Thursday 1 January 2015

राष्ट्रीय विकास में ग्रामीण पत्रकारिता की भूमिका


अनिल कुमार मिश्र

भारत में 1991 के बाद समाचार पत्र उद्योग जगत या पूरे मीडिया क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। मीडिया में आए बहुआयामी बदलाव ने हमें समाचारों के बारे में, उसकी विकसित तकनीक के बारे में और मीडिया की वास्तविक भूमिका और शक्ति के बारे में नए सिरे से सोचने पर बाध्य किया है।1 मेरे विचार से तेजी से हो रहा तकनीकी बदलाव और आर्थिक नीति में उतार-चढ़ाव के दौर की ग्रामीण पत्रकारिता में ग्रामीण जन जीवन की झलक तो मिलती है, पर समाचारों की होड़ में गांवों के माटी की महक गायब होती जा रही है।

आज ग्रामीण जन जीवन में भी सामाजिक जन आकांक्षाओं का ज्वार देखा जा रहा है। लोग सुशासन और विकास के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं। विकास का शाब्दिक अर्थ है खुलना, प्रकट होना, या क्रमिक विस्तार। विकास एक गतिमान प्रक्रिया है। आर्थिक दृष्टि से जीवन स्तर में सुधार ही विकास का लक्ष्य है। आज का दौर समग्र विकास को लेकर चलने वाला है। भारतीय संदर्भ में भौतिक विकास के साथ मानवीय विकास भी जुड़ा हुआ है। महात्मा गांधी का यही कहना था कि- ‘‘मैं तुम्हें एक जंतर देता हूॅं। जब भी तुम्हें संदेह हो...... जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा है, उसकी शक्ल तुम याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुॅंचेगा?’’
भारतीय संदर्भ में राष्ट्र के विकास की एक अनिवार्य शर्त है ग्रामीण विकास। गांवों में सूचना का नितांत अभाव है। आज रोटी के साथ सूचना की गरीबी भी इन इलाकों को विकसित होने से रोकती है। विकास और सूचना एक दूसरे के पूरक हैं। जो समाज जितनी देरी से सूचना पाता है, उतना ही पिछड़ जाता है। विकास पत्रकारिता का आधार वस्तुतः कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता है। विकास के कार्यक्रमां को कवर करते हुए उनके सार्थक पक्ष को भी रेखांकित करना चाहिए। जैसे एक पुल, बांध, पावर हाउस या सड़क के लोकार्पण कार्यक्रम में संवाददाता को यह बताना चाहिए कि इस योजना से क्षेत्र का क्या लाभ होगा। पाठक को सोचने के लिए विवश कर पत्रकार का लेखन सम्भावित समाधानों की ओर भी संकेत करता है।2
आलोक मेहता अपनी किताब भारत में पत्रकारिता में तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के साथ हुए संवाद को अपने अनुभव में साझा करते हुए लिखते हैं कि- ‘‘चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बहुत कम समय के लिए रहे, लेकिन महत्वपूर्ण मंत्री और उप-प्रधानमंत्री रहते हुए भी उन्हें सदा यह शिकायत रहती थी कि दिल्ली में बैठे शहरी पत्रकार ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति की बात समझ ही नहीं सकते। एक बार उन्होंने कहा कि तुम टाई लगाते हो, तुम मेरी बात क्या समझोगे।’’3
ग्रामीण पत्रकारिता को विकास से जोड़ने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीण पत्रकारिता और पत्रकार ग्राम क्षेत्रों की आवश्यकताओं को भली-भांति समझें। शहरों की तरह ग्रामीण इलाकों की जरूरतें एकांगी नहीं होती, इसलिए गांवों के मनोविज्ञान को समझने के लिए भारत के गांवों के भौगोलिक, और जलवायु का ज्ञान आवश्यक है। ग्रामीण पत्रकारिता के लिए जरूरी है कि वह ग्रामीण समाज की उन्नति में आवश्यक उपायों की सफलता के लिए सक्रिय सहयोग दें। इन क्षेत्रों में महज खबरों की नहीं उन कारकों की तलाश जरूरी है जो विकास के अवरोध हैं। विकास के मुख्य अवरोधों में आवश्यक जानकारियों के अभाव को सबसे ऊपर रखना होगा। वस्तुतः गांवों में अभी ऐसा कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ है, जिसके माध्यम से विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को गांव के लोगों तक प्रभावी ढंग से पहुॅंचाया जा सके। सरकारी मशीनरी की अपनी सीमाएं हैं। वैसे भी कुछ तत्त्वों की कोशिश रहती है कि ग्रामीण उन्नति योजनाओं की पूरी जानकारी गांवों के लोगों तक न पहुंॅचे, ताकि गांवों के विकास के नाम पर मिलती धनराशि का आपसी बंदरबाट किया जा सके।
इलाहाबाद से प्रकाशित जर्नल द जर्नलिस्ट में ग्रामीण विकास हेतु ग्रामीण मीडिया की भूमिका की आवश्यकता में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ की असिंस्टेंट प्रोफेसर डॉ. रचना गंगवार ने लिखा है कि भारत की सत्तर प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या गांवों में निवास करती है। भारत को गांवों का देश कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार द्वारा तमाम परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। कई स्वयं सहायता समूह भी अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन आजादी के पैंसठ सालों बाद भी गांवों की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हो पाया है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में सामुदायिक मीडिया, ट्रेडीशनल मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह प्रयास सराहनीय है, लेकिन पर्याप्त नहीं। इसमें और ज्यादा इजाफा करने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास और तरक्की से ही देश की तरक्की और विकास हो पाएगा। मीडिया की अपनी प्रभावशीलता और सशक्तता होती है। उसे इसका इस्तेमाल ग्रामीण विकास में भी करना चाहिए।4 अपनी पुस्तक जनसंचार और शोध में ज्ञान प्रकाश पाण्डेय लिखते हैं कि ‘‘ग्रामीण पत्रकारिता में मुख्य रूप से ग्रामीण जन-जीवन की झलक मिलती है। गांव के लोग, कृषक, मजदूर, शिक्षक, लघु एवं कुटीर उद्योग, महिलाएं और बच्चे, उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर ही मुख्य रूप से ग्रामीण पत्रकारिता केन्द्रित होनी चाहिए। हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति के द्वारा ग्रामीण जनसंख्या और गांवों के समुचित एवं व्यापक विकास पर आधारित पत्रकारिता का नाम अलग-अलग लिया जाता है, लेकिन दोनों ही अन्योन्याश्रित और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’’5
ग्रामीण विकास पर चर्चा करने के पूर्व पत्रकारों को वहॉ के वातावरण और बोली-भाषा और विशेषकर कृषि कार्यों की बेहतर समझ विकसित करनी होगी। कृषि एक बहुत ही व्यापक विषय है, तथा उसके अनेक ऐसे पक्ष हैं, जिन्हें ग्रामीण संवाददाताओं को अपना विषय बनाना चाहिए। सर्वप्रथम संवाददाता को इस विषय में सतर्क रहना पड़ेगा कि फसल की बोआई के समय कैसी स्थिति थी- अनुकूल अथवा प्रतिकूल। खरीफ, रबी तथा अन्य नगदी फसलों जैसे गन्ना, मूंगफली, आलू, फल आदि के बीज पानी बोआई की पद्धति अलग-अलग रहती है। फसलों के लिए शासन तथा सहकारी संस्थाओं द्वारा कर्ज, अनुदान, सस्ती कीमतों पर बीज, उर्वरक, कीटनाशक, दवाइयॉं आदि दिए जाते हैं। संवाददाताओं द्वारा प्रभावी खबरों के प्रकाशन से कृषकों को शासन की योजनाओं का लाभ मिल सकता है, लेकिन संयोग से ग्रामीण संवाददाता के स्वयं भी कृषक परिवार से जुडे़ होने के कारण आजकल यह परंपरा बनती हुई देखी जा रही है कि वे ब्लाक समितियों की गड़बड़ियों की खबर प्रकाशित करने के बजाय खाद बीज के लिए खुद ही उपकृत होने का काम कर रहे हैं। फलतः शासन तथा सहकारी संस्थाओं द्वारा स्वीकृत यह सुविधाएं जरूरतमंद और पात्र कृषकों को मिलने के बजाय बंदरबांट की शिकार हो गई हैं। सभी फसलों के लिए बोआई के पश्चात निर्धारित प्रक्रिया रहती है। उर्वरकों का प्रयोग, कीटनाशक दवाइयों का छिड़काव, फसल की सुरक्षा इत्यादि अनेक कार्य विभिन्न स्तरों पर करने पड़ते हैं। इन विभिन्न प्रक्रियाओं में मौसम, रोग, फसलों की सुरक्षा, उत्पादन और उत्पादों का उचित मूल्य मिलने तक के लगभग चार माह के समय पर ग्रामीण संवाददाता की निगहबानी रहनी चाहिए, तब जाकर विकास और आर्थिक उत्थान को ग्रामीण पत्रकारिता से जोड़ा जा सकता है। दुर्भाग्यजनक ढंग से ग्रामीण पत्रकार दुर्घटनाओं और थानों की खबरों पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं, नतीजतन समाचार पत्रों से ग्रामीण परिदृश्य का वास्तविक चित्रण गायब है।
नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित पुस्तक उत्तर प्रदेश देश और लोग में पूर्व आई.ए.एस अधिकारी सुबोध नाथ झा लिखते हैं- ‘‘यह भली भांति स्थापित तथ्य है कि अतीत में कृषि राज्य अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा रही है, और इसका प्रभुत्व भविष्य में भी काफी लम्बी अवधि तक बने रहने की संभावना है। समग्र अर्थव्यवस्था के तीव्रतर विकास तथा गरीबी का प्रभाव क्षेत्र जो मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित है, को कम करने हेतु इस क्षेत्र की उच्चतर वृद्धि अत्यावश्यक उभरती है।’’ एस.एन. झा का मानना है कि ‘‘कृषि रणनीति में उच्च उपज की प्राथमिकता बनी रहनी चाहिए। इसके लिए केवल उन्हीं कार्यक्रमों को वरीयता मिलनी चाहिए, जो उत्पादकता तथा फसल सघनता को प्रशस्त करने वाले हैं। साथ ही ऐसे कार्यक्रम भी वरीयता के पात्र हैं जो लघु, सीमान्त कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों जिनका कृषि अर्थव्यवस्था में वर्चस्व है, को संरक्षण प्रदान करते हैं।’’6
ग्रामीण पत्रकारिता का कर्तव्य है कि लोक तत्वों को समझते हुए परम्परा, लोक-कला, लोक संस्कृति, की रक्षा करना और संकीर्ण रूढ़ियों को मिटा कर समाज को विकास और ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करना। जो क्षेत्र या समाज जितना अधिक पिछड़ा होता है, वहॉं आस्था और लोक विश्वास की भूमिका उतना ही अधिक प्रभाव रखती है। कुरीतियों पर पैनी और विश्लेषणात्मक दृष्टि रखकर और उन्हें शेष समाज, सरकार एवं प्रशासन के सामने लाकर उनके खिलाफ न केवल माहौल बनाया जा सकता है, वरन् शासन की आवश्यक कार्यवाही को भी तेज किया जा सकता है। हाल के वर्षों में गांवों में लोक-परम्परा या विश्वास के नाम पर की जा रही क्रूरताओं को पत्रकारिता ने सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया और प्रशासन को भी तब इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा।7
ग्रामीण पुनर्निमाण में संलग्न आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक संगठनों के साथ रचनात्मक सहयोग और उनके कार्यों को सम्मान दिलाना भी ग्रामीण पत्रकारिता की एक अहम भूमिका हो सकती है। कुटीर उद्योगों का विकास आज भी गांवों के विकास की रीढ़ है। इन उद्योगों को संरक्षित रखने और प्रोत्साहित करने वाली योजनाओं की जानकारी ग्रामीणों को नहीं हो पाती। इसलिए जरूरी है कि इन योजनाओं की सम्यक जानकारी गांवों तक पहुंचाया जाय, और उसके कार्यान्वयन पर तीखी नजर रखी जाय।7 गांव के सामुदायिक विकास कार्यक्रमों, सहकारिता, श्वेत क्रांति, हरित क्रांति, ग्रामीण स्त्री विकास, परिवार नियोजन, अंधविश्वास निवारण जैसे कार्यक्रमों को ग्रामीण पत्रकारिता गति दे सकती है, और ग्रामीण समस्याओं और विकास की भावना का बोध कराते हुए अपना दायित्व निभा सकती है।
