रकार से एक पौधें के विकास हेतु बीज की आनुवांशिक क्षमता के साथ ही साथ उचित मात्रा में जल, वायु, प्रकाश एवं भूमि की उर्वरा की आवश्यकता होती है तथा इन तत्वों में से किसी भी तत्व की अनुपस्थ्तिि या कमी की दशा, में पौधें का विकास सामान्य ढंग से नही हो पाता है ठीक उसी प्रकार से बच्चे के स्वस्थ, सन्तुलित एवं समुचित विकास के लिए उसमें अन्तर्निहित योग्यताओं के साथ ही साथ उचित वातावरणीय स्थितियों/दशाओं की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी भी तत्व की कमी या अनुपस्थिति की दशा में बालक का सन्तुलित विकास नही हो पाता है और इस अवस्था में बालक का विकास सामान्य बालकों से भिन्न हो जाता है अर्थात उसमें विचलन आ जाता है। इस विचलन के फलस्वरूप बालक में शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता आ जाती है जिसके कारण बालक का व्यवहार आसामान्य हो जाता है। ऐसे बालकों को विकलांग बालक कहा जाता था परन्तु बाद में इनका नाम परिवर्तित हो गया तथा इन्हे विशिष्ट बालक कहा जाने लगा ऐसे बालकों की कुछ विशिष्ट प्रकार की आवश्यकताएं होती है जिसके कारण इन्हें विशिष्ट आवश्यकता वाले बालक भी कहा जाता हैै। अमेंरिकन नेशनल सोसाइटी फाॅर स्टडी आॅफ एजूकेशन के अनुसार ‘‘विशिष्ट बालक वे हैं जो कि सामान्य बालकों से शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक या सामाजिक विशेषताओं में इतनी दूरी पर हैं कि अपने उच्च्तम योग्यता तक विकसित होने के लिए उन्हें विशेष शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता पड़ती  है‘‘ (राम, 2005)। इसी प्रकार विश्व स्वास्थ्य संगठन (ॅभ्व्) के अनुसार शारीरिक संरचना, अंग या शारीरिक कार्य प्रणाली में कोई असमानता ‘बाधिता‘ पैदा करती है और बाधित होने के परिणाम स्वरूप क्रियात्मक व्यवहार में कठिनाई अपंगता पैदा करती है और जब अपंगता के कारण व्यक्ति अपने आप को सामाजिक समायोजन में कठिनाई का अनुभव करता है तो इससे विकलांगता का जन्म होता है (शर्मा, 2007)। भारतीय पुनर्वास परिषद द्वारा ऐसे बच्चों को सात वर्गों में दृष्टि बाधित, श्रवण बाधित, मानसिक मंद, अस्थि अक्षमता, अधिगम अक्षमता, अटेन्सन डेफिसिट डिसआर्डर एवं अटेन्सन डेफिसिट एण्ड हाईपर एक्टिविटी डिसआर्डर में वर्गीकृत किया गया है।
विशष्ट आवश्यकता वाले बच्चों हेतु शैक्षिक प्रयास:
18वीं सदी से पूर्व यह धारण थी कि विकलांग जन एक असहाय जीव है जिनका शिक्षण-प्रशिक्षण अत्यन्त कठिन कार्य है परन्तु इस क्षेत्र में सम्पादित शोध एवं विकास के कारण लोगों की सोच में सकारात्मक परिवर्तन आया तथा यह माना जाने लगा कि यदि इन बच्चों की शेष क्षमता का भरपूर उपयोग सुनिश्चित किया जाय तो ऐसे बच्चे भी समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकते हैं तथा आत्मनिभरता प्राप्त कर सकते हैं। इस सकारात्मक बदलाव के कारण विशिष्ट शिक्षा का जन्म हुआ तथा 1948 में विश्व मंच द्वारा मानवाधिकारों की घोषणा के बाद इस यात्रा को काफी गति प्राप्त हुई विकलांगों को पूर्ण सहभागिता एवं समान अधिकार सुनिश्चित करने हेतु 1981 को विश्व विकलांग वर्ष घोषित किया गया। सन् 1989 में बाल अधिकार की घोषण की गयी। इसी क्रम में 1990 में जोमटीन सम्मेलन हुआ  जिसमें सबके लिए शिक्षा पर जोर दिया गया। सालामान्सा (स्पेन) में 1994 में विशिष्ट शिक्षा पर विश्व सम्मेलन हुआ। इसी प्रकार 2000, में बीजींग, डकार एवं बिवाकों सम्मेलन द्वारा विशिष्ट बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास किये गये (मिश्र, 2003)।
