Saturday 2 January 2010

भारतीय संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय के जनक गौतम बुद्ध


अभय कुमार(इतिहास विभाग)
पंकज कुमार गौतम(राजनीति विभाग)
 शोध छात्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है, मूल संविधान में कुल 395 अनुच्छेद थे जो 22 भागों में विभाजित थे तथा 9 अनुसूचियां थीं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के उस ऐतिहासिक उद्देश्य-संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा जो संविधान सभा ने 22 जनवरी, 19471 को अंगीकार किया था और जिससे आगे के सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है। यह संकल्प इस प्रकार हैः- हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष2 लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई0 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।3
भारतीय संविधान की तरह ही बौद्ध धर्म में भी प्रस्तावना या उद्देशिका है। जिसका प्रमाण इस गाथा से प्राप्त होता है-
सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्य उपसम्पदा।
सचित परियोदपनं एतं बुद्धान सासनं।।4
‘‘अर्थात् सभी पापों का नहीं करना, कुशल कर्मों को करना तथा चित्त को परिशुद्ध रखना, यही बुद्ध का शासन है।’’
संविधान में भी मूल अधिकारों को प्रदान करके विश्वास दिलाया गया था, कि इससे नागरिकों का बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास होगा। इसी प्रकार का विश्वास तथागत ने संघ के निर्माण से पूर्व पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा था- (यह धर्म बहुतो के हित के लिए है, बहुत मध्य और अंत में कल्याणकारी है। यह स्वाख्यात है,अच्छी तरह दुःख के नाश के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।)5
अनुच्छेद 14 में यह उपबन्ध है,-‘राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’’
विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण अभिव्यक्तियां समरूप जान पड़ती हैं किन्तु वास्तव में इनका अर्थ भिन्न है। विधि के समक्ष समानता एक नकारात्मक संकल्पना है जिसमें यह विवक्षा है कि किसी भी व्यक्ति को जन्म या मत के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे और सभी वर्ग समान रूप से सामान्य विधि के अधीन होंगे। विधियों का समान संरक्षण अपेक्षात्मक अधिक सकारात्मक संकल्पना है। इसमें यह विवक्षा है कि समान परिस्थितियों में समता का व्यवहार किया जाएगा। समानता और विधि के समान संरक्षण की धारणा राजनीतिक लोकतंत्र में सामाजिक और आर्थिक न्याय को अपनी परिधि में ले लेती है।6
उपर्युक्त अनुच्छेद को अगर बौद्ध धर्म के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पता चलता है कि तथागत ने कभी किसी को भेदभाव की दृष्टि से नहीं देखा, और न ही व्यवहार किया। भगवान बुद्ध द्वारा बनाए गए नियमों का पालन सभी भिक्षु-भिक्षुणी समान रूप से करते थे तथा नियमों की अवहेलना का अधिकार किसी को नहीं था। अगर कोई नियमों की अवहेलना करता था तो वह समान रूप से दण्ड का भागी होता था, चाहे वह वरिष्ठ हो या कनिष्ठ। उपर्युक्त अनुच्छेद का सम्बन्ध समता से है।
