Thursday 1 January 2015

बौद्ध साहित्य में भारतीय संस्कृति का विश्लेषण

प्रभाकर नाथ मिश्र

इस विषय पर आने के पहले मैं संस्कृति के प्रति अपनी समझ को संक्षेप में रेखांकित करना चाहता हूँ। मेरे लिहाज से, संस्कृति किसी भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों के आन्तरिक एवं स्वतन्त्र जीवन को उद्घाटित करती है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सत्य है कि संस्कृति को किसी विशेष खाँचे और विशेष काल में सीमित नहीं किया जाना चाहिए; क्योंकि संस्कृति एक विकासमान अवधारणा है जो किसी नदी की तरह निरन्तर प्रवाहित होती रहती है, और ऊपरी तौर पर एक समग्रता का बोध कराते हुए भी अपने आस्तीन में काल क्रमेश कई लघु संस्कृतियाँ समेटे रहती है। प्रायः परवर्ती, पूर्ववर्ती के विरोध में आती है, उसका कुछ विरोध कर एवं उससे कुछ ग्रहण कर आगे बढ़ती है।

‘बौद्ध साहित्य में भारतीय संस्कृति’ यह विषय हमारे सामने आता है त्यों ही हमारा मानस यह मानकर गति करना शुरू करता है कि मानों सारा-का-सारा बौद्ध साहित्य भारतीय संस्कृति के विरोध में खड़ा हो गया है, मानों दोनों के रास्ते बिल्कुल अलग हो और दोनों में किसी प्रकार के अन्तः सम्बन्ध का सूत्र तलाशना एक बेईमानी काम हो। लेकिन यदि मेरी बात किसी को नागवार न लगे और मुझे कोरा विद्रोही न मान लिया जाए तो मेरी यह बेबाक राय है कि बौद्ध साहित्य और भारतीय संस्कृति में कोई विरोध या अन्तर्विरोध नहीं है। भारतीय संस्कृति की अविरल बहती धारा में बौद्ध धर्म एक पड़ाव है, जो तत्समय किंचित प्रदूषित होती धारा में फिटकरी के समान उपस्थित होकर उसके दूषणों से उसे अवगत कराता है और उसके प्रवाह में आने वाले अवरोधों को हटाकर उसे गतिमान बनाता है। भारतीय संस्कृति और बौद्ध धर्म के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं तो है।
कुछ लोग के मत में वस्तुतः दोनों के बीच एक ‘अलंघ्य दीवार’ है जिसकी उपेक्षा संभव नहीं है। बुद्ध के ऐसे अन्धानुयायियों के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बुद्ध ने ऐसा कब कहा कि सारा वैदिक साहित्य जला डालों? बुद्ध ने ऐसा कब कहा कि मुझे भगवान बनाकर पूजो? बुद्ध ने ऐसा कब कहा कि मेरे संघ में प्रवेश नहीं करने वालों का सिर कलम कर डालो? और यदि नहीं कहा निश्चय ही हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता कि बुद्ध ने हमें क्या बनाया या बनाने की कोशिश की बल्कि महत्पूर्ण यह बन जाता है कि हमने बुद्ध को कैसा बनाया और उन्हें किस नजरिये से देखा या देखने की कोशिश की। मेरे विचार से अब तक बुद्ध को केवल वैदिक संस्कृति के कोरे विरोधी के रूप में देखा गया है। मेरा विचार इस दृष्टि से एकाकार नहीं रखता। मेरे विचार से बुद्ध में केवल ‘विरोध और विरोध’ के स्थान पर ‘विरोध और ग्रहण का योग’ देखा जाना चाहिए।
कोई भी धर्म कितना भी क्रान्तिकारी और रूढ़िमुक्त होने का दावा क्यों न करें, उसकी पूर्ववर्ती संस्कृति के संस्कार, सम्बोधक और सम्बोध्य के जेहन में रहते हैं और यदि ‘क्रान्तिकारिता’ को ‘नितान्त विध्वंसात्मकता’ का पर्याय न मान लिया जाये तो उस परवर्ती धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य में पूर्ववर्ती धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य के अंश विद्यमान रहते हैं। इसलिए मैं यहां बौद्ध साहित्य को मूल भारतीय संस्कृति से विलग देखने के बजाय उसके मूलों को उस पारंपरिक भारतीय संस्कृति में देखने की कोशिश करना चाहूँगा।
मेरे विचार से महात्मा बुद्ध ने भारतीय संस्कृति को कम से कम तीन क्रान्तिकारी चीजें दी, जिनका स्वरूप मुख्य रूप से खण्डनात्मक है और जिसने तत्कालीन भारतीय समाज को अपनी ओर आकृष्ट किया और आज भी करता है। प्रथम है- कर्मकाण्डों का खण्डन और उसमें होने वाली हिंसा का निषेध तथा अहिंसा का प्रतिपादन। द्वितीय है- तत्कालीन समाज मे विभेद पर आधारित वर्ण व्यवस्था का खण्डन और तृतीय है- आत्मा के पारंपरिक स्थायी और नित्य स्वरूप को नकारकर अनात्मवाद का प्रतिपादन।
सबसे पहले बुद्ध के अहिंसा के सिद्धान्त को लेते हैं। अहिंसा को, बुद्ध द्वारा वर्तमान विश्व को, एक प्रमुख देन के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। लेकिन इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि बुद्ध ने केवल इसका प्रबल प्रतिपादन भर किया। यहां एक वैदिक मन्त्र के उल्लेख का द्रश्टव्य जिसमें सबके हित की कामना की गई हैं-
‘‘जीवेम् शरदः शतम्, पश्येम् शरदः शतम्, श्रृणुयाम् शरदः शतम।
गोत्र नो वर्द्धताम्, दातारो नोऽभिवर्द्धन्ताम् ...........।।’’
इनका अर्थ है कि ‘‘खूब जियें, खूब देखें-सुने। खूब वंश बढ़े, दाता लोग बढ़ें। धन धान्य और संतति बढ़े। गाये खूब दूध दे। बैल खूब जोंते। समय पर वर्षा हो।’’ अब जरा ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ का बार-बार रसपान करने वाले सुविचारित जन यह विचार करें कि इस सूक्ति में पशु-हिंसा या पशु-बलि को कहाँ महिमामण्डित किया गया है? इरअसल गायें खूब दूध दे’ और ‘बैल खूब जोते का विचार हिंसा नहीं, अहिंसा से उपजता है। ऐसे ही अन्यान्य सूत्रों से वैदिक साहित्य भरा पड़ा है। बुद्ध ने केवल उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति में आयी हिंसात्मक प्रवृत्तियों को अपना निशाना बनाया और अहिंसा का प्रबल प्रतिपादन किया। इसलिए बुद्ध को ‘अंहिंसा के अन्वेषक’ मानने वाले विद्वानां को अपने मत में आंशिक संशोधन करते हुए उन्हें ‘अहिंसा के प्रथम प्रबल प्रतिपादक’ के रूप में याद करना ज्यादा संगत होगा।
बुद्ध का दूसरा महत्वपूर्ण प्रहार हुआ तत्कालीन समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था पर; जिसमें समाज को मुख्य रूप से चार वर्णो में विभाजित किया गया था और एक के कर्म को दूसरे से हीन अथवा उच्च बताया गया। निश्चित रूप से उस समय सर्वोच्च सत्तासीन ब्राह्मण समाज को खुलेआम चुनौती देना एक अत्यंत साहसिक कदम था, और इस में कोई दो राय नहीं कि वर्ण व्यवस्था के विरोध के चलते ही बुद्ध ने समाज के सभी वर्गो को अपनी ओर आकृष्ट किया। लेकिन देखा जाय तो बुद्ध का यह आक्रमण भी उसी उत्तर वैदिक कालीन ब्राह्मण साहित्य और सूत्र साहित्य को केन्द्र में रखकर किया गया था, जिसके साथ अनेक रूढ़ियाँ आ गई थी और जो भारतीय संस्कृति के विकृत रूप का प्रस्तोता बनकर उभर रहा था।
किन्तु अपने उच्चीकृत ऋवैदिक कालीन भारतीय संस्कृति में तो वर्ण व्यवस्था अपने उदार रूप में विद्यमान दिखाई देती है। जिसमें एक ही परिवार के लोग विविध वर्णो के व्यवसाय में संलिप्त है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के नवें मण्डल में एक ऋषि कहता है ‘‘मैं कवि हूँ। मेरा पिता वैद्य है तथा मेरी माता अन्न पीसने वाली है। साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते है’’- कारूरह ततोभिषगुपल प्रक्षिणी नना।
नानागियो वसूयगेऽन गा इव तस्यिमेन्द्रायेन्द्रों परिस्रवा।
इसके बावजूद मेरे विचार में बुद्ध का वर्ण व्यवस्था पर प्रहार एक अत्यंत क्रान्तिकारी कदम है। किन्तु बौद्ध साहित्य के रचनाकारों में यह कमी दिखाई देती है कि उन्होंने अति उत्साह में एक नये वर्ण व्यवस्था की सृष्टि की है और क्षत्रिय को ब्राह्मण से श्रेष्ठतर बताकर अपने भीतर पल रहे ‘इनफीरियॉरिटी काम्प्लेक्स’ का और अपनी पूर्ववर्ती संस्कृति के रूढ़ संस्कारों से न उबर पाने का संकेत दिया है।
अब आते हैं बुद्ध के तृतीय क्रान्तिकारी कदम पर जिसमें महात्मा बुद्ध ने उपनिषद् के किसी नित्य और शाश्वत आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हुए अनात्मवाद का प्रतिपादन किया। किन्तु अनात्मवाद का यह अर्थ नहीं है कि गौतम बुद्ध आत्मा के अस्तित्व का निषेध करते है, बल्कि वे उस रूप में आत्मा के अस्तित्व का निषेध करते हैं जिसकी स्वीकृति उपनिषद् एवं ब्राहा्रण ग्रंथों में प्राप्त होती है।
बुद्ध के लिए आत्मा कोई शाश्वत या स्थायी तत्व न होकर क्षणिक विचारों या विज्ञानों का प्रवाह है। केवल इन क्षणिक विचारों की ही सत्ता है। अनुभव से इसके अतिरिक्त किसी नित्य आत्मतत्व का ज्ञान नहीं होता। वस्तुतः क्षणिक विचारों या विज्ञानों की निरन्तर धारा प्रवाहित होती रहती है। हम जिसे आत्मा कहते हैं, वह इन्हीं क्षणिक विचारों की धारा का नाम है। स्पष्ट है कि बुद्ध ने केवल उस नित्य आत्मा की सत्ता का खण्डन किया जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरवर्तित रहें, किन्तु उन्होने प्रकाशन्तर से एक तरल-आत्मा को स्वीकृति दी जो निरन्तर प्रवाहमान हैं कहना न होना कि अपनी तमाम क्रांतिकारिता के बावजूद बुद्ध ‘आत्मा’ शब्द से अपना पीछा नहीं छुड़ा सके।
उपरोक्त विवेचन से कुछ विद्वत्जन मेरे विचार को बुद्धविरोधी मानगें। लेकिन मेरा उद्देश्य किसी का विरोध या समर्थन करना नहीं बल्कि एक समग्र संस्कृति के भीतर की दो संस्कृतियों के बीच की आवाजाही को रेखांकित करना मात्र हैं इसलिए मैं अब बुद्ध के उन कदमों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ जिनका स्वरूप कम क्रान्तिकारी माना गया है। किन्तु मेरा मत है कि जो अधिक क्रान्तिकारी हैं और जिनसे न केवल भारतीय संस्कृति बल्कि किसी भी संस्कृति को सीखने की आवश्यकता है; क्योंकि उनका स्वरूप खण्डनात्मक न होकर मंडनात्मक है, और जिसमें आक्रमकता के बजाय रचनात्मकता की सुगन्ध है।
इसमें सबसे पहली चीज है- बुद्ध के संघ की प्रजातांत्रिक कार्यप्रणाली। हालांकि इसके मूल ऋग्वैदिक संस्थाओं ‘सभा’, ‘समिति’ और ‘विद्थ’ में खोजे जा सकते हैं, किन्तु इसका अधिकांश श्रेय बुद्ध को ही है। यहाँ प्रश्न ‘अन्वेषण’ का न होकर प्रजातांत्रिक कार्यप्रणाली को एक ‘सामाजिक आन्दोलन’ का रूप देने का हैं और इस मायने में बुद्ध ने वास्तव में इसे एक ‘मिशन’ के रूप में लिया और समाज के सभी वर्गो को बिना किसी भेद भाव के संघ में प्रवेश करने की व्यवस्था दी।
स्त्रियों के संघ में ‘बेमन से प्रवेश को लेकर बुद्ध के कटघरे में अवश्य खड़ा किया जाता है और उनका अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा गया वह कथन अक्सर याद दिलाया जाता है कि ‘‘यदि विहारों में स्त्रियों का प्रवेश न हुआ होता तो यह धर्म हजार वर्ष टिकता, लेकिन जब स्त्रियों को प्रवेशाधिकार दे दिया गया, तो अब यह धर्म केवल पाँच सौ वर्ष टिकेगा।’’ लेकिन बुद्ध के इस सम्बोधन को तत्कालीन अत्यन्त दूरगामी दृष्टि को परिचायक माना जाना चाहिए। और बुद्ध की यह दूरदर्शिता तब सही साबित होने लगी जब विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के हाथों में बौद्ध साहित्य का स्थान मदिरा ने ले लिया। वहाँ के एक विद्यार्थी से जब पूछा गया कि उसे यह कहाँ से मिली तो उसने बताया कि ‘यह उसे एक भिक्षुणी ने दी।’
बुद्ध के रचनात्मक विचारों का द्वितीय बिन्दु है- उनका मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग का सिद्धान्त। यह शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है शाश्वतवाद के अनुसार कुछ वस्तुएं नित्य है जिनका न आदि है और न अन्त। जबकि उच्छेदवाद के अनुसार वस्तु के नष्ट होने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं बचता।
गौतम बुद्ध ही पहले ऐसे विचारक हुए जिन्होंने पहली बार कहा कि दोनों एकान्तिक एवं अतिवादी दृष्टिकोण हैं। सत्यता इन दोनों के बीच है। कोई वस्तु अकारण नहीं है बल्कि सकारण है और उसका नाश भी होता है। किन्तु विनाश के बाद भी उसका सत्त्व बना रहता है और जो उसके बाद आने वाली वस्तु को प्राप्त हो जाता है। भारतीय दर्शन में ‘कर्मवाद’ की स्थापना में ‘मध्यम प्रतिपदा’ सिद्धान्त का स्पष्ट प्रभाव है। इसी प्रकार ग्रीक विचारक अरस्तू के ‘गोल्डेन मीन’ (स्वर्णिम माध्य) के सिद्धान्त पर भी बुद्ध का प्रभाव स्वीकार कर सकते हैं।
इसी क्रम में, बुद्ध का कार्य कारण सम्बन्धी सिद्धान्त ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ भी अत्यन्त क्रान्तिकारी और रचनात्मक विचार है। वह इसलिए नहीं कि बुद्ध ने ही हमें पहली बार बताया कि प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता हैं, बल्कि इसलिए कि आज से ढाई हजार साल पहले आध्यात्मिकता के बगैर कार्य कारण की भी कल्पना असम्भव थी, तब बुद्ध ने जोर देकर कहा कि किसी कार्य के पीछे कोई आध्यात्मिक तत्त्व कारण नहीं, बल्कि केवल भौतिक कारण है। पश्चिम चाहे वैज्ञानिक दृष्टि के लिए अपनी पीठ लाख थपथपा ले, लेकिन सच्चाई यही है कि 1453 ई0 में कुस्तुन्तुनिया के पतन और पुनर्जागरण के आगमन के पहले तक उसमें भी इस सच को कहने का साहस नहीं आ पाया था।
महात्मा बुद्ध का अगला क्रान्तिकारी और रचनात्मक सोपान ‘उदारीकृत विश्व व्यवस्था के प्रथम प्रणेता’ का रूप है। बुद्ध के समय तक वैदिक संस्कृति और साहित्य में समुद्र के रास्ते विदेश-गमन और सूदखोरी का विरोध किया गया था परिणाम यह कि पूरी-की-पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था एक बन्द अर्थव्यवस्था थी। इस बन्द अर्थव्यवस्था के समर्थक अर्थशास्त्री निश्चय ही बौधायन और आपस्तम्ब थे। फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था और प्रकारान्तर से संस्कृति भी, तत्समय विघटन की स्थिति में थी। बुद्ध और बौद्ध साहित्यकारों ने वैदिक मान्यताओं के विपरीत विदेश-गमन या विदेश-व्यापार का समर्थन किया और सूदखोरी को हेय मानने से इंकार कर दिया। देखते-ही-देखते पूरब में स्थित जादू-टोनों वाला देश सोने की चिड़िया के रूप में परिवर्तित हो गया, और रोमन लेखक प्लिनी ने तो इस पर विलाप करते हुए लिखा कि भारत के साथ व्यापार करके रोम अपना स्वर्ण भण्डार लुटाता जा रहा है। इसी धनात्मक व्यापार-संतुलन के चलते रोम में एक समय ऐसा भी आया जब भारतीय मलमल के आयात पर केवल इसलिए प्रतिबन्ध लगा दिया गया, क्योंकि ‘सौ परतों वाले भारतीय मलमल से सिले हुए घाघरे पहन कर जब रोमन महिलायें सड़कों पर निकलती थीं, तो नगर की नैतिकता खतरे में पड़ जाती थी।’ यह बुद्ध के विचारों का ही प्रभाव था कि भारतीय अर्थव्यवस्था तत्कालीन विश्व की कई सभ्यताओं के लिए खतरा बन गई। इसलिए मैं बुद्ध को खुली अर्थ व्यवस्था के तमाम समर्थको के ‘अगुआ’ के रूप में देखता हूँ।
इस क्रम में, मैं भगवान बुद्ध के ‘पंचशील’ के सिद्धान्त को कम क्रान्तिकारी मानने की भूल नहीं करना चाहता। इसे चाहे कितना भी तोड़ा-मरोड़ा जाए, कोई चाहे कितने भी बड़े सिद्धान्त को खोज लेने का दावा क्यों न करें, चाहे पूरी पृथ्वी को परमाणु-बमों से पाट कर शक्ति-संतुलन बनाने का प्रयास क्यों न किया जाए, लेकिन जब भी कोई देश शिद्दत से इस पृथ्वी पर सभी देशों और प्राणियों की रक्षा और हित की बात करेगा तो वह ‘पंचशील’ से बहुत दूर नहीं होगा। यह हमारी वैदेशिक नीति का आधार जरूर है, लेकिन क्या ही अच्छा हो कि यह धरा के समस्त देशों की वैदेशिक नीति का आधार बन जाय।
अब अन्तिम बात, जिसे मैं बुद्ध के तमाम क्रान्तिकारी कदमों में रेखांकित करना चाहता हूँ और जिसे वास्तव में बुद्ध की भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए वह है- भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रसार और कला के क्षेत्र में मूर्तिकला एक वास्तुकला के रूप में सर्वथा नवीन अनुसंधान। पहली बार बुद्ध के कारण ही सौदागिरी के इतर धर्म एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए लोग जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मलाया, तिब्बत, स्याम और बर्मा आदि देशों में गये। और सच कहा जाय तो तत्समय बुद्ध के विचारों का आतंक पूरी दुनिया में इस कदर छाया रहा होगा कि लोगों ने अपनी भाषा और अपना धर्म छोड़कर भिन्न देश और भिन्न भाषा के धर्म को अपना लिया। यह धर्म प्रसार कही भी तलवार के बल पर नहीं हुआ, देखने वाली सबसे बड़ी बात यही है।
कला तो मानों सदैव बुद्ध की आभारी बनी रहेगी। अवतारों और मूर्तिपूजा की बात वैदिक परम्परा में चाहे लाख की जाय लेकिन आपको जानकर शायद यह आश्चर्य हो कि सबसे पहली पूजित मानव मूर्ति गान्धार-शैली में महात्मा बुद्ध की ही बनी जो तत्समय बौद्धों के ही बीच नहीं, हिन्दुओं के बीच भी आस्था और पूजा का विषय बनी। बुद्ध के आगमन के बाद ही चैत्यों, विहारों, स्तूपों की एक पूरी श्रृंखला भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बनी, जिससे महान् मुगलों ने भी बहुत कुछ सीखा।
निष्कर्ष यह है कि बुद्ध ने भारतीय संस्कृति से बहुत कुछ सीखा, ग्रहण किया, उसे आगे बढ़ाया और उन्होनें भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया भी। मेरे लिहाज से यह सब कुछ केवल वैदिक संस्कृति के कोरे विरोध के बल पर सम्भव नहीं हो सकता था। विरोध के साथ ग्रहण की प्रवृत्ति के चलते ही वे अपने कृत्यों से प्रवाहमान भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन गये। और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है-हिन्दू धर्म में उन्हे विष्णु के नवे अवतार के रूप में स्वीकार किया जाना, और उनके वास्तविक समर्थकों को भी हिन्दू धर्म और उसके उन्नायकों से कम लगाव कभी नहीं रहा होगा; इसका सबसे बड़ा प्रमाण है वैदिक संस्कृति के प्रबल प्रचारक शंकराचार्य को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ के खिताब से नवाजा जाना।
इसलिए हे! वैदिक परम्परा के अन्ध रक्षकों! हे! बुद्ध के अन्धानुयायियों! आओ! आज दोनों साथ मिलकर वैदिक-संस्कृति और बौद्ध-संस्कृति के बीच खड़ी मिथ्या अलंध्य दीवार को गिरा डाले। आओं! सदियों से साथ रहकर भी, एक दूसरे को संदेह की नजरों से देखने की मिथ्या दृष्टि का नाशा कर डालें। हम दोनों ही इस माहन् भारतीय संस्कृति रूपी वृक्ष की अटूट शाखाएं है, हम दोनों एक ही अविरल बहती नहीं की दो धारायें है। हम दोनों में एक साथ खड़े होकर गुमराह विश्व को राह दिखाने की अकूत ताकत है। अब समय आ गया है। विश्व को एक बार फिर हमारी जरूरत आ पड़ी है। हमें ‘विश्वगुरू’ बनना ही होगा। और यह साथ चलकर ही सम्भव हो सकेगा।
डॉ0 प्रभाकर नाथ मिश्र
अतिथि प्रवक्ता, राजनीति शास्त्र विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।