Saturday 2 January 2010

छठी शताब्दी ई0पू0 में सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन


राजीव कुमार 
शोध छात्र, प्राचीन इतिहास विभाग,
उ0प्र0 रा0 टण्डन मुक्त वि0वि0, इलाहाबाद।


छठी शताब्दी ई0 पू0 आते-आते लौह तकनीक पर आधारित नवीन कृषि प्रणाली के कारण उत्पादन अधिशेष प्राप्त होने लगा। यह बड़ी बस्तियों के प्रादुर्भाव में अत्यंत सहायक सिद्ध हुई। कृषि के विकास के अतिरिक्त लौह उपकरणों के बढ़ते प्रयोग से अनेक शिल्पों तथा उद्योग धंधों में भी प्रगति हुई। फलस्वरूप व्यवस्थापनों का पर्याप्त विकास तो हुआ ही नगरीकरण की युगांतरकारी प्रक्रिया भी उत्तरपूर्व भारत में प्रारम्भ हुई। इसी काल में मुद्रा (आहत-मुद्राओ) के प्रचलन के कारण व्यापार में भी व्यापक विस्तार हुआ।
कृषि तथा व्यापार में आये इस क्रान्तिकारी परिवर्तन ने कबायली जीवन की परम्परागत मान्यताओं पर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया। पूर्वोत्तर भारत का प्राचीन जनजातीय जीवन नए सामाजिक तथा आर्थिक ढाँचें के लिए उपयोगी नहीं रह गया था। इन व्यापक भौतिक परिवर्तनों के चलते वैदिक संस्कृति के अनेक तत्व यथा जाति-व्यवस्था, संस्कारवाद, पुरोहितों की महत्ता तथा वेदवाद अर्थहीन हो गये थे, क्योंकि वे सामाजिक विकास में बाधक हो रहे थे। उत्तर-पूर्व भारत में 6वीं शती ई0 पूर्व में धार्मिक-बौद्धिक आन्दोलनों ने वैदिक संस्कृति के अर्थहीन हो चुके इन्हीं तत्वों को अपने आन्दोलन का प्रहार बनाया। शासक एवं व्यापारी वर्ग ने इस आन्दोलन को अपना पूरा सहयोग प्रदान किया।1
छठी शताब्दी ई0पू0 में गंगाघाटी में जहाँ एक तरफ साम्राज्यवाद का उदय हो रहा था, ठीक उसी समय, अनेक नए धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। जिस प्रकार साम्राज्यवादी गतिविधियों का केन्द्र मगध बना उसी प्रकार नवीन धार्मिक गतिविधियों का भी केन्द्र मगध ही बना। छठी शताब्दी ई0पू0 के धर्म सुधार-आन्दोलन की पृष्ठभूमि उत्तर वैदिक काल के अन्त तक तैयार हो चुकी थी। तत्कालीन सामाजिक विद्वेष के वातावरण, आर्थिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों एवं आडम्बरों ने सुधार-आन्दोलन को शुरु कर दिया। उपनिषदों के क्रान्तिकारी उपदेशों एवं विवेचनशील धार्मिक नेताओं के अभ्युदय ने इस धर्म सुधार आन्दोलन को आन्दोलित किया।
उत्तर वैदिक काल से वर्ण व्यवस्था जटिल से जटिलतर होती चली गई। छठी शताब्दी ई0पू0 आते-आते समाज स्पष्टतः दो वर्गों -सुविधा भोगी और सुविधा विहीन में विभक्त हो गया। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय सुविधाभोगी और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बन गये। समाज के अन्य दो वर्गों वैश्य और शूद्र को निम्न दर्जा प्रदान था। यद्यपि वैश्यों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। राज्य के प्रमुख करदाता भी वही थे, तथापि उनका सामाजिक दर्जा प्रथम दो वर्गों से नीचे था। सबसे बुरी अवस्था शूद्रों की थी, जिन्हें तीनों वर्णों की सेवा करनी पड़ती थी और उनका कोपभाजन भी बनना पड़ता था। इस