Saturday 2 January 2010

कवि-प्रतिभा का दार्शनिक विश्लेषण


विनय कुमार त्रिपाठी
शोध छात्र, संस्कृत-विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।


‘‘प्रतिपूर्वकाद् भा-दीप्तावितिधातोरङ प्रत्यययोगेन निष्पन्नोऽयं प्रतिभा शब्दः’’ इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा में काव्यांगों के विमर्श में काव्यकारण (प्रतिभा) का महत्त्व अत्यधिक स्वीकार्य है। वस्तुतः प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है तो ब्रह्मानन्द सहोदर रूपी काव्य जैसे अद्भुत कार्य का भी कोई विलक्षण कारण होना नितान्त तार्किक है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में कार्यकारणवाद को मुक्तकण्ठ से स्वीकृति प्रदान की है। इसी भारतीय दर्शन की सिद्धान्त परम्परा का अनुपालन काव्यशास्त्रीय आचार्याें ने किया है। काव्य कारण को आचायों ने ‘‘प्रतिभा’’ शब्द से अभिभूत किया। शब्दकल्पद्रुम में इसे ‘‘प्रत्युत्पन्न मति’’ के रूप में व्याख्यायित किया गया है।1
प्रतिभा, कवि के लिए काव्य का प्रधान साधन है। संस्कृत भाषा के आलंकारिक आचार्य भामह की सम्मति में शास्त्र और काव्य का अध्ययन करने वालों में यही अन्तर होता है कि जड़ बुद्धि वाला मनुष्य भी गुरु के उपदेश से शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ सकता है। परन्तु काव्य की स्फूर्ति उसी व्यक्ति में होती है जो प्रतिभा से सम्पन्न होता है। यही नहीं, प्रतिभा को मूल हेतु के रूप में स्वीकृति देते हुए वे कहते हैं कि-
‘‘काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।’’2
अर्थात् काव्य किसी-किसी प्रतिभाशाली में कभी-कभी स्फुरित होता है। वास्तव में यह प्रतिभा रूपी काव्य उस ब्रह्म की तरह है जिसका ज्ञान केवल केवली या ब्रह्मज्ञ ही कर सकता है। वर्तमान सृष्टि में बहुधा लोग कहते है। लेकिन उन सभी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो पाता। उसी प्रकार यह कवि प्रतिभा भी किसी-किसी प्रतिभाशाली में कभी-कभी स्फुरित होती है। अग्निपुराण में इसके महत्त्व को बताया गया है कि-
‘‘नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।’’3
अर्थात् संसार में मनुष्य का जन्म पाना ही दुर्लभ है। मनुष्य जन्म पाकर भी विद्या की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, विद्या पाकर भी कवित्व पाना और कवित्व पाकर भी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा पाना दुष्कर है। आचार्य दण्डी ने काव्यकारणत्व के विषय में प्रतिभा को नैसर्गिकी माना।4 यह प्रतिभा उस अधिकारी को प्राप्त है जो सहृदय एवं साधनचतुष्टयसम्पन्न है। वामनाचार्य ने प्रतिभा एवं प्रज्ञा में इस प्रकार विभेद किया-
‘‘द्वे वत्र्मनो गिरा देव्याः शास्त्रं च कविकर्म च। प्रज्ञोपज्ञं तयोराद्यं प्रतिभा...............।।’’5