भारत वर्ष में सारजेन्ट योजना (1944) द्वारा विशिष्ट बच्चों की शिक्षा पर विचार प्रारंभ हुआ तथा भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1988) सलाहकार समिति (1981), नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986), बहरूल इस्लाम समिति (1888), एकीकृत शिक्षा (1974), एकीकृत शिक्षा परियोजना (1990), निःशक्त जन अधिनियम (1995), ट्रस्ट अधिनियम (1999), समन्वित शिक्षा (2005), राष्ट्रीय विकलांग नीति (2006) आदि के द्वारा विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई (मिश्र, 2003)।
विद्यालय के बाहर विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की वर्तमान स्थिति:
सन् 2000 में डकार, बीजींग एवं विवाको सम्मेलन में 2015 तक 6-14 आयु वर्ग के समस्त बच्चों को अनिवार्य एवं गुणवत्ता युक्त प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया तथा भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों द्वारा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा हेतु सुनियाजित प्रयास प्रारंभ कर दिये गये इसके परिणाम स्वरूप भारत वर्ष में सर्व शिक्षा अभियान नामक अतिमहत्वाकांक्षी योजना का सूत्रपात किया गया तथा विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान एवं उनके अनिवार्य नामांकन हेतु कदम उठाये गये। 2001 की जनगणना के अनुसार विकलांग व्यक्ति की संख्या 22 करोड़ थी (पाण्डेय, 2007)। अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2009) के अनुसार 6-13 आयु वर्ग के शारीरिक एवं मानसिक विकलांग बच्चों की संख्या 2,897096 थी जो सम्बन्धित आयु वर्ग से समस्त बच्चों की 1.5 प्रतिशत थी। सर्व शिक्षा अभियान मानीटरिंग रिपोर्ट (2009) के अनुसार सम्बन्धित आयुवर्ग के शारीरिक एवं मानसिक विकलांग बच्चों में से 88 प्रतिशत बच्चों का नामांकन विद्यालय, शिक्षा गांरटी योजना/वैकल्पित केन्द्र तथा होग बेस्ड एजूकेशन के माध्यम से किया गया जिसमें 2.3 मिलियन (81 प्रतिशत) विद्यालयों में, 91000 इ0जी0एस0/ए0आई0ई0 तथा 114000 बच्चों को होम बेस्ड शिक्षा के माध्यम से नामांकित किया गया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के लिए सर्वशिक्षा अभियान एक वरदान के रूप में सामने आया तथा इनकी शिक्षा में उत्साह जनक सुधार हुआ परन्तु अभी भी अधिकांश बच्चे विद्यालय के बाहर हैं जिन्हे विद्यालय में वापस लाने की आवश्यकता है। अखिल भारतीय सर्वेक्षण रिपोर्ट (2009) के अनुसार विद्यालय के बाहर विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की स्थिति निम्न लिखित प्रकार है।
तालिका संख्या-1
क्र0 सं0 थ्ववरण 6-13 आयु वर्ग के बच्चों की संख्या 6-13 आयु वर्ग के असमावेशित बच्चों की संख्या असमावेशित बच्चों का प्रतिशत
1. शारीरिक एवं मानसिक विकलांग 2897096 988359 38.13
2. मानसिक विकलांग 520051 240803 48.03
3. दृष्टिबाधित 393655 116900 29.70
4. श्रवण बाधित 223511 45063 20.43
5. वाक् दोष 377927 139592 36.96
6. चलन बाधित 1,101,004 271736 24.63
7. बहु विकलांग 280948 194556 58.57
स्रोत: अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2009), मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार।
उपरोक्त सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त आॅंकड़ों से स्पष्ट होता है कि विद्यालय के बाहर विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों का प्रतिशत 38.13 है जिसमें से 74.89 प्रतिशत बच्चे ऐसे है जो कभी भी विद्यालय नही गये जबकि 25.11 प्रतिशत बच्चे ऐसे है जो विद्यालय तो गये परन्तु कतिपय कारणों से विद्यालय का परित्याग कर दिये।
प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के असमावेषण के कारण:
राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिक शिक्षा हेतु किये गये विभिन्न प्रयासों के बावजूद सभी बच्चों को अनिवार्य एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। 6-13 आयु वर्ग के विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों में से 38.13 प्रतिशत बच्चों का विद्यालय से बाहर होना निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। विद्यालय के बाहर बच्चों की स्थिति पर यदि विचार किया जाय तो स्पष्ट होता है कि इन बच्चों में अधिकांश बच्चे गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों से सम्बन्धित है। अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2009) के अनुसार विद्यालय से बाहर बच्चों की समस्याओं में 7.41 प्रतिशत पूरक व्यवसाय, 27.09 प्रतिशत गरीबी, 7.36 प्रतिशत घरेलू कार्य में सहायता, 0.83 प्रतिशत छोटे भाई-बहनों की देखभाल, 5.05 प्रतिशत परिवार द्वारा शिक्षा को महत्व न देना, 3.55 विद्यालय का दूर स्थित होना, 8.12 प्रतिशत बच्चों का विकलांगता से ग्रस्त होना, 25.94 प्रतिशत बच्चों का कम उम्र का होना, 0.67 प्रतिशत शिक्षण का संतोषजनक न होना, 0.56 प्रतिशत शिक्षक व्यवहार का असंतोषजनक होना, 0.27 प्रतिशत अनुत्तीर्ण होना 0.47 बच्चे की बीमारी, 7.63 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई में मन न लगना, 4.17 प्रतिशत अन्य कारणों से सम्बन्धित है। विद्यालय परित्याग करने वाले बच्चो में से 71.7 प्रतिशत बच्चे सरकारी प्राथमिक विद्यालयों से तथा 26.91 प्रतिशत बच्चे निजी प्राथमिक विद्यालयों से सम्बन्धित थे। इस प्रकार कहा जा सकता है सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का शैक्षिक वातावरण स्वास्थ एवं आकर्षक नही है जिसके कारण बच्चे विद्यालय का परित्याग कर देते है। विद्यालय के बाहर बच्चों की प्रमुख समस्या उनके अभिभावकों की जागरूकता भी है जिसके कारण अभिभावक अपने पाल्यों की शिक्षा को महत्व नहीं देते हैं। असमावेशित बच्चों का सर्वेक्षण करने वाले शैक्षिक कर्मियों कि यह शिकायत होती है की विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे पहचान के दौरान अधिकांश अभिभावक समाजिक दबाव के कारण यह बताने को तैयार नहीं होते हैं कि उनके घर में कोई विशिष्ट आवश्यकता वाला बच्चा है। इस प्रकार ऐसे बच्चों की पहचान में भी समस्या आती है जिसके कारण बच्चों का नामांकन उपयुक्त केन्द्र/विद्यालय में नही हो पाता है। अधिकांश अभिभावक अपने विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे को असुरक्षा की भावना से स्वयं से अलग नही रखना चाहते जिससे बच्चों की शिक्षा में बाधा आती है तथा बच्चे विद्यालयी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
असमावेशित विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के समावेषण हेतु प्रयास:
प्राथमिक शिक्षा से वंचित बच्चों को पुनः विद्यालय में पहुॅुचाने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास किये जाते हैं जिसके अन्तर्गत बच्चों का सर्वेक्षण, उनकी पहचान, अभिभावकों की सहमति, आवासीय विज कोर्स के माध्यम से विशिष्ट प्रशिक्षण तथा उन्हें उनकी क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप उचित विद्यालयों तथा उपयुक्त कक्षा में प्रवेश सुनिश्चित किया जाता है (वर्मा एवं जोशी, 2007)। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को पुनः विद्यालय के समावेशित करने के लिए सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत निम्न लिखित प्रावधान किये गये हैं।
1. सर्व प्रथम विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान की जाती है इसके लिए ग्रीष्मावकाश के दौरान सहायक अध्यापकों द्वारा अपने विद्यालय के आस-पास के गाॅंवों में जाकर सर्वेक्षण कार्यक्रम के द्वारा विशेष शैक्षिक आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान की जाती है। न्याय पंचायत संसाधन केन्द्र तथा ब्लाक संसाधन केन्द्र के माध्यम से इनकी सूची डी0पी0ओ0 स्तर पर प्राप्त की जाती है। प्राप्त सूची का सारणीयन करके सम्बन्धित बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों को जिला समन्वयक द्वारा अभिप्रेरित किया जाता है।
