Thursday 1 January 2015

गांधी जी की कल्याणकारी राज्यव्यवस्था

सूर्यप्रकाश पांडे

समुन्नत राष्ट्र के निर्माण में कल्याणकारी राजव्यवस्था का होना नितांत आवश्यक है। एक राष्ट्र सही मायने में विकसित तभी माना जा सकता है जब उसके शासन में अंतिम जन की भागीदारी हो, महात्मा गांधी एक ऐसे युगद्रष्टा थे जो इस विचारधारा के न सिर्फ हिमायती थे बल्कि इसे आदर्श व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित कराने का भी 20वीं सदी और उसके उत्तरार्द्ध में महत्तम प्रयास किया। रामायण में भगवान श्रीराम के रामराज्य जिसमें अंतिम पंक्ति में बैठा व्यक्ति भी खुद को शासक समझता था, जिसका आदर्श था कि एक ऐसा राज्य जिसमें कोई भी व्यक्ति भूखा, नंगा एवं विपन्न न हो। ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें शासक एवं शासित के बीच तनिक भी भेद न हो।

गाँधी जी राज्य को जन-कल्याण का एक साधन मात्र मानते हैं। उनकी दृष्टि में व्यक्ति का स्थान सर्वोपरि है। व्यक्ति साध्य है राज्य साधन है। गाँधी-मत में राज्य का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिए कि उस राज्यव्यवस्था के भीतर मनुष्य पूर्णता की ओर उन्मुख हो सके। गाँधीजी ने यह अनुभव किया कि राज्य और राजनीति से सम्बन्धित समस्त पश्चिमी सिद्धान्त मानव-कल्याण की दृष्टि से पूर्णतया अनुपयोगी है। उनके अनुसार पश्चिमी राजतन्त्र सत्तात्मक राजनीति को प्रश्रय देता है जो कि दोषपूर्ण है। उन्होंने सत्य, धर्म और आध्यात्मिकता के आधार पर पूर्णतः अहिंसक राज्य की कल्पना की जिसे रामराज्य की संज्ञा दी गई।
गाँधीजी ने संसदीय प्रजातंत्र जिसे वर्तमान समय में मानव-कल्याणकारी और पूर्णतया निर्दोष राज्य पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाता है, को भी दोषपूर्ण और हिंसा पर आधारित माना है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिन्द-स्वराज’ में इसकी कुछ आलोचना की है। यहाँ तक कि इसे बाँझ और वेश्या की संज्ञा दी। गाँधीजी कहते हैं- ‘‘मैंने उसे बाँझ कहा, क्योंकि अब तक उस पार्लियामेंट ने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया और वह वेश्या है क्योंकि जो मंत्री-मण्डल उसे रखे उसके पास वह रहती है।’’1 स्पष्ट है कि ऐसी व्यवस्था में राज्य जन-कल्याण के कार्यों में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं रह सकता। केवल कुछ व्यक्ति जनता के कल्याण का ठेका अपने ऊपर ले लेते हैं।
इस प्रकार जनता अपने समस्त कार्यों के लिए जन प्रतिनिधियों पर निर्भर हो जाती है। वह कल्याकारी योजनाओं को बनाने व उनके अनुपालन से वंचित हो जाती है और प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी हाथ नहीं बँटा पाती। फलतः जनप्रतिनिधि उनका शोषण करते हैं। गाँधी-दृष्टि में यह पद्धति हिंसा से पूर्ण है। उनका पूर्ण विश्वास है कि प्रजातंत्र की आड़ में राजतंत्र और तानाशाही को पोषण मिलता है। इसलिए सभी दृष्टियों से संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणालि उपयोगी राज्य-पद्धति नहीं है।
यद्यपि गांधी जी अराजकतावादी दार्शनिक हैं। आदर्श स्थिति में वे राज्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करते किन्तु व्यवहार में पूर्णता की स्थिति या पूर्ण आदर्श की प्राप्ति तक वे राज्य को एक अनिवार्य संस्था के रूप में मान्यता देते हैं। चूँकि पूर्ण आदर्श प्राप्ति सम्भव नहीं है; इसलिए गाँधीजी के अनुसार किसी न किसी रूप में राज्य की सत्ता बनी रहेगी। गाँधीजी कहते हैं- ‘‘राजनैतिक सत्ता साध्य नहीं है। यह जीव के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है। राजनैतिक सत्ता का अर्थ है राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करने की शक्ति। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना पूर्ण हो जाय कि वह स्वयं आत्मनियमन कर ले तो किसी प्रतिनिधित्व की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। उस समय ज्ञानपूर्ण अराजकता की स्थिति हो जाती है। ऐसी स्थिति में हर एक अपना राजा होता है। वह उस ढंग से अपने पर शासन करता है कि अपने पड़ोसियों के लिये कभी बाधक नहीं बनता। इसीलिए आदर्श व्यवस्था में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती क्योंकि कोई राज्य नहीं होता।’’