Thursday 1 January 2015

पारिवारिक वातावरण एवं व्यवहार का पाल्य शिशु पर प्रभाव


राम कृष्ण शुक्ल

पारिवारिक वातावरण एवं व्यवहार का पाल्य शिशु पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि परिवार ही शिशु के सबसे समीप रहता है। इस शोध आलेख में परिवार के वातावरण, व्यवहार एवं क्रियाकलापों का पाल्य शिशु पर प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

परिवार बालकों की संवेगात्मक अभिव्यक्ति के लिए आरंभिक अवसर प्रदान करता है। उसे स्नेह और सुरक्षा प्रदान करता है जो कि उसके व्यक्तित्व के संतुलित विकास के लिए परमावश्यक है। यह एक ऐसा स्त्रोत है जिससे बालक सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को ग्रहण करता है। शिशु जब तक स्वयं चलने-फिरने नहीं लगता, घर के बाहर नहीं निकलने लगता, उसके लिए माता-पिता ही उसके समाज और संस्कृति हैं। शैशव अवस्था में माता-पिता के द्वारा उसके साथ जैसा व्यवहार होता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण व्यक्तित्व एवं जीवन पर पड़ता है।1
बालक के जन्म-क्रम भी उनके व्यक्तित्व के विकास में महत्व रखते हैं। परिवार में जो अनुभव प्रथम संतान को होता है वह अंतिम और मध्यवाली संतान को नहीं। प्रथम संतान को सामान्यतः अपरिपक्व माता-पिता मिलते हैं। लेकिन प्रथम संतान के लालन-पालन में परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग मिलता है। इसका भी बालक पर प्रभाव पड़ता है।2 प्रत्येक समझदार माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अनौपचारिक ढंग से लालन-पालन का प्रशिक्षण व्यावहारिक ज्ञान के द्वारा दें। जब परिवार में द्वितीय संतान आती है तब तक माता-पिता व्यावहारिक ज्ञान द्वारा लालन पालन में कुछ हद तक अनुभवी हो चुके होते हैं। द्वितीय संतान के आगमन का कुप्रभाव प्रथम संतान पर पड़ता है, जिस पर अभिभावकीय देखभाल अब दो बच्चों में बंट जाता है। प्यार और देखभाल में कमी की प्रथम संतान अनुभव करती है। उसे कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उसकी जान-बूझकर उपेक्षा की जा रही है, उसके प्रति उसके माता-पिता अन्याय कर रहे हैं। लेकिन आर्थिक कठिनाई के चलते उसके दूध की मात्रा, खिलौने आदि में कटौती होती है जिसे वह उसके आयु में सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं पाता।3
नगर के परिवारों में अब भी बहुत से वे कार्य हैं जो पहले परिवार की संस्था करती थी। यह ठीक है कि समय के साथ-साथ किसी कार्य की महत्ता बढ़ गई है अथवा घट गई है। उत्पादन के क्षेत्र में परिवार के कार्य अब उतने महत्वपूर्ण नहीं रहे क्योंकि अब उत्पादन के लिए परिवार की संस्था के पास साधन नहीं रहे परन्तु उपभोग के क्षेत्र में इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। सदस्यों को शिक्षा देने का कार्य अब परिवार से राज्य ने ले लिया है। मनोरंजन की आवश्यकता पूर्ति के लिए मनोरंजन केन्द्र, क्लब, सिनेमा गृह इत्यादि संस्थाएँ समाज में महत्वपूर्ण स्थान ले बैठी है। अब समाज में यह भावना चल रही है कि व्यक्ति का स्तर उसकी योग्यताओं के अनुसार निर्धारित किया जाए, निर्धारण में उसके परिवार को विशेष महत्व न दिया जाय।4 यद्यपि परिवार के अन्य कृत्यों में शिथिलता आ गई है परन्तु शारीरिक और अनुरागात्मक परिवार के कृत्य अब पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। परिवार ही अभी ऐसी संस्था है जिसमें समाज द्वारा ऐसे संबंधों को मान्यता दी जाती है जिनके फलस्वरूप बालकों का जन्म होता है और उनका पालन-पोषण होता है। विवाह भी व्यक्ति की कुछ बहुत महत्वपूर्ण इच्छाओं को तृप्त करता है। विवाहित जीवन में आत्म-संतोष, भावनात्मक सुरक्षा की भावना और प्रेम से संबंधित इच्छाओं की संतुष्टि होती है और संभवतः इसीलिए सामाजिक परिवर्तन लाने वाले तत्व अभी तक परिवार और विवाह की नींव नहीं हिला पाए हैं।
इस प्रकार, परिवार यदि संगठित होगा और उसका वातावरण सही होगा तो उसका सकारात्मक प्रभाव बालक पर पड़ेगा। यदि परिवार में विघटन के तत्व मौजूद हों और वातावरण कलहपूर्ण होगा तो उसका भी प्रभाव बच्चे पर पड़ेगा। चूँकि शिशु परिवार के व्यवहार और क्रियाकलाप का अनुसरण करता है इसलिए परिवार के बड़े सदस्यों का कर्त्तव्य है कि वे स्वच्छ व स्वस्थ वातावरण निर्मित करें तथा प्रेमभाव, संस्कारित व्यवहार करें जिसका असर शिशु पर पड़े।
संदर्भ ग्रन्थ-
1. ठींजपंए स्पसलए तमसंजपवदेपच इमजूममद चंतमदज. ब्ीपसक तमसंजपवदेपच ेवबपव मबवदवउपब ेजंजने ंदक अवबंजपवदंस पदजमतमेज वि जीम ेजनकमदजेए नदचनइसपेमक डण्म्कण् क्पेमतजंजपवदए ।हतं न्दपअमतेपजलए 1975ए चण् 26
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3. बुच, एम0वी0, सेकेण्ड सर्वे ऑफ रिसर्च इन एजूकेशन, बड़ौदा सोसायटी फार एजूकेशन रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट, 1994, पृ0 31।
4. चौहान,आई0एस0, भारत में सामाजिक परिवर्तन, म0प्र0हिन्दीग्रंथअकादमी,भोपाल,2001,पृ0 68
राम कृष्ण शुक्ल 
शोध छात्र, लाइफ लॉग लर्निंग विभाग, (शिक्षाशास्त्र विषय)
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवाँ (म0प्र0)