Saturday 2 January 2010

मानवता के पथ-प्रदर्शक- स्वामी विवेकानन्द


डा0 कुलदीप कुमार
रीडर, शिक्षा विभाग, फोर्ट इन्स्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलोजी,
मवाना रोड, मेरठ।


महान कर्मयेागी स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के सिमुलियापल्ली में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुवनेश्वरी था। बचपन से ही परिवार के उदात्त संस्कार एवं आध्यात्मिक परिवेश का इनके ऊपर व्यापक प्रभाव पड़ा। उनमें सहानुभूति, सहृदयता, सात्विकता और आध्यात्म वृत्ति के गुण जन्म से ही आ गये। और उनके जीवन में उत्तरोत्तर विकसित होते गये। भारत की धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रति उनकी गहन जिज्ञासा थी और शीघ्र ही भारतीय चिन्तन के मूलभूत विचारों का उन्होंने विशद् ज्ञान प्राप्त कर लिया।1
नवम्बर 1881 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट ने उनके जीवन में एक क्रान्तिकारी मोड़ लाई जिसके फलस्वरूप नरेन्द्रनाथ से वह स्वामी विवेकानन्द बन गये। उन्होंने यह प्रण किया कि वे अपना जीवन गुरू के सन्देश के प्रचार में लगायेगें। स्वामी विवेकानन्द एक तेजस्वी संन्यासी थे।स्वामी विवेकानन्द ने कहा -मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं करता जो न विधवाओं के आसूं पोंछ सकता है और न अनाथों को रोटी दे सकता है।2
स्वामी जी भारत की तत्कालीन दुर्दशा से आहत थे और दूसरों को पीडि़त देखकर रो पड़ते थे। वे निर्बल वर्ग के उत्थान के हिमायती थे उन्होंने कहा कि - दुर्बल की सहायता पहले होनी चाहिए। भारतीय समाजवादी चिन्तक के प्रणेता स्वामी जी संन्यासी होते हुए भी कभी अपने लिए मोक्ष की कामना नहीं की। वे अपना सारा जीवन मानव सेवा में समर्पित कर अपने को धन्य मानते थे वे अपने शिष्यों को सदैव कहा करते थे तेरा काम है- जाति वर्ग का विचार छोड़कर दीन-दुखियों की सेवा करना- उसका परिणाम क्या होगा, क्या न होगा यह सोचना तेरा काम नही है। तेरा काम है सिर्फ करते जाना- फिर सब अपने आप ही ठीक हो जायेगा उन्होंने उद्घोष किया कि ”उठो जागो- आत्म निर्भर बनो“। स्वामी विवेकानन्द शक्ति के उपासक थे उनका मानना था कि निर्बल को कुछ नहीं मिलता अतः ”शक्तिशाली बनो, संगठित बनो, पवित्र बनो“। यदि तुम पवित्र हो, यदि तुम सशक्त हो, तो तुम एक, समस्त संसार के बराबर हो।3
स्वामी जी कहते थे की दूसरे के गुणों को देखो। दूसरो में बुराई मत देखो, बुराई अज्ञान है, दुर्बलता है। लोगों को यह बताने से क्या लाभ कि वे दुर्बल है। आलोचना एवं खण्डन से कोई लाभ नही होता। तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्द के भागी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। उठो साहसी बनो, वीर्यवान होओ, सब उत्तदायित्व अपने कन्धो पर लो- यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। उठो, जागो, स्वंय जगकर औरों को जगाओ। अपने जन्म को सफल करो। ”उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य व्ररान्निबोद्यतः“। उठो जागो और तब तक रूको नही, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।“4
स्वामी विवेकानन्द के सभी व्याख्यानों का सार दीन-दुखियों और पीडि़तों की सहायता करना है जो परम धर्म है। सभी उपासनाओं का उद्देश्य पवित्र रहना व दूसरों की भलाई करना है। बिना धर्म व जाति का विचार किये असहायों की सेवा करना, सच्चा धर्म पालन करना है। निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाला ही सच्चा भक्त है।5 स्वामी जी ने साम्प्रदायिक कट्टरता, धर्मान्घता, जाति प्रथा तथा बाल विवाह की भत्र्सना की।6 उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान को सर्वोपरि माना। इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड़ सिद्धान्तों को मिटाने का आग्रह किया। युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओं, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करों ताकि स्वस्थ एवं पुष्ट शरीर से धर्म-आध्यात्म ग्रंथो में बताये आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फैलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।7
स्वामी जी ने शिक्षा को अध्यात्म से जोड़कर कहा कि ”जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि विकसित होे और जिससे मनुष्य अपने पैरांे पर खड़ा हो सके।“8 भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से जगाया और कहा कि ”मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूँ, यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोड़ा सा भी उठा सकूं।“9
इस प्रकार एक सच्चे भारतीय संत की मर्यादा के अनुरूप स्वमाी जी ने अशिक्षा, अज्ञान, तथा भूख से लड़ने के लिऐ अपने समाज को तैयार किया। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना जगाने, साम्प्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने की एक आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाया। 4 जुलाई सन् 1902 में 35 वर्ष की अल्पायु में इनकी इहलीला समाप्त हुयी।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. डाॅ0 अग्रवाल रीता द्वारा संकलित शिक्षक पत्रिका विषेषांक प्रका0 अखिल भारतीय शिक्षक पत्रिका, मेरठ, पृ0-210
2. दीक्षित आर0सी0 द्वारा संकलित, समाजवादी बुलेटिन, प्रकाशन मार्च-2004, पृ0-37-38
3. स्मामी विवेकानन्द कर्मयोग प्रकाशक रामकृष्ण मठ, नागपुर
4. दीक्षित आर0सी0 द्वारा संकलित, समाजवादी बुलेटिन, प्रकाशन मार्च-2004, पृ0-37-38
5. डाॅ0 अग्रवाल रीता द्वारा संकलित शिक्षक पत्रिका विषेषांक प्रका0 अखिल भारतीय शिक्षक पत्रिका, मेरठ, पृ0-210
6. डाॅ0 कुमार कुलदीप द्वारा संकलित शोध ग्रन्थ प्रकाशक मेरठ,
7. डाॅ0 बंशी बलदेव, दैनिक समाचार पत्र, दैनिक जागरण के धर्म एवं आध्यात्म विशेषांक से उद्धृत पृ0-10
8. स्मामी विवेकानन्द, शिक्षा, प्रकाशक रामकृष्ण मठ, नागपुर
9. डाॅ0 बंशी बलदेव, दैनिक समाचार पत्र, दैनिक जागरण के धर्म एवं आध्यात्म विशेषांक से उद्धृत पृ0-10