Saturday 2 January 2010

लीला तत्व


डाॅ0 हौसिला सिंह
के0पी0 यूनीवसर््िाटी काॅलेज,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।


लीला का तात्पर्य है, खेल अथवा क्रीड़ा। क्रीड़ा कैसी? ऐसा कार्य जो बिना आयास के हो। लीला भक्तों के अनुभव जगत् की मनोरम कल्पना है। भक्तों का ऐसा विश्वास है कि भगवान केवल प्रेम से गम्य है, वह प्रेममय है, जो कुछ भी घट रहा  है, जो कुछ घट सकना संभव है, वह उस परम प्रेममय की लीला है। उसे खेलने में आनन्द आता है, वह स्वयं आनन्दमय है, उसी आनन्द से जीवों की उत्पत्ति होती है, उसी आनन्द में सब जीव जीते हैं। इसी आनन्दमय भगवान के आनन्द में एक प्रकार की गतिशीलता उत्पन्न होती है।, उसी क्रिया विशेष को भक्ति जगत् में लीला नाम दिया गया है।1
लीला का शाब्दिक अर्थ है लय की दशा जहाँ पर विषयी और विषय का तादात्म्य हो जाता है और यह तादात्म्य अन्त में ‘विलय’ की दशा तक पहुँच जाता है। यही कारण है कि कृष्ण लीलाएँ जीवात्मा और परमात्मा के विलय की वह दशा है जहाँ आनन्द की मनोदशा प्राप्त होती है। इसी से स्वामी विेकानन्द ने लीला को ‘लय योग’ की संज्ञा दी है।2
लीला वास्तव में पौराणिक तत्व है। परन्तु इसका मूल रूप उपनिषदों में प्राप्त होता है। सूक्ष्म विचार के द्वारा ऋषियों ने जगत् के माध्यम से उस परोक्ष सत्ता के विलास को जान लिया था। पुराणों ने ब्रह्म और उसकी शक्ति के इस तत्व को साकार रूप प्रदान किया।3 उपनिषदों में एक ओर जहाँ ईश्वर के निर्गुण और निराकार स्वरूप का चिन्तन है वहीं दूसरी ओर उसमें सगुण और साकार रूप की भी सद्भावना हुई। वहाँ ब्रह्म जहाँ ‘नेति नेति’ है। वस्तुतः उक्त दोनों वृत्तियों में वाह्यतः भेद दीख कर भी तात्त्विक अन्तर्भेद नहीं है। वेदान्तियों ने इनमें सामंजस्य बिठलाने के लिए ही ‘लीला’ तत्व का अनुसंधान किया था। ‘लीला’ में आकर ही अक्षर ब्रह्म चर रूप में बहुमुखी विकास प्राप्त करता है फिर वह मानवीय चेतना के विविध अभियानों की ओर अग्रसर होता है। वह अपने दिव्य कार्यों के द्वारा एक प्रकार से मानवीय शक्ति की ओर संकेत करता है।’4
