Saturday 2 January 2010

संस्कृत की लोकसम्बद्ध कविता-परम्परा


स्मृति शुक्ला
शोधच्छात्रा (नेट), संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद


                        कविता मानवीय भावों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही है। वस्तुतः कविता ही वह कला है जो लोक के सूक्ष्मतम भावों को सहज ही प्रकट करती है। देववाणी संस्कृत को ऋग्वेद के रूप में काव्य-परम्परा के सूत्रपात का गौरव प्राप्त है और साथ ही गौरव प्राप्त है पाँच हजार वर्षों की सुदीर्घ काव्य-परम्परा का। किन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि इतनी सुदीर्घ काव्य-परम्परा पर कुलीन एवं एक वर्ग-विशेष की काव्य-परम्परा होने का आक्षेप लगाया जाता रहा है, यह कहा जाता है कि संस्कृत-कविता केवल अभिजात एवं कुलीन वर्ग नायिका का नख-शिख वर्णन, प्रकृति का सौन्दर्य वर्णन, नायक-नायिका की रति-क्रीडा का एवं प्रेम का ही वर्णन करती है, समाज के दबे-कुचले, दीन-हीन वर्ग का वर्णन संस्कृत-कविता में नगण्य है। किन्तु ऐसा आक्षेप लगाने वाले वस्तुतः संस्कृत-कविता की गहनता से अनभिज्ञ हैं। साथ ही अनभिज्ञ हैं संस्कृत की उस कविता परम्परा से जो समाज के सहज और अवकृत स्वरूप का वर्णन करती है, जो समाज के निम्न वर्ग का वर्णन करती है। संस्कृत की यह कविता परम्परा लोकसम्बद्ध कविता परम्परा कही जाती है। यह कविता परंपरा संस्कृत के अभिजात कवियों की अलंकृत, वक्रोक्तिमयी तथा वैचित्र्यमयी काव्य-परम्परा से भिन्न है। यह परम्परा लोकजीवन में रचे-बसे कवियों की कविता-परंपरा है जिसमें समाज के निम्न-वर्ग के सुख-दुःख, क्रियाकलापों एवं मनोभावों का वर्णन है।1 समाज के उस वर्ग का चित्रण है जो अभावग्रस्तता में जीवन व्यतीत करता है और उसी अभावग्रस्तता में जीवन के सुखों-दुःखों की अनुभूति करता है। इस कविता परम्परा में घर-परिवार, बच्चे गाँव, ग्रीष्म, वर्षा, शीत, किसान, मजदूर, इत्यादि का यथार्थ चित्रण मिलता है । वस्तुतः यह कविता-परम्परा यथार्थवादी कविता परम्परा भी है जहाँ सहृदय का सामना जीवन के यथार्थ से होता है। यह अभिजात कवियों की श्रृंगारमयी, सुखान्त कविता के आदर्शवाद से पृथक् रूप में हैं।
प्रख्यात ओलोचक नामवर सिंह के शब्दों में- ‘‘ इन कविताओं में व्यक्ति जीते-जागते मूर्त विशेष को महत्त्व मिला है- संभवतः पहली बार। यह एक नये यथार्थवाद का उदय है।’’2
 किन्तु ऐसा कहना कि हमारे अभिजात कवियों ने समाज के निम्न वर्ग का चित्रण बिलकुल भी नहीं किया है, उचित नहीं होगा क्योंकि कालिदास, बाल्मीकि, भारवि, माघ, भवभूति, बाण, कल्हण इत्यादि कवियों ने जितनी सहजता से समाज के उच्चकुलीन वर्ग के वैभवैश्वर्य तथा प्रेमगाथाओं का वर्णन किया है उसी सहजभाव से वे समाज के निम्न वर्ग का भी चित्रण करते हैं।
इन अभिजात कवियों के इतर संस्कृत की कवि परम्परा में कुछ ऐसे कवि भी थे जिन्होंने समाज के दीन-हीन जनों का, मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। इनमें से अधिकांश कवि तो अज्ञात ही है। जिनकी कविताएँ तो मिलती हैं किन्तु उन कवियों के विषय में जानकारी नहीं है। इस परम्परा के ज्ञात कवियों में योगेश्वर, शरण, दर्गत, लंगदत्त, केशट, धरणीधर इत्यादि प्रमुख हैं।3
इस कविता-परम्परा के सम्बन्ध में आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी का वक्तव्य विशेष उल्लेखनीय है-