अर्थात् प्रज्ञा से शास्त्रों की रचना होती है और प्रतिभा से काव्य की। यह उसी प्रकार दृष्टिगोचर होता है जैसे सीपी में बूँद में मोती का प्रतिभान होने लगता है। लेकिन जब अज्ञात का आवरण हट जाता है तो वह काव्य काव्य न होने के कारण उपहास के योग्य हो जाता है। क्योंकि काव्य वह है जो परमानन्द की प्राप्ति में सहायक हो।
भटृतौत ने इस सम्बन्ध में स्मृति, मति, बुद्धि, प्रज्ञा, और प्रतिभा के लक्षण करके उनमें भेद आदि बताकर प्रतिभा को काव्य का हेतु कहा है। भूतकाल का स्मरण कराने वाली स्मृति है। भविष्य का बोध मति से होता है। तत्काल ज्ञान बुद्धि से होता है और प्रज्ञा से तीनों का बोध होता है। स्पष्टतः उन्होंने कहा कि ‘‘नव-नव ज्ञान को उन्मेषित करने वाली प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं।’’6 इस प्रतिभा से अनुप्राणित होकर वर्णन करने में निपुण व्यक्ति कवि होता है तथा उस कवि का कार्य काव्य कहलाता है जो ब्रह्मानन्द सहोदर रूपी है।
आचार्य राजशेखर ने प्रतिभा को दो रूपों में स्वीकार्य किया।
‘‘सा च द्विधा कारयित्री भावयित्री च।7
अर्थात् कवि के लिए आवश्यक होती है कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा। वस्तुतः यहाँ कवि और कविमर्मज्ञ में वही अन्तर है जो अन्तर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तत्पर व्यक्ति और ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति में है। वस्तुतः काव्यरूपी ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुका व्यक्ति ही काव्य का मर्मज्ञ हो सकता है और उसका कारण यह भावयित्री प्रतिभा ही है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि मनुष्य ही नहीं, हर चेतन प्राणी जीवन में सुख आथवा आनन्द चाहता है। आनन्दलाभ की यह प्रवृत्ति  मनुष्य में सर्वोपरि है। सभी भारतीय दर्शन, चाहे वे आस्तिक कोटि के हों अथवा नास्तिक कोटि के दुःखत्रय (आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक) के विनाश द्वारा आनन्दोपलब्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं।
अब इस आनन्दप्राप्ति के अनेक उपाय हो सकते हैं। तामसिक आनन्द का हेतु भी तामस कोटि का ही होगा। परन्तु काव्यसर्जना अथवा काव्यश्रवणजन्य आनन्द सात्त्विक कोटि का ही होता है। इसीलिए उसकी तुलना ब्रह्मानन्द के साथ की गई है। ब्रह्मानन्द की अनुभूति जिस साधक को होती है वह तो ब्रह्ममय ही हो जाता है। वह उस अनुभूति को बताने की स्थिति में रहता ही कहाँ है? जब बूँद सागर में मिल गई तो फिर उसका पृथक् अस्तित्व बचा कहाँ? फिर तो सागर बनने की अनुभूति ‘अनकही’ ही रह जाती है। इसी प्रकार ब्रह्मानन्द भी अनिर्वचनीय है।