2 गाँधीजी के अनुसार पूर्ण आदर्श प्राप्ति सम्भव नहीं है, इस हेतु राज्य को एक अनिवार्य संस्था के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि गाँधीजी न तो राज्य को ईश्वर या कानून के आधार पर निरपेक्ष संप्रभुता प्रदान करते हैं और न अराजकतावादियों की भाँति राज्य की सम्पूर्ण सत्ता ही समाप्त करना चाहते हैं। गाँधीजी का अहिंसक प्रजातंत्र जिसे उन्होंने रामराज्य कहा, बीच का मार्ग है, जिसमें वास्तविक शक्ति जनता के हाथों में निहित होगी। गाँधीजी के अनुसार राज्य को पूर्ण शक्ति देना उचित नहीं है। वे कहते हैं- ‘‘मैं राज्य-शक्ति की वृद्धि को सबसे बड़े भय से देखता हूँ क्योंकि प्रातिभासिक रूप से यह शोषण कम करते हुए मालूम पड़ता है, परन्तु यह व्यक्तित्व को समाप्त कर मानवता का सबसे बड़ा अहित करता है। राज्य हिंसा का केन्द्रित और संगठित रूप ही है। व्यक्ति में आत्मा होती है परन्तु चूँकि राज्य एक जड़ यंत्र मात्र है इसलिए उसे हिंसा से कभी नहीं छुड़ाया जा सकता क्योंकि हिंसा से ही तो इसका जन्म होता है।’’3 स्पष्ट है कि गाँधीजी राज्य को कम-से-कम शक्ति सौंपना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को संप्रभुता-सम्पन्न बनाना चाहते हैं जिससे कि वह राज्य पर कम-से-कम निर्भर रहे और उसकी वैयक्तिकता अक्षुण रहे। एक अन्य स्थान पर गाँधीजी कहते हैं- ‘‘व्यक्तिगत तौर पर तो मैं चाहुँगा कि राज्य के हाथों में शक्ति का अधिक केन्द्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार हो क्योंकि मेरी राय में राज्य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मालिकी की हिंसा कम हानिकारक है। लेकिन यदि राज्य की मालिकी अनिवार्य ही हो तो मैं भरसक कम-से-कम राज्य की मालिकी की सिफारिश करूँगा।’’4 इस प्रकार गाँधीजी राज्य की पूर्ण सार्वभौमता का निषेध करते हैं। परन्तु जब तक उसकी आवश्यकता है, उसे सीमित मात्रा में शक्ति देना चाहते हैं।
गाँधीजी के मतानुसार राज्य का एकमात्र उद्देश्य सर्वोदय अर्थात् सभी का सर्वांगीण विकास है। राज्य किसी वर्ग विशेष के हितों को प्राथमिकता नहीं दे सकता। वे कहते हैं- ‘‘मेरी कल्पना के रामराज्य में राजा और रंक दोनों के अधिकारों की समान रूप में रक्षा की जायेगी।’’5 इस प्रकार रामराज्य में सभी व्यक्तियों को समान दर्जा मिलेगी। सभी व्यक्तियों को जीवन की साधारण व आवश्यक सुविधाएँ समान रूप से उपलब्ध होगी। ‘‘इसके अन्तर्गत सबल और दुर्बल सबको विकास का समान सुअवसर मिलता है।’’6 ‘‘इसमें भौतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक विभिन्न प्रकार के साधनों का उपयोग सभी के सामान्य सुख के लिए होता है।’’7 गाँधीजी के अनुसार सहिष्णुता धर्मनिरपेक्षता रामराज्य के आवश्यक गुण हैं।8 सभी को सच्ची वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त होगी। सभी एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देंगे। वैचारिक मतभेद व्यक्तिगत द्वेष का कारण नहीं बनेंगे। गाँधीजी कहते हैं- ‘‘प्रजातंत्र राज्य वैसा राज्य नहीं है जिसमें जनता भेड़ की तरह कार्य करती है। प्रजातंत्र में विचार और कार्य की स्वतंत्रता को उत्साहपूर्वक सुरक्षित रखा जाता है। मैं विश्वास करता हूँ कि अल्पमत को बहुमत से भिन्न कार्य करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।’’9 समझा जा सकता है कि गाँधी-कल्पना के अहिंसक राज्य में अल्पमत की उपेक्षा न की जायेगी। उनके अनुसार किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को केवल इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता चूँकि वह अल्पमत के द्वारा अनुमोदित है। वास्तविक प्रजातंत्र वही है जिसमें अल्पमत के उत्तम विचारों का बहुमत से अधिक मूल्य हो।
