Wednesday 2 January 2013

प्राचीन भारतीय राजनय में वैवाहिक सम्बन्धों की भूमिका (छठीं शताब्दी ई0 पू0 से 650 ई0 तक)


निलेश कुमार शुक्ल

किसी भी राष्ट्र के उत्कर्ष एवं अपकर्ष में मित्र एवं शत्रु राष्ट्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्राचीन आचार्यो ने मित्र एवं शत्रु राष्ट्रों के महत्व का समग्र आकलन कर लिया था। तद्नुरूप शत्रु-मित्र राज्यों के द्वादश मण्डल सिद्धान्त की न केवल कल्पना किया था, प्रत्युत राजा के लिए मित्र बनाने की आवश्यकता पर भी बल दिया था। ‘मनु’ ने सुदृढ़ मित्र की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि राजा स्वर्ण एवं हिरण्य प्राप्त कर भी उतना समृद्धशाली नहीं होता है, जितना अटल मित्र पाकर, चाहे वह अल्पकोश वाला ही क्यों न हो, क्योंकि भविष्य में वह शक्तिशाली हो सकता है। एक दुर्बल मित्र भी श्लाघनीय है, यदि वह गुणवान एवं कृतज्ञ हो। उसकी प्रजा सन्तुष्ट हो और वह दृढ़ निश्चयी हो। याज्ञवल्क्य ने भी मित्र के महत्व को स्वीकार किया है। महाभारत भी मित्र की महत्ता को स्वीकार करता है, शुक्र ने भी यह स्वीकार किया है कि राजा का कोई मित्र नहीं है और राजा किसी का मित्र नहीं है। उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि परिस्थितिवश अमित्र अथवा उदासीन भी मित्र बना लिये जाते हैं।

