Thursday 1 January 2015

बदलते परिवेष में षिक्षण और प्रषिक्षण : एक विवेचन


नागेन्द्र झा एवं हरीश कुमार पाण्डेय

समस्त जीव धारियो में कुछ संवेग होते है, अभिव्यक्ति का माध्यम केवल मौखिक या लिखित ही नही हो सकता, संवेग भी अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकता है। बालक के संवेग को शिक्षक ही ठीक से समझ सकता है। शिक्षा का लक्ष्य/उद्देश्य बालक को मात्र शिक्षित करना नहीं है, अपितु साथ-साथ आज के प्रतिर्स्पधात्मक युग में बालक की प्रतिभा का चतुर्दिक विकास करना भी है। ......... ‘नहि ज्ञानेन सदृश्य पवित्र महि विद्यते्- गीता।

ज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोई वस्तु नही है। ज्ञान चिन्तन की उच्चतम् बिन्दु अर्थात पराकाष्ठा है। चिन्तन शक्ति मानव के पास ही है। जब बुद्धि युक्ति के साथ कार्य को सम्पादित करती है तो हम उस सम्पादित करने वाले व्यक्ति को बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग में सबसे महत्वपूर्ण स्थान शिक्षक का है। शिक्षा के केन्द्र में बालक हो, शिक्षक हो या पाठ्क्रम हो शिक्षक का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है, क्यांकि समस्त जीव धारियां में कुछ संवेग होते हैं। अभिव्यक्ति का माध्यम सिर्फ मौखिक या लिखित ही नही हो सकता, संवेग भी अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकता है। बालक के संवेग को शिक्षक ही ठीक से समझ सकता हैं। चूकि शिक्षा का केन्द्रबिन्दु बालक है जबकि शिक्षा का लक्ष्य/उद्देश्य सिर्फ बालक को साक्षर बनाना नही अपितु शिक्षित करना है, के साथ-साथ आज के प्रतिर्स्पधात्मक युग में बालक की प्रतिभा का चतुर्दिक विकास होना समय की मांग है। इसको अगर सूक्ष्मता से विवेचन किया जाए तो देखते है कि बालक मिट्टी है और शिक्षक उस मिट्टी को रूप देने वाला है। छुपी हुई योग्यताओं को पहचान कर बहुआयामी रूप देना क्या कोई साधारण शिक्षक कर सकता है? यह विचारणीय प्रश्न है। जिस नींव पर शिक्षा के भविष्य की बहुमंजिल इमारत खड़ी होनी है वह नींव ही अप्रशिक्षित शिक्षकों के हाथ में सौपना क्या चिन्तन का विषय नही है?
शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा के ‘शिक्ष्’ धातु से बना है जिसका अर्थ ‘सीखना’ तथा ‘सीखाना’ है। ध्यान दें, सिर्फ ‘सिखाना’ शब्द ही नही है अपितु सीखना भी है। ‘सीखना’ शब्द दोनां के लिए है- बालक और शिक्षक। बालक क्या सीखना चाहता है? कैसे सीखना चाहता है? परिस्थिति क्या कहती है? परिस्थिति में ही सभी बिन्दु छुपे हुए हैं जिसमें संवेग भी आता है और परिस्थिति को पहचानना प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता दूसरे से सम्भव नही। क्योंकि समय बदल रहा है ज्तमदके बदल रहे है और बदलते परिवेश में अपने को अद्यतन् रखना प्रशिक्षित ही कर सकता है।




पहले प्रशिक्षण का रूप करीब-करीब अनुभूत ज्ञान ;म्उचपतपबंस ज्ञदवूसमकहमद्ध था। शिक्षक जिसे गुरु कह कर सम्बोधित किया जाता था उसे जीवन के तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ) का पूर्ण ज्ञान होता है। संन्यास आश्रम में वह शिक्षा दान समाज को ज्ञानवान बनाने के लिए करता था तथा उस अलौकिक ज्ञान को अपने तीनां आश्रमों के अनुभवों से सींच कर एक ज्ञान गरिमा युक्त समाज का निर्माण करता था जो सिर्फ भौतिक दृष्टि के लिए नहीं, वरन् आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति कर सके। तभी तो स्वामी विवेकानन्द जी ने शिक्षा पर लोगों के द्वारा पूछे गये प्रश्न पर कहा था कि मैं कभी किसी बात को परिभाषित नही करता, मगर बात शिक्षा की है तो कहता हूँ कि शिक्षा बालक के अन्तःनिहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी जी भी मानते हैं जब स्वयं का ही चहुॅमुखी विकास नही हो पाया तो दूसरे की कल्पनातीत है। 
आज छात्राध्यापक को प्रशिक्षित करने के लिए ज्ंगवदवउल में ब्वहदपजपअम क्वउंपद (ज्ञानात्मक विकास) म्िमिबजपअम क्वउंपद (भावात्मक विकास) च्ेलबीवउवजवत क्वउंपद क्रियात्मक विकास में प्रशिक्षित किया जाता है। गॉधी जी ने भी करीब-करीब यही बात कही है। इसे 3भ् के रूप में समझ सकते हैं।


