Thursday 1 January 2015

सामाजिक सन्दर्भ और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध


निवेदिता श्रीवास्तव

‘‘मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुःख कातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।1’’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य सृजन के मूल में उनकी यही सामाजिक दृष्टि थी। मुख्य रूप से इनके समस्त निबंधों की रचना सृष्टि इसी दृष्टि की पारिचायक रही है।

दृष्टि ही सृष्टि का निर्धारक तत्त्व है। प्रत्येक वस्तु को देखने की दृष्टि वैयक्तिक होती है। गहन अध्ययन एवं चिन्तन के उपरान्त हर मनीषी की संसार को देखने की अपनी एक दृष्टि बन जाती है। यह उसकी विशिष्ट क्षमता से अभिव्यक्त होती है। ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ की धारणा सत्य है, क्योंकि अपनी दृष्टि विशेष ही रचनाकार की मौलिकता की पहचान होती है।
आचार्य द्विवेदी की दृष्टि व्यापक थी। रचनाकार चाहे जिस युग का हो उसके कालजयी होने का आधार उसकी सार्वभौमिक और सार्वकालिक दृष्टि ही होती है। अपने विस्तृत अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से आचार्य द्विवेदी ने अनुभव किया कि समाज को सचेतन बनाना चाहिए- ‘‘शताब्दियों का दीर्घ अनुभव यह बताता है कि उत्तम साहित्य की सृष्टि करना ही सबसे बड़ी बात नहीं है। सम्पूर्ण समाज को इस प्रकार सचेतन बना देना परमावश्यक है जो उस उत्तम रचना को अपने जीवन में उतार सके।2’’
आचार्य द्विवेदी का साहित्य विषयक चिन्तन, समष्टि व्यापक दृष्टि और समग्र भारतवर्ष को उसकी अतीत की परम्परा से जोड़ते हुए एकता और अखण्डता के सूत्र में बांधने की कामना ही उन्हें ‘आम’ से ‘खास’ बनाती है। इनका मानना था कि समाज के एक बड़े भाग में हीन भावना ग्रन्थि बनकर छा गयी है। यही ग्रंथि सामाजिक संरचना को उसकी अजस्त्र धारा में प्रवाहित होने से रोक रही है। सदियों से दबी, कुचली, मर्माहत जनता के विषय में हमारा समाज भिज्ञ नहीं हो पाया है। इस सम्बन्ध में कार्य-कारण सम्बन्धों की एकरूपता के बिना सामाजिक समस्या का समाधान असम्भव है। ‘‘यह अत्यन्त खेद का विषय है कि भारतीय जन समूह और उसकी सामाजिक परिस्थिति का वैज्ञानिक अध्ययन अभी तक ढंग से नहीं हुआ है। कुछ विदेशी विद्वानों ने इस प्रकार के अध्ययन का प्रयत्न किया है पर उनकी अपनी त्रुटियों के कारण यह अध्ययन सब समय ऐसा नहीं हुआ है। जिसका हम भावी भारतवर्ष के निर्माण में यथेष्ट उपयोग कर सके।3’’
मध्यकालीन कवियों की सामाजिक चेतना ही भक्तिकाल को स्वर्णयुग बनाने में प्रेरक रही है। संत साहित्य का पूरा आधार ही निम्न जातियों का उच्च भाव तक पहुँचने की घोषणा है, अपनी एतद्दृष्टि के माध्यम से ही संत कवियों ने बहुत हद तक सामाजिक कुरीतियों को दूर किया था। ‘कबीर’ इनके प्रतिनिधि कवि थे। पूरा हिन्दी साहित्य इन्हें ‘ज्ञानी’ से अधिक ‘समाज सुधारक’ के रूप में ही जानता है। आचार्य द्विवेदी की ‘कबीर’ को आलोच्य विषय बनाने के पीछे यही मंशा थी। इन्होंने कबीर की ही भॉति समाज के बड़े वर्ग को उसकी मानसिक ग्रन्थि में बंधा देखा था, इन्होंने उस मानसिक ग्रन्थि का वैज्ञानिक विश्लेषण किया था, सुधारात्मक पहलुओं पर गौर किया था तब निष्कर्ष रूप में जान सके कि वे जातियाँ जिन्हें अस्पृश्य कहा जाता है वहीं भारतवर्ष की आत्मा है इन्हीं की प्रतीकात्मक संघमूर्ति का नाम ‘भारतमाता’ है। इस सच्चाई को उन्होंने अपने ‘प्रायश्चित की घड़ी’ नामक निबंध में स्वीकार किया था। ‘देवदारु’ और ‘कुटज’ जैसे वृक्ष अनायास ही इनके वर्ण्य विषय नहीं बन सके है, बल्कि यह उपेक्षित वृक्ष उपेक्षित पात्रों के लिए दिये गये संदेशों और उपदेशों के प्रतीक बन गये हैं। इन्होंने संघर्ष को ही समाजिक शक्ति का आधार माना है।4
समष्टि में व्यष्टि की स्थापना उनके निज का प्रयास है, किन्तु समाज की खुशियाँ देना ही मानव मात्र का ‘धर्म’ भी है, जो सभी के लिए अनिवार्यतः आवश्यक है- मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।5 यदि मनुष्य मानापमान, हानि, लाभ की चिन्ता से ग्रसित रहेगा तो निश्चित ही कर्तव्यच्युत होता जायेगा। इसलिए उसे इस भाव को नकारना है- तो क्या हुआ? यह मनुष्य की आत्मकेन्द्रित दृष्टि का प्रसाद है। देवदारु को इससे क्या लेना देना है। वह तो जैसा है वैसा बना हुआ है। तुम उसे वनस्पति कहो या देवता का काठ कहो।6’’
भय, अपमान और दुर्दशा से ग्रसित समाज का एक बड़ा वर्ग निष्क्रिय होता जा रहा है। साधन विहीन होने से उसकी प्रगति बाधित है। वह समाज में अपनी स्थिति नहीं बना पा रहा है और हतभागी सा नियति का क्रूर प्रहार सहने पर विवश हो जाता है। किन्तु उनके कुटज जैसा ‘अदनावृक्ष’ भी कालिदास जैसे श्रेष्ठ कवि की रचना में अपना स्थान बनाता है। छोटा या बड़ा होना और मानना केवल अपनी दृष्टि का फेर है। ‘देवदारु’ और ‘कुटज’ की उर्ध्वगामी शाखाएँ ‘द्युलोक’ को भी भेदने के लिए लालायित है। सीधी तनी हुई बिना किसी समझौते के किन्तु यह वृक्ष अपनी जड़ों को नहीं भूले है इनकी जड़े पाताल की छाती फोड़ कर अपना जीवन रस ग्रहण कररही हैं। उर्ध्वगामी होने के लिए जड़ों से जुड़ना परम् आवश्यक है क्योंकि जड़े ही शाखाओं-प्रशाखाओं की पोषक होती है। व्यक्ति भी यदि उर्ध्वगामी चेतना रखता है तो बुरा क्या है किन्तु ध्यान रखना है कि ‘जड़ों’ (परिवार, समाज, अतीत) से कटकर मनुष्य विकास नहीं कर पायेगा। यही कारण है कि आचार्य द्विवेदी ने भारतीय संस्कृति की समाजिकता पर दृष्टि डाली और संस्कृति की परम्परा में नूतन गति के संचार का आह्वान किया।7
युगद्रष्टा रचनाकार अपनी प्रासंगिकता बनाये रखता है। युग धर्म यदि रचनाकार की पहचान है तो प्रासंगिकता उसकी दूरदर्शिता। शाश्वत मूल्य कभी परिवर्तित नहीं होते। आचार्य द्विवेदी की दृष्टि इसीलिए आज भी प्रासंगिक है। आज के निष्क्रिय होते जा रहे निराशा से भरे समाज के लिए उनके संदेश संजीवनी का काम करते है। ‘डिप्रेशन’ जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारी ने आज जब 100 में से 90 को घेर लिया है और ध्यान, योग आदि के द्वारा उनका उपचार किया जा रहा है। इनके निबंध रेचक का काम करते है- ‘जन्म-मरण, हानि-लाभ, यश-अपयश विधि हाथ’ को मानने वाले को कैसा शोक, कैसा क्लेश, कैसी निराशा, कैसा तनाव। जो कुछ भी हो रहा है इतिहास विधाता की निष्ठुर योजना से हो रहा है। क्या लेकर आये थे जिसे खोकर तुम्हें दुःख हो रहा है।8 इन विचारों को मानने वाला सबसे सुखी रह सकता है और रक्तचाप, मधुमेह जैसी भयानक व्याधियों, जिनके जड़ में तनाव है से मुक्ति पा सकता है। आचार्य द्विवेदी इसीलिए आज भी स्मरणीय है, प्रासंगिक है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-166.
2. ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-167.
3. ‘प्रायश्चित की घड़ी’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-21.
4. ‘अशोक के फूल’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-13.
5. ‘नाखून क्यों बढ़ते है’, पृ0सं0-33.
6. ‘देवदारु’, पृ0सं0-67.
7. ‘कुटज’, प्रतिनिधि हिन्दी निबंध से पृ0सं0-46.
8. ‘कुटज’, प्रतिनिधि हिन्दी निबंध से पृ0सं0-49.
डॉ0 निवेदिता श्रीवास्तव
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
गुलाब देवी महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ0प्र0)