Wednesday 2 January 2013

दमोह संग्रहालय में संग्रहित विशिष्ट मूर्तियाँ


राजेश कुमार सिंह एवं दिनेश कुमार द्विवेदी

मध्य प्रदेश के उत्तरांचल में 23°99’-24°77’ देशांश और 79°3’-79°57’ अक्षांश के मध्य विस्तारित विंध्यपर्वत श्रृंखलाओं में दमोंह जिला लगभग 7322 वर्ग किमी में फैला है।1 सुना, व्यारमा और कोपरा सरिताओं के जल से सिंचित महाभारत कालीन स्मृतियों से मण्डित अनकही कहानियां और किंवदंतियों में चर्चित और बुन्देलखण्ड के सोनल अतीत और पुरातत्व की अमूल्य संपदा से गर्वित दमोह प्रगति के नये समीकरण की शोध में व्यस्त है।2

दमोह, सागर से 78 किमी0 की दूरी पर सागर-जबलपुर मार्ग पर अवस्थित है। यह एक किंवदंती के अनुसार इस नगर को राजा नल की रानी दमयंती द्वारा बसाया गया माना जाता है। किन्तु इस संबंध में पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।3 इस क्षेत्र में उत्तर गुप्तकाल से लेकर 12वीं शती ई0 तक की अनेक दुर्लभ कलाकृतियाँ एवं देवालय देखने को मिलते हैं। जिनका निर्माण गुप्तकाल, कलचुरि एवं प्रतिहार वंश के शासन काल में हुआ। यहाँ मुख्यतः शैव देवी-देवताओं से सम्बन्धित कलाकृतियों की बहुलता है। इनमें वैष्णव देवताओं से सम्बन्धित स्थल एवं मूर्तियां विशेष महत्वपूर्ण है। इस मूर्तियों को दमोह संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है जिसका विवरण निम्न है-
अभिज्ञान राम- लाल बलुआ पत्थर से निर्मित यह प्रतिमा ग्राम दौनी जिला दमोह नामक स्थल से प्राप्त है। जिसका आकर 64 × 56 सेमी0 है। राम की अलौकिक प्रतिमा को अभिज्ञान राम के रूप में जाना गया है। प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से इस प्रतिमा का सौन्दर्य तत्व विशिष्ट है। इस तरह की प्रतिमा दुर्लभ है। अलंकृत प्रस्तर खण्ड के मध्य चरण में चैकी के ऊपर द्विभुजी आकृति का प्रदर्शन सौम्य हाथ में बाण लिये प्रदर्शित मुखाकृति से हास्य भाव प्रस्फुटित हो रहा है एवं चक्षु आकर्षण भाव-भंगिमा के द्योतक है। कंुचित केश राशि मनोरम है। कलात्क अधोवस्त्र का रोचक समन्वय सौन्दर्य का परिचायक है। शुभ सुगठित शारीरिक संरचना, मांसल देह, नीचे लटका हुआ पुष्प हार तथा अन्य सूक्ष्य अभिप्रायों का आलेखन कुशल शिल्पी की कल्पनाशीलता का मूर्तस्वरूप है। कर्ण, कुण्डल, चंद्रहार, कंकड़, केयूर, यज्ञोपवीत, कटिबन्ध, नूपुर, अलंकरणों से सुसज्जित प्रतिमा अद्वितीय है। राम के चरणों के पास शिव उपासक दृष्टव्य है।
हयग्रीव- लाल बलुआ पत्थर से निर्मित यह प्रतिमा स्थानक मुद्रा में चतुर्भुजी हयग्रीव की है जो ग्राम मोहड़ जिला दमोह से प्राप्त है। प्रतिमा का शेष ऊपरी भाग नहीं है। प्रतिमा का अलंकरण स्पष्ट परिलक्षित होता हे। जो सौन्दर्य तत्व को विशेषता से प्रदर्शित करता है, सम्पूर्ण प्रतिमा अंकन में अलंकरण विशिष्ट है। लम्बवत अलंकृत मुकुट धारण किये हुए देव का दायां निचला हाथ वरद मुद्रा, ऊपरी दाँये हाथ में वेद लिए प्रदर्शित है, बाँये निचले हाथ में कमण्डल तथा ऊपरी बाँयें हाथ में चक्र लिए सुशोभित है। प्रतिमा अलंकरण में गले में अलंकृत हार एकावली तथा उरूमाला का अंकन है। सुन्दर अधोवस्त्र धारित देव प्रतिमा के हाथों में कंगन बाजुओं में भुजबंध धारण किये हुए है। अलंकृत चरण चैकी पर खड़े देव प्रतिमा के पैरों में नूपुर धारण है। प्रतिमा के निचले दाँयें एवं बाँये पाश्र्व में क्रमशः तीन-तीन उपासिकाएं, विविध आभूषणों से सुशोभित प्रदर्शित प्रतिमा स्पष्ट अलंकरण के कारण कलाकृतियों में अद्वितीय एवं अलौकिक कृत है। वर्तमान समय में यह प्रतिमा दमोह जिला संग्रहालय में सुरक्षित है, जिसका क्रमांक संख्या -272त् है।
उमा-महेश्वर- यह प्रतिमा ग्राम झरोली से प्राप्त हुई है। चतुर्भुजी शिव ललितासन मुद्रा में स्थित है, उनकी बायीं जंघा पर द्विभुजी उमा प्रणय मुद्रा में बैठी हुई अंकित हैं। शिव के मस्तक पर जटा मुकुट तथा पार्वती के मस्तक पर रत्न जटित केश सज्जा है। वे कुंडल, मुक्ताहार, केयूर, कंकण, कटिसूत्र, अधोवस्त्र पहने हुए है। चतुर्भुजी-शिव के ऊपरी बायें हाथ में त्रिशूल तथा बायें हाथ में अस्पष्ट वस्तु पकड़े है निचला हाथ अभय मुद्रा में खंडित हैै। उमा के बाये हाथ में अस्पष्ट वस्तु है, पैरों के मध्य आसन पीठिका पर नन्दी विराजमान है, जो कि अपना मुख्य ऊपर को किए हुए शिव के पैर की उंगलियों एवं अगूठे को मुख से स्पर्श कर रहे है। शिव की ओर गणेश नृत्य मुद्रा में अपने हाथ में मोदक पात्र लिए प्रदर्शित है, दोनों प्रतिमाओं के बीच में एक गण भी प्रदर्शित है। यह प्रतिमा 12वीं शती की प्रतीत होता है।
रावणानुग्रह मूर्ति- दमोह जिले में सिंगौरिया ग्राम से रावणानुग्रह मूर्ति प्राप्त हुई है। जिसमें शिव ललितासन मुद्रा में विराजमान है एवं देवी उनकी वाम जंघा पर विराजमान है। चतुर्भुजी शिव का दक्षिण अग्र हाथ खण्डित है पृष्ठ हाथ में बाँये हाथ से देवी को आलिंगन किये हुए है तथा नीचे मध्य में नृत्य मुद्रा में शिवगण अंकित है। पैरों के नीचे कैलाश पर्वत को उठाता हुआ रावण अंकित है।
नृत्यरत अप्सरा- यह प्रतिमा दौनी से प्राप्त है। प्रतिमा की पादमुद्रा तथा शारीरिक रचना एवं लचक से अनुमान लगाया जाता है कि यह नृत्यरत अप्सरा है, जिसके दोनों हाथ जो कि नृत्य मुद्रा में है, खंडित हो चुके हैं तथा गले में एकावली एवं एक लम्बा हार है जो कि नाभि प्रदेश तक लटक रहा है। हार में भी कलाकार द्वारा गति लाने का प्रयास किया है। प्रतिमा का केश विन्यास अत्यंत आकर्षक है, जो जूड़ानुमा प्रदर्शित है। कानों में आकर्षक कुंडल है। अप्सरा का दुपट्टा हवा में उड़ता हुआ प्रदर्शित है, जिसमें गति का आभास होता है। यह प्रतिमा 12वीं शती ई0 की प्रतीत होती है।
श्रेणी प्रसाधन युक्त अप्सरा- यह प्रतिमा दौनी से प्राप्त है। नायिका द्विभंग में खड़ी है। अप्सरा अपने दोनों हाथों में वेणी गुंफन में रत है, नायिका के केश भीगे है और वेणी करने से जल बिन्दु नीचे गिर रहे है, हंस उनको मोती समझकर ऊपर मुख किए हुए ग्रहण करने का प्रयास कर रहा है। बायीं ओर नायिका का परिचारक प्रसाधन सामग्री लिए खड़ी है। यह प्रतिमा 12वीं शती ई0 की प्रतीत होती है।
गंगा-यमुना युक्त द्वारशाखा- गुप्त काल में देवियों का अंकन मंदिर की द्वारा शाखाओं पर होने लगा था, गुप्तकाल के पश्चात् परवर्ती कालों के प्राचीन देवालयों में गंगा-यमुना का अकन द्वारा शाखाओं पर परम्परानुसार आवश्यक था परन्तु गुप्त-काल में गंगा-यमुना का स्थान मंदिर द्वार के दोनों पाश्र्वो के उपरी भाग में होता रहा, धीरे-धीरे इनका स्थान मध्य में आ गया तथा 9वीं एवं 10वीं शती ई0 के मंदिरों में उनका स्थान क्रमशः नीचे के पाश्र्वो में निश्चित किया गया। दमोह के आस-पास के भू-भाग में उपलब्ध मंदिरों के द्वारा भागों, परिचारकाओं तथा अन्य देवी देवताओं आदि के साथ वाहनों सहित गंगा यमुना की कलात्मक प्रतिमाएं देखने को मिली है।
मंदिर का सिरदल- दौनी से प्राप्त मंदिर का सिरदल भाग है जिसके मध्य चतुर्भुजी विष्णु ललितसान में बैठे हुए है। विष्णु के बाँयी ओर के हाथ में चक्र एवं शंख तथा दायी ओर के एक हाथ में गदा तथा एक हाथ में पद्म है। दाँये पाश्र्व में शिव नंदी सहित विराजमान है, जिनका मुख खंडित हो चुका है, बाँयी ओर त्रिमुख ब्रह्मा है बीच में दोनों ओर एक-एक चैरी धारणी प्रतिमा अंकित है। यह शिल्प खण्ड 11वीं शती, ई0 का संभावित है।
निष्कर्ष स्वरूप कह सकते हंै कि दमोह से प्राप्त मूर्तियों के विवरण से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र के शिल्पियों को प्रतिमा लक्षण-सम्बन्धी शास्त्रों का बहुत ज्ञान था और वे प्रतिमा निर्माण की प्रचलित परम्परा से पूर्ण परिचित थे। देव मूर्तियों के गढ़ने में शास्त्र निर्दिष्ट परम्पराओं का पालन किया है और साथ ही अपनी मौलिक कल्पना-शक्ति के आधार पर उनमें नवीनता भरने का प्रयास भी किया है। इस प्रकार प्रतिमा लक्षण सम्बन्धी नई परम्पराओं को जन्म देकर उसने प्रतिमा विज्ञान के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है जो शिल्प परम्परा यहा स्थापित हुई वह केवल दमोह तक ही सीमित नहीं रही, वरन् उसे व्यापक रूप से स्वीकृति मिली और परवर्ती अनेक प्रतिमा लक्षणों का आधार बनी। इस कथन का साक्षी दमोह से प्राप्त अनेक मूर्तियाँ है। जो संग्रहालय मे संग्रहित है जहाँ नवीनता और मौलिकता के निदर्शन होते हैं।
सन्दर्भ
1. दमोह गजेटियर, 1980
2. वर्मा सत्य मोहन, दमोह जिले की भौगोलिक स्थित, 1990
3. कटेला विनोद दमोह जिले के महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थल, 1989
4. बाजपेयी कृष्णदत्त, मध्य प्रदेश का पुरातत्व,
5. शर्मा राजकुमार, मध्य प्रदेश के पुरातत्व का सन्दर्भ गं्रथ,
6. रायबहादुर हीरालाल, मध्य प्रदेश का इतिहास
7. पाण्डेय, दीनबंधु, हिन्दू देव प्रतिमा विज्ञान
8. मिश्र इन्दुमति, प्रतिमा विज्ञान
राजेश कुमार सिंह एवं दिनेश कुमार द्विवेदी
शोध छात्र,
प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद