Thursday 1 January 2015

उदीयमान भारतीय समाज और शिक्षा

डीण् एसण् सिंह वघेल एवं विजय शंकर शुक्ला

समाजशास्त्र की दृष्टि से समाज एक अमूर्त सम्प्रत्यय है। वे इसे सामाजिक सम्बन्धों का जाल मानते है। लेकिन सामान्य प्रयोग में सामाजिक सम्बन्धों से बनेए सामाजिक समूह को समाज कहते है।1 वास्तविकता यह भी है कि ष्परम्पराष् यज्तंकपजपवदद्ध और ष्आधुनिकताष् यडवकमतदपजलद्ध विषय का सम्बन्धए ष्सामाजिक परिवर्तनष् यैवबपंस ब्ींदहमद्ध से है। ये दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक है।
भारतीय सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है किए मोटे तौर पर सामाजिक परिवर्तन की दिशाए परम्परा से आधुनिकता की ओर है।2 वास्तव में परम्परा सामाजिक विरासत का वह ष्अभौतिकष् अंश हैए जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम0 एन0 श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक श्ैवबपंस ब्ींदहम पद डवकमतद प्दकपंश् में भारतीय समाज में आ रहे परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिए तीन अवधारणाओं का उल्लेख किया है।3 1ण् संस्कृतिकरण 2ण् पश्चिमीकरण और 3ण् धर्म निरपेक्षीकरण।
श्रीनिवास के अनुसार ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज और संस्कृति में बुनियादी और दूरगामी परिवर्तनों की शुरूआत हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक नौकरशाही यठनतमंनबतंबलद्धए सेनाए पुलिस और न्यायालय की स्थापना की गयी। रेल एवं डाक.तार जैसे. आधुनिक संचार माध्यमों की शुरूआत की गयीए साथ ही आधुनिक स्कूल कालेजों की स्थापना की गयी। इस तरहए ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में आधुनिक राज्य की नींव डाली गयी।
जब ब्रिटिश कानून द्वारा धर्म के साथ जुड़ी सती और गुलामी जैसी सामाजिक बुराइयों पर कानूनी रोक लगा दी गयीए तो एक तरह से इस सिद्धान्त को मान्यता दी गयी कि उन्हीं धार्मिक प्रचलनों को समाज में बना रहने दिया जा सकता हैए जो तर्कबुद्धि और मानवतावाद की दृष्टि से सही हो।
ऐसा नहीं है कि भारत के स्वतन्त्र होने के बाद ष्पश्चिमीकरणष् या ष्आधुनिकीकरणष् की प्रक्रिया रुक गयी हैए बल्कि यह और तेज हो गयी है। श्रीनिवास ने भी स्वीकार किया है कि आजादी के बाद इस दिशा में एक बड़ी छलांग लगायी गयी है। जैसे. स्वतंत्र भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के भारतीय संविधान के अनुच्छेद.17 में ष्अस्पृश्यताष् का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है।ष्ष्4
भारतीय संविधान में सामाजिक न्यायए समताए स्वतन्त्रता एवं बंधुता के लोकतांत्रिक मूल्यों को केन्द्रीय स्थान दिया गया है।5 न सिर्फ समता और स्वतन्त्रता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गयीए बल्कि भारतीय संविधान के भाग.3 के अनुच्छेद.16 में लोक नियोजन में अवसर की समता का उपबन्ध है।6
स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद हमारे भारतीय समाज में बहुत तीव्र गति से परिवर्तन देखने को मिला है। आज ;2015द्ध में जो इसका स्वरूप है। वह कल ;1947द्ध के स्वरूप से अधिक भिन्न है। भारतीय समाज बहुजातीय समाज है। इसमें अनेक जातियाँ एवं उप जातियाँ है। कभी इन जातियों के बंधन बहुत कठोर थेए लेकिन हमारी समानताए समाजवाद और सामाजिक न्याय की नीतियों से वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था के बंधन ढीले पड़े है।
