Thursday 1 January 2015

साठोत्तर युगीन काव्य में अभिव्यंजित ग्राम्य जीवन

अरूणेन्दु कुमार सिंह एवं दुर्गा प्रसाद ओझा

साठोत्तर युग में हिन्दी काव्य की सर्वाधिक प्रभावशाली काव्य धारा समकालीन कविता-धारा है। इसमें ग्राम्य जीवन का प्रभूत चित्रांकन हुआ है जिसका समग्र विवेचन विश्लेषण निबन्ध के संक्षिप्त कलेवर में सम्भव नही है। यहाँ बानगी के रूप में समकालीन कविता के दो प्रमुख रचनाकारों- धूमिल एवं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का ग्राम्य जीवन के चित्रण की दृष्टि से अनुशीलन तथा मूल्यांकन करने का यत्किंचित प्रयास किया जा रहा है।

धूमिल
धूमिल समकालीन कविता के सशक्त, बेजोड़ कवि है। उनके तीन काव्य संग्रह- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र प्रकाशित है। इन काव्य संग्रहों की कविताओं में कवि ने साठोत्तर भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विसंगतियों तथा Ðासशील कारुणिक स्थितियों का यथार्थ एवं जीवन्त चित्रांकन किया है।
धूमिल मूलतः ग्रामीण संस्कारों के कवि है। उनका जन्म वाराणसी नगर से लगभग 12 किलो मीटर पश्चिम में स्थित बज्र देहाती गाँव खेवली में हुआ था वहाँ की सोंधी माटी तथा चन्दनवर्णी धूल में उनका बचपन, किशोर एवं युवा जीवन व्यतीत हुआ। परिणामतः उन्हें ग्राम्य जीवन की सुख-दुःख, भाव-अभाव, शान्ति-अशान्ति, सन्धि-विग्रह का गहरा एवं सच्चा अनुभव रहा है। गॉव की व्यथा-वेदना, शोषण-उत्पीड़न इत्यादि को उन्होंने नजदीक से देखा, परखा एवं भोगा है और इन सब स्थितियों, विसंगतियों का उन्होंने बड़ा यथार्थ एवं सजीव वर्णन सशक्त शब्दों में किया है। डॉ0 सन्तोष कुमार मिश्र के अनुसार- गाँव से उन किसान कवि का आत्मीय सम्बन्ध था यही कारण है कि उसमें किसानों और ग्रामीण चरित्र को चरितार्थ किया है। डॉ0 दुर्गा प्रसाद ओझा के अनुसर- धूमिल के व्यक्तित्व में खेवली की मिट्टी की करुणा का छन्द समाहित है, यही करुणा आगे चलकर उनकी कविताओं में इस देश की करुणा का छंद बन जाती है।  जब वह अपने गांव खेवली के सत्य को उजागर करता है, तब वह भारत वर्ष के सभी गांवों के सत्य का उद्घाटन करता है। तब ‘खेवली’ का यही सत्य पूरे देश का सत्य बन जाता है।1
सोच में डूबे हुए चेहरों और / वहाँ दरकी हुई जमीन में कोई फर्क नही है।
मेरे गांव में
वही आलस, वही ऊब, हर जगह हर रोज / और मैं कुछ नही कर सकता।
चेहरा-चेहरा डर लगता है, घर बाहर अवसाद है।
लगता है यह गांव नरक का, भोजपुरी अनुवाद है।।2
मेरा गाँव शीर्षक कविता में धूमिल ने अपने गाँव का रेखांकन बिम्बात्मक शैली में इस प्रकार किया है- तारों-भरा आसमान/और मरियल खौरहा कुत्ता
सीवान में पड़ी लोथ का, सन्नाटा सूँघता है।
अंधेरे में ऊघतें है घर, जैसे घुमटी मारे हुए मुसहर / ऊंघते हैं।।3
इस बिम्ब में गांव की दो बातों की व्य×जना है। प्रथम तो यह है कि गाँव के रूप में अँधकार एवं सन्नाटा है जो गांव के अविकसित होने का प्रतीक है। वहाँ आजादी के पूर्व की स्थिति बनी हुई है। द्वितीय यह है कि गाँव में गरीबी व्याप्त है, वहाँ का जीवन स्तर निम्न स्तरीय है। मरियल खौरहा कुत्ता इसकी व्य×जना करता है।
