Thursday 1 January 2015

आर्थिक उदारीकरण एवं नक्सलवाद


उमेश चन्द्र यादव

      भारत जैसे विकासशील देश में जहॉ मुद्दा विकास एवं लोक कल्याण का होना चाहिए वहॉ पर देश की सुरक्षा पर राजनीति हो रही है। देश की सुरक्षा किसी भी देश के एजेण्डे में प्राथमिकता के रूप में देखी जाती है परन्तु देश की सुरक्षा पर जब नकारात्मक राजनीति होने लगे तो यह अतिशय दुर्भाग्य पूर्ण है। भारत जैसे देश में खतरा बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार का है जहॉ एक ओर सीमा पर आतंकवाद है वहीं दूसरी ओर विश्व व्यवस्था एवं ट्रिटी के तहत हम उदारीकरण से दूर नहीं हो सकते, मगर बढ़ती हुई आर्थिक असमानता से इस प्रकार की नक्सलवादी, माओवादी समस्यायें राष्ट्र के लिए एक बड़ा संकट है। अतः हमें इन दोनों के बीच सन्तुलन एवं सामजस्य बनाना होगा तभी हम सन्तुलित विकास एवं लोककल्याण की कल्पना कर सकते हैं।

      आज 21वीं सदी में हम आर्थिक उदारीकरण के युग में है, जहॉ पर तीव्रता पूर्वक विकास को तरजीह दी जा रही है वहीं पर आर्थिक विषमता अपने चरमोत्कर्ष पर है। इस विषमता का दुष्परिणाम अलगाववादी शक्तियों के रूप में दिखाई पड़ता है। हम अलगाववादी शक्तियों की भर्त्सना तो करते हैं किन्तु एक पल के लिए भी हमारा ध्यान वहॉ पर नहीं जाता, जिन कारणों से वे उत्पन्न होती है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में समाज का एक तबका जिसे हम नक्सल एवं माओं के रूप में चिन्हित करते है, आर्थिक एवं सामाजिक रूप से हाशिए पर है और समाज की मुख्य धारा में आने के लिए जद्दोजहद करता है। अपने पेट पालने हेतु तथा आधुनिकता की होड़ में उसने हिंसा का मार्ग अपना लिया है।
      वास्तव में आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो एकरूपता एवं समरूपता की प्रक्रिया है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व सिमट कर एक हो जाता है। भूमण्डलीकरण राष्ट्रों की भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं के आर-पार आर्थिक लेन-देन की प्रक्रियाओं और उनके प्रबन्धन का प्रवाह है। यह प्रक्रिया आर्थिक लेन-देन पर लगी रोक के हटाने से शुरू हुई। व्यापार के क्षेत्र में खुलापन आया और विदेशी निवेश के प्रति उदारता बढ़ी। अब हम ग्लोबल विलेज की ओर है।
यद्यपि नक्सली समस्या के उद्भव एवं विकास के लिए आर्थिक उदारीकरण का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वैश्वीकरण की प्रक्रिया नक्सलवाद के उद्भव के बहुत बाद की प्रक्रिया है। नक्सलवाद का जन्म कहीं न कही आर्थिक विषमता के आधार पर हुआ है और वह विषमता आर्थिक उदारीकरण के वर्तमान युग में और चौड़ा होता जा रहा है।  यहॉ पर चिन्ता इस बात की है कि अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खांई इन अलगाववादी शक्तियों को और भी बढ़ावा दे सकती है।
    वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नक्सली प्रवृत्तियों के जन्म एवं विकास के मूल में चार कारक विद्यमान है :-1 1. संरचानत्मक असमानता और सामाजिक आर्थिक विषमता,
2.प्रलोभनपूर्ण परिस्थितियॉ, 3. उपसंस्कृति द्वारा समर्थन तथा 4. नकारात्मक समाजीकरण।
  1960 के दशक में व्याप्त प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जमीदारी प्रथा एवं शोषण की नीति से उपजा यह आन्दोलन शोषितां, वंचितां और किसानों के अधिकार एवं न्याय के लिए किया गया। असमानता की समस्या के समाधान के लिए बन्दूकें उठायी गयी। भारत में नक्सलवाद  के जनक चारू मजुमदार ने भी इसी दर्शन को अपनाकर एक नयी सामाजिक व्यवस्था का स्वप्न देखा तथा 1960 के दशक में इस आदर्श की आधारशिला रखी। तत्पश्चात 8 मई, 1967 को इंकलाब-जिन्दाबाद की गर्जना के साथ पश्चिम बंगाल के नक्सल बाड़ी (दार्जिलिंग) नामक स्थान पर इस आन्दोलन के प्रारम्भ का शंखनाद किया, नक्सलवाद कहा गया।2 नक्सलवाद और माओवाद जैसी समस्या जो भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के तमाम देशों की एकता और अखण्डता के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। वर्तमान में भारत के 9 राज्यां- पश्चिम बंगाल, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र के लगभग 200 जिले नक्सलवाद से प्रभावित है।