‘‘संस्कृत-साहित्य की वेद से लगाकर पाँच-हजार साल की विकास यात्रा में आज तक एक समृद्ध काव्य-परम्परा निरन्तर सक्रिय रही, जिसे हम लोकधर्मी कविता, की परम्परा कह सकते हैं। यह काव्य-परम्परा राजसभा की सँकरी दुनिया के बाहर भारतीय जनता के विराट् संसार से उपजी थी। इसे वे अनाम और अनजाने कवि विकसित करते रहे, जिन्हें दरबारों में आश्रय नहीं मिला, प्रसिद्धि और सुरक्षा नहीं मिली। राजकीय लोखकों द्वारा उनकी रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ तैयार करवाकर ग्रन्थभण्डारों में नहीं रखी गयी। भौतिक सुरक्षा के अभाव में उनकी रचनाओं का बड़ा हिस्सा निश्चय ही काल-कवलित हो गया, पर यह पूरी परम्परा अत्यन्त प्राणवान् और कालजयी थी, अपने सामथ्र्य से वह जीती रही।’’4
आचार्य जी के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत की यह लोकसम्बद्ध काव्य-परम्परा संस्कृत-काव्य-साहित्य के आदिम काल से ही विद्यमान है और केवल राजकीय संरक्षण के अभाव में वे समुचित समृद्धि नहीं पा सकी। आचार्य जी के उपर्युक्त वक्तव्य में विरोधाभास सा प्रतीत होता है। इस कविता के विषय में वे कहते हैं कि राजकीय संरक्षण के अभाव में यह कालकवलित हो गयी परन्तु अपनी सामथ्र्य से जीती रही।
आचार्य जी के कथन का आशय यह है कि भौतिक सुरक्षा के अभाव में इस काव्य परम्परा का केवल भौतिक स्वरूप ही नष्ट हुआ था, किन्तु चूँकि यह परम्परा लोकसम्बद्ध थी अतएव लोक ने उसे पूर्णतया नष्ट नहीं होने दिया अपितु कुटज पुष्प की भाँति विपरीत परिस्थितियों में भी लोकसम्बद्धता की अद्भुत संजीवनी शक्ति के साथ यह परम्परा फलती-फूलती रही।
संस्कृत-काव्य की परम्परा वेदों से आरंभ होती है और संस्कृत-कविता की लोकसम्बद्धता भी हमें वेदों से ही मिलती है जहाँ अपने खेतों में प्रभूत अनाज उत्पादन के लिए देवों से प्रार्थना करता कृषक वर्णित है-
शुनाशीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रथुः पयः।
तेनेमामुप सिंचतम्।। (ऋग्वेद)
(सुनो इन्द्र हे, अरे सुनो पवन। दोनों देवता मेरे ये वचन।
जो संचित है नभ में जल, उससे सींचो मेरे खेत समुज्ज्वल।।)5
आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने लोकसम्बद्ध वैदिक कविताओं का संकलन अपने ग्रन्थ संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा’ के आरम्भिक भाग में ‘आदिम अग्नि’, ‘उषा’, ‘खेत का गीत’, ‘गायें’, ‘अरण्यानी’, ‘देवी रात’, ‘पर्जन्य’, ‘धरती माँ’, शीर्षकों के अन्तर्गत किया है।
वैदिक काल के बाद की वे कविताएँ जो विशुद्ध रूपेण लोकजीवन की सहजता को वर्णित की, अतिशय तलस्पर्शी तथा अन्तस् को झकझोरने वाली हैं।
वर्षा के दिनों को यूँ ही दुर्दिन नहीं कहते। वर्षा-काल में घास-फूस के घरों में रहने वाले दीन-जनों और उनके कुटुम्बियों की दुरवस्था का चित्रण कितना मार्मिक है-
सक्तून् शोचति सम्प्लुतान् प्रतिकरोत्याक्रन्दतो बालकान्
प्रत्युत्सिंचति कर्परेण सलिलं शैयातृणं रक्षति।
दत्वा मूर्धानि शीर्णशूर्पशकलं जीर्णे गृहे व्याकुला
किं तद् यन्न करोति दुःस्थगृहिणी देवे भृशं वर्षति।।
(भीग कर बह रहे बहू पर शोक कर रही है
चिल्लपौं मचाते बच्चों को चुप करा रही है  चिथड़े से चहबच्चे सुखा रही है पानी के
बचा रही है बिस्तर पुवाल का इस चूते टपकते पुराने घर में
टूटे सूप का सिर पर सँभाले टुकड़ा  क्या क्या नहीं कर रही है गरीब की घरवाली
जब कि देव बहुत जोर से बरस रहे हैं बाहर।)6
यह कविता विद्याधर द्वारा संकलित ‘सुभाषितरत्नकोश’ में वर्णित है जिसके कवि का नाम लंगदत्त है ये 12वीं शताब्दी के आसपास बताये जाते है।
गरीब के घर की विचित्र स्थिति है,एक दिन भोजन मिला तो अगले दिन के भोजन की व्यवस्था कैसे होगी? इस चिन्ता में डूबी गरीब की पत्नी की प्रकृति के शाश्वत नियम को टाल देने की आकांक्षा कितनी मर्मस्पर्शी है?
अद्याशनं शिशुजनस्य बलेन जातं। श्वो वा कथं नु भवितेति विचिन्तयन्ती।
इत्यश्रुपातमलिनीकृतगण्डदेशा नेच्छेद् दरिद्रगृहिणी रजनीविरामम्।।
(आज तो जैसे तैसे खिला दिया बच्चों को
अब कल क्या खयेंगे वे-
यही चिन्ता खाये जा रही है उसको।
आँसुओं से भीग कर मैले हो चुके गालों वाली
गरीब की घरवाली  चाहती है बस यही-
कि ठहरी रह जाये रात।7)
आजीविका के लिये परदेस गये व्यक्ति के पत्नी-बच्चों की व्याकुलता और उनकी व्याकुलता से विह्वल पथिक का वर्णन करती कविता प्रस्तुत है-
मा रोदीश्चिरमेहि वत्स विकलान् दृष्ट्वाद्य पुत्रानिमान्
आयातो भवतोऽपि दास्यति पिता ग्रैवेयकं वाससी।
श्रुत्वैवं गृहिणीवचांसि निकठे कुड्यस्य निष्क्रिंचनो
निःश्वस्याश्रुजलप्लुताननमुखः पान्थः पुनः प्रोषिताः।8
इस परम्परा के संस्कृत कवि की संवेदनशीलता की पराकाष्ठा का एक उदाहरण -जाड़े की रात है और गरीब की दम्पत्ति अपने एक शिशु के साथ एक कथरी (फटा-पुराना बिछौना) पर रात्रि व्यतीत करने का उपक्रम कर रहे हैं। किन्तु एक ही कथरी पर्याप्त नहीं पड़ रही है।
कन्थाखण्डमिदं प्रयच्छ यदि वा स्वाङ्के गृहाणार्भकं
रिक्तं भूतलमत्र नाथ भवतः पृष्ठे पलालोच्चयः।
दम्प्त्योर्निशिजल्पतोरितिवचः श्रुत्वैव चैरस्तदा
लब्धं कर्पटमन्यस्तदुपरि क्षिप्त्वा रूदन्निर्गतः।।
(या तो यह कथरी ही इधर दे दो
या फिर अपनी गोदी में ले लो लड़के को
यहाँ तो खाली धरती है,
तुम्हारे पीछे तो फिर भी पुआल की ढेरी है स्वामी।
रात में सुनी यह बात दम्पति के बीच की
घर में घुसे चोर ने।
सुन कर। दुसरे घर से चुराई चादर।
फेंक कर उनके ऊपर। रोता हुआ वह निकल गया बाहर)9
दम्पति की दीनता को देखकर पर धनहारी की ऐसी संवेदनशीलता भला किस भाषा की कविता में मिलेगी? इस कविता में यथार्थवाद और आदर्शवाद का अद्भुत् समन्वय मिलता है। जो इस परम्परा की अपनी विशेषता है।
ऐसा नहीं है कि यह परम्परा केवल निम्न वर्ग की अभावग्रस्तता, दीनता और कठिनाइयों का ही वर्णन करती है, प्रसन्नता के अवसर पर गीत-गाती ग्वालिनियाँ, मालिनियाँ, कृषकस्त्रियाँ तथा बधुएँ भी वर्णित हैं इस परम्परा में-
उद्वेल्लद्बाहुवल्लीप्रचलितवलयश्रेणयः पामराणां
गोहिन्यो दीर्घगीतिध्वनिजनितसुखास्तण्डुलान् कण्डयन्ति।।
(हाथ के उठते ही थिरकती हैं कंगनों की कतारें गीतों की लंबी कडि़याँ देती हैं सुख,
चाँदनी रात मंे। धान कूट रही हैं। पामरों की घरवालियाँ)10
इस कविता परम्परा में बसन्त ऋतु का वर्णन लोकजीवन को जीवन्त कर देता है जहाँ महुए बीनतीं, गीत गाती ग्वालिनें वर्णित हैं-
चिन्बानामिर्मधूकं मधुरमधुकरध्वनिचूताङ्कुराग्र
ग्रासव्यग्रान्यपुष्टध्वनितजयारम्भसंरम्भणामिः।
गीयन्ते वल्लवीभिः पथिकसहचरीप्राणयात्राप्रदीपाः
प्रातः प्रातर्वसन्तस्वररचितपदोद्गारिणो गीतिभेदाः।।
(बसन्त की भोर है वसन्ती। गा रही हैं ग्वालिनें।
