Wednesday 2 January 2013

वैश्¨षिक-दर्शन परम्परा मंे पदार्थ निरूपण


संजय दुबे

       भारतवर्ष विश्व के सभ्य सुसंस्कृत और आध्यात्मविद्या मंे परिनिष्ठत देशों में सबसे अग्रणी है। उसी आध्यात्मविद्या का आधार स्तम्भ कही जाने वाली षड्दर्शन परम्परा मंे महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली वैशेषिक दर्शन परम्परा है जो अपने पदार्थ निरुपण के लिये प्रसिद्ध हैः-

 पदार्थ शब्द का अर्थ उसकी व्युत्पत्ति पर आधारित है। यथा -‘पदस्यार्थः पदार्थः1।’ पदार्थ शब्द की परिभाषा करते हुये शास्त्राकार कहते हंै कि ‘अभिधेत्वं पदार्थसामान्यलक्षणम2्।’ अर्थात् अभिधेयत्व ही पदार्थ का सामान्य लक्षण है। अभिधेय शब्द का अर्थ है- अभिधा का विषय और अभिधा को संकेत रूप मंे समझा जा सकता है। प्रत्येक पदार्थ अभिधेय होता है। उसे अभिधेय अथवा पदाभिधेय कहते हैं। विभिन्न दर्शनप्रस्थानों मंे पदार्थों की संख्या अलग-अलग मानी गयी हैै। यथा-न्याय-दर्शन मंेे सोलह पदार्थ,3 वैशेषिक-दर्शन मंे छः,4 सांख्य-दर्शन मंे पच्चीस,5 मीमांसा-दर्शन मंे आठ6 और चार्वाक-दर्शन मंे केवल एक पदार्थ माना गया हैैै।
पदार्थतत्त्वविवेचनपरक शास्त्र मूलतः न्याय और वैशेषिक शास्त्र माने जाते हैं। न्यायदर्शनपरम्परा मंे 16 पदार्थांे का वर्णन मिलता है। किन्तु न्याय-वैशेषिक-संयुक्त परम्परा मंे सप्तपदार्थ का उल्लेख है। इन्हंे निम्नोक्त वर्गीकरण विधि से उपस्थापित कर सकते हैं-