इसी कविता में कवि ने गांव की भुखमरी को व्यंग्यात्मक शैली में प्रदर्शित किया है। जो अधोलिखित पंक्तियों में दृष्टव्य है- भूख कभी गाली नही होती और पेट का नंगापन नंगई नही है।।4 कवि के अनुसार स्वतन्त्रता प्राप्ति के बीसों वर्ष पश्चात आज भी ग्राम संसद की कार्यवाही से बाहर निकाले गये/ वाक्य की तरह तिरस्कृत है।
गांवों में ‘कीर्तन’ शीर्षक कविता में कवि ने रात में होने वाले कीर्तन का चित्रण किया है। जिसमें ग्रामीण लोग उत्साह एवं उमंग के साथ सहभागिता करते हैं। तथापि इससे दुराचार तथा आलस्य जैसी अनेक बुराइयों का जन्म होता है। इस कविता में कवि की दृष्टि गांवों की अशिक्षा की ओर भी गई है। कवि का मन्तव्य है कि गांव में शिक्षा का एक अपरिहार्य कारण अभिभावकों की शिक्षा के प्रति उदासीनता का भाव है। यथा- एक रूवांसा लड़का / मदरसे से वापस आता है
चारपाई पर दांई करवट लेता हुआ बाप
बेटे की कमीज पर गिरी हुई श्याही देखकर
उसकी पढ़ाई के बारे में निशि्ंचत्य हो जाता है।।5
‘आज मैं लड़ रहा हूँ’ शीर्षक कविता में धूमिल ने परिवारों की दयनीय दशा का उद्घाटन इस प्रकार किया है- बच्चे भूखे है माँ के चेहरे पत्थरे,
पिता जैसे काठ अपनी ही आग में।6
गांवों में मुकदमों की बुरी लत में पड़कर ग्रामीणजन अपने परिवार को बर्बादी के गर्त में ढकेल देते हैं, जैसा कि अधोलिखित पंक्तियों से स्पष्ट है-
गांव की सरहद, पार करते हुए/ कुछ लोग/ बगल में बस्ता दबाकर/ कचेहरी जाते हैं/
और न्याय के नाम पर/ पूरे परिवार की/ बर्बादी उठा लाते है।।7
धूमिल ने कविता को गांव से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। हिन्दी के सुविख्यात कथाकार तथा धूमिल के अन्तरंग मित्र डॉ0 काशीनाथ सिंह के विचारों से धूमिल कविता को सीधे अपने गांव में ले गये, ‘खेवली में जहाँ गरीब है, किसान है, खेत है, खलिहान है, उनकी आपस की लाग-डाट है। जब वह अपने कविता को गांव में ले गये यानी अपनी कविता को अपने गाँव में स्थान दिया, विषय बनाया तो ढेर सारे भदेश शब्द उनकी कविता में आये, ये शब्द ही नही आये बल्कि गांव की जिन्दगी भी आई। 8
धूमिल गांव का गैर रूमानी चित्रण करने वाले हिन्दी के प्रथम कवि है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध समीक्षक विष्णु खरे की बातों का उद्धृरण समीचीन- गांव का गैर रूमानी चित्रण भी शायद धूमिल ने ही पहली बार इतनी निर्मम सूक्ष्मता से किया है.... वहाँ न जंगल है न जन तन्त्र.... वहाँ कोई सपना नही है....। वहॉ वक्त के फालतू हिस्सों मेंं, खेतों में भद्दे इशारे गूंजते है.... पानी की जगह आदमी का खून रिसता है।
धूमिल की यह भावुकता दृष्टि उनकी कविता की एक वृहत्तर शक्ति है। यही उन्हें हिन्दी का पहला दुस्साहसी क्रान्ति धर्मा युवा कवि बनाती है। धूमिल की भाषा धारदार, सशक्त एवं प्रहारात्मक है। वह व्यंग्यात्मक है। उसमें ग्रामीण शब्दावली का बेहिचक कलात्मक प्रयोग है। उनकी काव्यशैली प्रायः संवादात्मक है। नवीन मौलिक एवं ताजे बिम्बों एवं प्रतीकां से उनकी कविता सम्पन्न है।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

