Thursday 1 January 2015

इलाचन्द्र जोशी का जीवन संघर्ष एवं रचनात्मक गतिविधियॉ

आशीष कुमार मिश्र

इलाचन्द्र जोशी का जन्म 13 दिसम्बर 1902 ई0 मे हुआ था। इनका जन्म अल्मोड़ा के एक सुसंस्कृत मध्यवर्गीय परिवार मे हुआ। इनकी माता का नाम श्रीमती लीलावती जोशी एवं पिता का नाम श्री चन्द्र वल्लभ जोशी था। इलाचन्द्र जोशी के साहित्यिक फलक पर न केवल अल्मोड़ाए कलकत्ताए मुंबई और इलाहाबाद आदि स्थानों की दूरियॉ बल्कि कविताए कहानीए उपन्यासए आलोचनाए पत्रकारिता और अनुवाद आदि अलग.अलग विधाव्रित्यां की दूरियॉ भी नपती चली जाती है। जोशी जी के प्रसिद्ध उपन्यास संन्यासी का कथा नायक एक जगह कहता हैए ष्मै जीवन मे नाना चक्रों के फेर मे पड़कर दीर्घ अनुभव के बाद इस निष्कर्ष पर पहुॅचा हॅू कि रात.दिन जीवन की छोटी.सी.छोटीए तुच्छ से तुच्छ बातां से मनुष्य की यथार्थ प्रकृति का वास्तविक परिचय प्राप्त होता है।ष् यहॉ जोशी जी अपने कथा नायक के बहाने मानों स्वयं अपने ही जीवन क्रम का सूत्रात्मक परिचय दे रहे हैं। मनुष्य की यथार्थ प्रकृति का वास्तविक परिचय प्राप्त करने मे काम आने वाली अनेक बातां से उनकी स्थिति निरी किताबी बनकर ही रह गयी होतीए यदि उन्हें खुद अपने जीवन मे नाना चक्रों के फेर मे न उलझना पड़ता।

अल्मोड़ा के प्राकृतिक परिवेश ने बचपन से ही जोशी जी के व्यक्तित्व को एक विशेष प्रकार की सम्वेदनीयता दी। उनके जन्म स्थान ने पहाड़ी इलाके के अनिर्वचनीय सौंदर्य और पहाड़ी जीवन के भोलेपन की सौगात उन्हें सौप रखी थी। इसी सौगात को सहेजने के क्रम मे उन्होंने अपने काव्य.बोध का विकास किया। विजनवती नामक उनके कविता संग्रह की अनेक रचनायें छायावादी संस्कार में जिस ष्नास्तेल्जियाष् की अभिव्यक्ति हैए उसे पहचान पाना मुश्किल नहीं है।
मेरे इस निर्जन.निकुंज मेंए आओ आओ परदेसी !
नये सिकोरे मे शीतल जलए तुम पी जाओ परदेसी !
या
आओ बैठो थकित हुए होए पॉव पसारो परदेसी !