भाव पदार्थ छः प्रकार के होते हंै7- द्रव्य, गुण ,कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय।
द्रव्य-  द्रव्य नौ हैं - पृथ्विी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन। अब प्रश्न उठता है कि द्रव्य क्या है?  न्याय-वैशेषिक परम्परा में द्रव्य का सामान्य लक्षण इस प्रकार किया गया है - ‘द्रव्यत्वं जातिमत्त्वम्।‘8
गुण- ‘गुणाश्रयः द्रव्यम्’ यह लक्षण यद्यपि न्यायशास्त्र सम्मत तर्ककोटि से स्वीकार्य नहीं होता है तथापि द्रव्य अपने गुणों का आश्रय होता ही है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता। अतएव इस वस्तुस्थिति को समावेश करने के लिये योग्यता के आधार पर द्रव्य को गुणाश्रय माना गया है। अर्थात् नैयायिकों के मत में द्रव्य मंे गुणों का होना द्रव्यों की योग्यता है। इस संबंध में तर्कभाषाकार केशवमिश्र कहते है - ‘योग्यतया गुणाश्रयत्वाच्च। योग्यता च गुणात्यन्ताभावाभावः।’9
गुणांे की संख्या च©बीस है- रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, ज्ञान, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार।
कर्म-आचार्य केशवमिश्र कर्म का लक्षण कहते है- ‘चलनात्मकं कर्मः।’10 अर्थात् चलने का नाम है कर्म। न्याय-वैशेषिक-परम्परा अनुसरण करते हुये कर्म के पंच भेद का निर्देश करते हंै11
1.  उत्क्षेपण  2.  अपक्षेण  3.  आकुंचन  4.  प्रसारण   5. गमन
सामान्य- ‘नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम्’।12 अर्थात् जो नित्य हो और अनेकसमवेत हो उसे सामान्य या जाति कहते हैं। सामान्य मंे मुख्यतः तीन बातंे पायी जाती हैं-1.नित्य होना। 2.अनेकांे मंे रहना। 3.समवाय संबंध से रहना।
       ये तीनों बातंे एक साथ जिस पदार्थ मंे मिलती हैं। वह पदार्थ की जाति या सामान्य धर्म होता है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि न्याय-वैशेषिक दर्शन प्रस्थान मंे जहाँ कहीं भी समानता की प्रतीति हो वहाँ जाति नहीं मानी जा सकती है । जैसे- अनेक गायांे मंे या घटांे मंे जो समानता की प्रतीति होती है। उसका कारण ‘गोत्व’ या ‘घटत्व’ नामक ‘सामान्य’ है। परन्तु इस दृष्टि से देखा जाये तो सारे भारतवर्ष के निवासियांे मंे हमंे ‘भारतीयत्व’ की समान रूप से प्रतीति होती है। परन्तु ‘भारतीयत्व’ कोई जाति नहीं है। वह तो उपाधि मात्र है क्यांेकि ‘भारतीयत्व’ की कल्पना हमने अपने ‘विचार’ या बुद्धि से की है। संकल्पना मात्र के आधार पर जाति पदार्थ की सिद्धि नहीं होती। जाति वस्तुभूत तत्त्व है अथवा वास्तवपदार्थ है। परन्तु प्रस्तुत उदाहरण मंे ‘भारतीयत्व’ वास्तव नहीं है। वह केवल सैद्धान्तिक या बौद्धिक है। उसका बाह्य वस्तु जगत् मंे कोई अस्तित्त्व नहीं जबकि ‘गोत्व’ और ‘घटत्व’ नित्य जातियाँ हैं। उनका बाह्य जगत् मंे अस्तित्त्व है। वे केवल बौद्धिक पदार्थ नहीं है। अतएव न्यायसूत्र मंे पदार्थ की परिभाषा करते हुये गौतम कहते है- ‘व्यक्त्याकृतियुक्तेऽप्यप्रसंगात् प्रोक्षणादीनां मृद्गव के जातिः।’13
सामान्य या जाति मुख्यतः दो रूपांे मंे पायी जाती है- पर और अपर। अन्नंभट्ट कहते हैं- ‘परमपर×चेति द्विविधं सामान्यम्’।14 अर्थात् सामान्य दो प्रकार का हैः- 1 परसामान्य  2 अपरसामान्य।
विश्¨ष- विशेष नामक पदार्थ मंे यदि जाति मानते हैं, तो उसके स्वरूप की हानि हो जायेगी क्यांेकि विशेष के द्वारा ही नित्य पदार्थ एक दूसरे से अलग किये जाते हैं।  परमाणु अनन्त होने के कारण परमाणुगत विशेष भी अनन्त होते हैं और वे सामान्य से भिन्न होते हैं। क्योंकि सामान्य कई पदार्थों मंे समान रूप से रहता है। विशेष सर्वथा उसके विपरीत केवल परमाणु मंे ही होते हैं। वे सामान्य रूप कदापि नहीं हो सकते। यहांॅ तक कहा गया है कि विशेष अपने को दूसरे विशेष से अलग अपने विशेष स्वरूप के द्वारा ही करते हैं। ऐसी दशा मंे यदि विशेषांे मंे रहने वाली विशेषत्व जाति मानी जायेगी, तो विशेषांे को अलग करने वाला धर्म (व्यावर्तकत्व) उस विशेषत्व जाति के द्वारा ही होगा क्यांेकि जहांॅ सामान्य रहता है,  वहीं पर अपने व्यक्ति को दूसरे पदार्थांें से अलग करता है। इस प्रकार यदि विशेष मंे विशेषत्व जाति मानी जाये, तो व्यावर्तकत्व धर्म उस विशेषत्व जाति मंे रहेगा।  विशेष पदार्थ की जो कल्पना ही व्यावर्तन के लिये की गयी है, वह व्यर्थ हो जायेगी।  इससे विशेष स्वरूप नष्ट हो जायेगा। इसलिये विशेषांे मंे विशेषत्व जाति न मानकर उपाधि मानी जायेगी।
समवाय-समवाय से महर्षि कणाद का आशय उस संबंध से है जो कारण तथा कार्य के मध्य है।15 प्रशस्तपादाचार्य के अनुसार यह वह सम्बंध है जो उन वस्तुओं में रहता है जिन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता, और जो परस्पर आधार और आधेय के रूप में रहती हंै, तथा जो इस विचार का आधार है कि ‘इसके अन्दर वह है।’16
अभाव-महर्षि कणाद के द्वारा प्रोक्त वैशेषिक सू़त्रांे मंे इन छः पदार्थांे का ही वर्णन मिलता है। अभाव को सातवंे पदार्थ के रूप मंे स्वीकार किया जाता है। किन्तु पूर्वोक्त संयुक्त परम्परा मंे अभाव की स्थापना ‘निषेधमुखप्रमाणगम्य’ के रूप मंे की जाती है, जिसका तात्पर्य है- ‘निषेधः- निषेधार्थः न×ा् शब्दः, मुखम् अभिलापकः, तच्चेदं प्रमाणम्- प्रत्ययः तेन गम्यत्वं वेद्यत्वम्।’17 इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ है ‘न×ा्’ शब्द से अभिलाप किए जाने वाले ज्ञान का विषय होना। यथा- ‘इदम् इह नास्ति’, ‘इदम् इदं न भवति’ इस प्रकार के ज्ञान निषेधमुख प्रत्यय है। उक्त प्रत्ययांे मंे ‘न×ा्‘ शब्द से जिस पदार्थ का बोध होता है वही अभाव है। इसके दो भेद हैं- संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव। संसर्गाभाव के तीन भेद होते हैं- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव। कणाद के सूत्रांे मंे अभाव का जो वर्णन मिलता है परवर्ती वैशेषिक आचार्यांे ने उसको आधार मानकर ‘अभाव’ नामक पदार्थ को सातवें पदार्थ के रूप मंे मान्यता दी है। न्याय-वैशेषिक दर्शन प्रस्थान के प्रमुख आचार्यों की परम्परा मंे गौतमोक्त षोडशपदार्थों का अन्तर्भाव इन सप्त पदार्थांे मंे किया है।18
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि पदार्थविद्या अथवा पदार्थतत्त्वविवेचन आधुनिक काल मंे पदार्थशास्त्र अथवा फिजीक्स के अंतर्गत माना जाता है। फिजीक्स मंे पदार्थांे का तत्त्वनिरूपण के लिये आज के वैज्ञानिक कम्प्यूटर सहित कई यंत्रांे की सहायता लेते हैं जिससे पदार्थ संबंधी जो सूक्ष्मतम विवेचन या निष्कर्ष हमंे उपलब्ध है, वह प्राचीन काल मंे केवल ऊहापोह प्रसूत तर्क के ज्ञान से होना संभव नहीं था। यद्यपि यह कटु सत्य स्वीकार करने मंे प्राच्यविद्या विसारद कुण्ठाबोध नहीं करते है, तथापि यह भी सच है कि प्राचीन भारतीय तर्कविद्या अथवा न्यायशास्त्रीयपरंपरा अपने आप मंे सूक्ष्मदर्शिता तथा बौद्धिक्ता के मापदंड से सर्वोत्कृष्ट हैं। प्रमाण सापेक्ष तर्कशास्त्र पदार्थतत्त्व विवेचना के माध्यम से बुद्धि की क्षमता तथा बौद्धिक व्यापार मंे पारदर्शिता उपलब्ध करने मंे समर्थ है। यह सर्वमान्य है। इसी परंपरा मंे यह अध्ययन एकतः आधुनिक पदार्थशास्त्रीय पदार्थ तत्त्व विवेचना के परिप्रेक्ष्य मंे पदार्थों का निर्वचन करने की दशा मंे प्रयास किया है।
संदर्भसूची
1. झा आनंद, तर्कसंग्रह, उ. प्र. हिन्दी ग्रन्थाकादमी, लखनऊ, 1975, पृ. 10
2.तर्कसंग्रह, पृ. 10, (पूर्ववत्)।
3.प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिðान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजाति-निग्रहस्थानांतत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः।
  स्वामी द्वारिकादास शस्त्री, न्यायदर्शनम्, (न्या.सू.1/1/1) बौद्ध भारती, बनारस, 1976, पृ 5
4.धम्र्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकम्र्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थनां साधम्यैवैधम्र्माभ्यां  तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्।
  नारायणमिश्र, वैशेषिकसूत्रोपस्कार, (वै. सू. 1/1/4) चैखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, 1969 पृ. 17
5.मूलप्रकृतिरविकृतर्महदाद्याः प्रकृति विकृतयः सप्तः।  षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः।।3।।
  श्री ब्रजमोहन चतुर्वेदी, सांख्यकारिका, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 1998 पृ. 73
6.द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायशक्तिसंख्यासादृश्यान्यष्टौ पदार्थाः।,(तन्त्ररहस्य पृ. 77)
7.शुक्ल बदरीनाथ, तर्कभाषा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2004 पृ. 310
8. भार्गव दयानंद, तर्क-संग्रह दीपिका, (हिन्दी व्याख्या), मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2001, पृ.6
9.शुक्ल बदरीनाथ, तर्कभाषा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2004, पृ. 50
10.शुक्ल बदरीनाथ, तर्कभाषा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2004 पृ. 300
11.मिश्र नारायण, संपादक, वैशेषिकसूत्रोपस्कार, (वै.सू. उ. 1.1.7) चैखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, 1969।
12.शास्त्री धर्मेन्द्र न्या.सि. मु., मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1992 पृ. 23
13.शास्त्री स्वामी द्वारिकादास, न्यायदर्शनम्, (न्या.सू. 2.2.66) बौद्ध भारती, बनारस, 1976 पृ. 166
14. भार्गव दयानंद, तर्कसंग्रह, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2001, पृ. 17
15. मिश्र नारायण, संपादक, वैशेषिकसूत्रोपस्कार, (वै.सू.उ. 7.2.26) चैखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, 1969।
16. अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बंध इह प्रत्ययहेतुः स समवायः। दुर्गाधर झा, प्रशस्तपादभाष्य, स0सं0 विश्वविद्यालय, बनारस, 1977, पृ. 773
17.कणाद ने वैशेषिक सूत्रों में ’अभाव’ शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र किया है। जैसे  न तु कार्याभावत् कारणाभावः। ‘‘कारणाभावात् कार्याभावः। संपादक श्री नारायणमिश्र, वैशेषिकसूत्रोपस्कार, (वै.सू.  1/1/1 और 1/1/13), चैखम्भा संस्कृत सीरिज, बनारस, 1969, पृ. 77,73
18.सर्वेषां पदार्थानां यथायथमुक्तेष्वन्तर्भावात्सप्तैव पदार्थां इति सिðम्। दयानंद भार्गव, तर्कसंग्रह, मोतीलाल बनारसीदास, नईदिल्ली,2001,पृ. 182

डाॅ संजय दुबे,
गंगानाथ झा परिसर, आजाद पार्क इलाहाबाद