बसन्ती स्वरों में रचे गये पदों के। गीत तरह-तरह के।
महुए बीन रही हैं ग्वालिनें। भौंरे मँडरा रहे हैं आम की बौरों पर।
मधुर गुंजन करते हुये। आम की बौरों का कौर ले कर।
कूक उठी है कोयल। भौरों और कोयलों के सुर के ऊपर सुर भरकर
बटोहियों की घरवालियों की जान में जान। डाल देते हैं गीत
जिन्हें गा रही हैं ग्वालिनें।11
इस प्रकार की अनेकानेक कविताएँ प्राचीन संस्कृत-साहित्य में तो मिलती ही हैं और संस्कृतानुरागियों के लिये यह बड़े ही गौरव व हर्ष का विषय है कि संस्कृत की यह लोकसम्बद्ध काव्यपरम्परा कहीं पर भी विच्छिन्न नहीं हुई अपितु आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति तथा स्वार्थपरकता के इस युग में भी इस परम्परा का निर्वहन आधुनिक-संस्कृत-कवियों द्वारा किया जा रहा है। इन कवियों ने यदि आधुनिक वैज्ञानिक युग के ऐश्वर्य, समृद्धि और चाकचिक्य का वर्णन किया है तो समाज के उस वर्ग का भी चित्रण किया है जो अभावग्रस्त हैं। आधुनिक काल की इस कविता परम्परा में भी गाँव के सिवान, धूल मिट्टी में खेलते बच्चे तथा जीवन के कटु यथार्थ का सामना करते लोग चित्रित हैं।
अभावग्रस्त, स्ववासविहीन व्यक्ति की विडम्बना तो देखिये-
जलैरालोड्यते बहु मेघकाले मद्गृहं जीर्णम्।
कुटङ्कात् पतति पानीयं च परितो भूतले कीर्णम्।।
ग्रहीतुं भाटकं तस्य स्थितो द्वारे गृहस्वामी
न लभते परगृहावासी कदाचित् सुखं सुखकामी।।12
कविपुंस्कोकिल प्रो0 हरिदत्त शर्मा- कृत प्रस्तुत कविता अभावग्रस्त व्यक्ति की कठिनाइयों का अत्यन्त मर्मस्पर्शी चित्रण करती है।
इस परम्परा में ऋतुएँ केवल रमणीय, मनोहारी और आह्लादकारी नहीं हैं अपितु इस परंपरा में ऋतु वर्णन नग्न यथार्थ का दर्शन कराते हैं। शीत ऋतु अट्टालिकाओं में रहने वाले लोगों के लिए तो सुखकारी हो सकती है किन्तु वसनविहीन,वासहीन, धनहीन लोगों के लिये तो अतिशय पीड़ाकारी ही है-
वसनविहीना निर्धनदीनाः, सीत्कारं कुर्वाणाः
निशि तिष्ठन्ति क्वचिन्नग्नाः हा, हिमघातंसहमानाः।।
रात्रिर्याति न कालमयीयं दिनं कथंचिद् वीतम्। अयि प्रवर्तते शीतम्।।13
वर्षा ऋतु की भयंकर वृष्टि से घर की तथा घर में रखी वस्तुओं की रक्षा करती गाँव की स्त्री का वर्णन प्राचीन लोकपरम्परा के कवियों की ही भाँति किया गया है आधुनिक युवा कवि महराजदीन पाण्डेय ने-
वृष्टिः स्थगिता छत्वरं परन्तु स्वप्ने चिरं च्योतति
खट्वायां वोदत्वमति कन्था ग्रामस्य जीर्णे गृहे
अवशालान्तरमुपसृतं प्रवातक्षिप्तं वलीकोदकम्
उल्लुंचति चुलुकेन कापि वारयतीस्तातः कूर्दतः
पृथुकान्नोच्चयमुपायशतकैः सा रक्षितुं चेष्टते
गामानय वुसमुत्तमेतत्पुरो नानीतमिन्धनमिति
ब्रुवती चिन्तास्तोभ सम्भ्रमवती दृशमेति ग्राम्या वधूः।।14
