Saturday 2 January 2010

समकालीन कहानी में स्त्री जीवन


दीप्ति सिंह 
शोध छात्रा, हिन्दी विभाग,
बी0एच0यू0, वाराणसी।


वर्तमान समय भूमण्डलीकरण एवं बाजा़रवाद की संस्कृति से अतिक्रमित है। विज्ञान की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण वर्तमान जीवन कठिन, संघर्षपूर्ण एवं जटिल हो गया है। समाज का आधारस्तम्भ सामाजिकता है, इसी पर सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण होता रहता है। वास्तव में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों से हमारे समाज में कुछ खास जातियों और मनुष्यों को उपेक्षा की मार सहनी पड़ी है। इन्हें कभी भी मुख्यधारा में आने का मौका नहीं दिया गया है। ये सामाजिक इकाई में रहते हुए भी निस्संग भाव से रहने को अभिशप्त रहे हैं। इनकी पहचान दलित और स्त्री के रूप में हुई है। एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि इन्होंने भारतीय इतिहास के विभिन्न ऐतिहासिक मोड़ों पर सार्थक और सकारात्मक रोल अदा किया है। औपनिवेशिकता के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर को मुखर किया है। आशारानी व्होरा लिखती हैं कि - ‘‘हमारे इतिहास में अनेक स्त्रियाँ अपने सतीत्व, सेवापथ या आध्यात्म-ज्ञान के बल पर अमर हुई हैं। सतीत्व रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने जौहर भी किये, पर सैनिक वेश में स्वयं युद्ध ही नहीं, युद्ध का सफल नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई की यशगाथा भारतीय इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ है।’’1
दलितों-आदिवासियों को जहाँ हाशिए पर रखा गया है, वहीं पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्व ने स्त्रियों को भी रखा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक बड़ा सच स्त्री-जीवन से भी जुड़ा है। सामाजिक जीवन की मुख्यधारा की ‘स्त्रियों’ के उदाहरण हमारे सामने है। परिवार और जीवन के अंदर वे भी उपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश हैं। वे आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमजोर नहीं है, बल्कि हमारे समाज की संरचना ही ऐसी है कि उसमें ‘स्त्रियाँ’ बिना किसी अस्मिता के जीवन यापन कर ही नहीं सकती है। पितृसत्तात्मक समाज में शुरू से ही स्त्रियों की दशा बेहतर नहीं रही है। उन्हें यह अधिकार नहीं दिया गया कि वे पुरुष के खिलाफ कोई ऐसा निर्णय ले सकें, जो उनके ‘अहं’ को चोट करती हो। किसी-किसी परिवार में तो वे अपनी जिंदगी का निर्णय तक नहीं ले पाती हैं। पुरुष ही उनके भाग्य का फैसला करता है तथा वे उसे मानने के लिए विवश होती है। दूधनाथ सिंह की कहानी ‘माई का शोकगीत’ पुरुष प्रधान सामंती व्यवस्था में सदियों से शोषित, पीडि़त और गुलाम की तरह जीवन व्यतीत कर रही स्त्री की इसी पीड़ा और उसके विद्रोह को व्यक्त करती है- ‘‘सखी, तनी हमारी पीठ उघारो तो। तो हम कनिया सखी को पीठ उघार देते हैं। क्या देखते हैं कि पीठ पर कईन की संती पड़ी है। रक्त जम गया है गोरी पीठ पर। हे महात्मा जी, ई सब का हो रहा है। आप तो इसी धरती पर हैं। हम सोचते हैं। तभी कनियाँ कहती है, ‘‘पहिले हमके छुड़ाओं न सखी! हम भी तो काल कोठरी में बंद हैं। हमारी भी तो कुर्ती फट गई है। हम भी तो बेपर्द हो गए है। यहाँ भी तो एक ठो राच्छस पहरा दे रहा है।’’