राष्ट्रीय विकास में ग्रामीण पत्रकारिता की भूमिका को तलाशने के लिए सबसे पहले गांवों की आन्तरिक संरचना को समझना होगा, जिससे उसका स्वरूप बनता है। गांवों से माटी की महक खोती जा रही है। पारम्परिक मूल्यों के विखंडन ने ग्रामीण कुंठित हताशा के भंवर में हैं। सकारात्मक ग्रामीण विकास नहीं होने और रोजगार के अभाव में युवा ग्रामीण अपराध के दलदल में फंस रहें हैं। अस्सी के दशक में चंबल और बुंदेलखंड के पहाड़ियों में दुर्दांन्त डकैतों का कहर यदि समाज को विखंडित कर रहा था, तो आज ग्रामीण क्षेत्रों के युवा नक्सलबाड़ी आन्दोलन में उलझ कर अपना भविष्य चौपट कर रहे हैं। आर्थिक गैर बराबरी, अशिक्षा और विकास के अन्तिम पायदान तक न पहुॅंचने के कारण समाज में एक तरह से अराजकता है, जिसे ग्रामीण पत्रकारिता अपने सूचनाओं की सम्पन्नता से मिटा सकती है। जिस समाज या व्यक्ति के पास जितना अधिक अद्यतन जानकारियॉं और सूचनाएं होंगी, वह उतना ही सम्पन्न होगा। विकास केवल सड़कों, पुलों, भवनों, के निर्माण से नहीं होगा, बल्कि असल विकास ग्रामीणों को परिवर्तन के लिए तैयार करते हुए समाज जीवन में मीडिया और सूचना के प्रवाह के साथ सामंजस्य बैठाना होगा।
पहले लोगों की धारणा बन चुकी थी कि पत्रकारिता का संबंध तो मात्र राजनीति से है। उसे विभिन्न योजनाओं, विकास कार्यक्रमों, तकनीकी अभिवृद्धि से क्या लेना-देना। अब यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए। वास्तव में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, और प्रौद्योगिक संबंधी समग्र विकास के पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली विकास पत्रकारिता है। सड़क निर्माण, पुल निर्माण, नहर निर्माण की सूचना आकर्षक है, किन्तु ठेकेदारों, एवं अभियन्ताओं द्वारा योजना में भारी गोलमाल का प्रश्न कम उत्तेजक नहीं है। इस तरह से ग्रामीण समाज की सम-सामयिक आवश्यकता के अनुसार नियमित रूप से समाचार पत्र-पत्रिकाओं, या रेडियो-टेलीविजन आदि जनमाध्यमों में अपना योगदान करते हैं, उन्हें हम ग्रामीण पत्रकार और उनके ऐसे कृतित्व की सक्रियता को ग्रामीण पत्रकारिता कहते हैं।9
संदर्भ
1. सुधांशु उपाध्याय,आधुनिक पत्रकारिता और ग्रामीण प्रसंग, राका प्रकाशन, इला0पृ055
2. संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकाकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के ब्लाग संजय उवाच शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013 से।
3. मेहता आलोक, भारत में पत्रकारिता,नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली,पृ0153.
4. लाल गुरू सरन, डॉ रचना गंगवार, द जर्नलिस्ट, जुलाई - सितंबर 2012।
5. पाण्डेय ज्ञान प्रकाश, जनसंचार और शोध।
6. झा सुबोध नाथ, उत्तर प्रदेश देश और लोग, नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली।
7. सुधांशु उपाध्याय,आधुनिक पत्रकारिता और ग्रामीण प्रसंग, राका प्रकाशन, इला0 पृ085
8. तिवारी डॉ0 अर्जुन, आधुनिक पत्रकारिता, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ025
अनिल कुमार मिश्र
शोध छात्र, ग्रामीण पत्रकारिता,
उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।