इस कविता परम्परा में सिंह शावक का दाँत गिनते बालक नहीं हैं, गुरुकुल में शस्त्र-शास्त्र का अभ्यास करते बालक नहीं हैं, समृद्ध तथा बहुमूल्य खिलौनों से खेलते बालक नहीं हैं, अपितु अत्यल्प उपलब्ध साधनों से खेलने वाले बच्चे हैं, धूल-मिट्टी से सने हुये क्रीड़ा करते बच्चे हैं-
धूलिच्छुरणान्मलिनवपुषां नग्नकानां सपुलकं
क्रीडां चरतामवृतभूमौ दारुपर्णोपकरणैस्
तुत्लत्काराक्षरैः मधुरैः कर्णेषु वमतां रसं
व्यथयति यान्नस्वपरभावो जातिषु विभक्ता न ये
ग्रामारामः प्रेयानयं प्रेयसां दारकाणाम्।।
(धूलि नहाने से मैली कुचैली देह वाले, नंग-धड़ंग, ‘लकड़ी-पतई’ रूप साधनों से रोमांचित होकर खेलने में निमग्न, अपनी तोतली-बोली से कानों में रस घोलने वाले, जिन्हें अपने-पराये का भाव परेशान नहीं करता और जो जातियों में बँटे नहीं हैं- ऐसे प्यारे बच्चों का यह प्यारा सा गाँव उद्यान।15
बालुकासु लघुगृहनिर्माणम्। विदधति मार्गसेतुसीमानम्।।
बाला धूलिधूसरा नग्नाः। ग्रामबालकाः क्रीडालग्नाः।।
एकश्चिरं निमीलतनयनः। अपरस्तदा परावृतवदनः।।
शिरसि ददति च चपेटां मग्नाः। ग्रामबालकाः क्रीडालग्नाः।।16
 इस परम्परा में लोकमान्यताओं का भी वर्णन मिलता है, शिक्षित एवं कुलीन वर्ग के लिये तो यह अन्धविश्वास हो सकता है किन्तु गाँवों में रहने वाले निम्न वर्ग एवं मध्यम वर्ग के लिये तो ये लोकमान्यताएँ कार्यों के आरंभ अथवा अन्त का मानदण्ड हुआ करती हैं-
छिक्काया अशुभं प्रतक्र्य रमणेप्यादौ विरज्यत्ययं
यात्रां स्थगयति महन्महतीं विडाल्योल्लङ्घितेऽध्वनि
प्रतिकार्यं व्यङ्ग विजातिविधवे चामङ्गलं मन्यते
तिथिवाराद्यागृह्य जीवन् युगे ग्रामोऽयमस्त्यादिमे।।17
(जो छींक से अशुभ की आशंका करके यदि ‘रमण’ आरम्भ करना है तो उससे भी विरत हो जाता है। बिल्ली के रास्ता काट देने पर बड़ी से बड़ी यात्रा स्थगित कर देता है, प्रत्येक कार्य, विकलाङ्ग, विशिष्ट जाति और विधवा को अपशकुन मानता है और तिथि-वार आदि पकड़कर जीता है, ऐसा यह आदिम युग में वर्तमान युग है।)
आधुनिक युवा कवि महराजदीन पाण्डेय-कृत ‘ग्रामोऽयम्’ नाम्ना यह दीर्घ कविता संस्कृत की लोकसम्बद्ध कविता का ज्वलन्त उदाहरण है।
कृषक वर्ग का चित्रण करती लोकगीतलयाश्रित प्रस्तुत पंक्तियाँ संस्कृत कविता की लोकसम्बद्धता को पुष्ट करती है
धृतहलवृषभयुगलमनुयातं त्वरितं ग्रामटिकानिर्यातम्।
नवकृषीवलद्वन्द्वंक्षेतं कर्षति वर्षति पानीये।
चल ललने मज्जावः ससुखं
यथा सुमीनौ पानीये।18
यदि हिन्दी में महाकवि निराला ने सड़क पर पत्थर तोड़ती मजदूरनी का वर्णन किया है तो संस्कृत-कविता में भी इस तरह के वर्णनों का अभाव नहीं है। गंभीर विचारक और पांजल कवि आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डेय की प्रस्तुत कविता में एक सफाई- कर्मचारी का चित्रण है-
वाष्प-प्रेरित-यान-सीत्कृति-चलत्-सम्मर्द-कोलाहले
सामग्री-नत-भारिकावलि-मिलत्-सम्भ्रान्त-यात्रिव्रजे
पाश्र्वास्थितकान्तया प्रमुदितसंलरघमाकल्पयत्