इसीलिए काव्यानन्द को साक्षात् ब्रह्मानन्द नहीं, बल्कि ब्रह्मानन्द-सहोदर कहा गया है जिसका स्पष्टतः भाव यह है कि काव्यानन्द भी ब्रह्मानन्द के ही समकक्ष होता है। काव्यानन्द भी जिसको प्राप्त होता है, मात्र वही उसका अनुभव करता है। काव्यानन्द का भी अनुभव करने वाला व्यक्ति अन्य को यह नहीं बता सकता कि ‘वह कैसा होता है?’ काव्य एवं ब्रह्मसाक्षात्कारजन्य आनन्द की समकक्षता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि दोनों ही ‘विगलितवेद्यान्तर’ होते हैं। अर्थात् जब ब्रह्मानन्द आथवा काव्यानन्द की स्थिति आ जाती है तब उन क्षणों में कोई अन्य अनुभव का विषय नहीं रह जाता। अन्य आनन्दों में ऐसा नहीं होता है। दूसरी बात यह कि उपर्युक्त दोनों ही आनन्दानुभूतियों में ज्ञाता, ज्ञेय, तथा ज्ञान का भेद मिट जाता है और तीनों मिलकर एकरूप हो जाते हैं। इस प्रकार यह प्रतिभा उस ब्रह्मानन्दरूपी काव्यानन्द का मूल कारण है।8
आनन्दवर्धनाचार्य ने प्रतिभा को बताते हुए ध्वन्यालोक में कहा-
‘‘सरस्वती स्वादु तदर्थवस्तु निष्यन्दमाना महतां कवीनाम्। आलोक सामान्याभिव्यक्ति परिस्फुरन्तं प्रतिभा विशेष।।’’9
अर्थात् आस्वादमय रसभावरूप रस अर्थरूप तत्व को प्रवाहित करने वाली महाकवियों की वाणी आलौकिक परिस्फुरित होती हुई प्रतिभा के विशेष को अभिव्यक्त करती है। अभिनवगुप्त ने लोचन टीका में प्रतिभा की इस प्रकार मीमांसा की।
‘‘प्रतिभा अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा। तस्या विशेषोरसावेशवैशद्यसौन्दर्य कारण निर्माणक्षमत्वम्।।10
अर्थात् अपूर्ववस्तु (ब्रह्म स्वरूप काव्य) के निर्माण में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं। उसका विशेष है रस के आवेश से विशदता से युक्त सौन्दर्य रूप काव्य के निर्माण की क्षमता। आचार्य कुन्तक का समग्र ‘‘वक्रोति जीवितम्’’ नामक ग्रन्थ प्रतिभा की अतिगूढ़ व्याख्या करता है। उनका स्पष्ट मत है कि काव्य में कवि प्रतिभा का ही चरम उत्कर्ष रहता है।
‘‘कवि-प्रतिभा-प्रौढि़रेव प्राधान्येनावतिष्ठते।।’’11
कविता में जो कुछ भी चमत्कार है वह सब प्रतिभा के द्वारा ही उत्पन्न होता है। मम्मटाचार्य ने काव्य कारण में शक्ति (कवित्व की बीजरूप प्रतिभा) लोकशास्त्र काव्य आदि में अध्ययन, मनन और चिन्तन से उत्पन्न योग्यता, शिक्षा द्वारा प्राप्त अभ्यास को काव्य हेतु माना है।
‘‘शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्। काव्यज्ञ शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।’’12
मम्मटाचार्य ने प्रतिभा को ‘‘शक्ति कवित्वबीज रूप संस्कार विशेष’’ माना। प्रतिभा काव्य के लिए मूल कारण अर्थात् बीजमय है। इसी के कारण कवि हृदय में कविता के भावों का प्रोद्भास होता रहता है। किन्तु इस बीजरूप तत्व का साक्षात्कार हो कैसे? इसके लिए प्रमाणों के रूप में साधन दिये गये। लेकिन यह प्रश्न सार्वजनिक है कि हम इस प्रतिभा को किस प्रमाण के द्वारा ज्ञेय माने? यदि हम इसे प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ज्ञेय माने तो इसका इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं हो रहा है। जैसे यह धट है, यह पट है इत्यादि के समान इसका न्निकर्ष नहीं प्राप्त हो रहा है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा इसकी ज्ञेयता असिद्ध हो जाती है। पुनः प्रत्यक्ष के अभाव में व्याप्ति नहीं बन सकती। अतः अनुमान से भी इसे ज्ञात नहीं माना जा सकता। उपमान आदि प्रमाणों से भी इसका ज्ञान नहीं हो सकता।
