Saturday 2 January 2010

‘‘प्रागैतिहासिक और आद्य-एैतिहासिक संस्कृतियाँ’’ ( एक संक्षिप्त अध्ययन)


रमाकान्त उपाध्याय 
शोध छात्र, इतिहास एवं पुरातत्व विभाग,
बरेली कालेज, बरेली।



प्रत्येक देश या राष्ट्र की अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ होती हैं। सांस्कृतिक उपलब्धियों की दिशा दार्शनिक चिन्तनधारा द्वारा निधारित होती हैं। दार्शनिक चिन्तनधारा उसके देशकाल, भौगोलिक परिवेश और परिस्थितियों की उपज मानी जाती हैं। नदियों की बहुलता प्राकृतिक मनोरम दृश्य और उर्वरा शक्ति वाले देश की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक होती हैं। भारतीय चिन्तनधारा इसी प्रकार की रही है इसीलिए इसने सम्पूर्ण विश्व को एक साँस्कृतिक इकाई के रूप में देखा और ‘सर्वेभवन्तु सुखिनः’ तथा ‘बसुधैवकुटुम्बकम्’ का आह्वान किया। भारत प्राचीनकाल से ही एक साँस्कृतिक इकाई रहा है। परिणामस्वरूप इसका साँस्कृतिक एकीकरण करने के उद्देश्य से ही आदि शंकराचार्य ने चार दिशाओं में चार आध्यात्मिक केन्द्रों ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ), श्रृंगेरीमठ (मैसूर), गोवर्धनमठ (पुरी), शारदामठ (गुजरात) की स्थापना की थी। अनेक बार कई संस्कृतियों का एक दूसरे में सम्मिलन भी हुआ है लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने न केवल अपने मौलिक स्वरूप की रक्षा की है वरन् मानवता के कल्याण व शान्ति स्थापित करने में अपना योगदान देते हुये अपना समन्वित स्वरूप विकसित किया है।
सभ्यता व संस्कृति के निहितार्थ मे संस्कृति एक गति, प्रवाह एवं सतत् विचारधारा है। सभ्यता के श्रेष्ठ गुणों को ही संस्कृति कहते हैं जो संस्कारों से आती है अर्थात् सभ्यता का परिष्कृत स्वरूप ही संस्कृति कहलाता है जो मानव का आन्तरिक अमूर्त पक्ष होता है। जबकि सभ्यता मानव के भौतिक व बाह्य या मूर्त पक्ष का द्योतक है। प्रसिद्ध विद्वान मैकाइवर और पेज का कथन है कि‘‘जो हम है, वह संस्कृति है और जो हमारे पास है वह सभ्यता है’’ अर्थात मानव ने अपने जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए जिन भौतिक उपादानों का निर्माण किया उसे सभ्यता पुकारते हैं। सामान्यता यह देखा जाता है कि सभ्यता संस्कृति से पहले आविर्भूत हुई नजर आती है लेकिन यदि वास्तव में ध्यान से देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति के बाद ही सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ है। इसीलिए हम इतिहास विकास क्रम में प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से आद्य-ऐतिहासिक संस्कृतियों की ओर चलते हैं जिससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि संस्कृति सभ्यता का प्राक्रूप है।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सिंहावलोकन करे तो पुरापाषाणकालीन निरक्षरमानव आखेटक व खाद्य संग्राहक हुआ करता था लेकिन कन्दराओं में निवास करते हुए उसके द्वारा विविध प्रकार की चित्रकारियाँ की गयीं जिसमें भीमबेटका, आदमगढ़, रायगढ़, मिर्जापुर की गुफा चित्रकारियाँ पूरे संसार में प्रसिद्ध रही हैं। इसमें भीमवेटका को तो यूनेस्को के द्वारा 2003 ई0 में विश्वधरोहर की सूची में भी शामिल कर लिया गया है। इलाहाबाद की बेलन घाटी प्राप्त होने वाली इकलौती मात्र देवी की प्रतिमा आज भी संग्रहालय में लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। मध्य पाषाण-काल में पशु पालन मानव की महान उपलब्धि रही है। अन्ततः नव पाषाण काल में पहुँचकर मानव खाद्य-उत्पादक भी हो गया। मानव के आचार-विचार, व्यवहार और क्रियाकलाप में अभूतपूर्व परिवर्तन आये। मानव कृषिकर्म, मृद्भाण्डकला, वस्तनिर्माण, भवन निर्माण की कला तथा अग्नि का निश्चत प्रयोग करने लगा। इन्ही परिवर्तनों के कारण ही गार्डनचाइल्ड महोदय ने इसे नवपाषाणकालीन क्रान्ति पुकारा था।