घर की तीखी करुण बेकलीए तनिक बिसारो परदेसी !1
ष्विजनवतीष् की भूमिका मे अपनी एक कविता राजकुमार के बारे मे जोशी जी लिखते हैए ष्ष्जो अनुभव मेरी कविता के रूपात्मक राजकुमार को हुआ हैए मेरी धारणा है कि अधिकांश भावुक व्यक्तियों को अपने जीवन के मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक विकास मे ठीक वैसा ही अनुभव होता है। शैशवावस्था से लेकर किशोरावस्था तक भावुक व्यक्ति की आत्मा निष्कलुष जीवन की पुनीत धारा में निर्द्वन्द्व रूप से तरंगायमान होती रहती है और उसके अन्तर्जीवन का रूप.रंग.रहित निर्मल वातावरण शुभ्र.पुण्य की स्वचछए सुशीतलए तुसारोज्ज्वल महिमा से मंडित रहता है।ष्ष्2 कहने की आवश्यकता नही की जिस भावुक व्यक्ति का उल्लेख जोशी जी यहॉ कर रहे हैंए वह उस जोशी से एकदम अभिन्न हैए जिसका शैशवावस्था से किशोरावस्था तक का जीवन अल्मोड़ा के सुरम्य एवं शान्त वातावरण मे ही बीता है।
उन्हीं दिनों उनका परिचय सरस्वती पत्रिका से हुआ। अपनी रचनायें छपवाने की ललक जब जोशी जी के मन मे जागी तो पहले पहल उन्होंने अपनी दो.तीन रचनायें सरस्वती में ही भेजी थी। पर प्रत्येक रचना द्विवेदी जी द्वारा लिखे गये स्नेहपूर्ण शब्दों के साथ वापस चली आती थी। उन दुर्लभ हस्ताछरों से युक्त पत्रों को ही अपने जीवन की अमूल्य निधि मानकर जोशी जी ने सन्तोष कर लिया। अल्मोडे़ से बाहर के किसी पत्र मे रचना भेजने का उनका उत्साह बुझ सा गया।
अल्मोड़ा से उन दिनों श्री बद्रीदत्त पांडे द्वारा संपादित एक सप्ताहिक पत्र निकलता था. ष्अल्मोड़ा अखबारष्। इसी स्थानीय पत्र मे जोशी जी की एक कविता छपी जिसे उनकी प्रथम प्रकाशित रचना होने का श्रेय मिला। अल्मोड़ा अखबार का प्रचार अल्मोड़ा जिले के गाँवो में भी था। गाँव मे रहने वाले जोशी परिवार के कई रिश्तेदारों की नजर से वह कविता गुजरी और उन्होंने किशोर कवि इलाचंद्र के घर आकर उसे उस कविता के लिये खूब बधाई दी। इससे उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन मिला और उन्होंने अपने मन को समझाया कि सरस्वती से रचनाओं की वापसी को लेकर खिन्न होना ठीक नहीं है। अल्मोड़ा से बाहर किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचनायें भेजने का उत्साह फिर जागा। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पाद्कत्व में कानपुर से निकलने वाले प्रसिद्ध पत्र ष्प्रतापष् के लिये उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं से ओत.प्रोत अपनी कुछ कविताये भेजी। प्रताप में उन्हें सम्मानपूर्ण स्थान मिला।
      सन 1914 इसवी में इलाचन्द्र की उम्र मात्र 12 वर्ष की थीं जब उनकी ष्सजनवाष् शीर्षक एक कहानी काशी से निकलने वाली पत्रिका ष्हिंदी.गल्पमालाष् में छपी। इलाचन्द्र जोशी की यह प्रकाशित होने वाली पहली कहानी थीं। बाद में यह जानकर की हिंदी.गल्पमाला का संबंध सुप्रसिद्ध रचनाकार जयशंकर प्रसाद से हैए उदीयमान लेखक इलाचन्द्र का मन आत्मगौरव के भाव से भर उठा। वह छायावाद का युग था और उन दिनों के इलाचन्द्र में छायावादिता की कमी नहीं थी। वे छायावादी भाषा में जमकर कहानियाँ लिखते गये। मैट्रिक पास करने के बाद इलाचन्द्र अल्मोड़ा से बाहर निकलने के बारे में सोचने लगे। उनकी पारिवारिक दशा भरण.पोषण के उपाय खोजने के लिये भी उन्हें बाध्य कर रहीं थी। उनको मध्य प्रदेश की बस्तर रियासत में पहली नौकरी टाइपिस्ट की मिली। उन्होंने इस काल में कई बंगला ग्रंथों का अध्ययन किया। फिर वहाँ मन न लगने के कारण वापस लौट आये। इसी बीच उनके पिता के निधन ने उनकी चिन्ताओं को और बढ़ा दिया। 18 वर्ष की अवस्था में उनको शिमला में दूसरी नौकरी मिलीं। ष्ओरिन्टल कार्पोरेटष् नामक अंग्रेजी कम्पनी में असिस्टैंट अकाउन्टेन्ट के पद पर काम करते हुए यहाँ वे जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आये उन पर आधारित कई रेखाचित्रात्मक कहानियाँ जोशी जी के कहानी संग्रह ष्खंडहर की आत्मायेंष् में संकलित हैं। शिमला में ही कुछ दिनों वे आर्मी हेडक्वार्टर में डिस्पैचर के पद पर कार्य करते रहे। लगभग 2 वर्ष के शिमला.प्रवास के बाद उनका मन वहाँ से भी उचट गया। उनका मुक्त स्वभाव उनको स्थाई रूप से कहीं टिकने नहीं देता था। उस समय की अपनी मनःस्थिति की याद ताजा करते हुए ही सम्भवतः ष्विजनवतीष् की ये पंक्तियां जोशी जी ने लिखी होंगी.