भगवान सत् चित् आनन्द स्वरूप है। लीला भगवान के आनन्द स्वरूप का प्रकाश है। आनन्द बिना रस के संभव नहीं होता। तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णित हुआ है कि ब्रह्म रस स्वरूप है अर्थात् आनन्द स्वरूप है ‘‘रसौ वैसः’’। ‘‘रसं ह्वेवायं लव्धवाडडनन्दी भवति’’।5 तथा उसके इस आनन्दमय स्वभाव से ही समस्त सृष्टि की प्रवृत्ति हुई। तैत्तिरीयोपनिषद की ब्रह्मनन्दवल्ली में ब्रह्म के आविर्भाव की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इससे पहले केवल असत् था। उससे सत् उत्पन्न हुआ, उसने स्वयं को अभिव्यक्त किया इसीलिए उसे सुकृत कहा जाता है। यह जो सुकृत है वही रस है। इससे यह बात प्रकट होती है कि वह रस विशुद्ध परात्पर तत्व है। दूसरे यह कि यह रस मूर्तिमान रस है व्यक्त्वि है। ‘सः’ तो किसी पुरुष के लिए प्रयुक्त होता है। यह रस पुरुष, रस मूर्ति, रस प्राप्त करता है। कहाँ से प्राप्त करता है? इसका उत्तर श्रुति ही यह देती है कि वह स्वयं की द्विधा विभक्त करता है।
परस्पर के सम्बन्ध से क्रीड़ा से ही रस प्राप्त होता है। इस परस्पर के सम्बन्ध का नाम प्रेम है। प्रेम का परस्पर जो आस्वाद है, वही रस है।6 अपनी अप्राकृतता के कारण यह प्रेम अपने प्रत्येक स्वरूप में रस कहा जा सकता है। श्रुतियों ने इसीलिए इस परात्पर रूप को रस कहा है, यह रस अपने आप में सर्वदा सर्वथा पूर्ण है। कितना भी इसमें से निकाल लिया जाय, यह पूर्ण ही रहेगा। पूर्णत्व की परिभाषा यही है। स्रुति कहती है-
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमावावशिष्यते।7
जिस प्रकार घटने की अवस्था में भी पूर्ण ‘पूर्ण’ ही रहता है, उसी प्रकार निरन्तर प्राप्त करते रहने पर भी वह पूर्ण रहता है। अर्थात् पूर्णता की पूर्ण अवधि होने पर भी वह पूर्ण होने पर भी पूर्णता पूर्ण होने के लिए आकुल रहती है। इसरीलिए यह परात्पर पूर्णत्व रस भी रसमय होने के लिए रस को प्राप्त करता रहता है। यही पूर्ण काम की कामना है, आनन्द का आनन्द है, रस की सरसता है। इसीलिए ‘‘रसौ वैसः’’ के आगे कहा गया है ‘रसं ह्वेवायं लब्घ्वाडडनन्दी भवति’। वह रस, रस को प्राप्त करके आनन्दित होता रहता है। सिद्ध है कि रस का स्वभाव लीलामय है। ‘तस्माल्लीला रसमयी रसो लीलामयः स्मृतः’ इस वाक्य में रस की प्रकृति लीलामय ही बताई गई है। रस कभी लीला के बिना नहीं रह सकता और लीला बिना रस के नहीं।8
अतएव सृष्टि रचना का हेतु अभाव नहीं है किन्तु स्वभाव है। जो नित्य आप्तकाम है, सदातृप्त है, सतत्पूर्ण है, उसको किसी प्रकार का अभाव नहीं रह सकता। अतएव किसी अभाव की पूर्ति के लिए सृष्टि का उन्मेष हुआ, यह नहीं कह सकते- ‘आप्तकामस्य का स्पृहा’?
समस्त लीला-व्यापार ही अलौकिक लीला-कैवल्य रूप में भाव का खेल है। जो सब भावों से अतीत है, वही फिर सर्वभावमय है अर्थात् महाभावमय है। कौन खेलता है? किसके साथ खेलता है? कब खेलता है? कहाँ खेलता है? यह खेल कौन देखता है? क्यों ऐसा खेल खेलता है? ये सब प्रश्न चिन्ताशील मनुष्य के मन को अवश्य आलोडि़त करते हैं। वस्तुतः एक अद्वय अखंड तत्व ही विद्यमान है। वह स्वतंत्र एवं परमानन्दस्वरूप है। वही खेल करता है, क्योंकि आनन्द का स्वभाव ही खेलना है, क्रीड़ा करना है। इसीलिए वह आप्तकाम और स्पृहाहीन होने पर भी स्वभाववश होकर लीला अथवा क्रीड़ामग्न रहता है-
‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’।वह स्वयं एक से अनेक बन जाता है,अनन्त रूप धारण करता है, अनन्त भावों के अनुगुण अनन्त रूप धारण करता है-पुरुष होता है, प्रकृति होता है, सब कुछ होता है।एक दृष्टि से जो असंग पुरुष है, दूसरी दृष्टि से वही प्रेममय होकर सबके साथ विभिन्न सम्बन्धों से सम्बद्ध होता है।9
यौवन काल में स्त्रियों के शरीरज, प्रत्यनज और स्वाभावज वर्गों में विभक्त बीस अलंकार माने गए हैं। दस स्वभावज अलंकारों में से लीला भी एक अलंकार है। नायिका का अपने मधुर अंगों की चेष्टाओं द्वारा प्रिय (नाटक) के वाग्वेष- चेष्टादि का श्रृंगारिक अनुकरण करना लीला कहलाता है।10 आचार्यों ने लीला के तीन भेद माने है:-11
1. स्वगता-उपर्युक्त परिभाषा स्वगता लीला की है।
2. सरवीगता-जब नायिका सखी से नयक के प्रेमालाप, वेषभूषा तथा चेष्टादि का अनुकरण करवाती है।
3. स्वप्रियता-जब नायिका नयक से अपने रूप और चेष्टादि का अनुकरण करवाती है और स्वयं भी नायक के वचन, वस्त्राभूषण, रूप और क्रियाओं का अनुकरण करती है।
क्रमशः दर्शन क्षेत्र में गृहीत होने पर ‘लीला’ शब्द की सूक्ष्म व्याख्याएं होने लगी। दार्शनिक क्षेत्रों में माना जाता है कि लीला ऐसी वृत्ति या व्यापार है जिसका आनन्द प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई अभिप्राय या उद्देश्य नहीं होता। इसलिए कहते हैं- सृष्टि और प्रलय सब ईश्वर की लीला है। अवतार धारण करने पर लोक में आकर भगवान जो कृत्य करते हैं उन सबकी गिनती भक्ति मार्ग में लीलाओं में होती है। प्रभु अवतरण में कौन सा स्वरूप धारण करेंगे, यह स्वरूप कब ग्रहण करेंगे, इस स्वरूप द्वारा कौन सा आचरण कर डालेगें यह सब उनकी अपनी स्वेच्छा से ही सम्बद्ध है। कभी-कभी भक्तजन अपने प्रेम, स्नेह आत्म पीड़ा द्वारा उसे कुछ विशिष्ट आचरण की प्रेरणा देते हैं और फिर वह अपने आचरणों से उनके मन्तव्यों की पूर्ति के लिए अवतरित होकर आचरण करता है। आचार्यों ने इसी कारण लीला को दो भागों में विभक्त किया है।
1. अहैतुकी लीला 2. हैतुकी लीला
अहैतुकी लीलाः- प्रभु की लीला किन हेतुओं के लिए होती है इसका कोई कारण नहीं होता। वह ब्रह्म के स्वभाव की नैसर्गिक अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है यह सहज एवं स्वयं अभिव्यक्ति स्वरूप है। एक पुष्प क्यों खिल उठता है और अपनी गंध को पृथ्वी पर बिखेर डालता है, उसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। इस प्रकार वह ब्रह्म स्वेच्छा मात्र विलासेच्छा से प्रेरित अपने को लोक में व्यक्त करता है और अपनी आनन्ददायिनी ऐश्वर्य शक्ति को लोक भर में फैलाता है।
हैतुकी लीला:- यह लीला सकारण होती है इसके हेतुओं की चर्चा अन्य ग्रन्थों में प्रतिपादित है। रामचरितमानस में इस अवरतरण के हेतु की चर्चा करते हुए बतलाया गया है कि-
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तन माया गुन गोपार।।12
मूलतः ब्राह्मण, गौ, देवता, सन्त एवं पृथ्वी यही सृष्टि के महत्वपूर्ण मूल्य हैं। भारतीय संस्कृति में इन्हें उदात्त एवम् परम शुभ का प्रतीक माना गया है। इनका विनाश समग्र शुभ का विनाश है और शुभ के विनाश के बाद वह ब्रह्म की प्रतीति का विषय नहीं रह पाएगा।
अहैतुकी लीला को आचार्यों ने 5आसक्तियों से सम्बद्ध किया गया है।-
1.शान्त, 2.दास्य, 3.वात्सल्य, 4.सख्य, 5.श्रृंगार
अहैतुकी लीला के दो भेद हैं:-
1.लोक और भक्त के लिए अनुग्रह स्वरूप 2.लोक रक्षण स्वरूप
यह लीला मूलतः अपने स्वभाव के कारण दो रूपों में प्रकट होती है उसके स्वभाव का मूल धर्म में प्रच्छन्न रूप होता है।
इस प्रकार अवतरण हेतु है और लीला उसका परिणाम। सामान्यतया ब्रह्म के स्वरूप के सन्दर्भ में अवतरण के विभिन्न क्रम दिखाई पड़ते हैं-
1.अवतरण के पूर्व ब्रह्म 2.अवतरण के बाद अवतरित रूप ब्रह्म        3.अवतरित रूप में रूप, गुण, क्रिया एवम् स्वभाव द्वारा उस अवतरित स्वरूप की व्यंजना। 4.भक्त को इस अवतरित रूप की प्रतीति 5.ब्रह्म ज्ञान एवं लोक भाव इन दोनों को एक साथ मिलाकर देखना।
अवतरण के पाँचों सन्दर्भ लीला भाव के सन्दर्भ हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अवतरण या अवतार हेतु है और लीला इस हेतु से उत्पन्न कारण।
राम चरित मानस की समग्र लीला तीन रूपों में दिखाई पड़ती है-
1.यशमयी लीला 2.ऐश्वर्यमयी लीला 3.श्री लीला
यशमयी लीलाः-इस लीला का सम्बन्ध राक्षसवध तथा धर्म की स्थापना से है। धर्म की स्थापना का अर्थ है- वेद, ब्राह्मण, पृथ्वी, देवता, गो एवम् सन्तों की रक्षा। यश लीला विनाश के लिए न होकर जीव पर अनुग्रह के लिये है। प्रभु का क्रोध भी अनुग्रह है। वैर भी अनुग्रह है। राक्षसों का वध भी अनुग्रह है।
ऐश्वर्यमयी लीलाः-यह महाविभूति के स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए आचरण है इस लीला का मन्तव्य ब्रह्म का अपनी विभूति का ज्ञान कराना है।
श्रीलीलाः-यह अवतरित की लोकरागात्मक लीला है। मानव जीवन को वैयक्तिक तथा सामाजिक वासनाएँ अपने क्रोड में समेटे रहती है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य एवम् कान्तासक्ति की वासनाएँ यहाँ मूल रूप में है। तुलसी मानस में शान्त, दास्य एवं वात्सल्य विषयक श्री लीला को महत्व देते हैं।
लीला के भेद:-श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यों ने गुण, प्रकाश और तत्व को दृष्टि में रखते हुए भगवान की लीला के छः भेद माने हैं।
निर्गुणायस्तु लीलाया यद्यप्यन्तो न विधते।
आविर्भावस्तिरोभावो ह्यस्ति केनापि हेतुना।।13
भगवान भक्तों पर दया करके जब कभी पृथ्वी पर अवतरित होते हैं तब उनकी सगुण लीला का प्राकट्य होता है। यद्यपि उनकी दोनों लीलाओं के स्वरूपों में भेद नहीं होता, फिर भी इस दूसरी सगुण लीला का अविर्भाव तिरोभाव होता रहता है। यह लीला बद्ध और मुमुक्षु लोगों के उद्धार के लिये होती है। इसी प्रकार लीला के प्रकट और अप्रकट दो प्रकशगत भेद हैं। प्रगट लीला सगुण लीला का ही दूसरा नाम है। इसे प्रपंचगोचर लीला की भी संज्ञा दी गयी है। जब यह लीला सांसारिक दृष्टि से अगोचर हो जाती है। तब अप्रकट कही जाती है14 अप्रकट लीला दो प्रकार की होती है-
1.मंत्रोपासनामयी, 2.स्वारसकीय।
मंत्रोपासनामयी में मंत्रों द्वारा लीला का गान किया जाता है, यह विशेष काल और विशेष स्थान की सीमा में वंधी हुई है और मंत्रोपदिष्ट स्वरूप, धाम, परिकर से लक्षित होती है। स्वारसकीय न तो मंत्र से और न ध्यान से गोचर है, बल्कि भगवत्कृपा से इसका दर्शन होता है। अप्रकट लीला का स्वारसकीय स्वरूप भगवान के एक किसी विशेष कार्य में ही सीमित नहीं है, इच्छानुसार, अवसरानुकूल भिन्न-भिन्न कार्यों में लक्षित होती है। भगवान की लीलाओं का गान करते -करते मनुष्य ऐसे अनुभूत सुख का अनुभव करता है, जो इस पार्थिव लोक में प्राप्य नहीं है, इस अवस्था में लीला को ‘स्वारसकीय’ कहते हैं।
तत्व की दृष्टि से भी उसे दो भागों में विभक्त किया गया है- तात्विकी और अतात्विकी। इसमें तात्विकी लीला नित्या और चैतन्य शक्ति स्वरूपा है। उसका क्षेत्र नित्यधाम गोलोक अथवा साकेत। अतात्विकी लीला माया शक्ति की कार्यरूपा है इसी के द्वारा भगवान असुरों की बुद्धि भ्रमित करते हैं। साधारण सांसारिक लोग भी इसका रहस्य नहीं जान पाते। लीला के उपर्युक्त छः भेद वास्तव में भगवान की प्राकृत और अप्राकृत लीला के विभिन्न नाम हैं।
लीला रसिक महापुरुष लीला के तीन प्रकार अथवा भेद मानते हैं। अद्वैत वेदान्त मत में- 1.पारमार्थिक, 2.व्यावहारिक तथा 3.प्रातिभासिक भेद से सत्य का तीन रूप माना जाता है। बौद्ध विज्ञानवाद के मत से स्वभाव का परिनिष्पन्न, परतंत्र तथा परिकल्पित ये तीन भेद कहा गया है। ठीक उसी प्रकार लीलातत्वविद् मनीषियों ने भी लीला के विषय में अनुरूप सिद्धान्त का प्रवर्तन किया है। ‘आलमन्दारसंहिता’ के षष्ठ अध्याय में लिखा है कि लीला भी वास्तविक, व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक भेद से तीन प्रकार की होती है वास्तविक लीला का अभिनय अक्षरब्रह्म के हृदय में होता है। अक्षरब्रह्म का हृदय स्थान कैसा है? इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वह स्थान कोटि ब्रह्माण्डों से परे है। केवल इतना ही नहीं, वह ब्रह्माण्डातीत महाशून्य से भी विलक्षण है। वह असीम और अनन्त है। वहाँ की भूमि, आकाश, जल तेज सभी स्वप्रकाश से ही उद्भासित है, उसे ‘आनन्दपदस्थान’ कहते हैं। नित्य साकेत अथवा नित्य बृन्दावन में जो लीला होती है वह प्रतिभासिक है। अयोध्या अथवा ब्रजभूमि में कला विशेष में जो लीला होती है, वह व्यावहारिक है।15 वैष्णव में लीला के कई दृष्टियों से किये हुए भेद-प्रभेद मिलेंगे। वैष्णवों में कुंज और निकुंज शब्द भी बहुधा प्रयुक्त होते हैं। इनके आधार पर दो प्रकार की लीलाएँ भी होती है। 1.कुंजलीला और 2.निकंुजलीला। वैष्णवरस-साहित्य में कंुज ऐसे स्थल विशेष को कहते हैं जहाँ प्रिय और प्रिया क्रीड़ा किया करते है।16 जहाँ भक्त और भगवान का मिलन होता है इसको पाश्चात्य रहस्यवादी (ओरिजन आॅफ युनियन) मिलन-आराधन कहते हैं, और नायक-नायिका भेद वाले आलंकारिक ‘संकेत स्थल’ कहते हैं। क्रीड़ा का अवसान ही ‘कुंजभंग’ कहा गया है वस्तुतः कुंज भक्त का हृदय मंदिर है, जहाँ पर भगवान की उपासना में भक्त विभोर है।
1.कंुज लीलाः-जिस लीला में कृष्ण ही उपास्य है, और भक्त गोपी भाव से उनकी लीलाओं का गान करता है। इसमें विप्रलम्भ श्रृंगार की मुख्यता होती है।
2.निकुंज लीलाः-जिसमें अत्यन्त गूह्य, एवं रहस्यमय लीला हो रही है, निकंुज में केवल ईश्वर ही पुरुष है और राधा ही स्त्री, अन्य स्त्रियाँ उनकी सखियाँ।
अतः लीला नित्य, सत्य और शाश्वत है भगवान की लीला पहले भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी। लीला के शाश्वत होने का अर्थ यह है कि यह काल के समान अबाधित है; उसका न आदि है, न मध्य और न अन्त। अप्रगट लीला भी उन्हीं घटनाओं से जानी जाती है जिनसे प्रगट लीला। प्रगट लीला भी भगवान के विग्रह के समान कालावच्छिन्न है किन्तु भगवान की स्वरूप शक्ति की इच्छा से इसमें आदि भी है और अन्त भी, भौतिक और अभौतिक पदार्थों का मिश्रण भी, कृष्ण के जन्म और मृत्यु के समान घटनाएँ भी दिखलाई जाती है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. हिन्दी कृष्णभक्ति काव्य में मधुरभाव की उपासना, डाॅ0 पूर्णमासी राय, पृ0-33
2. प्रतीक दर्शन, डाॅ0 वीरेन्द्र सिंह, पृ0-35
3. कृष्ण भक्तिकाल में सखीभाव, डाॅ0 शरणबिहारी गोस्वामी, पृ0-89
4. प्रतीक दर्शन, डाॅ0 वीरेन्द्र सिंह, पृ0-35
5. तैत्तिरीय उपनिषद, 217
6. कृष्ण भक्तिकाल में सखीभाव, डाॅ0 शरणबिहारी गोस्वामी, पृ0-219
7. ईशावास्योपनिषद्
8. कृष्ण भक्तिकाल में सखीभाव, डाॅ0 शरणबिहारी गोस्वामी, पृ0-314-315
9. रामभक्ति में रसिक सम्प्रदाय, डाॅ0 भगवती प्रसाद सिंह, भूमिका, गोपीनाथ कविराज, पृ0-12
10. अंगैवेर्षेरत्नंकारैः प्रेमभिर्वचनैरपि। प्रीति प्रायोजितैं लाल प्रियस्यानुकृतिं विदु।। साहित्य दर्पण
11. हिन्दी साहित्य कोश, डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा
12. श्री रामचरितमानस, लोक भारती टीका, प्रो0 योगेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0-29
13. वृहद ब्रह्म संहिता, पृ0- 66-67
14. प्रपंचगोवरत्वेन सा लीला प्रगटास्मृता। अन्यास्तुडप्रगताभान्तितादृश्य गोचराः।। लघुभागवतामूल।
15. अक्षर ब्रह्म हृदये वास्तवीं बिद्धि श्याङ् करि।। नित्यवृनवने या च सा स्मृता प्रातिभासिकी।
ब्रजमूल्यां च या लीला स्मृता व्यावहारिकी।। पुराण संहिता, पृ0-262, आलमन्दार संहिता पृ0-4-5
16. रात्रिदिन कुंज क्रीड़ा करे राधा संगे। चैतन्य चरितावली।