पाषाणकालीन मानव के क्रमिक विकास को परिलक्षित करने के लिए 1863 ई0 में ल्यूबक महोदय ने इसे पूर्वपाषाण और उत्तरपाषाणकाल में विभाजित किया। आगे चलकर 1866 ई0 में वैस्ट्राफ महोदय ने पूर्वपाषाण और उत्तरपाषाण के बीच, मध्यमाषाण शब्द का प्रयोग किया। राजस्थान का बागोर और मध्यप्रदेश का आदमगढ़ पूरे विश्व में पशुपालन के लिए चर्चित रहा। इसी प्रकार मृदभाण्ड और वृत्ताकार झोपडि़यों के प्राचीनतम मध्यपाषाणकालीन पुरास्थल इलाहाबाद के चोपानीमाण्डों से प्राप्त हुआ। आभूषणयुक्त मानव समाधियाँ और मृगश्रृंग के छल्लों की माला महदहा की उपलब्धि रही है। नवपाषाणकालीन पुरास्थल कोल्डिहवा (इलाहाबाद की बेलनधाटी) न केवल भारत में वरन् विश्व में धान की भूसी और चावल के लिए चर्चित रहा। नवपाषाणकालीन पुरास्थल कश्मीर का बुर्जहोम और गुफ्फकराल गर्तावास के लिए प्रसिद्ध रहा है।
प्रागैतिहासिककालीन संस्कृति और आद्य ऐतिहासिक संस्कृतियों के मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जिन खेतिहर व ग्रामीण संस्कृतियों का जन्म हुआ। उसे राजस्थान में बनास संस्कृति, मध्य प्रदेश में मालवा संस्कृति, महाराष्ट्र में जोरवे संस्कृति, गुजरात में प्रभास संस्कृति और उत्तर प्रदेश में ताम्र संचयी संस्कृति के नाम से तथा समग्र रूप में इसे ताम्र पाषाणिक संस्कृति के नाम से सम्बोधित किया जाता है। उ0प्र0 के सैफई, बिसौली, बिठूर, बहेड़ी और मेरठ के राजपुरपरशु आदि क्षेत्रों में यह संस्कृति देखने को मिलती है। इन्हीं प्राचीनतम ताम्रपाषाणकालीन ग्रामीण संस्कृतियों से कालान्तर में नगरीय संस्कृति का प्रादुर्भाव होता है। भारत की प्राचीनतम सिंचाई व्यवस्था कृत्रिम नहर और गोलाकार झोपडि़यों का साक्ष्य जोरवे संस्कृति के इनामगाॅव से प्राप्त हुआ।
जहाँ तक आद्य ऐतिहासिक सभ्यता और संस्कृति के समग्र अवलोकन का सवाल है तो प्रथम नगरीय क्रान्ति के संवाहक सैंधव निवासियों के विभिन्न पहलुओं की जानकारी उत्खनन में प्राप्त मुहरों, मूर्तियों और मृदभाण्डों से होती है। उपलब्ध स्रोतों के आधार पर सैंधव निवासी को बहुदेववादी प्रकृतिपूजक, मातृदेवी और पशुपति शिव के उपासक माने जाते है, उनके द्वारा पशुपूजा, वृक्षपूजा, योनिपूजा, प्रतीक चिह्नों की पूजा, लिंग पूजा, सरितापूजा और नागपूजा आज भी अपना सातत्य व निरन्तरता बनाये हुए हैं। सैंधव सभ्यता में उपलब्ध मोहरों पर योगिक मुद्रा के अंकन से योग की परम्परा के प्रचलन का साक्ष्य मिलता है जबकि कालान्तर में योग की परम्परा के प्रवर्तक महर्षि पातंजलि को माना जाता है। सैन्धव निवासियों के द्वारा नीम, बबूल, पपीता, तुलसी, बेल और पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती थी। अपने औषधीय गुणों के कारण आज भी ये वृक्ष वन्दनीय और पूज्यनीय हैं। तकनीकी कलात्मक सांस्कृतिक और धार्मिक उपलब्धियों को देखकर यह कहा जा सकता है कि जीवन का शायद ही कोई ऐसा अंग रहा होगा जो सैंधव सभ्यता में मौजूद न रहा हो। नगर नियोजन, व्यापार वाणिज्य, समकोण पर सड़कों का कटाव, मापतौल आदि में मानकीकरण के क्षेत्र में सैंधव सभ्यता का कोई सानी नहीं था। मूर्तिकला, धातुकला, मुद्राअंकन, मृदभाण्डकला में सैंधव सभ्यता जगत् विख्यात रही है।
आर्येत्तर सभ्यता में ग्रहण लगने के बाद भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में जिस संस्कृति का उद्भव और विकास हुआ उसे वैदिक संस्कृति पुकारा जाता है। वैदिक संस्कृति के निर्माता आर्य माने जाते हैं। ‘‘आर्य’’ शब्द वर्ग और जाति का संकेतक न होकर भाषायी आधार को प्रस्तुत करता है। आर्य सभ्यता के जिन मौलिक तत्वों का प्रादुर्भाव ऋग्वैदिक काल में हुआ उनका विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। ऋग्वैदिक काल में शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था जिसका प्रधान गोप या राजन होता था, लेकिन यह प्रारम्भ में निरंकुश नहीं था क्योंकि सभा और समिति नामक, लोकतांत्रिक संगठन इस पर नियंत्रण स्थापित करते थे। सैन्य व्यवस्था, राजस्व व्यवस्था, न्याय व्यवस्था के साथा ही साथ ऋग्वैदिक काल में नौकरशाही का भी विकास नहीं हो पाया था। पुरोहित, सेनानी और ग्रामणी नामक रत्निन राजा के सहयोगी होती थे। परिवार न केवल समाज वरन् राजनीति की भी मौलिक इकाई थी जिसका प्रमुख कुलप कहलाता था। कुलों के समूह से गाँव बनता था जिसका प्रमुख ग्रामणी था। गाँव का समूह विश कहलाता था जिसके प्रमुख को विशपति पुकारा गया, विशों का समूह जन कहलाता था जिसका प्रमुख राजन होता था। जनता द्वारा राजा को जो स्वेच्छा से भेंट या चढ़ावा दिया जाता था उसे बलि कहा जाता था। रावी नदी के तट पर लड़ा जाने वाला दासराज्ञ युद्ध इस समय का पहला राजनीतिक युद्ध था। इसी युद्ध में विजेता भरत और पुरुजन में जब समझौता हुआ तो ‘कुरु’ नामक क्षेत्रीय इकाई का जन्म हुआ। इसी प्रकार आगे चलकर क्रिवि ने तुर्वसु को पराजित किया। परिणामस्वरूप दोनों के सम्मिलन से पाँचाल का प्रादुर्भाव हुआ। यही बाद में कुरु-पाँचाल नामक जुड़वां महा-जनपद के नाम से चर्चित रहा।
ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा उत्तरवैदिककालीन आर्यों के राजनीतिक जीवन के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। जैसे कबिलाई संरचना के स्थान पर क्षेत्रीय इकाईयों का जन्म होने लगा, आर्य सप्तसैंधव से आगे बढ़कर, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश और अन्ततः आर्यावर्त के निवासी हो गये, राजपद वंशानुगत होने लगा और राजा भी धीरे-धीरे निरंकुश होने लगा, सभा और समिति की महत्ता घटने लगी और नौकरशाही का विकास होने लगा जिसके कारण रत्निनों की महत्ता बढ़ने लगी। सैन्य, न्याय, राजस्व और शासन, प्रशासन के क्षेत्र में भी थोड़े बहुत परिवर्तन दिखायी देने लगे अर्थात् राजनीतिक संरचना जन से जनपद की ओर बढ़ने लगी, फलताः राजा किसी कबीले या जन्म का राजा न होकर क्षेत्रीय इकाई का राजा बनने लगा लेकिन राजतंत्र का वास्तविक स्वरूप महाजनपद काल में ही देखने को मिलता है। इस प्रकार उत्तरवैदिक काल में आने वाले विविध परिवर्तनों का ही व्यापक प्रभाव परवर्ती सभ्यता व संस्कृति पर व्यापक रूप से देखने को मिलता है।
ऋग्वैदिक आर्य का जीवन नितान्त प्रवृत्तिमार्गी, बहुदेववादी, उपयोगितावादी और व्यवहारवादी था। प्रवृत्तिमार्ग के कारण ही उनके जीवन में संन्यास और गृहत्याग का कोई स्थान नहीं था। प्रारम्भ में आर्य मोक्ष प्राप्ति, अध्यात्मिक उत्थान व जन्म मरण के छुटकारा के लिए वरन् भौतिक सुख सुविधा, धनधान्य के लिए देवताओं की प्रार्थना करते थे। यास्क के निरुक्त में तीन कोटियों में विभाजित कुल 33 देवताओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन ऋग्वेद के ही एक संहिता में 3339 देवताओं का उल्लेख मिलता है। पृथ्वी के देवमण्डल में घूमकेतु के रूप में अग्नि का, वनस्पतियों के राजा के रूप में सोम का, जंगल की देवी के रूप में अरण्यानी का, नदीतमा के रूप में सरस्वती का उल्लेख मिलता है। आकाश के देवमण्डल में ऋतस्यगोपा के रूप में वरुण का पापमोचक देवता के रूप में सविता (जिनके लिए गायत्री मंत्र समर्पित है) चर-अचर के रक्षक के रूप में सूर्य और देवताओं के वैध के रूप में अश्विनौ का उल्लेख मिलता है। अन्तरिक्ष के देवमण्डल में इन्द्र, रुद्र, वायु और मारुत का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त और नासदीय सूक्त में ही आर्य जन में विविध धार्मिक अवस्थाओं को दिखाया गया। सर्वप्रथम बहुदेववाद का तत्पश्चात क्रमशः एकाधिदेववाद, एकेश्वरवाद, एकवाद और अद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में आकर ऋग्वैदिक काल का सीधा साधा धार्मिक जीवन धीरे-धीरे आडम्बरपूर्ण, रूढि़वादी और कर्मकाण्ड हो गया। इसी काल के दौरान ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति विचारधारा का विकास हुआ। पुरोहितों के प्रभाव व कर्मकाण्ड में जटिलता के कारण तप और भक्ति के स्थान पर यज्ञ और बलि प्रधान होने लगी। ऋग्वैदिक देवमण्डल के स्वरूप में भी परिवर्तन आया। इन्द्र, वरुण और अग्नि के स्थान पर प्रजापति महत्वपूर्ण होने लगे। इनके द्वारा पृथ्वी के रक्षार्थ वाराह रूप धारण करने की बात प्रचलित होने लगी। खुदाई के दौरान अतंरजीखेड़ा से प्राप्त वृत्ताकार अग्निकुण्ड और कौशाम्बी से प्राप्त यज्ञवेदिकाओं से भी याज्ञिक कर्मकाण्ड की पुष्टि होती है। विष्णु की तरह शिव के अवतार की चर्चा तो नहीं मिलती है लेकिन साहित्य मे इनका विकास रुद्रम् से शिवम् की ओर होता है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति ने शिव के आठ स्वरूपों का वर्णन किया जिसमें सर्व, रुद्र, उग्र और अशनि, अमंगलकारी स्वरूप के और भव, पशुपति, महादेव और ईशान मंगलकारी स्वरूप के रूप में वर्णित हैं। याज्ञिाक कर्मकाण्ड के क्षेत्र में जटिलता देखने को मिलती है। शत्पथ ब्राह्मण में मनुष्य के सभी कर्मों में याज्ञिक कर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया गया। पंचमहायज्ञ, होम, अग्निहोत्र जैसे साधारण यज्ञों से लेकर अग्निस्टोम, अश्वमेध और पुरुष मेध जैसे जटिल सोमयज्ञों का अनुष्ठान किया जाता था। वैदिक साहित्य का चर्मोत्कर्ष व अन्त उपनिषद में मिलता है इसलिए इसे वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषद ही ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या और मोक्षविद्या पुकारा जाता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य में ही धर्म के बर्हिमुखी और अन्तर्मुखी स्वरूप का वर्णन मिलता है। निष्काम कर्मयोग का विस्तृत उल्लेख तो गीता में हुआ लेकिन इसकी शुरुआत ईशोपनिषद से होती है। माण्डूक्य उपनिषद में जागृत, स्वप्न, सुषुप्त और तुरीय अवस्था के रूप में आत्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है।
जहाँ तक ऋग्वैदिक कालीन सामाजिक संरचना का सवाल है तो परिवार, वर्ण, आश्रम व्यवस्था और विवाह संस्कार के संदर्भ में इसका उल्लेख किया जा सकता है। कुल या परिवार ही समाज की मूलभूत ईकाई थी। परिवार का स्वरूप संयुक्त और पितृ सत्तात्मक था प्रारम्भ में उनका जीवन पशुचारक यायावरी और संचरणशील था जिसके कारण उन्हें चर्षणि पुकारा गया। बाद में उन्हें कर्षणशील कहा जाने लगा। पितृसत्तात्मक तत्व होने के बाद भी परिवार में स्त्रियों को यथोचित आदर व सम्मान प्राप्त था। विश्ववरा, अपाला, घोषा, सिकता, निवावरी, लोपामुद्रा जैसी स्त्रियाँ विदुषी व मंत्रविद् हुआ करती थीं। यदि वर्ण व्यवस्था को देखा जाय तो वैदिक काल के प्रारम्भ में अनार्य और आर्य के भेद को लेकर यह रंगमूलक थी तत्पश्चात् कर्ममूलक हुई और अन्त में जन्ममूलक हो गयी। प्रारम्भ वर्ण व्यवस्था में कठोरता देखने को नहीं मिलती थी। पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम चारों वर्णों  का संकेते मिलता है जिसमें ब्राह्मण और क्षत्रिय का कई बार लेकिन वैश्य और शूद्र का उल्लेख एक-एक बार होता है। प्रारम्भिक समाज में स्त्रियों की स्थिति आदर्शमयी थी उन्हें गृहस्वामिनी और सहधर्मिणी माना जाता था। सती प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह और पर्दा प्रथा आदि का प्रचलन नहीं था। जबकि अनुलोम-प्रतिलोम, विवाह, अन्तर्वणीय विवाह, विधवा विवाह और नियोग प्रथा का साक्ष्य मिलता है। प्रारम्भिक दौर में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। बाद में इसे अनिवार्य धार्मिक संस्कार स्वीकार किया जाने लगा।
उत्तरवैदिक काल के सामाजिक संरचना में अनेक बदलाव आये। वर्ण व्यवस्था जन्ममूलक होने लगी। आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ, व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के साथ सामाजिक विषमता व्याप्त होने लगी और पारिवारिक जीवन में पितृसत्तात्मक तत्व प्रबल होने के कारण परिवार के स्वरूप में परिवर्तन आने लगा। पुत्री जन्म पर खिन्नता के साक्ष्य मिलने लगे। ‘‘ऐतरेय ब्राह्मण’’ में पुत्रों को परिवार का रक्षक व पुत्रियों को दुख का कारण बताया गया।’’ ‘‘मैत्रायणी संहिता’’ में पासा और सुरा के साथ स्त्रियों को जोड़ा जाने लगा।’’ वस्त्राभूषण, खानपान, आमोद प्रमोद व शिक्षा, के क्षेत्र में भी परिवर्तन दिखाई देता है। पहनावे में वास, अधिवास और निवि का प्रचलन था। रेशमी, ऊनी और सूती वस्त्र धारण करते थे। निष्क, कुरीर, रुक्म, कर्णशोभन, मणिग्रीव आदि उनके प्रिय आभूषण थे। शिक्षा का स्वरूप मौखिक था और शिक्षा का उद्देश्य बौद्धिक तथा नैतिक विकास होता था। विद्यार्थी गुरुकुल में आचार्य के सानिध्य में रहकर धार्मिक ग्रन्थों व सूक्तों को कंठस्थ करते थे। चारों आश्रमों का उल्लेख सर्वप्रथम जाबालोंपनिषद में मिलता है। ब्रह्मचर्य गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गृहस्थ आश्रम को माना जाता था, क्योंकि इसी आश्रम में मनुष्य ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्त होता था। इसी आश्रम के दौरान मनुष्य पंचमहायज्ञों का भी अनुष्ठान कराता था। मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को समन्वित करने के लिए ही व्यवस्थाकारों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक 4पुरुषार्थाें का प्रावधान किया था। मानव जीवन को सुसंस्कृत, परिष्कृत और अनुशासित करने के लिए व्यवस्थाकारों ने 16संस्कारों का प्रावधान किया। इस प्रकार ऋग्वैदिक काल के दौरान जिन आदर्शों और तत्वों का बीजारोपण हुआ उनका विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। उत्तरवैदिक काल के दौरान सामाजिक संरचना के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं।
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