Thursday 1 January 2015

महाकवि कालिदास के काव्य में वाणी की महनीयता


पी0 के0 पण्डा

महाकवि कालिदास के उपास्य देवता शिव हैं जिनके समस्त रूपों का गान उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। वे अपने काव्यों एवं नाटकों में शिवस्तुति करते हैं तथा शिव में ही समस्त विश्व को समाहित देखते हैं। कालिदास अद्वयवादी थे। उनका अद्वयवाद उनके समस्त कवि कर्म में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने रघुवंश में जगत् के माता-पिता पार्वती-परमेश्वर को प्रमाण करते हुए लिखा है कि-
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ।।1
अर्थात् वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं। वाणी और अर्थ के समान शिव और पार्वती भी अभिन्न हैं। अर्थ शम्भु रूप है तो वाणी शिवा ‘रूपार्थ शम्भुः शिवा वाणी’। वाक् और अर्थ दोनों ही पार्वती परमेश्वर रूप में नित्य और एक रूप हैं। एक विचित्र चित्रकर्मा जगत् चित्र के निर्माता हैं तो वाक् और अर्थ एक दूसरे के आश्रित होकर काव्यचित्र का निर्माण करते हैं।
वाक् और अर्थ काव्य की अन्तर्निहित भाव-वस्तु एवं उनके अभिव्य×जक शब्द का परस्पर नित्य सम्बन्ध हैं। जैसे विश्व सृष्टि के आदि माता-पिता पार्वती और परमेश्वर नित्य सम्बन्ध युक्त हैं। यहाँ शिव निराकार, विशुद्ध चिन्मय, भगवान, भावमात्र तनु वाले हैं। इस भावतनु को भवतनु में प्रकट करती है त्रिगुणात्मिका शक्ति। भव रूप महेश्वर की समस्त रूप लीला, शक्तिरूपिणी, प्रकाशरूपिणी पार्वती के माध्यम से ही चलती है। शिव एवं शक्ति कोई भी परस्पर निरपेक्ष स्वतन्त्र नहीं हैं। शिवाश्रय के बिना शक्ति की लीला नहीं हो सकती है और शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है, वह शक्ति के बिना शवमात्र होते हैं। साहित्यिक पृष्ठभूमि में भी अर्थ का भावरूप महेश्वर और शब्द भवरि×जनी पार्वती दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं। उपयुक्त अभिव्यंजना के बिना अर्थ सत्ता रहित है। अर्थ के घनिष्ठ योग से रहित अभिव्यंजना शब्दाडम्बर मात्र है, साहित्य शब्द की मौलिकता पार्वती परमेश्वर के नित्य सम्बन्ध से युक्त शब्दार्थ के साहित्य में ही है जिसको कालिदास ने पुष्ट किया है। शब्दार्थ के अद्वययोग में ही कालिदास की समस्त कला का मूल रहस्य है।
शब्द के शक्ति रूप चिन्तन की अवधरणा विविध रूपों में अत्यन्त गहरी दिखाई पड़ती है। शब्द मूलतः नाद तत्त्व है और अर्थ बिन्दु तत्त्व है। शक्ति ही नाद है और शिव ही बिन्दु है। उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूपों को बताया गया है मूर्त्त एवं अमूर्त्त। मूर्त्त ब्रह्म ही शब्दब्रह्म है। और अमूर्त्त ब्रह्म ही शब्द रहित ब्रह्म है। शब्दब्रह्म ही नाद है और अशब्द ब्रह्म ही बिन्दु है। भारतीय स्फोटवाद के अनुसार शब्द की चार अवस्थाएँ हैं। परा, मध्यमा, वैखरी, पश्यन्ति। वाग्यत्रा की सहायता के उत्थित वायु स्पन्द रूप में जो कान में पड़ता है वह शब्द का एकान्त ब्रह्म रूप वैखरी है-
ताल्वोष्ठव्यापृतिव्यर्घैंचा परबोधप्रकाशिनी।
मनुष्यमात्रसुलभा बाह्या वाग्वैखरी मता।।2
मध्यमा इससे शब्द का सूक्ष्मतर रूप है। मध्यमा का कोई ब्रह्म रूप नहीं है। वह अन्तःसन्निवेशिनी है। उसका उपादान एक मात्र बुद्धि ही है- बुद्धि मात्रोपादाना बुद्धि व्यापार में ही उसका अस्तित्त्व है। वह सूक्ष्म और प्राण की अनुगता है। बुद्धि व्यापार रूपी समस्त प्रकाश क्रम उसमें संहत है तथापि समस्त प्रकाश क्रम की सम्भावना भी उसके भीतर निहित है। उपयुक्त समय में वह क्रम परम्परा द्वारा आत्मप्रकाश करती है- मध्यमाबुद्धचुपादाना कृतवर्णपरिग्रहा।
अन्तःस×जल्परूपा सा न श्रोतमुपसर्पति।।3
पश्यन्ती की अवस्था और भी सूक्ष्म है, यह ज्ञान और ज्ञेय की एकीभूत अवस्था है। इसमें वर्णों के उच्चारण स्थान एवं प्रयत्नां से आने वाले विभाग नहीं होते। यह अविभागा है। इसमें कोई क्रम नहीं होता है। यह न तो व्यक्त होती है और न ही अव्यक्त। जैसे बीज के अन्दर रहने वाला अव्यक्त छिपा भी नहीं रहता और व्यक्त भी नहीं रहता है। अपितु छिपा होता हुआ भी बाहर निकलने के लिए उन्मुख होता है। यह तटस्थ भावरूप से परा और मध्यमा का दर्शन करती है-
अविभागेन वर्णानां सर्वतः संहृतक्रमा।
प्राणाश्रया तु पश्यन्ती मयूराण्डरसोपमा।।4
शब्दब्रह्म की उससे अपृथग्भूता शक्ति का नाम पराशक्ति है जो भावी चराचर बीज रूपिणी है, जिससे विश्व सृष्टि उत्सारित होती है। यह नाद रूपिणी है तथा यही वाक् है अर्थात् वाग्देवी है। यह सम्पूर्ण वांगमय की अध्ष्ठित्री तथा कवियों एवं विद्वानों की परमाराध्या है। यह निरुपाधिक शब्दब्रह्म स्वरूप है। इसे ‘स्वरूपज्योतिरेवान्तः परावागनपायिनी’5 कहा गया है। विमर्शिनीकार जयरथ ने पदार्थों के सार को परावाक् माना है- येयं विमर्श रूपैव परमार्थचमत्कृतिः।
सैव सारं पदार्थानां परावागभिधीयते।।6
परावाक् त्रिविध विग्रहा होती है। निरुपाधिक परावाक् मन, वाणी और श्रोत्र सबसे परे है। उपाधि दशा में उसके तीन विग्रह पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी हैं। यह पराशक्ति ही कामेश्वरी है। ज्ञानमात्र तनु शिव को सकल अभीष्ट पूर्ति द्वारा उसकी सकल कामना पूर्णकर उसको सदानन्द में निमग्न रखने के कारण ही वह कामेश्वरी है।7 आचार्य कुन्तक ने भी साहित्य के द्वित्य धर्म के दोनों पक्षों पर समान दृष्टि रखी है- जगत्वित्रतयवैचित्रकर्मविधयिनम्।
शिवं शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरणं नुमः।।8
अर्थात् शक्ति के परिस्पन्द मात्र उपकरण वाले तीनों लोकों के वैचि×य रूप चित्रकर्म के निर्माता शिव को नमस्कार है। काव्यजगत् के निर्माण के वाक् शक्ति का ही परिस्पन्द प्राप्त होता है। कुन्तक के तत्त्व और निर्मिति कालिदास के अर्थ और शब्द हैं, और वे ही पार्वती और महेश्वर हैं। कुमारसंभव में कालिदास ने पार्वती के प्रदान करने के सन्दर्भ में महर्षि अंगिरा के मुख से कहलवाया है, ‘तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि’9 अर्थात् भारती या शब्द के साथ जैसे अर्थ का मिलन कराया जाता है तुम्हारी कन्या के साथ वैसे ही महादेव का मिलन कराना उचित है।