अनुच्छेद 15 के खंड (1) में राज्य को यह आज्ञा दी गई है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। राज्य जो भी काम करेगा उसमें विभेद नहीं कर सकता।7 इस अनुच्छेद 15 के खंड (2) के अनुसार दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या कुओं, तालाबों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग में विभेद नहीं होगा। खंड (3) राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए विशेष उपबंध करने की शक्ति देता है। खंड (4) संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम द्वारा 18 जून 1951 से जोड़ा गया था। इस संशोधन का उद्देश्य राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के वर्गों के लिए और अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए विशेष उपबंध बनाने के लिए समर्थ करना था जैसे सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं में स्थानों का आरक्षण। इसका उद्देश्य उच्चतम न्यायालय द्वारा चंपकम8 में दिए गए निर्णय का अध्यारोहण करना था। इस निर्णय में न्यायालय ने जाति के आधार पर स्थानों के वितरण को अवैध ठहराया था। इस संदर्भ में गौतम बुद्ध का विचार था कि त्रिशरण धारण करने वाले के साथ कभी भी धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं होगा है। साथ ही भगवान बुद्ध ने तत्कालीन समाज में फैली उपर्युक्त बुराइयों का हमेशा खण्डन किया तथा ऐसा करने वाले को पतनोन्मुख माना है। उदाहरण स्वरूप- विनय पिटक का वह अंश जिसमें तथागत ने धर्म विनय के आठ आश्चर्य अद्भुत गुण को बताया है। चैथे गुण के अंतर्गत कहा गया है कि जैसे महानदियां महासमुद्र को प्राप्त हो अपने पहले नाम-गोत्र आदि को छोड़ देती हैं, महासमुद्र के नाम से ही प्रसिद्ध होती है, वैसे ही क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र चारों वर्ण तथागत के बताए धर्म-विनय में घर से बेघर प्रव्रजित हो पहले के नाम गोत्र आदि को छोड़ते हैं, शाक्य पुत्रीय श्रमण के ही नाम से प्रसिद्ध होते हैं।9 इसी प्रकार पालि पिटक साहित्य के ग्रंथों में देखते हैं कि अन्य धर्मों के लोग तथागत के पास आकर तर्क-वितर्क करते थे तथा संतुष्ट होकर त्रिशरण को अपना लेते थे। उन लोगों के साथ भी तथागत ने यह सोंचकर कभी विभेद नहीं किया कि वे पहले किसी और धर्म के अनुयायी थे। उदाहरण स्वरूप- सारिपुत्त, मोग्गल्लान, जटिल काश्यप आदि।10 तथागत समाज में धर्म, मूलवंश, जाति लिंग आदि के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव के सख्त विरोधी थे।
अनुच्छेद 16 का खंड (1) और खंड (2) राज्य के अधीन किसी पद या अन्य नियोजन में नियुक्ति के विषय में सभी नागरिकों को समान अवसर की प्रत्याभूति देते हैं।11 इस संदर्भ मे बौद्ध धर्म को देखे तो बौद्ध धर्म में नौकरी के लिए कोई स्थान नहीं है तथा बौद्ध धर्म अपनाने वाले को प्रत्यक्ष रूप से कोई वेतन नहीं मिलता था। परंतु गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि संघ रूपी संस्थान में प्रवेश या नियुक्ति के लिए सबको समान अवसर प्रदान किया जाता था तथा सभी को वेतन के रूप में दुःख से मुक्ति अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति होती थी। साथ ही सबका बौद्धिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक विकास होता था।12
अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत किया जता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।13 इसकी पुष्टि विनय पिटक के एक अंश में भिक्षुओं को निम्नलिखित 5नामों में से किसी का भी प्रयोग करके गाली देने का निषेध किया है। टीका में व्याख्या है कि वे नाम दासों के नाम के कारण बुरे हैं। ये हैं- अवकन्नक, जवकन्नक, धनित्थक, सवित्थक और कुलवध्धक।14