मेरे मानस की कल हँसीए स्वच्छ सलिल कल.कंज विसार।
भर उड़ान चल पड़ी लूटनेए महाकाश का विपुल प्रसार।।3
       इस के बाद वे कोलकाता पहुँच गए। कलकत्ता में उन्हें दो महत्वपूर्ण चीजें मिलीं. महानगरीय जीवन के यथार्थ का व्यापक अनुभव और बंगला के मूर्धन्य कथा.शिल्पी शरत्चन्द्र का साथ। ष्जहाज का पंछीष् उपन्यास के अनुभवों की कथा.भूमि यहीं कलकत्ता है. ष्वह महानगरी जिसके कालाग्नि से जलते हुए महापेट के भीतर नाना प्रकार की पीड़ाओंए असन्तोषोंए अत्याचारों और भोग.विलासों के सम्मिलित साधनां के मिश्रित रस निरंतर विभिन्न रूप में पचते चले जाते हैं।ष्4 ष्पल्ली समाजष् और  ष्चरित्रहीनष् जैसे प्रसिद्ध उपन्यास जोशी जी बहुत पहले ही पढ़ चुके थे। इन उपन्यासों का लेखक अब उनके आत्मीय थे और कलकत्ता में कुछ समय तक उनके साथ फक्कड़ों की तरह रहते हुए उन्हें जीवन की कई सच्चाईयों का तीखा रूप देखने को मिला। शरत्चन्द्र के साथ हुई निकटता ने युवा जोशी के कलाकार मन को एक नया उभार दिया।
आजिविका के स्थायी न होने की चिंता ने घेरना शुरू किया तो यहाँ जोशी के काम आयी पत्रकारिता में उनकी गहरी रुचि। एक अनगढ़ पत्रकार तो उनमें तभी जन्म ले चुका थाए जब वे अल्मोड़ा में मात्र सातवीं दर्जा के विद्यार्थी थे। ष्सुधाकरष् नाम की एक हस्तलिखित मासिक पत्रिका उन्हीं दिनों उन्होंने निकाली थीए जिसे सुमित्रानन्दन पंत जैसे प्रतिष्ठित कवि और गोविंद वल्लभ पंत जैसे जाने.माने नाटककार की भी रचनायें छापने का गौरव मिला था। कलकत्ता पहुँचने पर जोशी जी को अपने भीतर के पत्रकार को प्रकट करने का व्यापक सुयोग मिला। ष्कलकत्ता समाचारष् नामक दैनिक पत्र में कुछ दिन उन्होंने काम किया। व्यावसायिक पत्रकारिता के इलाके में यह उनका पहला अनुभव था। बाद में प्रयाग से प्रकाशित ष्चाँदष् से सहयोगी संपादक के रूप में सम्बद्ध हो गये। सन् 1929 इसवी में ष्सुधाष् का संपादन शुरू किया। सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वहाँ से शीघ्र ही संबंध तोड़ लेना पड़ा। सन् 1930 इसवी में वे पुनः कलकत्ता गये और अपने बड़े भाई श्री हेमचंद्र जोशी के साथ ष्विश्ववानीष् नामक मासिक पत्रिका निकाली। इसके बाद उन्होनें ष्विश्वमित्रष् मासिक के संपादन का दायित्व सम्भाला। सन् 1935 तक वे इस पत्र से जुडे रहे। फिर कुछ व्यक्तिगत कारण से अलग होकर स्वतंत्र लेखन करने लगे।