2. सम्बन्धित बच्चों को आवासीय ब्रिज कोर्स में प्रवेश हेतु उनके अभिभावकों से सहमति पत्र प्राप्त किया जाता है। जिससे वे अपने बच्चों को स्वेच्छा से आवासीय ब्रिज कोर्स में भेज सकें।
3. आवासीय ब्रिज कोर्स में बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के उपरान्त उनकी विशेष देखभाल के लिए केयर टेकर तथा उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं की संपूर्ति हेतु विशिष्ट अध्यापकों की नियुक्ति की जाती है।
4. राज्य परियोजना कार्यालय द्वारा निर्मित विशिष्ट पाठ्यक्रम के द्वारा बच्चों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जाती है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की विशिष्ट आवश्यकता के अनुसार उन्हें दैनिक क्रियाकलाप कौशल, ओरिएन्टेशन एवं मोबिलिटी, सहायक उपकरणों का उपयोग, ब्रेल पठन एवं लेखन, छड़ी द्वारा चलना, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ ही उन्हें गणित तथा भाषा एवं अन्य कौशलों का ज्ञान दिया जाता है।
5. विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को आवासीय ब्रिज कोर्स मे ठहरने एवं भोजन की सुविधा के साथ ही साथ उन्हें दो सेट ड्रेस, जूते, बैग, कान की मशीन तथा अन्य सहायक उपकरणों की व्यवस्था की जाती है जिससे बच्चों को किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो तथा बच्चों का प्रशिक्षण निर्वाध गति से संचालित हो सके (पंकज, 2005)।
6. आवासीय ब्रिज कोर्स की समाप्ति के उपरान्त बच्चों का शैक्षिक मूल्यांकन करके उनकी दक्षता, क्षमता एवं योग्यता के अनुसार उचित कक्षा एवं विद्यालय में प्रवेश सुनिश्चित किया जाता है। जहाॅं रह कर वे अपनी शेष पढ़ाई को पूरी करते है।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के समावेषण में आने वाली समस्याएं:
विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति सामान्य बच्चों से काफी भिन्न होती है। इस कारण इस प्रकार के बच्चों को विद्यालय में स्थापित करना काफी कठिन कार्य होता है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की देखभाल तथा प्रशिक्षण के लिए विशिष्ट प्रकार से प्रशिक्षित कार्मिकों की आवश्यकता होती है जिनकी उपलब्धता विद्यालयों में काफी कम मात्रा में है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों में गंभीर तथा अतिगंभीर स्तर के बच्चे भी होते हैं जिनका प्रशिक्षण सामान्य विद्यालयों में संभव नही होता। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों का समावेषण करते समय मुख्य रूप से निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
1. विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान करते समय सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि ऐसे बच्चों से सम्बन्धित माता-पिता या अभिभावक इस बात को छिपाने का प्रयास करते हैं कि उनके घर में कोई विशिष्ट बालक है।
2. विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की पहचान के पश्चात उन्हें आवासीय ब्रिज कोर्स में प्रवेशित करने के लिए सम्बन्धित बालकों के अभिभावकों से सहमति पत्र प्राप्त करना होता है कभी-कभी सम्बन्धित अभिभावक अपने बालकों का कैम्प में भेजना पसंद नहीं करते क्योंकि उनको भय बना रहता है कि हमारा बच्चा उस कैम्प में रह पायेगा या नहीं।
3. आवासीय ब्रिज कोर्स में भिन्न-भिन्न पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं कभी-कभी वे बच्चे नवीन परिस्थिति में अपने आप को समायोजित करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं जिसके कारण कैम्प से पलायन करने की कोशिश करते हैं जिन्हे कैम्प में बनाए रखना अत्यन्त कठिन कार्य होता है।