वे छः मूल अधिकार जो भारत के संविधान में नागरिकों को प्रत्याभूत स्वतंत्रता के रूप में हैं ये अनुच्छेद 19 के तहत मिली है।15 चुल्लवग्ग में एक कथा है जिसमें दो भिक्षु इस बात पर बड़े क्षुब्ध दिखाई देते हैं कि नाना जाति और गोत्रों के लोग अपनी-अपनी भाषा में बुद्ध वचनों को रखकर उन्हें दूषित करते हैं। वे जाकर तथागत को इसकी सूचना देते हैं और कहते हैं- भंते! अच्छा हो हम बुद्ध वचन को छन्दस में कर दें।16
विनय पिटक के चपिय स्कंधक में उल्लेख है कि काशी देश के वासभ ग्राम में रहने वाले एक भिक्षु को कुछ आगंतुक भिक्षुओं ने बिना किसी अपराध के दण्डित कर दिया। उस भिक्षु ने तथागत के पास जाकर आप बीती सुनाई। तथागत ने उसे दोष मुक्त माना तथा दण्ड देने वाले भिक्षुओं को उपदेशित करते हुए कहा कि किसी को भी बिना अपराध दण्डित नहीं करना चाहिए। साथ ही दण्ड देने वाले भिक्षुओं को ही दोषी माना।17
अनुच्छेद 28 में किसी व्यक्ति को इस प्रकार प्रपीडि़त नहीं किया जाएगा जिससे उसकी अपनी रुचि का धर्म या विश्वास मानने या अपनाने की स्वतंत्रता कम होती हो।18 इस संदर्भ में धर्मसेनापति स्थविर सारिपुत्र ने कहा है, बुद्ध देवता और मनुष्य दोनों से पूजा पाकर भी न उसे स्वीकार करते हैं और न अस्वीकार करते हैं।19
पुनः तथागत ने कभी किसी को अपने धर्म अपनाने या संघ में शामिल होने को बाध्य नहीं किया। बल्कि वे तो नैतिकता की देशना तथा दुःख से मुक्ति का उपदेश बताते थे जिससे प्रभावित होकर लोग त्रिशरण को स्वतः ही अपना लेते थे। ऐसे कई उदाहरण त्रिपिटक में मिलता है कि कुछ लोग बुद्ध प्रवेदित धर्म अपनाने के बजाए रुचिकर नहीं लगने के कारण पुनः दूसरे धर्म में चले गये।20 एक अन्य उदाहरण दीर्घनिकाय के प्रथम सुत्त (ब्रह्मजाल सुत्त)21 में पाते हैं कि तथागत के भिक्षुसंघ के पीछे-पीछे ब्रह्मदत्त बुद्ध धर्म और संघ की आलोचना करते आ रहा है, जबकि उसका माणवक सुप्रिय प्रशंसा कर रहा है। तथागत को जब इसकी जानकारी दी गई तो तथागत ने स्पष्ट कहा कि किसी को निंदा या प्रशंसा करने से दुःखी या खुश होने की आवश्यकता नहीं है। पुनः तथागत ने अपने धर्म के प्रचार के लिए कभी धन का संचय करने की आवश्यकता नहीं समझी, न ही भिक्षुओं को ऐसा निर्देश दिया। बल्कि उन्होंने यह भी कहा है कि अगर संघ के किसी समूह के पास आवश्यकता से अधिक चीजें हो जाए तो उसे दान कर देना चाहिए। पुनः कुछ उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि अन्य धर्म के अनुयायी भी तथागत से तर्क-वितर्क करने आते थे तथा अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते थे। साथ ही तथागत भी अन्य धर्मावलम्बियों के पास जाकर उनसे तर्क-वितर्क करते थे।22
संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।23 इस अनुच्छेद का विचार गौतम बुद्ध के इस विचार से मिलता है कि भिक्षुओं! बहुत जनों के हित के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, सुख के लिए विचरण करो। आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक और अंत में कल्याणकारक इस धर्म का उपदेश करो,।24
राज्य अपनी आर्थिक सामथ्र्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।25 गौतम बुद्ध हमेशा ही अस्वस्थ लोगों की सहायता करने के लिए भिक्षुओं को प्रेरित करते थे। इसका उदाहरण विनय पिटक में मिलता है। तथागत ने स्वयं आनंद के साथ मिलकर एक रोगी व्यक्ति को नहलाया तथा कपड़े पहनाकर लिटाया।26 तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा, न तुम्हारे माता हैं, न पिता, जो कि तुम्हारी सेवा करेंगे। यदि तुम एक दूसरे की सेवा नहीं करोगे तो कौन करेगा।27 उन्होंने यह भी कहा, जो मेरी सेवा करना चाहे, वह रोगी की सेवा करे।28