इसी बीच वे अपनी कविताओं के इकलौते संग्रह ष्विजनवतीष् की पाँडुलिपि तैयार कर चुके थे। इसके लिये प्रकाशक की खोज उन्हें इलाहाबाद खींच लायी। 1936 में वे इलाहाबाद आये। इलाहाबादए जो शीघ्र ही उनका स्थायी कर्म.स्थान बन गया से वे किसी न किसी रूप में हमेशा सम्बद्ध रहे। कुछ दिनों उन्होंने ष्सम्मेलन पत्रिकाष् तथा ष्भारतष् में काम करते हुए अपनी सृजन प्रतिभा का मार्ग प्रशस्त किया। धर्मयुग से सम्बद्ध होकर लगभग एक वर्ष के लिये वे मुंबई भी गये वहाँ से लौट कर इलाहाबाद के ष्साहित्यकार संसदष् के मुख्य पत्र ष्साहित्यकारष् का संपादन करने लगे। आगे चलकर जब उन्हें आल इंडिया रेडियो मे काम करने का निमंत्रण मिला तो इन्दौरए दिल्लीए लखनऊ . कई केन्द्रों पर काम करने के बाद इलाहाबाद केन्द्र से भी कुछ समय तक वे जुडे रहे। समय.समय पर दूसरी भाषाओं की अच्छी कृतियों का अनुवाद भी वे करते रहे। देशी.विदेशी साहित्य का जो गहन अध्ययन उन्होंने कियाए उसका लाभ उनके द्वारा किये गये अनुवाद कार्य के जरिये हिंदी पाठकों को मिला।
कवि के रूप मे जोशी जी को अपने ज्ञान और अपने अनुभव का रचनात्मक रसायन दे पाने मे विशेष सफलता नहीं मिल पायी। भले ही जोशी जी अपनी कविताओं का ष्जलवत तरलष् और अलोक.रश्मिवत सरल मालूम पड़ना एक विशेषता मानते हो।5 लेकिन जीवन का जो असली रूप उन्हें देखने को मिल रहा थाए वह न तो वैसा तरल थाए न सरल। वहाँ तो ठोस समस्यायें थीं और जटिल यथार्थ! इसीलिए जोशी जी को अपने रचनात्मक लेखन के लिये सही और उपयुक्त विधा का चुनाव करते समय बाद में काव्य रचना का मोह त्याग देना पडा।
       उपन्यासकार के रूप मे इलाचन्द्र जोशी से हिंदी जगत का परिचय सन् 1929 इसवी में हुआ जब उनका पहला उपन्यास ष्घृणामयीष् प्रकाश मे आया। यह उपन्यास उन्हांने पूरा 1927 में ही कर लिया था। इस दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व की बात यह है की हिंदी में मनोवैज्ञानिक उपन्यास के क्षेत्र मे पहली जमीन इसी उपन्यास ने तोड़ी थी। इलाचन्द्र जी के भतीजे भुवनचन्द्र जोशी एवं रामेश्वर शुक्ल अंचल के एक लेख6 से भी इस बात का पता चलता है की ष्घृणामयीष् से भी पहले उनका एक उपन्यास ष्परदेशीष् धारावाहिक रूप से ष्माधुरीष् नामक हिंदी पत्रिका में छप चुका था। ष्घृणामयीष् की ओर हिंदी के व्यापक पाठक वर्ग का ध्यान आकर्षित नहीं हो सका। कारण शायद यह था कि जिस वर्ष यह उपन्यास छपाए उसी के आस.पास हिंदी के कई अन्य उपन्यास भी लगभग एक साथ आमने.सामने आये थे। इनमें प्रसाद का कंकालए जैनेन्द्र का परखए वृन्दावन लाल वर्मा का गढ़कुन्डार आदि शिल्प और सम्वेद्ना दोनों की दृष्टि से अधिक मुक्म्मल थे। जोशी जी का उपन्यास ष्घृणामयीष् इन उपन्यासों के बीच कहीं दब सा गया। क्योंकि औपन्यासिक सम्वेदना की एक नयी दिशा का संकेतक होने के बावजूद शिल्प की दृष्टि से अभी उसमें बहुत कसर बाकी थी।
