Thursday 1 January 2015

आधुनिकीकरण एवं मूल्य बिखराव

आलोक कुमार

आज समाज में गिरते मूल्यों को लेकर सभी चिन्तित हैं और इसके समाधान का प्रयास कर रहे हैं। शायद इसी कारण समकालीन समय में ‘आधुनिकीकरण एवं मूल्य बिखराव’ चर्चा का विषय बन गया है। विषय में आधुनिकीकरण शब्द का समावेश भी स्वयं में महम्वपूर्ण है। इसका अर्थ यह निकलता है कि मूल्यों के बिखराव का मुख्य कारण आधुनिकीकरण है। एक तरह से यह निष्कर्ष एक भ्रामक संदेश भी देता है और हमें दुविधा में डालता है। आधुनिकीकरण आज जीवन की वास्तविकता है और कदाचित इसे रोकना संभव नहीं है और मेरे विचार में यह आवश्यक भी नहीं है। फिर भी यह कहना बहुत सीमा तक सत्य है कि आधुनिकीकरण से मूल्यों का बिखराव हो रहा है। इस प्रकार पूरा विषय विश्लेषण माँगता है और यही करना प्रस्तुत लेख का उद्देश्य है।

विकास प्रकृति की एक सतत प्रक्रिया है और इसी प्रक्रिया को हम आधुनिकीकरण कह रहे हैं। फिर भी इन दो शब्दों में विरोधाभास प्रतीत होता है। विकास एक प्राकृतिक प्रतीत होती है जबकि आधुनिकीकरण अप्राकृतिक। कदाचित इन दोनों में दिशा एवं गति का अंतर है जिसके कारण कठिनाई उत्पन्न हो रही है। प्राकृतिक विकास सदैव व्यापक हित में होता है और इससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न नहीं होता, जबकि आधुनिकीकरण में एक प्रकार की होड़ का आभास मिलता है। सत्य है कि होड़ व्यापक हित में नहीं हो सकती और इसका लाभ कुछ ही लोगों को मिलता है और वह भी अल्पकाल के लिए। ‘विकास’ की गति भी प्राकृतिक होना चाहिए ताकि वह हमारे आंतरिक व्यक्तित्व में स्वाभाविक रूप से समा सके। डार्विन का उद्भव सिद्धांत इसी प्रकार के विकास की बात करता है। श्री अरविन्द ने भी महामानव बनने की संभावना इसी दृष्टिकोण से व्यक्त की थी। इस प्रकार के विकास को सामने की शक्ति प्रकृति ने हमें दी है और उससे हममें दुविधा उत्पन्न नहीं होती। इसी विकास की गति जब अप्राकृतिक हो जाती है तो समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। विकास की ऐसी दौड़ में सबकी सहभागिता नहीं हो पाती और लोग येन केन प्रकारण आगे रहना चाहते हैं। मूल्यों के बिखराव का यही मुख्य कारण है।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विज्ञान व तकनीक का अत्यंत द्रुतगति से विकास हुआ है। कहा जाता है कि इन पचास वर्षों में इस क्षेत्र में जितनी प्रगति हुई है उतनी पिछले दो हजार वर्षों में भी नहीं हुई। इस प्रगति के फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य ने अतनी उपलब्धियां प्राप्त कर ली हैं कि उसे लगने लगा कि उसने जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान खोज लिया है। इस मद में उसने प्रकृति के साथ खिलवाड़ भी प्रारंभ कर दिया और वह प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को ही विकास मानने लगा। कुछ समय तक तो प्रकृति इसे वहन कर सकी किन्तु शीघ्र ही इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे। आज शुद्ध पर्यावरण, शुद्ध जल, बदलते मौसम और ऐसी अनेक समस्याएँ भयावह रूप ले चुकी हैं और भविष्य इससे भी विकराल दीखने लगा है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विश्व को एक परिवार बनने की कल्पना तो दूर एक परिवार को संगठित रखना भी कल्पना बन रहा है। विकास की इस अंधी दौड़ में सब एक-दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं और यह समझे बिना कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। शायद इसी कारण यह कहा गया है कि विज्ञान की पचास वर्षों की कमाई के पीछे हमने संस्कृति की हजारों वर्षों की कमाई को खो दिया। मेरे विचार से व्यापार की दृष्टि से भी यह घाटे का सौदा है।
मानव प्रकृति की सबसे महत्वपूर्ण कृति है। उसे ‘विचार’ व ‘विवेक’ दोनों शक्तियाँ उपलब्ध हैं। इन्हीं दो शक्तियों के कारण उसने संस्कृति व विज्ञान दोनों को विकसित किया है दुर्भाग्य यह है कि आज इन दो शस्त्रों का उपयोग उसने अपने ‘विकास’ के स्थान पर ‘विनाश’ के लिए करना प्रारंभ कर दिया है। इसका आभास उसे होने लगा है और जिनको इसका आभास हुआ है उन्हें समाधान की चिंता भी होने लगी है। यह चिंता विश्व स्तर पर है और इक्कीसवीं शताब्दी का प्रारंभ इसी चिंता के साथ हुआ है। विश्व धार्मिक नेता दलाई लामा ने 1 जनवरी, 2000 को सारनाथ के प्रागंण से विश्व को दिये अपने संदेश में यह चिंता व्यक्त करते हुए ‘आध्यात्मिक क्रांति’ की बात कही थी उनका कहना था कि मात्र आर्थिक, वैज्ञानिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक क्रांति से मानव कल्याण संभव नहीं है। इनसे मानव की वाह्य आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं किन्तु आंतरिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। इसी कारण वाह्य प्रगति से वह असंतुलित हो जाता है और सम्पन्न दीखता हुआ भी अप्रसन्न रहता है। उनका यह भी कहना था कि ‘आध्यात्मिक क्रांति’ सम्पूर्ण क्रांति है और उसमें मनुष्य का वाह्य विकास भी निहित है। दलाई लामा के इस संदेश का विश्व भर में स्वागत हुआ और उसी वर्ष अगस्त 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से एक ‘विश्व शांति सम्मेलन’ न्यूयार्क में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में पूरे विश्व के महत्वपूर्ण धार्मिक व आध्यात्मिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में यह आभास हुआ कि पूरे विश्व के मानवों की मूल समस्याएँ अथवा आवश्यकताएँ समान हैं। वे प्रसन्नता, सहयोग, प्यार, सद्भाव, करुणा, क्षमा आदि चाहते हैं और यदि तथाकथित विकास यह नहीं देता है तो ऐसा विकास उहें स्वीकार्य नहीं है। मेरा मानना है कि यही तथ्य आशा की किरण है।
समस्या के समाधान के लिए हमें उन्हीं दो शस्त्रों का उपयोग करना होगा जो प्रत्येक मानव को सहज रूप से उपलब्ध हैं और ये हैं ‘विचार शक्ति’ एवं ‘विवेक शक्ति’। इन्हीं शस्त्रों के दुरुपयोग ने समस्या उत्पन्न की है और यही शस्त्र इसका समाधान भी करेंगे। कहते हैं काँटे को काँटा ही निकालता है। मेडिकल क्षेत्र में सभी उपचार पद्धतियाँ का भी यही सिद्धांत है। प्रसन्नता मानव की मूल आवश्यकता है और मूल्यों का बिखराव भी प्रसन्नता की खोज का परिणाम है। आधुनिकीकरण की चकाचौंध में मानव को लगा कि सुख के साध नही प्रसन्नता का आश्वासन है और उसने अपनी पूरी ऊर्जा उनको जुटाने में लगा दी। इस कार्य में वह इतना व्यस्त हो गया है कि सुख प्राप्त करने का समय भी उसके पास नहीं है, आनन्द उठाने की बात तो दूर है। इतना ही नहीं, वह यह भी भूल गया है कि जीवन सीमित है और जब तक उसे इसका आभास होता है सुख अथवा आनन्द प्राप्त करने का समय ही उसके पास नहीं रहता। यदि उसे इन्हें प्राप्त करने का कोई सरल उपाय मिल जाय तो वह निःसंदेह उसकी ओर आकर्षित होगा और मूल्यों की स्थापना स्वाभाविक रूप से होने लगेगी। शिक्षा एवं शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों की भूमिका इसी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। उन्हें पूरी समस्या के कारणों को समझते हुए उनका तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक समाधान समाज को देना होगा और मात्र दोषारोपण करने में इतिश्री की प्रवृत्ति से बचना होगा। इसलिए यह चर्चा और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
सबसे पहले हमें मानव की मूल आवश्यकताओं को ही ठीक से समझना होगा। इनमें भोजन, वस्त्र एवं घर सबसे महत्वपूर्ण हैं और तीनों ही सीमित हैं। कोई भी एक निश्चित माप से अधिक भोजन, वस्त्र अथवा स्थान का उपयोग नहीं कर सकता है और यदि कोई ऐसा प्रयास करता है तो वह हमारी प्रसन्नता में बाधक ही बनेगा। इस तथ्य को अनेक उदाहरणों से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है किन्तु मुझे इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। प्रकृति में सभी लोगों की इन मूल आवश्यकताओं को पूरी करने की क्षमता है किन्तु लोभ को पूरा करने की नहीं। आज साधनों का अभाव कुछ लोगों के कारण है जो स्वयं तो इन साधनों का उपयोग कर नहीं पाते किन्तु दूसरों को इनसे वंचित अवश्य करते हैं। आज अर्थशास्त्री इस बात पर जोर दे रहे हैं कि यदि साधनों के वितरण में बहुत अंतर हो तो ऐसी आर्थिक व्यवस्था को विकसित नहीं कहा जा सकता। इससे समाज में छीना-झपटी की प्रवृत्ति बढ़ती है और मूल्य स्थापित नहीं रहते। हमें शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों व छात्रों को अपनी आवश्यकताओं के सही आकलन को तर्कपूर्ण ढंग से समझते हुए उनमें संतोष का गुण विकसित करना होगा। यदि प्रारंभ से ही हमारा दृष्टिकोण व्यापक बने और हम अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ दूसरो की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखें, तो यह गुण हममें स्वाभाविक रूप से विकसित होगा। आज के सभ्य एव विकसित समाज में मूल आवश्यकताओं के अतिरिक्त भी अनेक आवश्यकताएँ हैं जिन्हें सहजता से उपलब्ध होना चाहिए। इस दृष्टि से भी शिक्षा के क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। यह महत्व न केवल ऐसी सुविधाओं को विकसित करने की दृष्टि है किन्तु उनको उपलब्ध कराने की दृष्टि से भी है। प्रशासन एवं प्रबंधन से जुड़े सभी लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वे इन सुविधाओं का न्यूनतम दुरुपयोग होने दें ताकि वे अधिक से अधिक लोगों तक सहज रूप से पहुँच सके। इस प्रकार की आवश्यकताओं में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवायें, परिवहन, सुरक्षा, मनोरंजन, स्वच्छता, रोजगार आदि मुख्य हैं और सभ्य समाज के लिए आवश्यक है। यदि इनका प्रबंधन एवं पारदर्शिता से किया जाय तो अधिकांश लोगों को मूल्यों से हटने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। मूल्यों का बिखराव तभी होता है जब हमें आवश्यक सुविधाएँ सामान्य व्यवस्था के अन्तर्गत सहज रूप से न मिले। इसके लिए भी हमारा दृष्टिकोण व्यापक होना आवश्यक है। यदि हम व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में सहायता मिलती है। इस प्रकार यह एक चक्रीय व्यवस्था है। इसमें यदि हम निरंतर सुधार की दिशा में चलें तो व्यवस्था बेहतर होती है और मूल्यों का बिखराव स्वयं कम होता जाता है। यही बात उल्टी दिशा में भी सत्य है। शिक्षा की भूमिका कुशल प्रबंधन एवं व्यापक सोच विकसित करने दोनों में है। साथ ही इस बारे में आवश्यक नियम व कानून बनाने में भी है।
अंत में हमें अपने जीवन के प्रति भी व्यापक दृष्टिकोण रखना होगा। मानव जीवन का उद्देश्य मात्र इस भूमि पर जन्म लेकर मृत्यु प्राप्त करना नहीं है। यह एक अत्यन्त दुर्लभ अवसर है जो बहुत सौभाग्य से प्राप्त होता है। मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य ‘पूर्णता’ प्राप्त करना है जिसे हम ‘आत्मसाक्षात्कार’, ‘मोक्ष’ आदि नाम से भी जानते हैं। आज तो वैज्ञानिक भी ‘पुनर्जन्म के सिद्धांत’ को मानने लगे हैं। यदि हम एक जन्म गवाँ देते हैं तो हमें जीवन का लक्ष्य प्राप्त करते हुए पुनर्जन्म लेना होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती है। अतः इस चक्र से जितनी जल्दी छूट मिल जाये उतना ही अच्छा है। चिंतन करने पर इसे पूर्णतः वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण पाया गया है। आज ‘आध्यात्म’ को समझने में बड़ी त्रुटि हो रही है। सामान्यतः इसका अर्थ लगाया जाता है कि हम अपने पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्यों को छोड़ दें। वास्तविकता इसके विपरीत है। यदि हम सचमुच आध्यात्मिक हैं तो अपने कर्तव्यों को और भी निष्ठा से करेंगे किन्तु उनमें हमें लोभ अथवा स्वार्थ नहीं होगा। उस दशा में हमारे सभी कार्य योग का रूप ले लेते हैं और व्यापक हित में होते हैं। इससे न केवल हमारा वाह्य विकास होता है वरन् हम आंतरिक रूप से विकसित होते हुए जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्तर पर मूल्यों से विचलन का प्रश्न ही नहीं उठता और हम उन पर प्राकृतिक रूप से प्रयासहीनता के साथ चलते हैं। जब समाज में अधिक से अधिक लोग ऐसा करते हैं तो समरसता उत्पन्न होती है और सर्वत्र शांति की स्थापना रहती है। आध्यात्मिकता के प्रति यह दृष्टिकोण उत्पन्न करना भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए और ऐसा करनें में किसी वर्ग विशेष को बाधा नहीं बनना चाहिए।
अंत में मैं प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू द्वारा कही गयी एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा। उनका मानना था कि समाज में बुराई का कारण स्वार्थ है किन्तु अच्छाई का कारण परम स्वार्थ है। एक ऐसा स्वार्थ जो सबके लिए हितकारी हो, जिससे स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी सुख मिले। उनका कहना था कि जब हम दूसरों के हित की सोचते हैं और उस दिशा में काम करते हैं तो जिस प्रसन्नता का अनुभव होता है, उसकी कल्पना भी संकीर्ण स्वार्थ के लिए काम करने वाले कर पाते। अतः यदि हमें स्वार्थी बनना ही है तो उसका इतना विस्तार कर दें कि हमारे साथ-साथ दूसरों को भी सुख मिले। ऐसा सुख ही स्थायी होता है जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक भी। मन की ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर आधुनिकीकरण भी वरदान सिद्ध होगा और उसकी सहायता से हम अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग कर सकोगे। मूल्यों का बिखराव रोकने का यही एकमात्र साधन है।
डॉ0 आलोक कुमार
  रीडर, इतिहास विभाग,
राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश।