Friday 1 July 2011

सर सैयद अहमद खाँ का संक्षिप्त जीवन परिचय एवं शैक्षिक योगदान


शोध छात्र - निजामुद्दीन
डी0ए0वी0 कालेज, आजमगढ़

सर सैयद अहमद खाँ का जन्म 17 अक्टूबर सन् 1817 को दिल्ली में हुआ। उनके पूर्वज अकबर के शासनकाल में हिन्दुस्तान आये और दिल्ली के राज दरबारों में उच्च पदस्थ होते रहे। उनका परिवार दिल्ली में अपनी शराफत, शिक्षा और गुण के आधार पर अग्रणी था। उनकी माता एक उच्च घराने की विदुषी महिला थी जिनको बच्चों के लालन-पालन में दक्षŸाा थी। सर सैयद के पिता सूफी गुणों के बुजुर्ग थे।1
सर सैयद अहमद खाँ की शिक्षा उस समय के प्रचलन के अनुसार घर पर प्रारम्भ हुई। उन्होंने पहले फरसी और अरबी पढ़ी फिर गणित, बीजगणित और औषधिशास्त्र का अध्ययन किया। यद्दपि उनके पूर्वज दिल्ली के राजदरबार में उच्च पदस्थ थे। तथापि सर सैयद अहमद खाँ ने पिता की मृत्यु के बाद 19 वर्ष की आयु में दिल्ली में सदर अमीन के पद पर कार्य किया। सन् 1867 में जज होकर बनारस आये जज के पद पर सर सैयद अहमद खाँ की नियुक्ति उस समय किसी हिन्दुस्तानी के लिए एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी। न्यायिक नौकरी की तल्लीनता के बावजूद अध्ययन, पठन-पाठन एवं लिखने का कार्य नियमित ढ़ंग से करते रहें। सन् 1847 में अपने दिल्ली प्रवास के 9 वर्षो में सर सैयद ने वहाँ के विद्वानों से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। वहीं पर उन्हें दिल्ली के ऐतिहासिक भवनों का विस्तृत विवरण लिखने को मिला। सन् 1847 में उनकी पुस्तक ’’आसार-अल-सनादीद’’  प्रकाशित हुयी। यह अपने किस्म की पहली पुस्तक थी। इस पुस्तक में दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास, वहाँ की प्रसिद्ध इमारतों, महलों,  हवेलियों और स्मृतियों का सविस्तार वर्णन तथा 120 विद्धानों और योग्य व्यक्तियों का हाल लिखा है। इसके बाद उन्होंने ’’आइने-ए-अकबरी’ के अनेक महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त कर एक विस्तृत संदर्भ एवं समालोचना के साथ उसे प्रकाशित किया। इतिहास लेखन में इस तरह सम्भवतः सम्पादन का पहला प्रयास था।2
सर सैयद अहमद खाँ के जीवन को जिस घटना ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह सन् 1857 का विद्रोह था। एक सरकारी उच्चस्तरीय न्यायिक कर्मचारी होने के नाते एक ओर तो शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने में सहायता की, दूसरी ओर जन-कल्याण  के उन सब कायो पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जिसमें अंग्रेजी सरकार को अपनी त्रुटिपूर्ण नीतियों का अभास हो सके। यद्दपि अंग्रेजी सरकार ने उनको लाखों रूपये के स्वामित्व की ताल्लुकेदारी का लालच दिया, परन्तु उसे उन्होंने ठुकरा दिया और इस तरह की सौदेबाजी जो भारतीयों की गरिमा के प्रतिकूल हो, उसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’’असबाब-ए-बगावत