      जोशी जी ने कथा.रचना के क्षेत्र में जो नयी दिशा खोजी थीए उस पर आगे बढ़ने का उनका उत्साह अपनी उपेक्षा के बावजूद डिगा नहीं। लेकिन उन्हांने यह जरूर जान लिया कि उन्हें अपनी तैयारी अभी बहुत मेहनत से करनी है। सन् 1940 में जोशी जी का नया उपन्यास आया. संन्यासी। मानवीय अनुभव का यह एक ऐसा समय था जिसकी संकटग्रस्तता का कुछ अनुमान हमें कवींद्र रविन्द्र के इस कथन सहज ही लग सकता है.ष्ष्जब मैं अपने चारों ओर देखता हूँए मुझें एक गर्विली सभ्यता इस तरह खंडहर होती दिखती हैए मानां राशि.राशि व्यर्थता के ढेर मे तब्दील होने को उतावली हो!ष्ष्7 इलाचंद्र जोशी अपने समय की इस सच्चाई से न केवल साहित्यकार के रूप में बल्कि इंसान के रूप में भी टकरा रहे थे। ष्संन्यासीष् के कथानायक नंदकिशोर में भी हम इसी मनःस्थिति से गुजरते जोशी के व्यक्तित्व को देख सकते हैं। नंदकिशोर जयंती से विवाह इच्छा का मूल कारण बताते हुए कहता है.ष्मुझे उस तेजस्वनी नारी के स्वभाव में एक शान्त और संयत तथापि दुर्दमनीय गर्व का जो भाव दिखायी दिया थाए उसे अकारण ही चूर.चूर करने की एक प्रतिहिंसा पूर्ण भावना मेरे मन में समा गयी थी।ष्
ष्संन्यासीष् का हिंदी जगत में अच्छा स्वागत हुआ। यह उपन्यास जोशी जी की ख्याति का पहला पुष्ट आधार बना। फिर तो उनके लेखन में ऐसी त्वरा आयी की प्रायः हर दो वर्ष में उनका कोई न कोई नया उपन्यास छपता चला गया। उपन्यास.रचना की इस संख्यात्मक गति में जोशी जी अपने सम्वर्ती उपन्यासकारों में सबको पछाड़ते गये. चाहे वो जैनेन्द्र होए भगवती चरण वर्मा हो या यशपाल। संन्यासी के बाद ष्पर्दे की रानीष्ए ष्प्रेत और छायाष्ए ष्निर्वासितष्ए ष्मुक्तिपथष्ए ष्सुबह के भूलेष्ए ष्जिप्सीष्ए ष्जहाज का पंक्षीष्ए ष्भूत का भविष्यष्ए और ष्कवि की प्रेयसीष्ए तक जोशी जी की उपन्यास.रचना का एक लंबा क्रम है।
कुछ ऐसा ही अनवरत सिलसिला कहानी लेखन का भी चलता रहा।  ष्धूपरेखाष् उनका पहला कहानी संग्रह थाए जो 1938 में छपा था। फिर ष्दिवाली और होलीष्ए ष्रोमैंटिक छायाष्ए ष्आहुतिष्ए ष्खंडहर की आत्मायेंष्ए ष्डायरी के नीरस पृष्ठष्ए ष्कटीले फूलष्ए ष्लजीले काँटेष् आदि उनके कहानी संग्रह छपे।
आलोचना के क्षेत्र में भी जोशी जी की गतिविधि देखते ही बनती है। साहित्य.सिद्धांतों से अपने गहरे परिचय का प्रमाण देने का उनमें अद्भुत उत्साह था। ष्साहित्य.कला और विरहष् शीर्षक निबन्ध ने तो एक समय ऐसी हलचल मचायी थी कि उससे संबंधित चर्चा में शामिल होने के लिये निराला जी को भी बकायदा ताल ठोंक कर अपने बन्धुवर जोशी जी के सामने आना पडा था। ष्कला के विरह में जोशी.बन्धुष् शीर्षक निबन्ध लिखकर निराला जी ने जोशी जी कि प्रति बहस में अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है जो कि उनके ष्प्रबंध.प्रतिमाष् में संकलित है।8 जोशी जी ने देशी.विदेशी रचनाकारों की समीक्षा में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। उनके अनेक विचारोत्तेजक समीक्षात्मक लेख मिलते है। इनमें ष्शरतचंद्र की प्रतिभाष्ए ष्कामायनीष्ए ष्मानवधर्मी कवि चंडीदासष् और ष्शेक्सपियर का हेम्लेटष् आदि उल्लेखनीय है। जोशी जी के आलोचनात्मक लेख उनकी ष्साहित्य.सर्जनाष्ए ष्विवेचनाष्ए ष्साहित्य. चिन्तनष्ए ष्शरत.व्यक्ति एवं कलाकारष्ए ष्रवीन्द्रनाथष्ए तथा ष्देखा.परखाष् आदि पुस्तकों में मिलते है। जोशी जी ने अंग्रेजी में भी कुछ लेख और कहानियाँ लिखी है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जोशी जी में भाषा और साहित्य के प्रति अप्रतिम अनुराग व्याप्त था। वे आजीवन साहित्य.साधना में लगे रहे। हिन्दी.साहित्य में अपनी प्रतिभा और परिश्रम के बल पर उन्होंने सम्मानित स्थान प्राप्त किया है। वे अपनी प्रतिभा और परिश्रम पर पूर्ण विश्वास करते थे और साहित्य की साधना हेतु पूर्णतया समर्पित रहते थे। उनके जैसे साहित्य साधक हिन्दी में विरले हुए हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ.
1ण् जोशी इलाचन्द्रए विजनवती.ष्सेविकाष् शीर्षक कविता सेए पृष्ठ संख्या.21ण्
2ण् जोशी इलाचन्द्रए साहित्य.चिन्तनए प्रथम संस्करणए 1955ए पृष्ठ संख्या. 117ण्
3ण् जोशी इलाचन्द्रए विजनवतीए पृष्ठ संख्या.19ण्
4ण् जोशी इलाचन्द्रए जहाज का पंक्षीए प्रथम संस्करणए 1954ए पृष्ठ संख्या.382ण्
5ण् जोशी इलाचन्द्रए विजनवती की भूमिकाए पृष्ठ संख्या.17.18ण्
6ण् एक अनूठा साहित्यिक व्यक्तित्वए नवनीतए मार्चए 1988ण्
7ण् कृपलानीए कृष्णाए रविन्द्रनाथ टैगौरः ए बायोग्राफीए पृष्ठ संख्या.394ण्
8ण् जोशी इलाचन्द्रए संन्यासीए प्रथम संस्करणए1940ए पृष्ठ संख्या.352ण्
डॉ0 आशीष कुमार मिश्र
विभागाध्यक्ष हिन्दी विभागए
नेहरू ग्राम भारती डीम्ड विश्वविद्यालयए इलाहाबाद।