गाँधी-दृष्टि में सच्चा प्रजातंत्र वही है जिसमें रहने वाले लोग अधिकारों की अपेक्षा अपने कर्त्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक हों। गाँधीजी के शब्दों में- ‘‘अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। हर एक कर्त्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार जुड़ा हुआ होता ही है, और सच्चे अधिकार तो वे ही हैं जो अपने कर्त्तव्यों का योग्य पालन करके प्राप्त किये गये हों।’’10 गाँधी-विचार में अधिकारों से अधिक कर्त्तव्य की महत्ता है जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है वही अधिकार प्राप्ति के योग्य है। गाँधीजी कहते हैं- ‘‘जिन लोगों को अधिकार अपने कर्त्तव्यों के पालन के फलस्वरूप मिलते हैं वे उनका उपयोग समाज की सेवा के लिए ही करते हैं, अपने लिये कभी नहीं।’’11 ‘‘सच्चा स्वराज व्यक्तियों के द्वारा नागरिक के रूप में अपने कर्त्तव्य के पालन से ही आता है।’’12 गाँधीजी के अनुसार- ‘‘नागरिकता का अधिकार सिर्फ उन लोगों को ही मिलना चाहिए जो जिस राज्य में वे रहते हों, उसकी सेवा करते हों।’’13 ऐसे नागरिकों के योग से ही रामराज्य की स्थापना सम्भव है।
रामराज्य की चर्चा करते हुए एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे राज्य में पुलिस और न्यायालय आदि का क्या स्थान रहेगा? गाँधीजी कहते हैं कि- ‘‘अहिंसक राज्य में शान्ति सुरक्षा के लिए पुलिस, सेना, जेल और न्यायालय का प्रबंध रहेगा, परन्तु उसका रूप बदल जायेगा। पुलिस का संगठन अहिंसक स्वयंसेवकों के द्वारा होगा जो अपने को जन सेवक समझेंगे। जनता से उन्हें स्वाभाविक रूप में सहयोग मिलेगा। यद्यपि उनके पास शस्त्र रहेंगे किन्तु इनका प्रयोग वे बहुत कम करेंगे। इनका मुख्य कार्य डकैतों व लुटेरों से जनता की रक्षा करना होगा।’’14 गाँधीजी यह मानते हैं कि दोषपूर्ण सामाजिक पद्धति के कारण ही समाज में अपराध होते हैं। समझा जा सकता है कि- गाँधी-कल्पना के कल्याणकारी राज्य में अपराधियों को रोगी समझकर उनका अहिंसक पद्धति से उपचार किया जायेगा। जेलें ऐसे अपराधियों के लिए आरोग्य केन्द्र होंगी व जेल पदाधिकारी डॉक्टर की भाँति कार्य करेंगे। यहाँ अपराधियों को शारीरिक दंड देने के बजाय उनकी आपराधिक-मनोवृत्ति से छुटकारा दिलाने का प्रयास किया जायेगा।
गाँधीजी के अनुसार अहिंसक कल्याणकारी राज्य में सेना की आवश्यकता नहीं होगी। इस सम्बन्ध में गाँधीजी ने स्पष्ट कहा है- ‘‘सच्चे जनतंत्र को किसी भी प्रयोजन के लिए सेना पर आश्रित नहीं रहना चाहिए। सैनिक सहायता पर निर्भर रहने वाला राज्य नाममात्र का जनतंत्र हो जायेगा। सैनिक शक्ति मस्तिष्क के स्वतंत्र विकास में बाधा डालती है। वह मनुष्य के आत्मा का विनाश करती है।’’15 वस्तुतः गाँधीजी प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण बना देना चाहते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘‘प्रत्येक नागरिक और गाँव में इतनी क्षमता होनी चाहिए जो विश्व के विरुद्ध अपने स्वातन्त्र्य की रक्षा कर सके।’’16 उपर्युक्त विवेचन इस अवधारणा को परिपुष्ट करने में सक्षम है कि एक सफल लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए महात्मा गांधी द्वारा बताया गया मार्ग आज 100 वर्षों के पश्चात्् भी प्रांसगिक है।
सन्दर्भ सूची-
1. गाँधीजी, हिन्द-स्वराज, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, 2001, पृ0 13.
2. यंग इंडिया (अंग्रेजी) 2-7-31.
3. सिंह,दशरथ, गाँधीवाद को विनोबा की देन, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना,1975,पृ0 395.
4. वही, पृ0 395-96.
5. प्रभु, आर.के. एवं राव, यू.आर. : महात्मा गाँधी के विचार, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1994, पृ0 3154.
6. हरिजन, 14-7-46.
7. यंग इंडिया 23-9-26.
8. दृष्टव्य, हरिजन (अंग्रेजी) 22-9-46.
9. उद्धृत, पूर्वोक्त सं0 15, पृ0 399.
10. गाँधीजी : मेरे सपनों का भारत, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, 2000, पृ0 12.
11. वही, पृ0 12.
12. दृष्टव्य, वही, पृ0 12.
13. वही, पृ0 12.
14. दृष्टव्य, हरिजन 1-9-40.
15. वही, 9-5-46.
16. वही, 4-8-46.
सूर्यप्रकाश पांडे
शोध छात्र, दर्शन विभाग,
काशी हिन्दू विश्विद्यालय, वाराणसी।