हिन्द’’ में स्पष्ट शब्दों में सन् 1857 के विद्रोह का जिम्मेदार अंग्रेजी शासन को भी ठहराया। इस पुस्तक के महत्व का मूल्यांकन मात्र इस बात से किया जा सकता है कि नेशसन कांग्रेस के संस्थापक जो सर सैयद के चिर परिचित मित्र ऐ0 ओ0 ह्यूम ने ’’असबाबे बगावत हिन्द’’  को देख कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। सर सैयद ने एक न्यायिक अधिकारी एवं भारतीय के रूप में एक मुसलमान की स्थिति से निर्दोष लोगो पर षडयन्त्रकारी अभियोगों को अनुचित ठहराया। ’’असबाबे-बगावत-हिन्द’’  न केवल निर्भीक व्यक्तित्व का प्रतीक है बल्कि दूर-दर्शिता और सुक्ष-बुझ का प्रत्यक्षप्रमाण है।
 सन् 1857 का काल हिन्दुस्तान पर गौणतः और मुस्लमानों पर मुख्यतः बड़ी यातनाओं का काल था। अंग्रेजों के विद्रोह के बाद बड़ी यातनाएं दी, जिसके कारण विशेषतः मुसलमानों में भय और असुरक्षा का वातावरण व्याप्त हो गया था। मगर सर सैयद के विवेकशील चिन्तन में अवरोध उत्पन्न होने के बजाय उनकी गतिको कदायित गन्तव्य का मार्ग दिखाई पड़ा। उनको यह आभास हो गया कि नया राजनीतिक ढ़ांचा अपने साथ अनेक अभिशापों के बावजूद वरदान भी लाया है और इन वरदानों को स्वीकार न करना आत्महत्या के तुल्य होगा। सर सैयद के समकालीन मुस्लमानों भी दयनीय स्थिति का सबसे बड़ा कारण यह था कि रूढि़गत शिक्षा पद्धति और आडम्बर युक्त कर्मकाण्डो को छाती से लगाये हुए थे। इसलिए सर सैयद ने सन् 1863 ई0 में ’’अल्तमासबखिदमत साकिना ने हिन्दुस्तान बाबते तरक्की तालीम अहले हिन्द’’  प्रकाशित किया ओर इसमें एक ’’साइंटिस्ट सोसाइटी’’  की स्थापना की। इस सोसाइटी का उद्देश्य अंगे्रजी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद प्रकाशित करना और पाश्चात्य शिक्षा का हिन्दुस्तान में लोकप्रिय बनाना था।  दिल्ली कालेज के बाद यह दूसरा बड़ा प्रयास था जो एक देशी भाषा को पाश्चात्य शिक्षा से मालामाल करने के उद्देश्य से किया गया था। सोसाइटी का कार्याकाल सर सैयद की नियुक्ति एवं स्थापना के साथ चलता रहा। ’’सन् 1866 ई0 में सर सैयद ने ’’इन्सटीट्यूट ग़जट’’ जारी किया जो अंग्रेजी और उर्दू दोनों में छपता था जिसका उद्देश्य समाज और प्रशासन को एक दूसरे के निकट लाना एवं देशवासियों में सोहार्दपूर्ण तथा रचनात्मक भावनाओं का प्रसार करना था।3
      यह गजट सर सैयद के देहान्त के समय तक नियमित रूप से निकलता रहा। इसमें इस समय के सभी मुख्य अखबारों के सन्दर्भ रहते थे। जिसके अध्ययन से आज भी हम उन्नीसवी शताब्दी की कठिनाइयों, समस्याओं एवं अभिव्यक्तियों का आकलन कर सकते है। सन् 1869 में सर सैयद ने वर्नाक्यूलर यूनीवर्सिटी का एक कार्यक्रम पार्लियामेन्ट को भेजा और इस पर बल दिया कि अंग्रेजी में शिक्षा देने के साथ सरकार एक अतिरिक्त विश्वविद्यालय स्थानीय भाषाओं में समस्त धार्मिक शिक्षा के लिए स्थापित करें। परन्तु सरकार ने इस प्रस्ताव को महत्व नहीं दिया।