व्याकरण दर्शन में प्रतिभा आगम प्रमाण के रूप में स्वीकार्य है। वह शब्द ब्रह्मरूपत्वात् है। महाभारत में भी कहा गया है कि ‘‘शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’’13 अर्थात् शब्दब्रह्म में प्रवीण होकर पुरुष परब्रह्म (मोक्ष, ब्रह्मसायुज्य) की प्रप्ति करता है। यहाँ शब्द का तात्पर्य शब्द एवं अर्थ से है। जिसकी उत्पत्ति केवल प्रतिभा के द्वारा ही सम्भव है। अर्थात् इस प्रतिभा से ही उस परब्रह्म या परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। वाक्य के प्रयोग में, वाक्य के ग्रहण में प्रतिभा ही मूल कारण है। बिना प्रतिभा के वाक्यार्थ का ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो शब्द श्रोता को सुनाई पड़ता है उसी प्रकार उसे उस शब्द का अर्थ बोध होता है। इस प्रकार इस अतीन्द्रिय ज्ञान से ही प्रतिभा का साक्षात्कार सम्भव होता है जैसा कि वाक्यपदीयम् में कहा गया है।
‘‘अतीतानागतज्ञानं प्रत्यक्षात्र विशिष्यते।।’’14
अपि च
‘‘अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्यार्षेण चक्षुषा।।’’15
प्रतिभा वह है जो श्रोता के सहकारिणी होती है जैसा कि नागेश भट्ट ने कहा है ‘‘अनया चार्थबोधे जननीये वक्तृबोद्धव्य-वाच्यादिवैशिष्टयज्ञानम्, प्रतिभा च सहकारि तद्धीजनकज्ञानजनकमेव वा।।’’......वाक्त्रादिवैशिष्टयसहकारेण तज्जनिका बुद्धिः प्रतिभेति।।’’16
आचार्य भर्तृहरि ने प्रतिभा को षड् भेदों में विभाजित किया-
‘‘स्वभाव-चरणाभ्यास-योगादृष्टोपपादिताम्। विशिष्टोपहितां चेति प्रतिभां षड्विद्यां विदुः।।’’17
ये षड् भेद स्वभावजन्य, आचरणजन्य, अभ्यासजन्य, योगजन्य, अदृष्टजन्य एवं विशिष्टपरिस्थितिजन्य इस प्रकार है। किन्तु इस कवि प्रतिभा को किस भेद के अन्तर्गत स्वीकार किया जाय? पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य कारण अर्थात् प्रतिभा में अपनी विशेष मति का प्रयोग किया।
‘‘तस्य च कारणं कविगता केवला प्रतिभा। सा च काव्यघटनानुकूलशब्र्दोपस्थितिः।।’’18
अर्थात् उन्होंने अदृष्ट एवं व्युत्पत्ति अभ्यास को काव्य कारण के रूप में प्रतिष्ठित किया। पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार काव्य रचना के अनुकूल शब्दों और अर्थों की स्वाभविक उपस्थिति प्रतिभा है। आचार्य जगन्नाथ इस प्रतिभा का कारण क्या है उसे बताते हैं कि यह प्रतिभात्व काव्य का कारणतावच्छेदक (अर्थात् कारण में रहने वाला मूल धर्म) होने से नित्य जाति रूप है। अथवा अखण्ड उपाधिरूप है।19
इस प्रकार आचार्य प्रतिभा के भेद का स्पष्टीकरण करते हैं कि यह प्रतिभा कहीं तो देवता या महापुरुषों की प्रसन्नता आदि से अदृष्ट है और कहीं विलक्षण व्युत्पत्ति (निपुणता) और काव्य के अनुशीलन या अभ्यास से उत्पन्न होती है। इस प्रकार प्रतिभा अदृष्ट और व्युत्पत्ति अभ्यास इन दो कारणों से उत्पन्न होती है। व्यक्तिविवेककार का कथन है कि ‘‘कवि का रसानुकूल शब्दों के चिन्तन में लीन हो जाना प्रतिभा है। जो परम तत्व के स्पर्श से जागृत होती है।