साठोत्तर काल के अन्तर्गत सर्वेश्वर के चार काव्य संग्रह- बाँस का पुल (1963), एक सूनी नाव (1966), गर्म हवायें (1969), और कुआनों नदी (1973) प्रकाशित हुए, जिसमें कुआनों नदी काव्य संग्रह की कुआनों नदी ‘‘भुजेनिया का पोखरा’ बाँस गाँव, साड़े रो मँहगुआ तथा ‘गरीबी हटाओं’ इत्यादि कविताओं में ग्राम्य जीवन के विविध पक्षों का चित्रांकन हुआ है। वही दूसरी ओर ‘एक सूनी नांव’ में संचित अनेक कविताओं जैसे- ‘एक शहर में’ तथा ‘पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ’ में कवि का नगरों के प्रति कटु अनुभव अंकित हुआ है। यह कवितायें प्रमाण है कि सर्वेश्वर को ग्राम और नगर दोनों के गहरे अनुभव प्राप्त हैं।
सर्वेश्वर ने साठोत्तर भारतीय ग्राम्य जीवन के विभिन्न परिपार्श्वो का यथार्थ चित्रांकन किया है। उनका ग्राम्य वर्णन स्वयं भुक्त अनुभव पर आधारित है। कवि को गांव की धरती आकाश तथा वहाँ के परिवेश से बड़ा ममत्व है। कवि को अपने गाँव की नदी, पुल, बाँध, वृक्ष, खेल, सड़क, बैलगाड़ी, एक्के आदि के प्रति प्रबल सहज आकर्षण है। हृदय में इनकी मधुर स्मृति है। गाँव की निकट की सड़क का वर्णन कवि ने अत्यन्त जीवन्तता से किया है- तट से लगा हुआ एक बांध है
जिस पर ऊँचे-ऊँचे छायादार वृक्ष है
जिनके नीचे से सड़क जाती है, कई तीखें घुमाव लेती है
सड़क पर अनेक बैलगाड़ियाँ चलती है, कभी-कभी कोई इक्का भी
परदा बाँधे, औरतें - बच्चें को बैठाये जगमगाता।।’’9
सर्वेश्वर की दृष्टि युगीन भारत के ग्रामों की गरीबी की ओर सर्वाधिक गई है। उनका अपना गांव बांस गांव है। जिसकी गरीबी का व्यंग्यात्मक वर्णन कवि इस प्रकार करता है- बांस गांव एक पत्थर है, दानवीर सेठ लोकतंत्र का
जो बन्द प्याऊ पर लगा है
जिससे पीठ टिकाये इस जलती धूप में / आज भी खड़ी है मेरे साथ हॉफती गरीबी।।10
यहाँ भारत के लोकतंत्र के प्रति व्यंग्य है, जिसमें आज तक गाँव की गरीबी का अन्त नही हुआ। हॉफती गरीबी का मानवीकरण प्रभावशाली है। ‘कुआनों नदी’ शीर्षक कविता में भी कवि ने कई स्थलों पर ग्राम की दरिद्रता का जीवन्त चित्र खीचा है। कुछ पंक्तियां उदाहरणार्थ देखिए - एक ओर कुत्ते हॉफते बैठे रहते है
और दूसरे ओर उनके बच्चे
जिनकी आँखे अन्धेरे में जलती / मिट्टी के तेल की ढिबरियों-सी / दिखई देती है
ढिबरियाँ जो शाम को केवल घण्टे भर के लिये जलती है।।11
भारतीय ग्रामों मे प्रायः अकाल व बाढ़ आदि की विनाश लीला का करुण दृश्य देखने का मिलता है। कवि का गॉव नदी के तट पर स्थित है। उसने इस नदी की बाढ़ में अपने गांव के कारुणिक दृश्य को सम्भवत् कई बार सजल नेत्रों से देखा है। वह नगर में रहता हुआ बाढ़ के प्रति चिन्तित है। कवि सोचता है-
फिर बाढ़ आ गई होगी उस नदी में / पास का फुटहिया बाजार बह गया होगा
पेड़ की शाखों में बंधे खटोले पर / बैठे होंगे बच्चे किसी काछी के
