Thursday 1 January 2015

रागविराग और रामविलास शर्मा

शिवाजी

कुशल आलोचक, सम्पादक एवं सशक्त व्याख्याता रामविलास शर्मा जी ने अपने युग के क्रांतिकारी, उन्मुक्त कवि, कथाकार एवं निबन्धकार सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की महत्त्वपूर्ण एवं संवेदनात्मक कविताओं का संग्रह, सम्पादन, व्याख्या कर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में दिया अतुलनीय योगदान है। निराला जी ने जिस प्रकार साहित्य के क्षेत्र में अपने विचारों को गतिशील बनाया तथा समाज में उत्पन्न विसंगतियों को जांॅचा परखा एवं उस पर अपनी कलम चलायी है, उसको एक बार फिर से आलोचना का रूप देना एवं सम्पादन करना कठिन कार्य है, जिसको उत्कर्ष तक शर्मा जी ने पहुंचाया है, जिसके उपर फिर से कलम चलाना ‘सूर्य को दीपक दिखाने’ के समान है। फिर भी मैं अल्पज्ञ कुछ लिखने का साहस कर सका हूॅ।

मतवाला के प्रकाशन समय सन् 1923 से पहले से ही निराला जी की रचनाएं छिटपुट पत्रिकाओं में छपने लगी थी, सरस्वती के यशस्वी सम्पादक आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा ‘जूही की काली’ कविता को वापस लौटाना एक तरह से निराला जी को सिरे से ही खारिज करना है। लेकिन निराला जी ने हार नहीं मानी और निरन्तर संघर्ष करते रहे और अन्ततः उनकी कविताएं प्रकाशित होने लगी। निराला जी छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता के समय तक एक सक्रिय साहित्यकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। रामविलास शर्मा जी ने निराला जी की रचनाओं (कविताओं) का संकलन ‘रागविराग’ शीर्षक से किया है जो उनकी मौलिक सोच की ही उद्भावना है। इसके सम्पादन में शर्मा जी ने जिस नाम का सम्बोधन किया है वह वास्तव में राग यानी लगाव (रुचि) तथा विराग विरक्ति या अरुचि, अलगाव एक सार्थक प्रतीक है। शर्मा जी निराला जी की पंक्ति जो मतवाला के मुख पृष्ठ पर छपी है को उद्धृत करते हैं-
‘‘अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला’’1
रागविराग संग्रह के विषय में शर्मा जी लिखते हैं- ‘‘यह उन कविताओं का संग्रह है जिनमें जितना आनन्द का अमृत है, उतना ही वेदना का विष’’2।
निराला की कविताओं का संग्रह शर्मा जी ने तीन चरणों में किया है। प्रथम चरण की कविताएं 1921-36 तक है, दूसरे चरण की कविताओं का संग्रह 1937-46 तक तथा तीसरे चरण की कविताओं का संग्रह 1950-61 तक थी। इस प्रकार उनकी कविताओं का चरणगत विभाजन और उसमें भी उस युग की प्रतिनिधि कविताएं एवं युगानुरूप काव्य रचना को प्रत्येक चरण में किस कविता को कहां स्थान देना है यह कार्य शर्मा जी ने बखूबी किया है। जहां वे प्रथम चरण की पहली कविता ‘गीतिका’ संग्रह की ‘रंग गई पग-पग धन्य धरा’ है। एक प्रकार की उत्सव का सूचक मधुमास का वर्णन है। निराला जी को बसन्त ऋतु सभी ऋतुओं में सबसे अच्छी लगती है और उसका उन्होंने सार्वभौमिकीकरण कर दिया है। निराला जी ने बसन्त ऋतु पर जब कविताएं लिखना शुरू किया तो अनवरत जीवन पर्यन्त लिखते रहे। जहां बसन्त की बात हो और वहां नारी सौन्दर्य की चर्चा न की जाय यह सम्भव ही नहीं है। नारी सौन्दर्य के बिना बसन्त का उल्लास अधूरा होता है। निराला जी की रचनाओं को देखकर उस समय के उनके विरोधी आलोचक उनको यह कहकर आलोचना करते थे- ये कैसे छायावादी कवि हैं, जो अपने को रहस्यवादी कहते हैं और नारी सौन्दर्य के गीत भी गाते हैं। शर्मा जी ने निराला जी के रहस्यवाद की तुलना करते हुए लिखते हैं- ‘‘निराला वैसे ही रहस्यवादी कवि थे जैसे मलिक मुहम्मद जायसी आदि प्रेममार्गी सूफी कवि थे या आधुनिक काल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर थे। जायसी और रवीन्द्रनाथ का मन सन्तों और योगियों की नारी सम्बन्धी वर्जनाओं से मुक्त था।’’6
ऐसा नहीं है कि निराला जी ने बसन्त ऋतु को छोड़कर अन्य किसी ऋतु पर कविता नहीं की, निराला ने वर्षा ऋतु का जैसा भावपूर्ण चित्रण किया है वह भारतीय काव्य में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी काव्य में भी सम्भव नहीं था। ‘बादल राग’ कविता इसका सबसे सटीक उदाहरण है। निराला जी के लिए वर्षा सृजन का प्रतीक है, सम्भावना का प्रतीक है, निराला के लिए यह (वर्षा) ध्वन्स का भी प्रतीक है। सामान्य छायावादी कवि ग्रीष्म के ताप से भागता है। ग्रीष्म निराला की अप्रिय ऋतु है, किन्तु वह उसका सामना करते हैं- यह सान्ध्य समय, प्रलय का दृश्य भरता अवर,
पीताभ, अग्निमय ज्यों दुर्जय, निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,
     कर भस्मीभूत समस्त विश्व को एक शेष, उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।7
द्विवेदी युगीन कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की रचना -
‘‘दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी, अब राजती, कमलनी कुल बल्लभ की प्रभा।’’
इन दोनों में स्पष्टतः अन्तर दिखाई देता है जहां हरिऔध जी सायंकाल का वर्णन एक सामान्य भावभूमि पर कर उसका वर्णन किया है, वही निराला जी इसके सूक्ष्म रूप का वर्णन किया है। निराला जी ‘सन्ध्या सुन्दरी’ में लिखते हैं-
दिवसावसान का समय था, आसामान मेघमय से
उतर रही वह संध्या सुन्दरी, परी सी धीरे-धीरे-धीरे ...
निराला को एक स्तर पर देखा जाय तो सिर्फ उल्लास और विषाद के कवि नहीं, संघर्ष और क्रान्ति के भी कवि हैं। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों के समय भारत में जिस प्रकार की क्रांन्तियां हुयीं उसका और जिस प्रकार की क्रान्तियां होनी चाहिए उनका भी निराला जी ध्यान देते हैं और आह्वाहन भी करते हैं, अपनी रचना धर्मिता के प्रतीक के रूप में कविताएं लिखते हैं। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में निम्न वर्ग, सर्वहारा वर्ग का क्या योगदान है, उसकी क्या भूमिका है, वह क्या काम कर सकता है, किस प्रकार देश की स्वतंत्रता के अपने को न्यौछावर कर सकता है, इसकी पहचान निराला जी भलीभांति करते हैं और अपनी रचनाओं में स्थान देते हुए एक प्रतीक बना देते हैं। समाज में शोषक और शोषित के बीच किस प्रकार का अन्तर है। हमेशा शोषकों द्वारा सर्वहारा को सताये जाने का चित्रण तथा सर्वहारा द्वारा क्रान्ति कर परिवर्तन का संकेत निराला जी की कविताओं में मिलता है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रान्ति मुख्यतः किसानों द्वारा सामन्तों, जमींदारों के खिलाफ की जाती रही है। रामविलास शर्मा जी लिखते हैं - ‘‘भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की धुरी है- किसान-क्रान्ति, साम्राज्यवाद के मुख्य समर्थक सामन्तों के खिलाफ जमीन पर अधिकार करने के लिए किसानों का संघर्ष’’।8
निराला जी सन् 1924 में क्रातिकारी दृष्टिकोण से बादलराग कविता लिखते हैं जिसमें उनकी क्रांति के प्रति लगाव व सर्वहारा वर्ग की क्रांति के प्रति आह्वाहन का दृष्य उपस्थित हो जाता है- हिल हिल, खिल खिल,
हाथ हिलाते, तुझे बुलाते, विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते
फिर आगे निराला जी इसी कविता में लिखते हैं - जीर्ण बाहु है, शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर, ऐ विप्लव के बीर।
इस प्र्रकार यहां निराला जी बादल और छोटे-छोटे पौधों का तालमेल दिखाकर कृषक क्रान्ति का आह्वाहन किया है जो स्वतंत्रता आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः सत्य साबित होती है। इस प्रकार शर्मा जी द्वारा कविताओं का चयन निराला जी को महत्वपूर्ण बना देता है। निराला जी की दृष्टि में मातृभूमि की स्वतंत्रता का महत्त्व सबसे अधिक है, वे अंग्रेजों के खिलाफ एक तरह से खुली चुनौती अपने सृजन प्रक्रिया के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। ‘जागो फिर एक बार’ में निराला जी लिखते हैं- ‘‘शेरों की मांद में, आया है आज स्यार, जागो फिर एक बार।’’
यहां सिर्फ भारतीयों को शेर ही नहीं घोषित करते हैं, बल्कि अंग्रेजों को गीदड़ घोषित करते हैं जो हमेशा कायराना व्यापार करता है। इस प्रकार उपमा देकर उन्होंने यह बताया है कि यदि भारतीय तैयार हो जाएं तो मातृभूमि की स्वतंत्रता बहुत दूर नहीं। इस प्रकार निराला जी अपनी कविता के माध्यम से एक क्रान्ति का आह्वाहन करते हैं और अन्त में यह भी बताना नहीं भूलते हैं कि-
‘‘तुम हो महान्, तुम सदा हो महान,
है नश्वर यह दीन भाव, कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम, पद-रण-भर भी है नहीं, पूरा यह विश्व भार’’
निराला जी की ‘कुकुरमुत्ता’ के माध्यम से प्रगतिशील विचार का परिचय भी मिल जाता है। ‘कुकुरमुत्ता’ से वह छायावादी मान्यताओं पर भी व्यंग्य करते हैं जो उन्हें प्रिय थी यद्यपि उन्हे संशय की दृष्टि से पहले भी देखते थे। कुकुरमुत्ता के प्रच्छन्न व्यंग्य स्वयं निराला की ब्रह्म सम्बन्धी विचारधारा पर है। निराला जी की रचनाओं में एक बहुत ही अलग किस्म का अन्तर जो खास तौर से छायावाद से दिखायी देता है, वह है- अन्धकार। इनकी रचनाओं में ‘प्रकाश’ से ज्यादा अंधकार है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनकी रचना ‘राम की शक्तिपूजा’। रामविलास शर्मा जी रागविराग की भूमिका में ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ में अन्तर को तथा विचार की भाव भूमि को इस प्रकार दर्शाते हैं- ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसे उदात्त काव्य और ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी हास्यरस की रचना में आकाश-पाताल जैसा अन्तर है, फिर भी इनकी एक सामान्य विचार भूमि है। राम के मन में जो संशय है, स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, इस संशय का सम्बन्ध कहीं न कहीं उस संशय से भी है जिसे निराला ने ‘अधिवास’ में प्रकट किया था। राम ब्रह्म है। माया ब्रह्म की शक्ति है। वेदान्ती का लक्ष्य माया का आवरण पार करके ब्रह्म तक पहुंचना होता है।’’9
‘राम की शक्तिपूजा’ का प्रारम्भ रात्रि से शुरू होना- रवि हुआ अस्त अपने आप में यह घोषित करता है कि अन्धकार निराशा का प्रतीक है और इस अन्धकार से लड़ना सामान्य बात नहीं वह भी तब जब राम रावण का युद्ध असमाप्त रह गया हो। एक प्रतीक के माध्यम से निराला जी बहुत कुछ कह जाते हैं-
‘‘है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार’’
इससे भी आगे बढ़कर वे इस अन्धकार में एक मशाल जला लेते हैं-
‘‘अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल, भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल’’
यह ‘मशाल’ राम के मन में आशा का संचार करती है। जहां अन्धकार को चीरकर एक मशाल अपनी रोशनी के माध्यम से यह सिद्ध करती है कि अन्धकार चाहे अमा हो या मानव जीवन या स्वतंत्रता का उसके बीच कहीं न कहीं एक ज्योतिपुंज अवश्य होता है जिसके माध्यम से यह देखा जा सकता है कि किस ओर अग्रसर होना है। यह मशाल रास्ता दिखाने का भी कार्य कर रही है और धैर्य भी। आगे पुनः निराला जी लिखते हैं- ‘‘उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण
अन्याय जिधर, है उधर शक्ति कहते छल-छल, हो गये नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल’’
यदि यहां थोड़ा था पहले अर्थात मुगल शासन के स्थापना के सन्दर्भ में यह बात सार्थक सिद्ध होती है जब भारतीय विदेशी आक्रमणकारियों को आक्रमण हेतु निमंत्रण देते हैं और उसके बाद अन्याय की जीत होती है और स्वतंत्रता संघर्ष के सन्दर्भ में देखा जाय तो ‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति’ की बात पूर्णतः उभरकर सामने आती है। इस प्रकार अंग्रेज शासक अन्याय, अत्याचार के माध्यम से भारतीयों को गुलाम बनाये हुए थे उसकी सार्थक बिम्ब उभरकर सामने आता है। यदि भारतीय या क्षेत्रीय स्तर पर देखा जाये तो सामन्त वर्ग, पूंजीपति वर्ग, किसान, मजदूर, दलित आदि का शोषण कर शक्ति का संचय करते हैं और यह शक्ति है- राजनीति, बाहुबल, धनबल, बड़े बड़े पदों पर आसीन लोगों की सत्ता की हनक इत्यादि। यही वह शक्ति है जो आज के उत्तर औपनिवेशिक युग (ग्लोबल गांव की अवधारणा) में दिखाई देती है चाहे वह अमेरिका हो या इज़राइल जिसने इराक और फ़लस्तीन को तबाह कर दिया। अब आगे निराला जी की रचना में रघुबर को सम्बोधित कर जाम्बवान कहते हैं-
‘‘विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, हे पुरूष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’’
यहां निराला जी मानव के अन्दर निहित शक्ति की ओर संकेत किया है। कहते हैं कि यदि रावण राक्षस होकर शक्ति को अपने साथ कर सकता है तो आप तो श्रेष्ठ मानव हैं उसी की भांति पहले शक्ति का संचय करो फिर उसकी शक्ति का उत्तर शक्ति से दो। अर्थात स्वतंत्रता आन्दोलन को सफल बनाने के लिए पहले शक्ति संचय की आवश्यकता है और वह शक्ति है ‘मानव एकता’ के माध्यम से सभी व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को कर देश को रावणरूपी राक्षस अंग्रेजों से मुक्ति मिल सकती है। शक्ति संचय में भी एक कठिनाईयॉं उत्पन्न होती हैं उससे जूझना पड़ता है, लड़ना पड़ता है- अपने से और अपने आस पास के लोगों से विरोध झेलना पड़ता है। शक्ति के लिए शक्ति का संचय करना कठिन कार्य होता है, लेकिन इसके बिना भी कार्य नहीं चल सकता है। निराला जी पुनः लिखते हैं-
धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध
यह माना जाता है और यह एक सच्चाई भी है कि निराला जी ने मुक्नि कामना के लिए जिस साधन का प्रयोग किया, उसके बदले उन्हें कष्ट ही झेलना पड़ा। अब यदि स्वतंत्रता के सन्दर्भ में देखा जाय तो जिस भी मार्ग का अनुसरण किया जाता उसका अंग्रेजों द्वारा जमकर दमन किया जाता रहा और अन्त में राम की शक्ति पूजा का समापन इस आशा के साथ करते हैं कि विजय तो होगी ही-
‘‘होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन,
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन।’’
यदि निराला जी ‘राम की शक्तिपूजा’ लिखी जिसने ताक कमसिन वारि लिखी, उसी ने लिखा- ‘‘पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आशा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में।10
इस प्रकार निराला जी की रचनाओं को तीन चरणां में रखना और उसका सम्पादन कार्य करना अति कठिन कार्य होने पर भी रामविलास शर्मा जी ने इसको बड़ी कुशलता पूर्वक किया है। यहां यह देखा जा सकता है कि शर्मा जी की दृष्टि निराला जी की कविताओं को एक धरातलीय स्थल से लेकर चलते हैं जहां एक ओर तो प्रेम है, उत्साह है वहीं दूसरी ओर विषाद, दुःख है तथा जहां एक ओर प्रकाश की ज्योति है वहीं दूसरी ओर ‘अमा निशा’ भी है। इसलिए यह कहना कि निराला जी की कविताओं में राग-विराग दोनों ही दिखाई देता है जो सर्वथा सार्थक सिद्ध होता है। निराला जी का जीवन तमाम झंझावतों से गुजरता हुआ पत्रोकंठित ज्योतिपुंज, प्रकाश, आभा और वह ‘केवल जलती रहे मशाल’ साहित्य जगत को हमेशा मार्ग दिखायेगी और अब अंत में मैं सिर्फ दूधनाथ की इन पंक्तियों के साथ अंत करता हूं- दरअसल सच्चा रचनाकार घनी सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है, जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है।11 निराला जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से यह कार्य जीवन पर्यन्त किया।
सन्दर्भ सूची -
1. रागविराग, भूमिका, पृष्ठ संख्या 17, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
2. वही।
3. वही, पृष्ठ सं0 18.
4. वही।
5. वही।
6. वही, पृष्ठ संख्या 20.
7. वही।
8. वही, पृष्ठ संख्या 21.
9. वही, पृष्ठ संख्या 23.
10. वही, पृष्ठ संख्या 38.
11. सिंह, दूधनाथ, निराला आत्महन्ता अस्था, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
शिवाजी
शोध छात्र, हिन्दी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।