4. आवासीय ब्रिज कोर्स में विशिष्ट आवश्यकता वाले विभिन्न श्रेणियों के बच्चे आते हैं जिनके गंभीरता का स्तर भिन्न-भिन्न होता है ऐसे बच्चों की पहचान एवं वर्गीकरण में भी समस्या आती है।
5. आवासीय ब्रिज कोर्स के दौरान कई बच्चे अतिगंभीर विकलांगता से ग्रसित होते हैं जिन्हें प्रशिक्षित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है क्योंकि ऐसे बच्चों को अतिरिक्त देखभाल एवं सुरक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के तौर पर मानसिक मंद श्रेणी के अतिगंभीर बालक का प्रशिक्षण कठिन होने के साथ ही साथ समय साध्य भी होता है।
6. आवासीय ब्रिज कोर्स के दौरान कभी-कभी बच्चे बीमार पड़ जाते हैं जिनकी चिकित्सा एवं सेवा के लिए अतिरिक्त कार्मिकों की आवश्यकता होती है जबकि ब्रिज कोर्स में कार्मिकों की संख्या सीमित होती है।
7. कभी-कभी आवासीय ब्रिज कोर्स के संचालन हेतु स्थल के चुनाव व उसकी उपलब्धता में समस्या आती है। उपयुक्त स्थल न मिलने के कारण कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
8. आवासीय ब्रिज कोर्स में भिन्न-भिन्न आयु वर्ग, मानसिक क्षमता एवं श्रेणियों के बच्चे सम्मिलित किये जाने के कारण उनके प्रभावशाली शिक्षण-प्रशिक्षण में समस्याएं आती हैं जिसमें शिक्षक एवं प्रशिक्षक काफी कठिनाई का अनुभव करते हैं।
समावेषण में आने वाली समस्याओं का समाधान:
सर्व शिक्षा के लक्ष्य ‘सब पढ़े सब बढ़े‘ को प्राप्त करने हेतु यह आवश्यक है कि 6-13 आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तायुक्त एवं अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करायी जाय (वशिष्ठ, 2006)ं इस क्रम में समाज का सबसे कमजोर एवं चुनौतीपूर्ण स्थिति से जूझ रहे बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। अनामांकित, शालात्यागी बच्चों को विद्यालय से जोड़ने में निश्चित रूप से आवासीय ब्रिज कोर्स एक प्रभावशाली प्रयास है बशर्ते की इसका संचालन, नियमन एवं नियंत्रण उचित प्रकार से किया जाय। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा में लाने तथा उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लायक बनाने में आवासीय ब्रिज कोर्स की महत्वपूर्ण भूमिका से इंन्कार नही किया जा सकता। कुछ बातों पर ध्यान देकर आवासीय ब्रिज कोर्स को सफल एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
1. सर्व प्रथम अभिभावकों के मध्य यह विश्वास जागृत करना होता है कि आपका बच्चा भिन्न प्रकार की क्षमता से युक्त है जिसका शिक्षण एवं प्रशिक्षण संभव है तथा इसके माध्यम से वह आत्मनिर्भर होकर समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकता है। इसके लिए प्रर्याप्त प्रचार-प्रसार के माध्यम से उनके नकारात्मक विचार को बदलने की आवश्यकता है।
2. सर्वेक्षण करने वाले व्यक्तियों को सम्बन्धित अभिभावको को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करना होगा कि आपका बच्चा कैम्प में सुरक्षित है तथा उसकी देखभाल घर जैसी परिस्थितियों में किया जायेगा।
3. आवासीय ब्रिज कोर्स में कार्य करने वाले शिक्षकों एवं प्रशिक्षकों को समय-समय पर दिशा-निर्देश देने तथा उनकी समस्याओं के समाधान के लिए विशेषज्ञों की सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
4. ब्रिज कोर्स संचालक (जिला समन्वयक), मानीटर एवं अभिभवकों के मध्य पर्याप्त समन्वय होना चाहिए तथा समय-समय पर उनके मध्य उचित रूप में अन्र्तक्रिया भी होनी चाहिए। जिससे कार्यक्रम संचालन, बच्चों के समायोजन, सामग्री की उपलब्धता आदि में आने वाली समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सके।