संक्षोभं खलपूरुपेक्ष्य निरतः सम्मार्जनीबन्धने।।19
स्टेशन की गहमागहमी में यात्रियों की ठेलम-ठेल के बीच जमादार प्रतिदिन की आदत के मुताबिक भीड़ से नितान्त विरत होकर सफाई करने के लिये अपनी बुहारी बाँध रहा है। उपर्युक्त विवरण से संस्कृत-कविता की लोकसम्बद्धता सिद्ध हो जाती है। वस्तुतः यह लोकसम्बद्धता प्रत्येक कविता के लिये आवश्यक भी है क्योंकि लोक ही समस्त कलाओं, शास्त्रों, विद्याओं, सांस्कृतिक उपलब्धियों एवं चिन्तन का आधार है। नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य भरत कहते हैं कि मनुष्यों के सारे कर्म शिल्पकलाएँ तथा निपुणता लोक पर ही आधारित हैं, और यदि लोक नहीं रहे तो ये सब भी नष्ट हो जायेंगे-
कर्म शिल्पानि शास्त्राणि विचक्षणबलानि च।
सर्वाण्येतानि विनश्यन्ति यदा लोकः प्रणश्यति।।20
वस्तुतः लोक ही समस्त शास्त्रों का बीज है और संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है। यह कह सकते हैं कि संस्कृत और लोक समस्त साहित्यों तथा शास्त्रों का आधार है अतएव संस्कृत कविता को केवल कुलीन एवं वर्गविशेष की कविता कहना अनुचित है। वर्तमान काल में संस्कृत की लोकसम्बद्ध कविता परम्परा का निर्बाध प्रवाह संस्कृत कविता की लोकसम्बद्धता और संस्कृत भाषा की जीवन्तता को स्वतः ही प्रमाणित करता है। उपर्युक्त विवेचन सिद्ध करता है कि संस्कृत की यह लोकसम्बद्ध कविता-परम्परा संस्कृत साहित्य के आदिकाल से ही विद्यमान है और जब तक लोक रहेगा तब तक यह विद्यमान रहेगी-
न मृता, म्रियते न मरिष्यति वा।21
संन्दर्भ ग्रन्थ
1. ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा’ (डाॅ0 राधावल्लभ त्रिपाठी) भूमिका, द्वितीय संस्करण-2000 पृ0 7,
2. ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा’ नामवर सिंह कृत आलोचना, पुस्तक की भूमिका से उद्धृत (पृ0 6)
3. ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा’ भूमिका पृ0-5
4. वही, भूमिका, पृ04
5. वही, ‘खेत का गीत’ कविता संख्या 17, पृ0 93
6. वही, गृहिणी’ कविता संख्या 91, पृ0 124
7. वही, गृहिणी’ कविता संख्या 102, पृ0 130
8. वही, गृहिणी’ कविता संख्या 104, पृ0 131
9. वही, परिवार, कविता 118, पृ0 138
10. वही, गृहिणी’ कविता संख्या 94, पृ0 126
11. वही, वसन्त, कविता 203, पृ0 191
12. गीत कन्दलिका (प्रो0 हरिदत्त शर्मा) द्वितीय संस्करण 2006, पृ0 34
13. उत्कलिका (प्रो0 हरिदत्त शर्मा) प्रथम संस्करण 1989, पृ0 6
14. काक्षेणवीक्षितम् (ग्रामोऽयम्) महराजदीन पाण्डेय, प्रथम संस्करण 2004, पृ0 101
15. वही, पृ0 102
16. बालगीताली (प्रो0 हरिदत्त शर्मा) प्रथम संस्करण 1991, पृ045
17. काक्षेण वीक्षितम्, पृ0 106
18. गीतकन्दलिका
19. भागीरथी (गोविन्द चन्द्र पाण्डेय) प्रथम संस्करण 2002, पृ0 4
20. नाट्यशास्त्र (19/151)
21. श्रुतिम्भरा