‘‘रसानुगुणशब्दार्थचिन्तनास्तिमितचेतसः। क्षणं स्वरूपस्पर्शोत्था प्रज्ञैव प्रतिभा मता।।’’
यदि हम काव्य के कारणत्व पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि भारतीय दर्शन के दार्शनिकों ने कारण को दो रूपों में स्वीकार किया। 1. निमित्त कारण ;म्ििपबपमदज ब्ंनेमद्ध 2. उपादान कारण ;डंजमतपंस ब्ंनेमद्ध। इसी प्रकार काव्य कारण के रूप में भी दो कारण मूल है। पहला निमित्तकारण जो कि प्रतिभा के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह निमित्तकारण प्रतिभा, कवि की उर्वरक कल्पना, सूक्ष्मसौन्दर्यानुभूति, संवेदनशीलता, शब्द और अर्थतत्व की सूक्ष्मपरख और सहज स्वतः अभिव्यंजनशीलता एवं उन्मेष के रूप में हमें दृष्टिगोचर होती है।
उपादान कारण के रूप में व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को रखा जा सकता है। जो लोकशास्त्र में व्यापक ज्ञान, सत्संग, श्रवण, मनन और अभ्यास के रूप में होता है। यही दोनों कारण आपस में संयुक्त होकर निमित्तकारण रूपी प्रतिभा को काव्य के मूल शक्ति के रूप में उद्भाषित करते हैं।
कवि की सर्जनात्मक प्रतिभा के सम्बन्ध में अग्निपुराण का कथन है कि ‘‘कवि अपार काव्य संसार का रचयिता है। उसे जैसा रुचता है वही रूप प्रदान करता है। यदि कवि श्रृंगारी है तो समस्त काव्यजगत् श्रृंगार से परिपूर्ण हो जाता है। यदि वह वीतरागी है तो काव्य जगत् भी वीतरागी दिखाई देता है।’’20 इस प्रकार यह कवि-प्रतिभा अपनी निर्मल अजस्र धारा से सहृदयजनों को अभिसिंचित करती आ रही है।
संदर्भ ग्रन्थ:
1. शब्दकल्पद्रुमःतृतीयकाण्डम्
2. काव्यालंकार, भामह कृत - 1/5
3. अग्निपुराण- 337.3
4. नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम्।; काव्यादर्श (1.103)
5. काव्यालंकार सूत्रम्- 1/3/1
6. प्रज्ञा नवनवोन्मेशषलिनी प्रतिभा मता।; भट्टतौतद्ध
7. काव्यमीमांसा, राजशेखर, - पृ0-29
8. साहित्यदर्पणः, विश्वनाथ, सं. एवं. अनु. जगन्नाथ पाठक, कारिका 1/9 वाराणसी चैखम्भा विद्याभवन, 2000।
9. ध्वन्यालोक सलोचन, आनन्दवर्धन, सं. एवं. अनु. जगन्नाथ पाठक, वाराणसी चैखम्भा विद्याभवन, 2000 पृ0-32
10. वक्रोक्तिजीवितम्, कुन्तक
11. काव्यप्रकाश, मम्मट, सं. एवं. अनु. विश्वेश्वर 1/कारिका3 वाराणसी ज्ञानमंडल सं, 1017वि.।
12. महाभारत शा0प0/270
13. वाक्यपदीयम्, भर्तृहरि, -1/37
14. तदैव-1/38
15. वैयाकरणसिद्धान्तमन्जूषा - पृ0-871
16. वाक्यपदीयम, भर्तृहरि - 2/152
17. पण्डितराजजगन्नाथविरचितः रसगंगाधरः, चन्द्रिका संस्कृत हिन्दी व्याख्योपेतः (प्रथमाननम्), संस्कृतव्याख्याकारः, पण्डित श्री बद्रीनाथ झा, हिन्दी व्याख्याकार, पण्डित मदन मोहन झा, चैखम्भाविद्याभवन, वाराणसी, चैखम्भा सुरभारती प्रकाश पुनर्मुद्रित संस्करण 2005।
18. तद्गतं च प्रतिभात्वं काव्यकारणतावच्छदकतया सिद्धो जाति विशेष उपाधिरूपं वा खण्डम्-रसगंगाधर- पृ0-29।