5. आवासीय ब्रिज कोर्स में प्रवेशित विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के साथ प्रेम एवं सहानुभूति के साथ व्यवहार करके उनके समायोजन सम्बन्धी समस्या का समाधान किया जा सकता है।
6. समय-समय आवासीय ब्रिज कोर्स पर प्रभावी नियंत्रण एवं उसमें सुधार की दृष्टि से इसकी प्रभावशाली मानीटरिंग को सुनिश्चित करना चाहिए।
7. आवासीय ब्रिज कोर्स के उपरांत बच्चों का मूल्यांकन उचित रूप में करके उनकी कार्यक्षमता, अधिगम स्तर एवं योग्यता के अनुसार उचित कक्षा, विद्यालय आदि में उनका प्रवेश सुनिश्चित करना चाहिए। ऐसा करते समय उनकी विशिष्ट आवश्यकता को ध्यान में रखना चाहिए।
8. अनामांकित एवं शालात्यागी बच्चों की प्रमुख समस्या आर्थिक विपन्नता होती है इस बात को ध्यान में रखकर बच्चों की शिक्षा के साथ ही अन्य सुविधाओं को मुफ्त एवं सुविधाजनक ढ़ंग से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
9. आवासीय ब्रिज कोर्स में विभिन्न प्रकार की विशेषज्ञताओं से युक्त अनुभवी शिक्षकों की ही नियुक्ति की जानी चाहिए जिससे वे अपने दायित्व का निर्वहन कुशलता के साथ कर सकें।
निष्कर्ष:
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बालकों की शिक्षा सम्बन्धी अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए बालक की क्षमता, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुरूप उचित शिक्षण एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करके सर्व शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को जो कि किन्ही कारणों से नामांकित नही हो पाये हैं या शालात्याग कर चुके हैं उन्हें पुनः शिक्षा की मुख्य धारा मं सम्मिलित करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान में किये गये प्रावधान सफल सिद्ध हो रहे हैं जिसमें आवासीय ब्रिज कोर्स का उल्लेखनीय योगदान है। लोगों में जागरूकता एवं विश्वास बढ़ाकार तथा कोर्स को प्रभावशाली बनाकर प्राथमिक शिक्षा में असमावेशित बच्चों का समावेषण सुनिश्चित किया जा सकता है और सार्वभौमिक नामांकन, धारण एवं ठहराव को सुनिश्चित किया जा सकता है।
’   एसोशिएट प्रोफेसर, शिक्षा संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी.
’’ उपाचार्य शिक्षा संकाय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी-2.
’’’प्रवक्ता, विशेष शिक्षा संकाय, नेहरूग्राम भारती विश्वविद्यालय-इलाहाबाद

सहायक ग्रंथ सूची:
1. वशिष्ठ, के0 (2006): ‘गुणवत्तापरक शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान‘ प्राथमिक शिक्षक, एन0सी0ई0आर0टी0 नई दिल्ली पेंज-56
2. पंकज, टी0 (2005): ‘सर्व शिक्षा अभियान एवं प्रारंभिक शिक्षा का सार्वजनीकरण‘ प्राथमिक शिक्षक, एन0सी0ई0आर0टी0 नई दिल्ली पेंज-36
3. पाण्डेय, योगेन्द्र (2007): ‘एजूकेशन एक्सेसविलिटी फाॅर चिल्ड्रेन विथ डिसएविलिटीज इन इण्डिया‘ चैलेजेज इन यूनिवर्सलाइजेशन आॅफ एलीमेन्ट्री एजूकेशन, सपना अशोक प्रकाशन, रामनगर वाराणसी।
4. राम, प्रेमशंकर (2005): विशिष्ट बालक, आलोक प्रकाशन, लखनऊ।
5. शर्मा, संदीप कुमार (2007): भारत में विकलांगों की शिक्षा एवं दृष्टि, भारतीय आधुनिक शिक्षा, जनवरी-अप्रैल (संयुक्ताॅक), एन0सी0ई0आर0टी0 नई दिल्ली पृष्ठ-110-132
6. वर्मा एवं जोशी (2007): ‘आवासीय ब्रिज कोर्स: प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिककरण का एक साधन‘ चैलेजेज इन यूनिवर्सलाइजेशन आॅफ एलीमेन्ट्री एजूकेशन, सपना आशोक प्रकाशन, रामनगर वाराणसी।
7. मिश्र, विनोद कुमार (2003): विकलांगों के अधिकार, कल्याणी शिक्षा परिषद, 3320 न्यू दरियागंज नई दिल्ली।
8. आल इण्डिया सर्वे आॅफ आउट-आॅफ-स्कूल चिल्डेªल आॅफ एज 5 एण्ड इन 6-13 इयर्स एज ग्रुप (2009), डिपार्टमेंट आॅफ एलीमेन्ट्री एजूकेशन एण्ड लिटेªसी, मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार।