Thursday 1 January 2015

रीवॉ जिले में आजीवन शिक्षा कार्यक्रम का स्वरूप


विक्रम शुक्ल

शिक्षा एक ऐसी सामाजिक एवं गतिशील प्रक्रिया है जो व्यक्ति के जन्मजात गुणों का विकास करके उनके व्यक्तित्व को निखारती है और उसके कर्तव्यों का ज्ञान कराते हुए उनके विचार एवं व्यवहार में समाज के लिये हितकर परिवर्तन करती है।

आजीवन शिक्षा में प्रथम शब्द ‘आजीवन’ का अर्थ ऐसे आयु-वर्ग के व्यक्ति से है, जिसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ परिपक्व हो चुकी हों। इस आयु वर्ग में प्रायः 15-45 वर्ष या उससे अधिक वर्षों के लोग आते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिये शैक्षणिक उद्देश्य से चलायी जाने वाली संगठित अंशकालिक क्रियाओं को ‘आजीवन शिक्षा’ कहा जाता है। इस शिक्षा का उद्देश्य यह है कि वह प्रत्येक वयस्क को इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें, जिससे उसकी व्यक्तिगत समृद्धि और व्यावसायिक प्रगति हो तथा वे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रभावशाली रूप से भाग ले सकें।
सन् 1939 में शिक्षा के केन्द्रीय सलाहकार मण्डल (सी.ए.बी.ई.) ने अखिल भारतीय स्तर पर एक समिति आजीवन शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के लिये बिहार के शिक्षा मंत्री डॉ0 सैयद महमूद की अध्यक्षता में बनायी। मण्डल ने उसकी कुछ अनुशंसाओं को अमान्य कर दिया, जो स्वीकार की, उसमें प्रमुख थी-
1. साक्षरता और आगे की शिक्षा का साधन है, स्वयं में साध्य नहीं।
2. बारह वर्ष से कम आयु के बालकों को और किसी विद्यालय में अध्ययनरत छात्रों को प्रौढ़ शिक्षा की कक्षाओं में न लिया जाये और 12-16 वर्ष के आयु वालों की अलग से शिक्षा-व्यवस्था की जाये।
3. बालिकाओं के लिये आयु सीमा न रखी जाये।
4. स्वैच्छिक संस्थाओं की सहायता ली जाये और दृश्य-श्रव्य सामग्री का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये।
प्रथम चरण में राष्ट्रीय आजीवन शिक्षा कार्यक्रम 2 अक्टूबर, 1978 से आरम्भ होकर मार्च, 1979 तक संचालित हुआ। कोठारी आयोग ने भारत में, निम्नलिखित बातों को आवश्यक माना हैः 1. निरक्षरता का उन्मूलन 2. निरन्तर पाठ्यक्रम 3. पत्राचार पाठ्यक्रम 4.पुस्तकालय 5. प्रौढ़ शिक्षा में विश्वविद्यालयों का योगदान 6. प्रौढ़ शिक्षा का संगठन और प्रशासन
आजीवन शिक्षा कार्यक्रम हेतु ऐसा अनुमान है कि देश में निरक्षता को यथा सम्भव दूर करके सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाया जा सकेगा ताकि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित करके उसे अच्छा नागरिक बनाया जा सके। निरक्षरता के कारण ही व्यक्ति-विशेष की ओर राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक उन्नति नहीं हो पाई है। शिक्षा वास्तव में, विद्यालयी सुविधाओं के अनुसार ही समाप्त नहीं हो जाती, अपितु वह जीवनपर्यन्त उपयोगी रहती है। सीखना, कार्य करना और उपयोगी जीवन व्यतीत करना, ये सब शक्तियां परस्पर आश्रित रहती है, इसलिये इनमें समन्वय होना अनिवार्य है। प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा ही ऐसा सम्भव हो सकेगा। साक्षरता के द्वारा अनपढ़ व्यक्तियों का उचित सहयोग प्राप्त कर ऐसे शत्रुओं- अज्ञानता, निरक्षरता, अंधविश्वास आदि पर नियन्त्रण पाया जा सकेगा। आजीवन शिक्षा द्वारा समाज के उस वर्ग को भी विकसित किया जा सकेगा, जो कि अस्पृश्यता और निम्न वर्ग से सम्बन्धित है, जिन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से हीन समझा जाता है।
इस दिशा में आजीवन शिक्षा कार्यक्रम में निहित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये रीवॉ जिले में भी इस दिशा में प्रयास जारी है। रीवॉ जिला जो मध्य प्रदेश राज्य के उत्तर-पूर्व में स्थित है। जिसके अन्तर्गत विकास खण्ड- रीवा, रायपुर-कर्चुलियान, मऊगंज, हनुमना, गंगेव, जवा, सिरमौर, नईगढ़ी व त्योंथर है। चूंकि प्रारंभिक शिक्षा का आजीवन शिक्षा कार्यक्रम का वर्तमान समय में सबसे बड़ा राष्ट्रीय कार्य है।
इससे निम्नलिखित साक्षरता-कौशलों का विकास संभव हो सकेगा -
साक्षरता की कार्य-प्रणाली व्यक्ति-विशेष की आवश्यकताओं और वातावरण संबंधी शक्तियों में समन्वय कर सकेगी। यह कार्यक्रम कार्य, समय, स्थान, पठन-पाठन सामग्री और उसके आयोजन के प्रारुप में लचीलापन प्रदान कर सीखने वालों का उचित सुविधा प्रदान करेगा।
पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधियां, पाठ्य-सामग्री भी विस्तृत रूप प्राप्त कर व्यक्ति-विशेष की आवश्यकताओं की विधिवत् रूप से पूर्ति कर सकेगी।
सहायक ग्रन्थ-
1ण् ।बींतलंए त्ंउंउनतजप.त्मचवतज वि जीम बवउउपजजमम वित तमअपमू वि छंजपवदंस चवसपबल वद म्कनबंजपवद 1986 ळवअजण् वि प्दकपंए छमू क्मसीपण्
2ण् ।ददनंस त्मचवतज.छब्म्त्ज्ए 1996.97ए 2002.03
3ण् ैंतअं ैपों ।इीपलंद त्मूं 2005.06ए 2009.10
4. कुमार, डॉ0 संजय (2009) ‘सर्व शिक्षा अभियान’ अल्फा पब्लिकेशन, नई दिल्ली।
5. जिला सांख्यिकी पुस्तिका, जिला, रीवा वर्ष 2011-2012
विक्रम शुक्ल
 शोध छात्र, लाइफ लॉग लर्निंग विभाग, (शिक्षाशास्त्र विषय)
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवाँं (म0प्र0)