सर सैयद इस धारणा पर कटिबद्ध होते जा रहे थे कि सामान्य रूप से समस्त हिन्दुस्तानियों और विशेष रूप से मुसलमानों को अतिशीघ्र आधुनिक शिक्षा अपना लेनी चाहिए न केवल उन्हें रोजगार मिले बल्कि वे पाश्चात्य शिक्षा से अनभिज्ञ भी र रहें। वह उनकी संस्कृति और साहित्य के गुणों को समझते और निष्कर्ष रूप से काल की गति और समय की पुकार से अपना सामंजस्य स्थापितकर सकें। सर सैयद ने अपने पुत्र सैयद महमूद को उच्चशिक्षा ग्रहण करने के लिये ब्रिटेन भेजा। सर सैयद ने भी ब्रिटेन की यात्रा की और उस प्रवास काल में उन्होंने वहाँ की हर वस्तु को ध्यान में देखा। पुस्तकालयों एवं शिक्षण संस्थानो से लाभ उठाया। ख्याति प्राप्त विद्धानों से मिले। विलियम म्योर की ’’लाइफ औफ प्रोफेट’’  के उŸार के लिये सामग्री तैयार की और छपवाया तथा ’’तहजीबुल एखलाक’’ की रूप रेखा तैयार की। उन्होंने इग्लैड से अपने मित्रो को जो पत्र लिखे उनके एक-एक शब्द से शैक्षणिक प्रेम, देशहित और दूर्दशिता का पता चलता है। उनका समस्त समय इग्लैड में विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं को देखने, सामाग्री संकलन करने या पुस्तकों के अध्ययन में व्यतीत हुआ। उस समय का इग्लैड अपनी प्रसिद्धी और ऐश्वर्य तथा औद्योगिक प्रगति की दृष्टि से चर्माेत्कर्ष पर था। सर सैयद ने इग्लैड से लौट कर दिसम्बर 1870 में स्टील और एडीसन के पदचिन्हो पर ’’तहजीबुल एख्लाक’’ निकाला जिसका निबन्ध इस प्रकार प्रारम्भ हुआ।
’’इस पर्चे के प्रकाशन का उद्देश्य यह है कि हिन्दुस्तान के मुस्लमानों को उच्च कोटि की सभ्यता अपनाने के लिये अग्रसर किया जा सके। ताकि जिस हेय दृष्टि से सभ्य समुदाय उनको देखता है, समाप्त हो और मुस्लमान संसार में प्रतिष्ठित और सभ्य समाज व जाति कहलाये।’’ ’’तहजीबुल एख्लाक’’  ने मुसलमानों की मानसिकता का नेतृत्व धर्म उपदेशकों और रईसों के बजाय मध्यम वर्ग के बुद्धजीवियों के हाथों में दी। यद्दपि इस पत्र का कुछ लोगो द्वारा घोर विरोध हुआ और सर सैयद को काफिर कहा गया तथा उनका कत्ल करने के फतवे दिये गये। फिर भी इस पत्र का प्रयाप्त प्रभाव हुआ और लोगो ने सर सैयद की निःस्वार्थ भावना को समझा तथा उनके रचनात्मक आवाह्न पर तेज गति से अग्रसर होते है।4
मोहम्मडन एंग्लो ओरियन्टल कालेज मदरसतुल उलूम स्थापित करने का विचार उन्हें इंग्लैण्ड की प्रसिद्ध आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों को देख कर हुआ। उनकी दृढ़ धारणा थी कि वह संस्था तीन अनुभागों में विभाजित हो। पहले विद्यालय अनुभाग के समस्त शिक्षण प्रशिक्षण का माध्यम अंग्रेजी हो, एक ऐसा समुदाय भी उत्पन्न हो जो सरकारी सरकारी पद प्राप्त किए हो और एक ऐसा भी समुदाय उत्पन्न हो जो अंग्रेजी दक्षता प्राप्त करे और इसकी सहायता से समस्त साहित्य अंग्रेजी से उर्दू में आ जाय। दूसरे प्रकार के विद्यालय में समस्त विस्तृत विषय उर्दू