अगर देखा जाए तो सभी ज्ंगवदवउल में उपरोक्त बातें ही है और कार्य सूचक क्रियाएं ठमींअपवतंस ज्मतउ में भी लगभग एक ही बातें हैं। शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेजां में च्तंबजपबंस ज्ञदवूसमकहम की अपेक्षाकृत ज्ीमवतमजपबंस ज्ञदवूसमकहम कुछ ज्यादा होने के कारण प्रशिक्षण का वर्तमान मनोवैज्ञानिक परिस्थिति में ताल-मेल का अभाव जैसा है। चूॅकि बात शिक्षा की है इसलिए वर्तमान सन्दर्भ में पुनः एक बार अद्यतन होने की जरूरत है। क्योंकि देश काल और परिस्थिति में शिक्षा का स्वरूप परिवर्तन हो जाता है। कहा भी गया है शिक्षा गत्यात्मक, परिवर्तनशील है और जब शिक्षा से ही सब कुछ परिवर्तन होता है तो फिर शिक्षा में परिवर्तन क्यों नही।
शिक्षा नीतियों के अनुसार यदि प्रशिक्षण दिया गया है तथा छण्ब्ण्ज्ण्म् मानक के अनुपालन पर बने शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय तथा राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन् परिषद् छ।।ब् द्वारा प्राप्त (ग्रेड) मान्यता से निकले प्राध्यापकों को शिक्षा की जिम्मेदारी न देकर अल्प प्रशिक्षित, विषय विशेषज्ञ, शिक्षा मित्र, से शिक्षा की नींव तैयार करायी जायेगी जो स्वयं में अप्रशिक्षित है। बालक व्यवहार की गूढ़ गुत्थी पर नित् नवीन शोध हो रहे है फिर भी अल्प प्रशिक्षित व्यक्ति पर ऐसा जिम्मेदारीपूर्ण कार्य को छोड़ देना शिक्षा के साथ खिलवाड़ नही है? दोष किसका या दोषी कौन का समय बीत चुका है। अब वक्त अपनी जिम्मेदारियों को समझने तथा उस पर नये ढंग से विचार कर क्रियान्वित करने का है।
सहायक ग्रन्थ-
1. गुप्ता, एस0 पी0, भारतीय शिक्षा का इतिहास, विकास एवं समस्यायें, शारदा पुस्तक भवन, इलाहावाद, 2005.
2. प्रो0 रुहेला एस0 पी0, शिक्षा के दार्शनिक एवं सामाजशास्त्रीय आधार, अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा, 2010.2011.
3. अग्रवाल जे0 सी0, शिक्षा के दार्शनिक, सामाजिक एवं आर्थिक आधार, अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा, 2010.2011.
4. कुरुक्षेत्र, ग्रामीण विकास मंत्रालय, वर्ष 57 अंक सितम्बर, 2011.
5. झाः इरा, शिक्षित भारत का सपना, दैनिक जागरण, 3 अप्रैल, 2010.
6. राजपूत जगमोहन, असमानता बढ़ाती शिक्षा दैनिक जागरण, 2 फरवरी 2014.
7. कलाम ए0 पी0 जे0 अब्दुल, शिक्षित भारत का सपना, दैनिक जागरण, 3 अप्रैल 2010.
8. गुप्त, संजय, सुधारां से दूर शैक्षिक ढॉचा, दैनिक जागरण, 20 जून 2010.
डॉ0 नागेन्द्र झा (विभागाध्यक्ष)
हरीश कुमार पाण्डेय (अस्सिटेन्ट प्रोफेसर)
बसुन्धरा टीचर्स ट्रेनिंग कालेज, मुजफ्फरपुर,
बी0 आर0 ए0 बिहार विश्वविद्यालय, बिहार।