भारतीय संविधान के अनु0 47 में उल्लेखित है कि राज्य अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा । राज्य विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के, औषधिय-प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।29
इस परिपेक्ष्य में स्पष्ट होता है कि तथागत ने भी पोषाहार स्तर तथा जीवन सतर को ऊंचा करने तथा स्वास्थ्य में सुधार के लिए प्रयास किया तथा इसके लिए विधान बनाया। साथ ही सुरापान, मद्य आदि को स्वास्थ्य के प्रतिकूल मानते हुए इसे वर्जित किया है।30
बुद्ध के समाजदर्शन का अवलोकन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि बुद्ध भारत के ऐसे महामानव थे, जिन्होंने समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्वभाव, सामाजिक न्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी बात कही थी। भारतीय संविधान के निर्माताओं के मस्तिष्क में कहीं न कहीं बुद्ध अवश्य ही विराजमान रहे होंगे, जिस कारण उन्होंने बुद्ध की प्रज्ञा, शील, मैत्री और करुणा को भारतीय संविधान का आधार बनाया था। इतना ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय-ध्वज में अंकित धर्मचक्र और राज्य-चिह्न के रूप में अशोक-स्तंभ को अंगीकार करना, इस बात को सिद्ध करता है, कि भारतीय संविधान पर बुद्ध के समाजदर्शन की गंभीर छाप है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. भारत का संविधान- एक परिचय, डाॅ0 दुर्गादास बसु, पृ0- 18-19।
2. 42वें संविधान संशोधन से स्वीकृत, डाॅ0 बसु, दुर्गा दास‘ भारत का संविधान- प्रेन्टिस हाल आॅफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1998 पृ0-30
3. डाॅ0 बसु, दुर्गा दास‘ भारत का संविधान-प्रेन्टिस हाल आॅफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1998 पृ0-21
4. धम्मपद, बुद्धवग्गो, गाथा संख्या-183
5. विनय पिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृ0-87
6. डालमिया सीमेन्ट (भारत) लि0 बनाम युनियन आॅफ इण्डिया, (1986), 10 एस0सी0सी0-104
7. 42वें संविधान संशोधन से स्वीकृत, डाॅ0 बसु, दुर्गा दास‘ भारत का संविधान- एक परिचय, प्रेन्टिस हाल आॅफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1998
8. चंपकम बनाम मद्रास राज्य, ए0आइ0आर0 1951, मद्रास-120.
9. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-511
10. विनय पिटक महावग्ग
11. डाॅ0 बसु, दुर्गा दास‘ भारत का संविधान प्रेन्टिस हाल आॅफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1998 पृ0-92
12. डाॅ0 धर्मकीर्ति, बुद्ध की नीतिशास्त्र
13. डाॅ0 बसु, दुर्गा दास‘ भारत का संविधानप्रेन्टिस हाल आॅफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1998 पृ0-95
14. विनय पिटक, अट्ठकथा, 2.274
15. भारत का संविधान, भारत सरकार, पृ06
16. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-445
17. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-298
18. भारत का संविधान, भारत सरकार, पृ0 89
19. भिक्षु जगदीश, मिलिन्द प्रश्न, पृ0-123
20. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-109,112
21. दीध निकाय, 1.1
22. दीघ निकाय, 1.9
23. भारत का संविधान भारत सरकार, पृ0 13
24. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-87
25. भारत संविधान, भारत सरकार, पृ0 13
26. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-291
27. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-93,95
28. सांकृत्यायन राहुल, विनय पिटक, किताब महल, इलाहाबाद, 1985 पृ0-93,95
29. भारत का संविधान, भारत सरकार, पृ0-14
30. दीघ निकाय 3.