में पढ़ाया जाये ताकि वह लोग जो दूसरी भाषाओं में दक्षता प्राप्त नहीं कर सकते, अपनी मातृभाषा में ज्ञान प्राप्त कर सकें। तीसरे प्रकार के विद्यालय में अंग्रेजी और उर्दू विद्यालयों के शिक्षित छात्रों केा अरबी, फारसी तथा साहित्य में ज्ञानबर्धक करने के लिये अवसर प्रदान किया जाए ताकि छात्र मुसलमानों की प्राचीनतम धार्मिक और संस्कृतिक धरोहर को वर्तमान नस्लों तक पहुँचा सकें।
पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त करने के सम्बन्ध में जो लोग सर सैयद के विचारों से सहमत अथवा प्रभावित थे, उन लोगो  ने केवल प्रथम प्रकार की शिक्षण पद्धति में अधिक रूचि दिखाई। फलतः मदरसतुल उलूम एम.ए.ओ. कालेज स्थापित किया गया और उसने अभूतपूर्व प्रगति की।5
सर सैयद ने सन् 1875 में मौलवी समीउल्ला खाँ ने सहयोग से अलीगढ़ में एक छोटा सा विद्यालय स्थापित किया। सालभर के बाद वह पेंशन लेकर बनारस से आ गये और पूरी तन्मयता तथा तन-मन-धन से कालेज की स्थापना और उसकी प्रगति के कार्यक्रमों में लग गये। 8 जनवरी 1877 ई0 में लार्ड लिटन ने कालेज का शिलान्यास किया। 1878 में इस कालेज में स्नातक कक्षांए प्रारम्भ हुई। 1881 में एम0ए0 तथा 1883 में विधि की कक्षाएं खुली। इंग्लेण्ड से उच्च कोटि के अध्यापक विशेष सम्बन्धों एवं प्रयासों के आधार पर बुलाये गये। बैंक, मारेशन, अरनाल्ड और अल्टर रीले  के सहानुभूतिपूर्व प्रयासों से कालेज ने बहुत सीघ्र प्रगति की। छात्रो की शिष्ट व्यवहार एवं शालीनता तथा खेलकूद में अनकी विशेष उपलब्धि ने इस कालेज को देश के श्रेष्ठतम संस्थानों में स्थान दिया। सर सैयद ने अपने धार्मिक विचारों को कालेज के पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया बल्कि दीनीयात की शिक्षा प्रचलित माध्यम के आधार पर रखी ताकि संस्था का विरोध कम से कम हो।
प्रारम्भ से ही एम0ए0ओ0 कालेज में हिन्दू छात्र भी काफी संख्या में थे और सन् 1880 से 1981 ई0 तक हिन्दू और मुसलमानो छात्रों की आनुपातिक संख्या लगभग 7ः8 थी। कालेज के पहले ग्रेजुएट डा0 ईश्वरी प्रसाद थे। जे0सी0 चक्रवर्ती और पंडित विषणु शंकर की गणना विश्वविद्यालय के पहले श्रेष्ठ्तम अध्यापकों में है। सर सैयद मुसलमानों की शिक्षा के प्रत्येक अंग पर बराबर ध्यान देते रहे और इसी उद्देश्य से 1886 में उन्होंने ’’आल इण्डिया मुस्लिम कान्फ्रेन्स’’  की नींव डाली। इस कांफ्रेन्स के आधार पर पंजाब, बिहार और दक्षिण भारत के मुसलमानों को विचारों का अभिनव आलोक मिला। शिक्षा अब चचा की विषय बना।
राजाराम मोहन राय भारत के प्रथम शिक्षाविद एवं समाजसुधारक थे, जिन्होंने आधुनिक शिक्षा के महत्व को समझा और बल दिया। प्राचीन शिक्षा पद्धति और आडम्बर युक्त साहित्य को उन्होंने निरर्थक, हानिकारक और अयोग्य बताया था। सर सैयद का सुधारवादी व्यक्तित्व राजाराम मोहनराय जैसे अनेक क्रांतिकारी विचारको से सिमट कर बना था। जब हम सर सैयद के विरोध और मानसिक यातनाओं पर दृष्टि डालते है, तब उनका स्थान निःसन्देह भारत के अन्य शिक्षा शास्त्रियों, संस्थापको एवं सामजसुधारकों में सर्वश्रेष्ठ हो जाता है।
दूसरा कारण जो उनको विश्व के महान व्यक्तियों के सम्मुख उच्चतम स्थान का अधिकारी बनाता है, वह यह है कि उनमें विलक्षण दूरदर्शिता थी। वह स्वयं अंगे्रजी से अनभिज्ञ थे, उसमें अपने हस्ताक्षर मात्र कर सकते थे, अंगे्रजी की उपयोगिता को उन्होंने जिस सीमा तक हृदयंगम किया था उतना विश्व में किसी अन्य भारतीय ने अनुभव नहीं किया था। सर सैयद ने भविष्य के चरणों की चाप इतनी स्पष्ट सुन ली थी कि उन्होंने अपने कार्यो की आधारशिला उसी के अनुकूल बनाई। मुसलमानों ने अंगे्रजी के विरोध को धर्म से जोड़ा था और यह प्रचार किया जाता था कि अंगे्रजी पढ़ने से मुसलमान अधर्मी हो जाता है और ईसाई बन जाता है।6

सर सैयद द्वारा रचित पुस्तकों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -
1. शैक्षिक पुस्तकें।
2. ऐतिहासिक पुस्तकें।
3. धार्मिक पुस्तकंे।
1. शैक्षिक पुस्तकें -
प्ण् फ्वायदुल अफकार की अमाल्लि फरजार -छापाखाना सैयदुल अखबार दिल्ली से सन् 1846 ई0 में मुद्रित 99 पृष्ठों की यह पुस्तिका फारसी का अनुवाद है।
प्प्ण् कौलेमतीन दर इबतालेहरकत जमीन - सैयादुल अखबार दिल्ली से मुद्रित 28 पृष्ठों की पृथ्वी अपने धुरी पर अपने चतुर्दिक घूमने के सन्दर्भ में यह सिद्ध किया गया है कि पृथ्वी स्थिर है।
2. ऐतिहासिक पुस्तकें -
प्ण् जामेजम -लो धुग्राफिक अकबराबाद से सन् 1846 में 33 पृष्ठों का प्रकाशन मानचित्र के रूप में है जिससे अमीर तैमूर सेरबहादुर शाह जफ़र तक 43 बादशाहों का वर्णन है।
प्प्ण् अमारूलसनादीद -सैययदुल अखबार से 1847 ई0 में मुद्रित 48 पृष्ठों का इतिहास विषय का प्रमुख पुस्तक है। सर सैयद ने दिल्ली की ऐतिहासिक भवनों का विवरण दिया है।
प्प्प्ण् सिलसिलतुलमुलूक -छापाखाना अशरफुल मुताबे दिल्ली से सन् 1862 में प्रकाशित उन राजाओं और बादशाहो का वर्णन है। जो दिल्ली में 5 हजार वर्ष से शासन करते चले आये थे। इसमं राजा युद्धिष्ठिर से लेकर वर्तमान अंग्रेजी शासन तक 202 शासको का पिता का नाम, सन्, राजधानी इत्यादि का वर्णन है।
प्टण् सरकशी जिला बिजनौर -यह छापाखाना मफसन लाइट प्रेस आगरा सन् 1858 में मुद्रित एवं प्रकाशित 145 पृष्ठों की पुस्तक है। इसमें बिजनोर का इतिहास लिखा गया है।
टण् अशबाबेबगावत -छापाखाना मुफीदे आमसे सन् 1859 में मुद्रित 86 पृष्ठों इस पुस्तक में सन् 1857 के विद्रोह का जिम्मेदार अंगे्रजी शासन को ठहराया गया है।
टप्ण् डा0 हण्टर की किताब पर रिव्यू -यह समीक्षा सन् 1871 में हेनरी एस0 किंग द्वारा लन्दन से प्रकाशित बनारस में लिखि गई थी। इसमें डा0 हण्टर ने मुसलमानों के धार्मिक विचारों का वर्णन किया है।
टप्प्ण् आइने अकबरी - 1972 ई0 में इस्माइल प्रेस दिल्ली से प्रकाशित सम्राट अकबर के दरबारी विद्वान अबुल फ़जल द्वारा लिखित  प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ की प्र्रस्तुति के रूप मं इस पुस्तक में लेखक ने मुगलों के राजकीय आभूषणों के चित्रों, मुगल बादशाहों के निवास स्थान और उस काल के विशेष फुलदानों और फूलदार पेड़ो का वर्णन किया है।
टप्प्प्ण् तारीख फीरोज शाही- यह पुस्तक एशियातिक सोसाइटी कलकŸाा से 1862 ई0 में प्रकाशित हुई। यह सुल्तान गयासुद्दीन बलबन से सुल्तान फिरोजशाह तक को मुख्य आठ बादशाहों का वर्णन है।
3. धार्मिक पुस्तकें -
प्ण् जेलाउल कोलूब बे जि़करिल महबूब - 1258 हिजरी में लेथो ग्राफिक प्रेस दिल्ली से छपी और एक छोटे से रेसाले के रूप में लिखि गई यह पुस्तक मोहम्मद साहब के जन्म, देहावसान व उनके जीवन से सम्बन्धित रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालती है।
प्प्ण् तोहफये हसन - यह पुस्तक 1260 हिजरी में इन्स्टीच्यूट प्रेस अलीगढ़ से प्रकाशित हुई।
प्प्प्ण् तहसील फी जुर्रिस सकील - यह रेसाला 1844 ई0 में यतीमों का छापाखाना आगरा में छपी।
प्टण् कलेमतुलहक - 1849 इन्स्टीच्यूट प्रेस अलीगढ़ में प्रकाशित हुई।
टण् राहे सुन्नत दर रद्दे बिदअत -1850 ई0 इन्स्टीच्यूट प्रेस अलीगढ़

1. भटनागर एस. के. ’’हिस्ट्री आॅफ एम.ए.ओ. , कालेज, अलीगढ़’’ सर सैयद हाल अलीगढ़ मुस्लिम यूर्निवसिटी एशिया पब्लिशिंग हाऊस बम्बई सन् 1969 पृष्ठ- 1
2. नकवी, नुरूल हसन, ’’सर सैयद और हिन्दुस्तानी मुसलमान’’  एजुकेशन बुक हाऊस अलीगढ़ 1975 पु0 224
3. इल्ताफ हुसैन हाली ’’तहजीबुल एख्लाक’’ ओबेहयात सर सैयद अहमद खाँ उर्दू, नई दिल्ली
4. ख्वेशगी, मुहम्मद अब्दुल्ला खाँ, ’’मकालात सर सैयद’’ नेशनल प्रिंटर्स कम्पनी अलीगढ़ 1952  पृ0 45
5. हाली इल्ताफ हुसैन खाली ’’हयाते जावेद’’ आबेहयात सर सैयद अहमद खाँ उर्दू बोर्ड नई दिल्ली पृ0 211
6. भटनागर एस. के. ’’हिस्ट्री आॅफ एम.ए.ओ. , कालेज, अलीगढ़’’ सर सैयद हाल अलीगढ़ मुस्लिम यूर्निवसिटी एशिया पब्लिशिंग हाऊस बम्बई सन् 1969 पृष्ठ- 75

डा0 इलियास आज़मी - ’’दारूल मुसन्नफीन की तारीखी खिदमात’’ खुदाबख्श ओरियन्टल पब्लिक लाइब्रेरी पटना 2005
डा0 जावेद अली खान ’’उर्दू हिस्ट्रीओग्राफी’’ खुदाबख्श ओरियन्टल पब्लिक लाइबे्ररी पटना 2005
डा0 निशात परवीन- ’’उन्नीसवीं सदी के मुस्लिम शिक्षाविदो का आधुनिक भारतीय भारतीय शिक्षा में योगदान।’’  दी कम्प्यूटाइप मीडिया नई दिल्ली सितम्बर 1996।
अली मीर नजबत अली, ’’सर सैयद अहमद खां’’ नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशनल रीसर्च एण्ड टेªनिंग, नई दिल्ली, 1969।
मोहम्मद यासीन मज़हर सिद्दीकी ’’सर सैयद और उलूमे इस्लामिया’’ इन्टरनेशनल प्रिंटीग प्रेस अलीगढ़ 2001
मुहम्मद खान, (एडीटर) ’’राइटिंग एण्ड स्पीचेज़ आफ सर सैयद अहमद खां’’, नेखीकेता पब्लिकेशन्स, बम्बई, 1972।
ग्ऱाहम, जी.एफ.आई, ’’द लाइफ आफ सर सैयद खां,’’ इदाराह-ई-अदाबियत- ई- दिल्ली, 1974।