दौर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के आपसी सम्बन्ध भी बहुत अच्छे नहीं थे। क्षत्रिय ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिससे समाज में उनका दर्जा ऊपर हो सके और ब्राह्मणों पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके। ऐसी व्यवस्था तभी सम्भव थी जब समाज पर से पुरानी धार्मिक मान्यताओं का प्रभाव समाप्त किया जा सके। इस प्रकार के तनावपूर्ण सामाजिक वातावरण में ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य सभी वर्ग विद्यमान व्यवस्था से असंतुष्ट थे। इन सभी वर्गों ने धर्मसुधार आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।2
तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध असन्तोष की भावना ने भी इस दौर के धर्मसुधार आन्दोलन को उद्वेलित किया। उत्तर वैदिक युग में धर्म यज्ञ और बलि प्रधान बन चुका था। धार्मिक क्रियाकलापों पर पुरोहितों का वर्चस्व था। इससे उनकी शक्ति और सम्पत्ति में वृद्धि हुई। इतना ही नहीं यज्ञों में बड़े पैमाने पर पशुओं की बलि ने कृषि-व्यवस्था को प्रभावित किया, जिसका बुरा प्रभाव अर्थव्यस्था पर भी पड़ा। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि पुरोहित वर्ग सबको नैतिकता एवं धार्मिक भक्ति की सीख दे रहा था, परन्तु स्वयं उस मार्ग से दूर रहकर सुख सुविधा एवं विलास का जीवन व्यतीत कर रहा था। ऐसी स्थिति में कर्मकांडों धर्म, और पुरोहितों के अनुचित आचरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था।
छठी शताब्दी ई0पू0 में अस्तित्व में आए नए धर्मों के उदय का वास्तविक कारण उत्तर-पूर्वी भारत में प्रकट हुई नई कृषि-व्यवस्था थी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व आते-आते कृषि-कर्म आर्यों का मुख्य व्यवसाय बन गया था। इस दौर में कृषि में लौह के प्रयोग ने कृषि के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी थी। लौह-तकनीक के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि हुई। इस उत्पादन अधिशेष ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। इसी का परिणाम था कि इस दौर में विभिन्न व्यवसायों, व्यापार, सिक्कों का प्रचलन एवं नगरों का उदय हुआ। भारतीय कृषि में पशुधन का बहुत अधिक महत्व था। परन्तु यज्ञ एवं बलि-प्रधान धर्म में पशुधन का सफाया बहुत बड़ी संख्या में हो रहा था। निश्चित रूप से पशुधन की सुरक्षा के बिना समस्त आर्धिक व्यवस्था ही नष्ट हो जाती। पशुधन की सुरक्षा तत्कालीन प्रचलित रूढि़वादी धार्मिक मान्यताओं के अन्तर्गत नहीं हो सकती थी। ऐसे में पशुधन की सुरक्षा (अहिंसा) को मुख्य आधार बनाकर नई विचारधाराओं ने जनसमुदाय के एक बड़े भाग को वैदिक धर्म से विमुख कर दिया।
इस दौर में तेजी से प्रभावी होती अर्थ व्यवस्था ने दूसरी तरह भी धर्म सुधार आन्दोलन को प्रभावित किया। नए व्यवसायों के उदय, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति, सिक्कों का प्रचलन सूद एवं कर्ज की प्रथा, नगरों के उदय एवं नागरिक जीवन के विकास के अन्य आवश्यक तत्वों को कट्टरपंथी ब्राह्मण ग्रन्थ घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। समकालीन समाज में प्रचलित इन परम्परागत मान्यताआंे का सबसे अधिक बुरा प्रभाव वैश्यों पर पड़ रहा था। अतः नवोदित वैश्य वर्ग अपने हितों के सुरक्षार्थ समस्त वैदिक धर्म एवं पुरोहितों का विरोधी बन बैठा, और इसी वर्ग ने नए धार्मिक सम्प्रदायों के विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान दिया।3
समकालीन विश्व के अन्य भागों में होने वाले धार्मिक आन्दोलनों की भाँति भारत में धार्मिक आन्दोलन भी सुधारवादी स्वरूप का था। जिस प्रकार प्राचीन काल में चीन और ईरान के धर्म सुधार आन्दोलन के प्रणेताओं और मध्यकालीन यूरोप के धर्म सुधारकों ने तत्कालीन धर्म में प्रविष्ट बुराईयों और पुरोहितों के अत्याचारों से जनता को त्राण दिलाया। उसी प्रकार का कार्य भारतीय धर्म सुधारको ने भी किया। इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप भारत में दो नास्तिक सम्प्रदायों-जैन एवं बौद्ध का उदय और विकास हुआ, जिसने भारतीय इतिहास और संसकृति को प्रभावित किया। इन नये सम्प्रदायों के नेताओं ने वेदवाद का विरोध किया। ब्राह्मणों की प्रभुता को चुनौती दी, जाति प्रथा पर प्रहार किया तथा अहिंसा पर बल दिया। दोनों ने वैदिक धर्म की कुरीतियों पर अघात करने के साथ-साथ धार्मिक अतिवादियों के सिद्धान्तों का भी खण्डन कर नये धर्मों को सबके लिए सहज एवं ग्राह्य बनाया।
छठी शताब्दी ई0पू0 में अस्तित्व में आए जैन तथा बौद्ध धर्मों ने नवीन कृषि प्रणाली के विकास में बाधक वैदिक यज्ञों का विरोध किया। इसके साथ ही इन धर्मों के प्रवर्तकों ने समकालीन अनेक परिव्राजक सम्प्रदायों के अतिवादी तथा व्यवस्था जनक मतों का खण्डन किया। साथ ही नई उत्पादन तकनीक पर विकसित हो रहे समाज को वैचारिक तथा धार्मिक समर्थन भी दिया।4
इस दौर में नास्तिक सम्प्रदायों के बढ़ते प्रभाव से बचने के लिए वैदिक धर्म में भी सुधार की आवश्यकता महसूस की गई। फलतः ब्राह्मण धर्म या वैदिक धर्म के अन्तर्गत भागवत सम्प्रदाय (वैष्णव धर्म) और शिवभागवत सम्प्रदाय (शैव धर्म) का भी उदय हुआ इन दोनों सम्प्रदायों ने ब्राह्मण धर्म का परिवर्तित एवं संशोधित स्वरूप पेश किया। बौद्ध और जैन धर्मों की ही तरह इन दोनों धर्मों का भरी भारतीय इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा।5
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. श्रीवास्तव, के0सी0, प्राचीन भारत का इतिहस तथा संस्कृति, यूनाइटेड बुक डिपो, इला, वर्ष 2005-06, पृ0-210
2. डाॅ0 मुकर्जी राधामुकुन्द, हिन्दू सभ्यता, अनु0 वासुदेव शरण अग्रवाल, राजकमल प्रका, दिल्ली, 1975, पृ0-233
3. चोपड़ा पी0 एन0, पुरी बी0 एन0 तथा दास एम0 एन0, भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास, मैकमिलन इंडिया लिमिटेड न्यू देहली, 1998, पृ0 स0-27
4. डाॅ0 सत्यदेव शोभा भारतीय पशुलिपि, अभिलेख एवं मुद्राएं, मूलचन्द्र एण्ड ब्रदर्स, फैजाबाद, 1992, पृ0-2
5. मिश्र श्याम मनोहर, दक्षिण भारत का राजनैतिक इतिहास, विश्व प्रकाशन न्यू दिल्ली, 1995, पृ0-334।