और नीचे कीचड़ में खड़े होंगे चौपाये।।12
बाढ़ में गांव के गांव बह जाते है और ग्रामीणों के समक्ष रोटी, घर और वस्त्र की समस्यायें अधिकाधिक विकराल रूप धारण करके खड़ी हो जाती है। सर्वेश्वर की काव्य-रचनाओं में ग्राम के विविध व्यवसायों के वर्णन मिलते हैं। वहाँ के कृषकों व श्रमिकों के अतिरिक्त कवि की दृष्टि धोबियों, लोहारों, बढ़इयों, खटिकों, अहीरों तथा लकड़हारों इत्यादि की ओर गयी है। उसने नंगे-धड़ेगे पानी में घुसे सिंघाड़े तोड़ते खटिकों, धौंकनी के सामने घोड़े सा मुंह लटकाये खुरपी, कुदाल और नाल बनाते लोहारों, ऐनक का शीशा सूत से कान में बाँधे बँसरवट के पाये गढ़ते बढ़इयों, भूतनी सी भुजैनियों को तथा दही के मटके ले जाते हुए अहीरों को खुली आंखों से देखा है और उनका यथार्थ वर्णन किया है।
इन तमाम कमियों के बावजूद कवि को ग्राम्य जीवन के प्रति सहज आकर्षण है। वह ग्रामों की प्रगति का अकांक्षी है जो क्रान्ति के माध्यम से सम्भव है। ‘कुआनों नदी’ की अन्तिम पंक्तियों में कवि ने क्रान्ति का आह्वान इस प्रकार किया है-
कुआनों नदी। संकरी, नीली, शांत / जाने कब होगी। अक्षितिज, लाल, उद्दाम।।13
सर्वेश्वर की कतिपय कविताओं में ग्राम्य एवं नगर के वैषम्य पर प्रकाश डाला गया है। नगर-जीवन के प्रति कवि का बड़ा कटु अनुभव है। नगरों से उसे चिढ़ और अरुचि है। वहाँ के कोलाहल पूर्ण जीवन में कवि को अकेलेपन का अनुभव होता है। ‘इस मृत नगर में’ शीर्षक कविता में कवि यहाँ तक कहना चाहता है-
हर सम्बन्ध की सीढ़ी से उतरने के बाद मैं।
और अकेला छूट जाता हूँ इस मृत नगर में ।।14
इस प्रकार हम देखते है कि सर्वेश्वर ने साठोत्तर ग्राम्य जीवन विविध पक्षो को संस्पर्श करने का प्रयास किया है। उनकी ग्राम्य  जीवन सम्बन्धी कविताओं में कला की अपेक्षा कथ्य भाव को प्राथमिकता दी गई है। भाषा सरल, व्यवहारिक, तथा अनलंकृत है। अभिव्यक्ति अधिकाशतः व्यंग्यात्मक है। प्रारम्भिक रूमानियत शब्द कौतिक एवं अति भावुकता बहुत पीछे छूट गई है। अपनी जीवन से जुड़ी हुई सर्वेश्वर की आधुनिकता अधिक प्रमाणिक है, स्थाई है, प्रभावशाली है।
सन्दर्भ सूची -
1. सिंह, डॉ0 राम अजोर एवं ओझा डॉ0 दुर्गा प्रसाद (सम्पा0), चालीसोत्तर हिन्दी कविता, पृष्ठ 194-195.
2. धूमिल, सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र, पृष्ठ- 63 से 64.
3. धूमिल, कल सुनना मुझे - गांव में कीर्तन, पृष्ठ- 104.
4. धूमिल, कल सुनना मुझे - आज मैं लड़ रहा हूँ, पृष्ठ- 98.
5. धूमिल, कल सुनना मुझे - गांव में कीर्तन, पृष्ठ - 105.
6. धूमिल : 2005 काशी प्रतिमान, पृष्ठ- 17.
7. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुआनों नदी- पृष्ठ
8. कुआनों नदी में बांस गांव नदी शीर्षक-
9. कविता, पृष्ठ- 59.
10. कुआनों नदी, पृष्ठ- 11
11. कुआनों नदी, पृष्ठ- 17-18.
12. एक सूनी नांव- इस मृत नगर में, पृष्ठ 36.
अरूणेन्दु कुमार सिंह, शोध छात्र
डॉ0 दुर्गा प्रसाद ओझा, रीडर
हिन्दी विभाग,
हेमवतीनन्दन बहुगुणा पी0जी0 कालेज,
लालगंज, अझारा, प्रतापगढ़ (उ0प्र0)