कालिदास की वाणी में सदैव शब्दगुण और अर्थगुण पूर्णतया प्राप्त हैं। उनके शब्दार्थ का विन्यास साहित्य सर्जना का मानदण्ड है। ‘स्थित पृथिव्या इव मानदण्डः’ उक्ति से यह ध्वनित होता है कि कुमारसंभव के कर्त्ता कालिदास भी जगत् में स्थित समस्त कविगणों के मानदण्ड समान हैं। मल्लिनाथ ने कालिदास की वाणी की प्रशंसा करते हुए कहा है- कालिदासगिरां सारं कालिदाससरस्वती।
चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा विदुर्नान्ये तु मादृशः।।
अर्थात् कालिदास की वाणी की प्रयोगात्मकता को केवल तीन व्यक्तियों ने समझा है। एक तो विधाता ब्रह्म ने, दूसरी वाग्देवी सरस्वती और तीसरे स्वयं कालिदास ने। जब मल्लिनाथ जैसे विद्वान् कालिदास की रचनाओं को ठीक रूप में समझ पाने में सर्वंथा असमर्थ रहे तब कालिदास की विद्वत्ता के विषय में पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। उनके ग्रन्थ गूढ़ता पूर्ण होते हुए भी इतने सरल तथा मधुर हैं कि सामान्य सहृदय सामाजिकों के लिए ग्रहणीय होते हैं। अतः उनकी रचनाओं के विषय में महाकवि भवभूति की उक्ति चरितार्थ है- वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।
संस्कृत साहित्य का सौष्ठव तथा सौरभ कालिदास की रचनाओं पर निर्भर है। कालिदास के बिना संस्कृत साहित्य प्राणहीन है। कालिदास की वाणी ही उनके हृदय का प्रतिबिम्ब है। उन्होंने अपनी वाणी से व्याकरणसिद्ध वैकल्पिक रूपों का प्रयोग करके उसका बोध कराने का प्रयत्न किया है। रघुवंश में कवि ने स्वयं ही माना है कि विष्णु भगवान् सबसे पुराने कवि हैं। जब उनके मुख के भीतर कण्ठ, तालु, दान्त, ओष्ठ आदि उच्चारण-स्थानों से भली भाँति वाणी निकली तब मानों सरस्वती ने अपने जन्म लेने के समस्त फल को प्राप्त कर लिया है। यथा-
पुराणस्य कवेस्तस्य वर्ण स्थान समीरिता।
बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती।।
व्याकरण की दृष्टि से ‘निरंकुशाः कवयः’ उक्ति ही उनकी वाणी की प्रयोगात्मकता के लिए ही यथार्थ है जो उनकी बहुदर्शिता का परिचय देती है जो आज के सन्दर्भ में कवि की वाणी सर्वदा महाकवि कालिदास की सुमधुर भाषा-शैली तथा गेयात्मक छन्दोबद्धता सहृदयों का हृदय झंकृत कर देती है। अनुष्टुप, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित आदि समस्त छन्दों में महाकवि कालिदास ने उपमा के प्रयोग द्वारा विश्व की समग्र सामग्री को सरल भाषा समन्वय के योग से प्रस्तुत किया है जो बालबुद्धि द्वारा भी ग्राह्य है। अतः महाकवि कालिदास की वाणी की महनीयता सर्वथा सिद्ध एवं प्रेरणादायी है।
सन्दर्भ -
1. रघुवंश, 1/1 श्लोक
2. अलंकारसर्वस्व
3. वही
4. वही
5. अलंकारसर्वस्व
6. वही
7. उपमाकालिदासस्य पृ. 15, शशिभूषणदास गुप्ता
8. वक्रोक्तिजीवितम् 1/1 कारिका
9. कुमारसंभव 6/79 श्लोक
डॉ0 पी0 के0 पण्डा
एसोसिएट प्रोफेसर, रामजस कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007.