इसके अतिरिक्त भारतीय समाज में कुछ आमूल चूल परिवर्तन भी देखने को मिल रहे है। जैसे. प्रेमए स्नेहए आदरए श्रद्धा और संयुक्त उत्तरदायित्व पर आधारित संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर अब स्वार्थ पर आधारित एकाकी परिवार व्यवस्था ने स्थान ले लिया है।7 यही नहीं बल्कि इस बीच हमारे भारतीय समाज ने विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में बहुत विकास किया है। इसके प्रयोग से देश में उत्पादन में वृद्धि हुई है और देश का आर्थिक विकास हुआ है और लोगों का जीवन स्तर भी उठा है। लेकिन दूसरी ओर भौतिकवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला है। जैसे. मार.धाड़ए लूट.खसोटए तस्करी और काला बाजारी आधुनिकता का पर्याय बन चुका है। सर्वत्र घुटनए असंतुलनए कुण्ठाए संत्रासए विखराव और बेकारी का प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। इस सन्दर्भ में महर्षि अरविन्द का कथन द्रष्टव्य है. ष्ष्आधुनिकता को चीर कर देखोए तो तुम्हारी ओर घूरती हुई आदिम बर्बरता मिलेगी।ष्ष् यहॉ महात्मा गाँधी का कथन प्रसंगानुकूल है. ष्ष्वैज्ञानिक प्रगति के पूर्व धार्मिक एवं नैतिक प्रगति नितांत आवश्यक है.अन्यथा व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति खतरे में पड़ जायेगी।ष्ष्8
वास्तव में उदीयमान भारतीय समाज में जिस भौतिकवादी समाज का विकास हुआ है। उससे आध्यात्मिकता की भावना कमजोर हुई है। परिणामस्वरूप बुद्धि पक्ष की प्रधानता हुई है और भाव पक्ष में गिरावट हुई है और सच पूछे तो हमारी समस्त सामाजिक बुराइयों की जड़ यह भौतिकवादी दृष्टिकोण है।
शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया हैए बच्चे की वास्तविक शिक्षा और उसका वास्तविक विकास उसके समाज की प्रकृति एवं स्वरूप पर निर्भर करता है। बच्चे की शिक्षा और विकास का शुभारम्भ होता है। माँ की गोद से शिक्षा व्यक्तिए समाज और राष्ट्र के निर्माण का मुख्य साधन है। 86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा का उपबंध किया गया है।9
वास्तव में किसी भी आदर्श समाज के निर्माण में शिक्षा की आधारभूत भूमिका होती है। आदर्श भारतीय समाज से तात्पर्य हैए ऐसे समाज से है जो समाज एवं राष्ट्र के अनुकूल आचार.विचार वाला होए अपने लोकतन्त्र में उसकी आस्था हो और वह अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करे और कर्त्तव्यों का निष्ठा से पालन करे।
यह एक ऐसा समाज होए जिसमें विभिन्न जातियां तो होए पर जातीय आधार पर वर्ग भेद न होए जिसमें विभिन्न संस्कृतियां तो होए पर सांस्कृतिक टकराव न हो। जिसमें विभिन्न धर्म तो हो पर धर्म के नाम पर संघर्ष न होए जिसमें सब अपना आर्थिक विकास तो करे परन्तु कोई किसी का शोषण न करे और जिसमें जागरूकता हो एवं विस्तृत दृष्टिकोण हो और जो सदैव विकास की ओर अग्रसर हो। ऐसे समाज के निर्माण के लिए हमें शिक्षा को एक नई दिशा देनी होगी।10
सन्दर्भ ग्रन्थ.
1ण् लालए रमन बिहारीए शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त
2ण् रमेन्द्रए समाज और राजनीति दर्शन एवं धर्म दर्शन।
3ण् वही।
4ण् उपाध्यायए जय जय रामए भारत का संविधान।
5ण् पाण्डेयए जय नारायणए भारतीय संविधान।
6ण् उपाध्यायए जय जय रामए भारत का संविधान।
7ण् लालए रमन बिहारीए शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त।
8ण् पाण्डेयए दुर्गा दत्तए धर्म दर्शन का सर्वेक्षण।
9ण् उपाध्यायए जय जय रामए भारत का संविधान।
10ण् लालए रमन बिहारीए शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त।
डॉ0 डीण् एसण् सिंह वघेलए प्रभारी आचार्य ;शोध निर्देशकद्ध
विजय शंकर शुक्ला ;शोधकर्त्ताद्ध
लाइफ लांग लर्निंग विभागए ;बी0 एड0 प्राध्ययन केन्द्रद्ध
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालयए रींवा ;म0प्र0द्ध