वस्तुतः इस समस्या के मूल में घोर आर्थिक एवं भौमिक विषमता है। और आर्थिक उदारीकरण के टावर टाइप विकास अर्थात पूॅजी का कुछ विशिष्ट हाथों में संकेन्द्रित होना, इस समस्या को और भी विकराल बना रहा है। इसलिए इन अलगाववादी शक्तियों के मूल में जाकर विचार करना होगा और सरकारों को यह सोचना होगा कि समाज के इन वर्गो को समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाय जिसके लिए सरकार के स्तर से एवं समाज के स्तर से निरन्तर प्रयास करना होगा। सरकार के स्तर से दो महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ेगा। साथ में राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केन्द्र यानी छण्ब्ण्ज्ण्ब् जैसे कानून बनाने होंगे। सरकार द्वारा दो महत्वपूर्ण कदम है :-
1. इनका आधारगत आर्थिक ढॉचा सुदृढ़ किया जाय तथा
2. शिक्षा का व्यापक अभियान चलाकर उन्हें शिक्षित किया जाय।
जहॉ तक प्रश्न सामाजिक सुधार की है तो हम परम् गॉधीवादी अनुयायी आचार्य विनाबा भावे का ‘दान-संविभागः’ एवं ‘सर्वोदय दर्शन’ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
    आचार्य विनोबा भावे आर्थिक समानता को आधारगत समानता मानते थे। इसी के परिणामस्वरूप भूदान गंगा का आविष्कार हुआ। वास्तव में आज पूरी दुनियॉ में अतिशय विषमता है, कही थोड़ा ज्यादा तो कही थोड़ा कम। पर है- सब जगह। इसी आर्थिक समानता को लाने में मार्क्स जहॉ हिंसा को स्थान देता है, वहीं विनोबा भावे प्रेम को स्थान देते है। प्रेम का ही वह जादू था जो लाखों एकड़ जमीन दान में मिल गयी। आर्थिक विषमता को दूर करने और समाज में भाई-चारे की भावना बनाए रखने के लिए विनोबा जी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त रखा। पूजीपतियां से उनका आग्रह था कि वे अपना धन अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग न कर जनहित में लगाए।3
  सर्वोदयी समाज की स्थापना के लिए श्री विनोबा भावे जी ने भूदान ग्राम-दान जैसे अभियान चलाए ये सर्वोदयी समाज की नींव साबित हुई। दानं-संविभागः अर्थात समान वितरण या साम्ययोग की स्थापना। इसी भावना को और स्पष्ट करते हुए भावे ने बताया कि ‘भूदान-यज्ञ का बीज तत्व गॉधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त  में परिलाक्षित होता है तथा यह उनकी उक्तियों में भी अंतर्भूत मालूम पड़ता है कि सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है, जो हमें यह सिखा गए है कि सबै भूमि गोपाल की इसमें कहीं मेरी और तेरी की सीमाएॅ नहीं है।’4
इस प्रकार हम कह सकते है कि वर्तमान के आर्थिक उदारीकरण के बीच बढ़ती विषमता अलगाववादी शक्तियां को और बल दे रही है। यदि हमें इन शक्तियों को रोकना है तो हमे उदारवाद के साथ-साथ गॉधीवादी समाजवाद एवं शिक्षा पर विशेष बल देना होगा। इच्छा शक्ति हो तो कोई भी समस्या समाधान रहित नहीं है। गॉधी का नाम लेकर वर्तमान राजनीतिक दल सत्ता हासिल कर लेते हैं परन्तु कालान्तर में वे गॉधीवादी मूलभावना को भूल जाते हैं तभी ऐसी समस्यायें और बलवती होने लगती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. शोध पत्रिका- भारतीय सामाजिक विज्ञान समीक्षा, अंक- 4, 2012 पृष्ठ  53.
2. वही - पृष्ठ  53.
3. चोलकर, पराग- ‘विनोबा-विचार-दोहन’ प्रकाशन- नेशनल बुक ट्रस्ट , इण्डिया पृष्ठ-10.
4. सिंह, डा0 दशरथ - गॉधीवाद को विनोबा की देन : बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी सम्मेलन भवन कदमकुऑ, पटना-3, पृष्ठ-541.
डॉ0 उमेश चन्द्र यादव
   एसोसिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र    ,       
 वी0एस0एस0डी0कालेज, कानपुर।