प्रायः समस्त व्यवस्थाकारों ने शक्ति के साथ ही राजनय (नीति) की विधियों का ज्ञान आवश्यक माना है। इसे षाड्गुण्य की संज्ञा दी गयी है। कौटिल्य ने षाड्गुण्य को द्वादश मण्डल सिद्धान्त का मूल मानते हुए विजिगीषु को शक्ति के अनुरूप षाड्गुण्य के पालन का निर्देश दिया है। कौटिल्य, मनु, शुक्र, विष्णु तथा अन्य राजनीतिक व्यवस्थाकारों ने षाड्गुण्य के अन्तर्गत छः गुणों का उल्लेख किया है। सन्धि विग्रह, यान, आसान द्वैधीभाव तथा संश्रय। सन्धि का अर्थ है। ऐक्य स्थापित करना, विग्रह का अर्थ है- विरोध कर लेना, आसन का अर्थ है- उदासीन का भाव, यान का अर्थ है- आक्रमण की तैयारी करना, संश्रय का अर्थ है- किसी शक्तिशाली राजा के यहाँ आश्रय ले लेना तथा द्वैधीभाव का अर्थ है- एक राजा से सन्धि तथा दूसरे राजा से शत्रुता स्थापित करना।
प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकारों ने राजनय की दृष्टि से चार प्रकार के मित्रों का उल्लेख किया है- सामान्य ध्येय वाले, शरण एवं सुरक्षा चाहने वाले सहज तथा कृत्रिम। कामन्दक ने चार प्रकार के मित्रों का उल्लेख इस प्रकार किया है- औरत  (माता-पिता, नाना-नानी आदि), कृत सम्बन्ध (विवाह सम्बन्ध से उत्पन्न, वंशक्रमागत तथा रक्षित (विपत्तियों में जिनकी रक्षा की गयी हो)। इसी प्रकार एक अन्य दृष्टिकोंण से शत्रु एवं मित्र की तीन-तीन कोटियाँ निर्धारित की गयी हैं- सहज, कृत्रिम तथा प्राकृत। सहज मित्र, वे मित्र हैं जो माता-पिता के सम्बनध से प्राप्त होते हैं, जैसे-मातुल, मातुल पुत्र, मातामह आदि इसके विपरीत सहज शत्रु वे शत्रु हैं जो प्रायः रक्त सम्बन्धी हों, यथा-विमाता पुत्र, पितृव्य पुत्र आदि। कृत्रिम मित्र वे मित्र हैं, जो विजिगीषु द्वारा बनाये जाते हैं, यथा वैवाहिक सन्धि द्वारा, उपकार द्वारा अथवा सन्धि द्वारा। इसके विपरीत कृत्रिम शत्रु वे हैं जो विजिगीषु के मित्र का शत्रु हो, जो वैवाहिक सम्बन्धों के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हों। आदि। प्रकृति मित्र पड़ोसी का पड़ोसी एवं प्राकृत शत्रु अपना पड़ोसी होता है।
प्राचीन भारतीय राजन्य में कृत्रिम सम्बन्धों का विशेष योगदान रहा है। वैवाहिक सम्बन्ध भी कृत्रिम रूप से मित्र प्राप्त करने का एक प्रयत्न है जो प्राचीन भारत में अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ एवं प्राचीन भारतीय राजन्य में इनकी विशिष्ट भूमिका रही है। कौटिल्य का कथन है कि जो राजा ‘नय’ (अच्छी नीति) को समझता है, वह सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त कर सकता है, भले ही वह एक छोटे राज्य का अधिकारी क्यों न रहा हो।
मगध महाजनपद को मगध साम्राज्य के रूप में परिणत करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका वैवाहिक सम्बन्धों की दृष्टिगत होती है। मगध नरेश हर्यक-वंशीय शासक बिम्बिसार इस तथ्य से सुपरिचित था कि निर्बल मगध किसी भी समय अवंति वत्स तथा कोशल की विस्तारवादी नीति का भाजन को सकता है, उसने मगध साम्राज्य के उत्कर्ष एवं सुरक्षा के लिये वैवाहिक नीति का ही आश्रय लिया। बौद्ध ग्रन्थ ‘महाबग्ग’ बिम्बिसार की 500 रानियों का उल्लेख करता है। इस कथन की अतिरंजना को यदि पृथक कर दिया जाय, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उसकी अनेक रानियाँ थीं। इनमें से अनेक विवाह राजनीति महत्व के थे। बिम्बिसार की प्रथम पत्नी महारानी कोशलादेवी कोशलाधिपति महाकोशल की पुत्री एवं प्रसेनजित की बहन थी। इस ऐतिहासिक विवाह के फलस्वरूप बिम्बिसार को काशी जनपद का एक ग्राम प्राप्त हो गया तथा मगध एवं कोशल के सम्बन्ध मधुर हो गये। बिम्बिसार की दूसरी पत्नी चल्लना लिच्छवि संघमुख्य चेटक की पुत्री थी। यह विवाह भी ऐतिहासिक महत्व का रहा जिसमें मगध की उत्तरी सीमा सुरक्षित हो गयी। इसके अतिरक्ति वैदेही वासवी, मद्र राजकुमारी खेमा तथा वैशाली की नगर शोभिनी अम्बपाली से सम्पन्न उसके विवाह राजनय की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे एवं इनका परिणाम मगध के प्रति सकारात्मक रहा। इसके पश्चात् बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु जो कौशल नरेश प्रसेनजित के द्वारा पराजित कर दिया गया था। प्रसेनजित की पुत्री वाजिरा से वैवाहिक सम्बन्ध के कारण ही अजातशत्रु अपना अपहृत काशी ग्राम पुनः प्राप्त करने में समर्थ हुआ। इस प्रकार एक बार पुनः वैवाहिक सम्बन्धों ने मगध साम्राज्य के विस्तार में सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया। अजातशत्रु के विरुद्ध अपने दौहित्र हल्ल एवं बेहल्ल को लिच्छवि संघमुख्य चेटक द्वारा शरण देने में वैवाहिक सम्बन्धों की ही भूमिका रही।
समकालीन शासक वत्सराज उदयन भी बिम्बिसार की ही भाँति अपने वैवाहिक सम्बन्धों, के लिए प्रसिद्ध हुआ। उसने भी अनेक राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया, जिनमें से कम-से-कम अवन्ति राजकुमारी वासवदत्ता मगध राजकुमारी पद्मावती तथा अंग राजकुमारी के साथ विवाह राजनैतिक महत्व के थे अन्यथा मगध एवं अवन्ति की वर्द्धमान शक्ति के समक्ष कौशाम्बी कभी का ध्वस्त हो गया होता। इसी प्रकार शिशुनाग ने अपनी माता के वैशाली से सम्बन्धित होने के कारण ही वैशाली को मगध की दूसरी राजधानी बनाया, जो वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा उत्पन्न राजनय का परिणाम था।
मौर्य काल में भी वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा राजनय स्थापना की बात देखी जा सकती है। चन्द्रगुप्त मौर्य एवं सिल्यूकस के मध्य होने वाली सन्धि के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य एवं सिल्यूकस की पुत्री के मध्य वैवाहिक सम्बन्धों की स्थापना हुई अशोक की पत्नियों में शाक्यकुमारी, विदिशामहादेवी, कारुवाकी, असन्धिमित्रां पद्मावती तथा तिष्यरक्षिता का नाम प्राप्त होता है। शक-सातवाहन युग में भी वैवाहिक सम्बन्धों के द्वारा राजनय की भूमिका स्पष्ट हो जाती है। सातवाहन शासक वशिष्ठी पुत्र का विवाह शक-शासक रूद्रदामन की पुत्री के साथ हुआ था। इसी प्रकार शक-शासक नहपान की कन्या का विवाह उषवढ़ात के साथ हुआ था। यह विवाह भी राजनय की दृष्टि से महत्वपूर्ण था।
वैवाहिक सम्बन्धों की राजनय में भूमिका गुप्त युग में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। चन्द्रगुप्त-कुमार देवी विवाह गुप्तों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। डाॅ0 रायचैधरी ने इस वैवाहिक सम्बन्ध को द्वितीय मगध साम्राज्य स्थापना की संज्ञा दिया है, जिसके मौद्रिक साक्ष्य उपलब्ध है। समुद्रगुप्त ने विदेशी शक्तियों के साथ ‘कन्योपायन’ सम्बन्ध की स्थापना की थी। ध्रुवस्वामिनी का प्रथम रामगुप्त से तथा पुनश्च चन्द्रगुप्त द्वितीय से विवाह राजनय की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी बिम्बिसार की भाँति अनेक राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। नागवंश, कदम्बवंश तथा वाकाटकवंश के साथ उसके वैवाहिक सम्बन्ध समय की दृृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे एवं गुप्त साम्राज्य विस्तर में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। कुमार गुप्त प्रथम, स्कन्दगुप्त तथा परवर्ती गुप्त शासकों के वैवाहिक सम्बन्धों के प्रमाण यत्र-यत्र संरक्षित है। उत्तरगुप्तवंश एवं मौखरिवंश में प्रारम्भ में जब तक वैवाहिक सम्बन्ध थे, तब तक दोनों राजवंशों के सम्बन्ध मधुर रहे, परन्तु वैवाहिक सम्बन्धों की समाप्ति ने दोनों राजवंशों के मध्य एक दीर्घकालीन युद्ध को जन्म दिया।

डाॅ0 निलेश कुमार शुक्ल
प्राचार्य
केदारनाथ रामस्वरूप महाविद्यालय राजापुर,
चित्रकूट,उ0प्र0