2 इस प्रसंग में सामंती समाज का एक चित्र उपस्थित है। एक ‘स्त्री’ के उस दर्दनाक जीवन को गहरी मानवीय संवेदना के साथ उभारते हैं, जिसमें वह घुट-घुट कर जी रही है। वह स्त्री अब इस दर्दनाक जीवन से मुक्त होना चाहती है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि इस पुरुष प्रधान सामंती सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था में उसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। पर क्या कोई रास्ता है? यदि कोई रास्ता है भी तो क्या सामंती मानसिकता का पुरुष समाज उसे उस रास्ते पर जाने देगा अथवा वह स्वतंत्रता देगा, जो वह चाहती है। कहानी की नायिका इस यातनापूर्ण जीवन से मुक्त होना चाहती है, परन्तु ऐसा नहीं हो पाता है। जब गंगा माई उसे इस नारकीय जीवन से मुक्ति दिलाने का प्रयास करती है तो उसके मार्ग में उसका पति और गाँव का ठाकुर मोसाफिर सिंह आकर खड़ा हो जाता है- ‘‘देखो, हमारे दुआरे से चली जाओ...। और तु बड़को, मोसाफिर सिंह हमारा धरऊ नाम लेकर पुकारते हैं, तूं हमारे दूआरे आयी हो। तूं गान्ही जी की कलक्टर बनी हो... तो हम गान्ही-फान्हीं जी को कुछ नहीं समझते। उनका पका सिरफल एक ही बार में न तो ड़ दिया तो विकरमा सिंह का परनाती नहीं। चाहे दो चार बिगहा और रेहन चढ़ जाए। औरत को काहे भेजते है।’’3
यह उस सामंती पुरुष समाज की सोच है जो स्त्रियों को एक स्वतंत्र अस्तित्व नहीं प्रदान करना चाहता है। इसके लिए वह राह में आने वाले किसी भी व्यक्ति की हत्या कर सकता है, चाहे वह महात्मा गाँधी ही क्यों न हो। पितृसत्तात्मक समाज का यह दंभ कभी-कभी उस समय समाप्त होता है, जब बेकसूर स्त्रियाँ यातनापूर्ण जीवन और शोषण से तंग आकर आत्महत्या कर लेती हैं अथवा उन्हें मार दिया जाता है। पूरी कहानी में सामंती समाज में स्त्रियों को पीटने की घटना का दर्दनाक वर्णन है। ये घटनाएँ इस बात की ओर संकेत करती हैं कि सामाजिक जीवन की मुख्य धारा के अंदर रहते हुए भी स्त्रियाँ त्रासदपूर्ण जीवन से मुक्त नहीं है।
स्त्रियों को सामाजिक जीवन में दबाकर रखने की यह प्रवृत्ति पुरुष समाज की उस मानसिकता की ओर संकेत करती है, जहाँ ‘सामंतवादी मानसिकता’ उन्हें जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना जाती है। उन्हें दबाकर और गुलाम रखकर, उनको मुक्ति और स्वतंत्रता की बात करना इस संस्कृति के आधुनिक लोगों की बातचीत और क्रिया-कलापों का एक मुख्य हिस्सा होता है, क्योंकि इस मानसिकता के पुरुष इस बात से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं कि पारंपरिक जीवन में ‘विवाह’ ‘औरत की एक नियति होती है।’4 जिससे मुक्त होना उनके लिए असंभव होता है। ‘‘विवाह के बंधन में पड़कर वे मजबूर होती है तथा घर-गृहस्थी संभालना उनकी इस मजबूरी का एंक महत्वपूर्ण पक्ष होता है।’’5 आत्मनिर्भरता के अभाव में वे जीवन पर्यन्त न तो ‘स्त्री-जीवन’ की गरिमा प्राप्त कर पाती हैं और न ही अपने जीवन का मौलिक अधिकार। ‘माई का शोकगीत’ की गंगामाई ‘स्त्री-जीवन’ की नियति से मुक्त है तथा स्वतंत्र जीवन यापन करती है। इसके लिए उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। इसी स्वतंत्रता की आवाज जब कहानी के चरित्र कनिया और सोनचिरैया उठाती हैं तो मोसाफिर सिंह जैसे लोग वीभत्स तरीके से उनकी हत्या कर देते हैं।
स्त्रियों की इसी स्वतंत्रता और अधिकार की मांग को चित्रा मुद्गल ने ‘लकड़बग्घा’ में उठाया है। पति की मृत्यु के बाद पछांहवाली कनिया अपने श्वसुर तथा जेठ से यह मांग करती है कि वह उसकी छोटी सी वेटी पुन्नू की आगे की पढ़ाई की व्यवस्था करें। पहले तो उनका जेठ लंबरदार पछांहवाली की मांग को समझा-बुझाकर शांत करना चाहता है, लेकिन जब वह अपनी बेटी की शिक्षा के लिए किये जा रहे विरोध के समानांतर खान-पान त्याग देती है, तो लंबरदार उसके ऊपर रायफल तान देता है- ‘‘निकल बाहर... पछांहवाली! रायफल सीधी करते हुए लंबरदार दहाड़े।’’6 इतना ही नहीं जब पछांहवाली खुलकर उनके सामने आ जाती है तो सामंती मानसिकता का यह व्यक्ति उसे माँ-बहन की गालियाँ देने लगता है- ‘‘हट जाओ दिद्दा... अलगा-अलगी चाहिए न ... इसे बहन ... अभी किये दे रहा हूँ अलगा-अलगी।’’7
यह अजीब विडंबना है कि पुरुषवादी मानसिकता वाले परिवार में ‘स्त्री’ ही ‘स्त्री’ के शोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहाँ भी लंबरदार के आतंक और दबाव का समर्थन एक स्त्री होने के बावजूद बुजुर्ग दिद्दा करती है- ‘‘अरे डायन, कुतिया, नागिन- बौरा गयी है का? चल आ, चल आ खमसार ... लाज-शरम छोडि़ के बिटिया-बहुरिया इस भांति नंगा नाच नाचती भली लगती है कहीं ... कै?’’8
स्पष्ट है कि, एक स्त्री के द्वारा एक स्त्री की इस प्रकार की अवमानना समाज की उस मानसिकता की ओर संकेत करता है, जहाँ आकर लगता है, सब कुछ समाप्त हो गया है। यह स्त्री जीवन की विडम्बना ही है कि उसका अपमान एक स्त्री करती है और उसकी स्वतंत्रता, अधिकार की प्राप्ति और विकास के मार्ग में बाधा उपस्थित करती है। ‘माई का शोकगीत’ की सोनचिरैया की तरह पछांहवाली का भी अंत हो जाता है। खेत में शौंच के लिए गयी पछांहवाली लौट कर घर वापस नहीं आ पाती है। दूसरे दिन पूरे गांव में यह हल्ला हो जाता है कि उसे ‘‘पास वाले अरही के खेत से अचानक लकड़बग्घा उठा ले गया।’’9
मिथिलेश्वर ने ‘तिरिया जनम’ में दिखलाया है कि ‘लड़की का जन्म’ ही परिवार वाले अशुभ मानते हैं। ससुराल में उसकी बेइज्जती होती है, सो अलग। यहाँ तक की पति के तंबाकू खने की आदत पर पत्नी जब आपत्ति करती है तो पति तो पति, घर की सास, और ननद उसे धिक्कारती हैं- ‘‘छिः-छिः कैसी औरत है! मर्द का मुँह सूंघती है...? यह तो रंडियों का लक्षण है ... गाँव में किसका मर्द खैनी-बीड़ी नहीं खता-पीता?’’10
उपर्युक्त पंक्तियाँ स्पष्ट कर देती हैं कि एक परिवार में, वह भी स्त्रियों के बीच, नयी स्त्री का क्या अस्तित्व है? इस सोंच की पूरी प्रक्रिया में कहीं न कहीं सामंती समाज की वह मानसिकता रही है, जो स्त्रियों को मुख्यधारा में शामिल नहीं करता है। उसके लिए ‘स्त्री’ का अस्तित्व गुलामी करने वाले एक ऐसे ‘व्यक्ति’ से है, जिसका जन्म ही उसकी सेवा और देखरेख के लिए हुआ है।
रांगेय राघव की ‘गदल’, रामेश्वर शुक्ल अंचल की ‘देहयात्रा’, रमेश उपाध्याय की ‘माटीमिली’, शैलेन्द्र सागर की ‘गुलईची’, हिमांशु जोशी की ‘तपस्या’, चित्रा मुद्गल की ‘लकड़बग्घा’, ‘अभी भी’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘पगला गयी है भगवती’, अरुण प्रकाश की ‘मंझधार किनारे’, और संजीव की ‘घर चलो दुलारीबाई’ कहानियाँ इसी सच को हमारे सामने रखती है कि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था वाले समाज में आज भी ‘स्त्री’ पारिवारिक जीवन की परिधि में घुटन की जिन्दगी व्यतीत कर रही है। समाज ने उनके लिए कुछ ऐसे मानदण्ड निर्मित किये हैं, जिसमें उन्हें ‘फिट’ होना पड़ता है। हाशिये पर पड़ी इस ‘आधी दुनिया’ का सच इस बात का संकेत करती है कि ‘पुरुष’ के बिना ‘स्त्री’ का न तो परिवार में कोई अस्तित्व है और न ही समाज में। ‘गर्भ’ से लेकर ‘मृत्यु’ तक स्त्री का संघर्ष अभी जारी है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. आशारानी व्होरा: महिलाएँ और स्वाराज्य, पृ0-52
2. माई का शोकगीत: दूधनाथ सिंह, पृ0-80
3. वही, पृ0-90-91
4. स्त्री उपेक्षिताः सीमोन द बोउवार, पृ0-117
5. वही, पृ0-179
6. जगदंबा बाबू गाँव आ रहे है: चित्रा मुद्गल, पृ0- 102
7. वही, पृ0-102
8. वही, पृ0-102
9. वही, पृ0-103
10. प्रतिनिधि कहानियाँ: मिथिलेश्वर, पृ0-73।