Saturday 2 January 2010

मौर्योत्तरकालीन भूमि व्यवस्था: एक अवलोकन


राकेश कुमार मिश्र 
शोध छात्र प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
 इला0 विश्व0, इलाहाबाद।


भारत आद्योपांत कृषि प्रधान देश रहा है। प्राचीन काल से ही जनसामान्य के साथ-साथ राजकीय आय की दृष्टि से भी भूमि की उपयोगिता रही है। मेोेेर्योत्तरकालीन भूमि व्यवस्था के संबंध में दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं-भूमि पर निजी स्वामित्व को प्रोत्साहन तथा भूमि-अनुदान के माध्यम से दूरस्थ व जनजातीय क्षेत्रों में कृषि का प्रसार व संवर्द्धन। इसी काल में धान्यों की विविध किस्मों के सन्दर्भ में भूमि का विभाजन परंपरागत के साथ-साथ औषधीय दृष्टि से भी किया गया। भूमि अनुदान का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य मौर्योत्तरकालीन भूमि व्यवस्था का उल्लेखनीय पक्ष है जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
1.भू-स्वामित्व एवं भू-धारण. मौर्योत्तर काल में कृषि के क्षेत्र में निजी प्रयास अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण हो गये थे। तद्नुसार भूमि पर निजी स्वामित्व का पर्याप्त संकेत मिलता है।
पृथेरषीमां पृथिवीं भार्यां पूर्वविदो विदुः।स्थाणुच्छदस्य केदारमाहुः शल्यवतो मृगम्।। मनुस्मृति, 9/43
अर्थात् ऋषिगण भूमि उसी की मानते हैं जिसने उसे (जंगल को) पहले साफ किया हो, यथा-आखेटित हिरण उसी का है जिसने उसे प्रथमतः घायल किया हो।1 मिलिन्दपन्हो में भी कृषि योग्य भूमि के निमित्त जंगल की सफाई करने वाले व्यक्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे दो निष्कर्ष ज्ञापित किए जा सकते हैं। पहला, विवेच्य कालखण्ड में भूमि अपेक्षाकृत दुर्लभ नहीं थी और दूसरा, भूमि का उपयोग करना ही भूमि पर मालिकाना हक़ का द्योतक था। यह स्पष्ट रूपेण भूमि पर निजी स्वामित्व की ओर संकेत करता है। किंतु कालांतर में जनाधिक्य और विदेशियों के आगमन के चलते स्मृतिकारों ने भूमि के विधिक अर्जन की विभिन्न प्रणालियों का भी प्रणयन किया।2
परन्तु एक दूसरा पहलू भी है। राजकीय आय के प्रमुख स्रोत के रूप में भूमि पर राजकीय नियंत्रण के भी साक्ष्य द्रष्टव्य हैं।4 तत्कालीन व्यवस्थाकारों ने भूमि के दुरुपयोग को रोकने और कृषि की उपेक्षा के संबंध में कतिपय विनियमों का भी विधान किया है। मिलिन्दपन्हो में ‘गामसामिक’ (गाँव के मुखिया) द्वारा अपने दूत के माध्यम से सभी गृहस्वामियों से राजा की ओर से कर-संग्रह किए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।5 इसी प्रकार शक क्षत्रप रुद्रदामन प्रथम ने अपने जूनागढ़ अभिलेख (150 ई0) में दावा किया है कि उसने कर, विष्टि व प्रणय जैसे करों का बोझ अपनी प्रजा पर डाले बिना ही सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया।6 इससे सार्वजनिक सिंचाई और भूमि पर कुछ हद तक बहुआयामी राजकीय नियंत्रण प्रमाणित होता है।
इस काल के भूधारण के सन्दर्भ में राजकीय, सामुदायिक व वैयक्तिक पद्धतियों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें प्रथम के अंतर्गत राजा के नियंत्रण वाली भूमि तथा सामुदायिक के अंतर्गत बौद्ध संघ, मठों व अन्य समुदायों को प्राप्त भूमि को रखा जा सकता है। वैयक्तिक भू-धारण के अंतर्गत सामान्यतः पिता से अपने पुत्रों को प्राप्त भूमि को रखा जा सकता है।
2.भूमि विभाजन. मनुस्मृति में वर्णित भूमि को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित करके देखा जा सकता है- सार्वजनिक तथ निजी भूमि। सार्वजनिक भूमि वह भूमि थी जिस पर राज्य का अधिकार था और जिसका उपयोग सार्वजनिक रूप से सामान्य नागरिकों द्वारा किया जाता था। निजी या व्यक्तिगत भूमि सामान्य नागरिकों के अधिकार वाली भूमि थी जिसके उपयोग के बदले में कृषक राजा को राजस्व का भुगतान करते थे।
उर्वरता, सिंचाई की सुविधा तथा फसलों की उपयुक्तता जैसे आधारों से आगे बढ़कर इस काल में चरक एवं सुश्रुत जैसे वैद्यों ने भू-विभाजन संबंधी औषधीय दृष्टिकोण अपनाया। चरक ने भूमि की 3श्रेणियों का उल्लेख किया है7-
जंगल (वन्य क्षेत्र)- जहाँ स्वाभाविक रूप से औषधियाँ होती हों।
अनूप-कृषि कार्य के लिए सर्वाधिक उपजाऊ ज़मीन।
साधारण- साधारण ज़मीन।
अरण्य और जंगल आदि के विषय में मनु ने भी उद्धृत किया है कि जिस देश में जल की कमी हो, घास हो तथा वायु, धूप अधिक होता हो, उसे जंगल कहते हैं।8 यहाँ ‘अन्न’ से आशय वानेय धान्यों (नीवार, श्यामक, हस्तिश्यामा, अम्भश्यामा, तोयपर्णि व झिन्ती, मुकुन्द जैसे तृणधान्य) से रहा होगा। अतएव चरक के उपरोक्त विभाजन के आधार पर स्पष्ट होता है कि ये तृण धान्य जंगलों में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाते थे। सुश्रुत ने इसी कारण इन्हें ‘कुधान्य’ की संज्ञा दी है। पुनश्च परंपरागत रूप से भूमि उर्वर एवं अनुर्वर में विभाजित थी।9 उर्वर भूमि फ़सलों के अनुसार यव्य, तिल्य, ब्रैहेय आदि में तथा अनुर्वर भूमि ऊसर, बंजर एवं मरु में वर्गीकृत थी। यह भी ध्यातव्य है कि पेरीप्लस (प्रथम सदी ई0) ने काठियावाड़ एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्र की भूमि को गेहूँ, धान एवं गन्ना जैसी फसलों के लिए उपयुक्त माना है।10 इससे उपज के अनुसार क्षेत्र-विशेष की भूमि की कोटि की ओर संकेत होता है।
3.भूमि अनुदान. भूमि अनुदान का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य प्रथम शताब्दी ई0पू0 का है, जब सातवाहनों ने महाराष्ट्र क्षेत्र में अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर उपहार स्वरूप पुरोहितों को एक ग्राम दान में दिया था।11 भूमि अनुदान क्षेत्रपति या राजा की ओर से ब्राह्मण एवं राजकर्मचारियों को दिया जाता था। यद्यपि मौर्योत्तरकालीन अभिलेखों में प्रशासनिक अधिकारियों को भूमि अनुदान दिए जाने के विवरण प्राप्त नहीं होते फिर भी मनुस्मृति में ऐसे राजस्व अधिकारियों को भूमि दान दिए जाने का प्रावधान किया गया है जिनके अधीन 1,10, 20, 100 अथवा 1,000 गाँव हों।12 हालाँकि अधिकारियों को दाशमिक प्रणाली के आधार पर इस प्रकार के भूमि अनुदान की रूप रेखा सर्वप्रथम कौटिल्य ने ही प्रस्तुत किया था।
ब्राह्मणों को भूमि अनुदान दिए जाने के पीछे गैर-आबाद (अकर्षित) भूमि को आबाद करने तथा दूरस्थ एवं जनजातीय क्षेत्रों में कृषि के प्रसार का उद्देश्य निहित था।13 मनु ने भी भूमि अनुदान और उसमें भी बिना जोती हुई भूमि के दान को श्रेष्ठतर माना है।14 कुछ अनुदान परती भूमि पर खेती कराने के उद्देश्य से भी दिए जाते थे। उल्लेखनीय है कि कुषाणकालीन भूमि व्यवस्था पर अत्यल्प सामग्री की उपलब्धता के बावज़ूद रामशरण शर्मा जी का विचार है कि ‘भूराजस्व के स्थायी दान’ वाली अक्षयनीवि प्रणाली का आरम्भ संभवतः कुषाणों ने ही ईसा की पहली दो शताब्दियों के दौरान किया। हालाँकि इसका ज्यादा प्रचलन आगे चलकर गुप्त काल में ही हुआ होगा।
कृषि के विकास के साथ भूमि की माँग में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से भू-सीमा विवाद जैसी जटिलताएँ भी आयीं। इसके निपटारे के लिए समुचित सीमांकन तथा विभिन्न सीमा-चिन्हों के प्रयोग के उद्धरण समकालीन साहित्यिक साक्ष्यों में प्राप्त होते हैं। कालांतर में गुप्त काल में तो भू-सर्वेक्षण एवं भू-अभिलेखों के रख-रखाव के अनेक उदाहरण मिलते हैं।15
इस प्रकार मौर्योत्तर काल में भूमि के वर्गीकरण के साथ एक समृद्ध कृषि अर्थव्यवस्था की उपस्थिति का संकेत मिलता है। भूमि पर व्यक्तिगत स्वत्व होते हुए भी राज्य का पर्याप्त नियंत्रण रहा तथा भूव्यवस्था के विनियमन संबंधी अधिनियम भी बनाये गये। यह भी उल्लेखनीय है कि भूमि अनुदान की प्रथा के बावज़ूद मनु के समय तक सामंतवाद का जन्म नहीं हुआ प्रतीत होता है क्योंकि राज्य एवं कृषक के मध्य लगान की वसूली के लिए कोई मध्यस्थ नहीं था।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. मनुस्मृति: सं0- जयन्त कृष्ण हरिकृष्ण दवे, भारतीय विद्या भवनम्, बम्बई, 1972, 9/43।
2. मनुस्मृति, 10/114
3. मनुस्मति, 9/3
4. मनुस्मृति, 9
5. मिलिन्दपन्हो: सं0- वी0 ट्रेंकनर, लंदन, 1928, पृ0 129।
6. ैंतांतए क्ण्ब्ण्रू ैमसमबज प्देबतपचजपवदेए प्ए मूल अभिलेख की पंक्ति 19 व 16, ‘अपीडयित्वा कर-विष्टि-प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदंजनम्’, च्ंहम. 290।
7. चरक संहिता: कल्पस्थान, 1/8, ‘त्रिविध खलु देशः जांगलः अनूपः साधारणश्चेति।’
8. मनुस्मृति, 11/144
9- Gangopadhyay, R. :Agriculture in Ancient India, N.C. Mukherjee &Company Serampur,1932, page, 43
10- Schaff, W.H. : Periplus of the Erithrean Sea, Munshiram Manoharlal Publication, Delhi, 1974, page-52.
11- Sarkar, D.C.: Select Inscriptions, I, Calcutta, 1942. Page-194,12. मनुस्मृति, 7/118 व 7/119
13. शर्मा, रामशरण: प्रारंभिक भारत का आर्थिक एवं सामाजिक इतिहास, हि0मा0कार्या0 निदे0, 1993, पृ0 58।
14. मनुस्मृति, 10/114
15- Maiti, S.K. : Economic Life in Northern India, Calcutta, 1957, Page-45.