Wednesday 2 January 2013

तिब्बत में तंत्र परंपरा तथा बज्रयान परंपरा का विकास


जी0 यस0 तिवारी एवं सुनीता पाण्डेय

आजकल के षिक्षित लोगों के लिए तंत्र का अर्थ पंचमकार से है, अर्थात् मत्स्य, मांस, मद्य, मैथुन एवं मधु की सिद्धि के नाम पर भोग-विलास का जीवन बिताने के लिए अनुष्ठानों का संपादन। किन्तु आरंभिक तांत्रिक साहित्य तथा प्रतिमाओं एवं तांत्रिक आचारों के अवषेषों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि तंत्र सम्प्रदाय में अनेक महत्वपूर्ण तत्वों का समावेष था। लिखित तंात्रिक ग्रन्थो और प्रतिमाषास्त्र में मातृदेवी की पूजा को महत्व का स्थान दिया गया है।1(1) यद्यपि तंत्र-साधना मुख्य रूप से शाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध है तथापि शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों तथा बौद्ध और जैन धर्म में भी इसका स्थान बाद के दिनों में अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया। बौद्ध धर्म में तंत्र-साधना ने महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया। तिब्बत जैसे देषों में इसका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया।

तंत्र सम्प्रदाय में युक्ति तथा मुक्ति की प्राप्ति एवं लोगों की तरह-तरह की भौतिक कामनाओं (काम्यानि) की पूर्ति के विभिन्न प्रकार के गुह्य अनुष्ठानों का विधान किया गया है। लगभग छठी सदी ईस्वी की एक वैष्णव तांत्रिक रचना में तंत्र सिद्धान्त को चतुर्वर्ग अर्थात् अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति करने वाला बताया गया है।1(2) यह सिद्धि पूजा अथवा भक्ति द्वारा प्राप्त की जा सकती है। भक्ति का अर्थ है अराध्य देव तथा गुरू के प्रति समर्पण। तांत्रिक संगठनों में गुरू या आचार्य को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। विषाल तंत्र साहित्य में विभिन्न तांत्रिक धाराओं तथा विविध धर्माचरणों को स्थायी और सुव्यवस्थित रूप दिया गया। व्यवहारतः तंत्र सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के समान ही था। उसकी दृष्टि सर्वथा सम्प्रदाय निरपेक्ष एवं भौतिकवादी थी। विभिन्न वर्गो के जीवन के जितना निकट तंत्र सम्प्रदाय था उतना कोई अन्य सम्प्रदाय नहीं था।
लगभग सभी तांत्रिक ग्रन्थों की रचना दूरस्थ जनजातिय क्षेत्रों में हुई है। तंत्रो पर आधारित बौद्ध मंत्रयान का उद्भव छठी सदी में आन्ध्र मंे हुआ।1(3) गुह्य समाज वज्र षिखर, सर्वतयागततत्त्व संग्रह और महा वैरोजन बौद्धों के प्राचीनतम तंत्र ग्रन्थ है। उनकी रचना छठी और सातवीं सदियों में हुई क्योंकि परंपरा के अनुसार उन्हें नागार्जुन और नागबोधि तथा दक्षिण के साथ जुड़ा हुआ माना जाता है, इसलिए उनकी उत्पत्ति आंध्र या कलिंग में मानी जाती है।2(3) इस संदर्भ में रामषरण शर्मा लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि गुंटुर जिले में पछेती सातवाहन राजाओं तथा उनके उत्तराधिकारियों ईक्ष्वाकुओं ने जो बौद्ध भिक्षुओं को बसाया था उसके कारण पहले महायान के उदय में सहायता मिली, और बाद में तंत्र के जन्म का मार्ग प्रषस्त हुआ।1(4)
भारत में बौद्ध तंत्र ने सर्व प्रथम छठी-सातवीं सदियों में मजबूती से बंगाल में अपने पैर जमाए। धर्म कीर्ति के काल (600-615 ई0) तक ये तंत्र गुप्त रूप से कायम रखे गये।1 बहुत आगे चलकर आठवीं-बारहवीं सदियों में शायद इस काल के उत्तरार्ध में,2(4) सरह, लुइया, कम्बल, पद्म वज्र, कृष्णाचमि, ललिता वज्र, गंभीर वज्र तथा पित्स नामक बुद्धों ने तंत्र की विविध शाखाओं का प्रवर्तन किया।3(4) तंत्रोपासना और विषेष रूप से शाक्त पंथ की दृष्टि से मिथिला एवं उत्तर तथा पूर्वी बंगाल अर्थात् बांग्लादेष को मध्यकाल में एक ही धार्मिक ईकाई माना जाता था। कुलार्णवतंत्र की पाण्डुलिपियाँ उत्तर तथा पूर्व बंगाल में मिली हैं, और कौलाचर तो मिथिला में आज भी कायम है। नौ नाथ कौल तंत्रों के रचयिता माने जाते हंै। महाकौल ज्ञान-विनिर्णय की प्रतिलिपि जिसे मत्स्येद्रनाथ नेपाल ले गये थे।
कष्मीर में तंत्र साधना की रचना पर जोर दसवीं सदी से आरंभ हुआ, क्योंकि वहाँ आठवीं सदी से पूर्व तंत्र का प्रवेष नहीं हो पाया था।1(5) तंत्र साहित्य के सबसे प्रसिद्ध रचयिता अभिनव गुप्त थे2(5) उसने तंत्रलोक नामक वृहत ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तंत्र की कुल तथा त्रिक पद्धतियों की षिक्षा को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है। प्रांरभिक तांत्रिक ग्रन्थ मुख्य रूप से कष्मीर, नेपाल, बंगाल, असम तथा पष्चिमी और दक्षिणी भारत में पाये गये हैं।
दैवी तथा मौलिक दोनों धरातलों पर तंत्र सम्प्रदाय के संस्थागत पक्ष का विकास पूर्व मध्यकाल की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में हुआ। यह पूर्व मध्यकाल की आवष्यकताओं की उपज था। उसमें स्त्रियों, शूद्रांे तथा बाहर से शामिल होने वाली जनजातियों को स्थान दिया गया। तंत्र सम्प्रदाय संघर्ष को तीव्रता देने के स्थान पर सामाजिक सौहार्द तथा एकता स्थापित करने का धार्मिक प्रयास था।
तंत्रयान तथा बज्रयान के सन्दर्भ में संस्कृत आचार्यों द्वारा, संस्कृत भाषा में लिया गया, मूल साहित्य अब प्रायः कम मिलता है, किन्तु ‘बस्तन-हग्युर’ में तिब्बती भाषा में किया गया, उनका अनुवाद सुरक्षित है।1(6) तिब्बती इतिहास में वर्णित इन सिद्धाचार्यो में से अनेक पाल काल से सम्बन्धित माने जाते हैं। महायान बौद्ध धर्म से विकसित हुए, विभिन्न यानों से सम्बन्धित साहित्य को प्रायः तंत्र (ज्र्युद) की संज्ञा दी गयी है। यह इस कारण से सम्भव हो सकता है कि ये अत्यधिक अस्पष्ट अथवा सांकेतिक भाषा में गुह्य उपदेषों, रीतियों व कृत्यों की षिक्षा देते हैं। तारानाथ के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि पाल काल में अनेक वज्राचार्य थे जो विभिन्न सिद्धियों पर अपना अधिकार रखते थे व आष्चर्य पूर्ण कृत्यों का प्रदर्षन करते थे। भारतीय व तिब्बती साक्ष्यों में पर्याप्त मतभेद के कारण आचार्यो का काल क्रम मात्र सापेक्षतया से अथवा संषय से निर्धारित किया जा सकता है। साहित्यिक कृतियों और विषिष्ट लेखकों-आचार्यों की पहचान के सम्बन्ध में अनिष्चितता प्रायः प्रबल है। विनोयतोष भट्टाचार्य ने इनके कालक्रम को व्यवस्थित करने का प्रयास किया है।1(7) राहुल सांकृत्यायन ने मंत्रयान व वज्रयान का समय क्रमषः 400-700ई0 व 700-1200ई0 निर्धारित किया है।2(7) उन्होंने यह विष्वास व्यक्त किया है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म का उदय दक्षिण भारत में लगभग छठी शताब्दी ईसवी में हुआ तथा उत्तर भारत में 84 सिद्धों के माध्यम से फैला।
वज्रयान- व्रजयान, योगाचार दर्षन में ही संवर्धन व विस्तार का अन्तफल था। यह दर्षन तृतीय शताब्दी ईसवी में प्रतिपादित किया गया था। योगाचार दर्षन के अनुसार इस दृष्य संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह चित्त की सृष्टि है। यह क्षणिक ज्ञान, चेतना अथवा बोध है जो कि वास्तविक अथवा सत्य है। इसी दर्षन के अनुसार लौकिक दृष्टि अथवा सत्य है। इसी दर्षन के अनुसार लौकिक दृष्टि विषय स्वप्न की भांति है। मानो जादू से स्थापित किए गए हों। सभी मत्र्य क्षणिक ज्ञान, चेतना अथवा बोध की श्रृंखला में बद्ध है और वे तब तक जन्म व पुनर्जन्म की श्रेणी से गुजरते हैं, जब तक उन्हें मुक्ति नहीं मिलती। शून्य का प्रत्यक्षीकरण अनन्त ज्ञान, सर्वज्ञान प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। उन्होंने दो प्रकार के अवरोध1(8) बताए- प्रथम प्रकार का विध्न है- ‘क्लेषावरण’ अथवा दुःख-पीड़ा का आवरण तथा द्वितीय ‘ज्ञेयावरण’ अर्थात् वह रुकावट जो सर्वालिखित सत्य को छिपाती है। अनुराग, आसक्ति, घृणा, अनिच्छा आदि प्रकार के अनुभव व स्पर्शज्ञान दुःख-पीड़ा का आवरण है। ये किसी भी तथ्य को जो कि वह वास्तव में हैं, जानने में अवरोध उत्पन्न करते है। दूसरे प्रकार का विध्न या अवरोध है- पूर्ण ज्ञान का अभाव और उस पूर्ण ज्ञान को दूसरों तक पहुँचा पाने की अयोग्यता। प्रथम प्रकार का आवरण जगत की शून्यता के प्रत्यक्षीकरण द्वारा हटाया जा सकता है। अनुराग, घृणा, अनिच्छा, आदि अनुभव व स्पर्ष ज्ञान बाह्य इन्द्रिय विषय द्वारा उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि यह यथार्थ आत्मा के द्वारा निरन्तर चिन्तन करने से उत्पन्न होते है। ‘श्रावक’ व ‘प्रत्येक’ जो कि भव या उत्पत्ति के चक्र से भयभीत रहते है और केवल अपने लिए निस्तारण चाहते हंै, आत्मा के पूर्ण नाष के लिए इस प्रकार के चिन्तन को आवष्यक मानते हैं। इसके दूसरी ओर महायानी जो कि दुःखित, पीडि़त मानवों के प्रति करूणा रखने वाली असीम व अमित भावना से ओत-प्रोत है और सदैव दुःखित व पीडि़त मानवों की सहायता हेतु तत्पर रहते हैं, वे अपनी करूणा की भावना से उत्प्रेरित होकर निरात्मा के प्रत्यक्षीकरण के लिए एक प्रकार का चिन्तन करते हैं। इस प्रकार हीनयानी व महायानी में यह अंतर है कि बाह्य संसार की शून्यता के चिन्तन में हीनयानी स्वार्थी हैं और महायानी निःस्वार्थ भाव से चिन्तन करते हैं।
लगभग सातवीं शताब्दी ईसवीं के अन्त में अनंगवज्र द्वारा रचित ‘प्रज्ञोपाय विनिष्चयसिद्धि’1(9) में वज्रयान से सम्बन्धित मुख्य अभिप्रायों, मतों व सिद्धांतो का वर्णित किया गया है। प्रथम अध्याय में ‘भव’ अथवा उत्पत्ति को पारिभाषित किया गया है। यह स्थिति सांसारिक दृष्टि विषयों को सत्य मानने पर मिथ्या विचारों अथवा कल्पनाओं के कारण उत्पन्न होती है। इससे अनेक प्रकार के दुःखों, क्लेषों व उससे सम्बन्धित कार्यों व उनके परिणामों की उत्पत्ति होती है। उनमें से ही जन्म व मृत्यु जैसे अन्य दुःखों की उत्पत्ति होती है। जब तक मनुष्य अज्ञानता के कारण सांसारिक दृष्टि विषयों के बाह्य प्रकाषन को सत्य मानते हैं; वे न स्वयं अपना और न अन्य लोगों का कल्याण कर पाते हैं। करूणा को ‘उपाय’ अथवा ‘साधन’ कहा जाता है क्यांेकि यह सदैव नौका के सदृष्य लक्ष्य की ओर मार्ग-निर्देषन करती है। ‘प्रज्ञा’ व ‘उपाय’ का संयोजन दूध व जल के संयोजन की भांति है। इसमें द्वैतता बिना किसी भेद के एक में मिल जाती है और इसे ‘प्रज्ञोपाय’ कहा जाता है। यह ‘प्रज्ञोपाय’ सम्पूर्ण संसार का मूल सिद्धान्त है। प्रत्येक कुछ इसी सिद्धान्त से निकलता है व विकसित होता है। यह ‘महासुख’ कहलाता है क्योंकि यह शाष्वत सुख प्रदान करता है। यह ‘सामन्तभद्र’ नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह पूर्णतः मंगलकारी है।
‘प्रज्ञोपायविनिष्चयसिद्धि’ के द्वितीय अध्याय में इस संबंध में चर्चा कि गई है कि ‘पूर्ण ज्ञान’ परिभाषित नहीं किया जा सकता है। यह कम या अधिक रूप में आत्म प्रत्यक्षीकरण पर आश्रित रहता है। पूर्णज्ञान केवल प्रवीण गुरू के ही माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। यह अत्यंत आवष्यक है कि तंात्रिक क्रियाओं में पूर्ण रूप से दक्ष गुरू को, महान समर्पण द्वारा पूजा जाए, उसकी सेवा की जाए तभी ज्ञान प्राप्त हो सकता है और पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार से सूर्यकान्तमणि सूर्य की किरणों में संपर्क में आने पर स्फुलिंग छोड़ने लगती है। उसी प्रकार गुरू के संपर्क में आने पर षिष्य की चिन्तामणि प्रज्ज्वलित हो उठती है।
तृतीय अध्याय षिष्य के दीक्षा-संस्कार, ‘प्रज्ञोपाय’ में दीक्षित होने से संबंधित है। षिष्य अत्याधिक आभूषणों से सुसज्जित व बाह्य उपस्थिति में अत्यंत रामणी प्रतीत होने वाली ‘महामुद्रा’ के साथ गुरू के समीप जाता है। तत्पष्चात् षिष्य दीर्घ स्तुति से गुरू की उपासना करता है और अंत में प्रार्थना करता है कि उसे दीक्षा प्रदान करें ताकि वह बुद्धों के कुल से उनकी संतान की तरह संबंध रख सके। तब गुरू षिष्य को महामुद्रा के साथ संयुक्त करके आवष्यक दीक्षा प्रदान करता है। इसी क्रम में गुरू उसे पाँच ‘संयम’ प्रदान करता है और बोधिसत्त्व पर आरोपित किए जाने वाले ‘संवर’ अथवा संयम संबंधी आदेष देता है। इस प्रकार दीक्षित षिष्य अपने गुरू पर इस कृपा दृष्टि के प्रत्युत्तर में अगाध श्रद्धा प्रकट करता है क्यांेकि उसके गुरू ने उसे दुःखों-क्लेषों से वह मुक्ति दी है, जिसके लिए वह अत्याधिक इच्छित था। इसके साथ ही वह एक संकल्प यह भी लेता है कि स्वयं बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात् अन्य प्राणियों को त्रिलोकों में बुद्धत्व की स्थिति में स्थापित करेगा।
चतुर्थ अध्याय में ‘प्राज्ञोपाय विनिष्चय सिद्धि’ का प्रणेता ‘प्रज्ञोपाय’ के चिन्तन मनन व ध्यान के संबंध में विस्तार से कहता है। वह अपरिभाषित है जो न तो ‘षून्य’ है न इसके विपरीत है और न ही इन दोनों का निषेध है। ‘षून्य’ अथवा ‘अषून्य’ को स्वीकार करने में असंख्य मिथ्या विचार उत्पन्न होते हैं और उनके पूर्ण परित्याग के प्रलोभन से उनको त्यागने का निष्चय उत्पन्न होता है। इसलिए इन दोनों का त्याग कर देना चाहिए। षून्यता और संकल्प भी त्यागने के प्रयास में आत्मबोध प्रधान हो जाता है। इसलिए इस प्रकार की सभी रीतियां छोड़ देनी चाहिए। उपासक को स्वयं भी अपरिवर्तनषील, पूर्ण, नामरहित, निर्मल व्योम की भांति (जिसका न आदि है न अंत) सोचना चाहिए। पूर्ण करूणामय, बोधिसत्व को क्लेषित प्राणियों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। ‘प्रज्ञा’ को ‘प्रज्ञा’ इसलिए कहा जाता है कि यह रूपान्तर अथवा परिवर्तन को स्वीकार नहीं करती है यह ‘कृपा’ (करूणा) पूर्ण है। जब प्रज्ञा व करूणा का संयोजन हो जाता है तब न तो ज्ञान रह जाता है न जानने वाला और न ही ज्ञान का उद्देष्य। यही वास्तव में सर्वोच्च ज्ञान है। जब प्रज्ञा और करूणा का संयोजन होता है तब न तो कोई कार्य करने वाला रह जाता है न कोई उपभोग करने वाला क्योंकि यह कार्य करने वाले तथा उपभोग करने वालों के ज्ञान से मुक्त है। इसे महान सत्य का ज्ञान कहा जाता है। इसमें न तो कोई प्राप्त करने वाला होता है न ही कोई प्रदान करने वाला, साथ ही न कुछ दिया जा सकने वाला होता है न ही कुछ लिया जा सकने वाला। जो इस महान् सत्य को प्रत्यक्ष कर लेते हंै उन्हें साधारण से साधारण कार्य करते हुए असंख्य योग्यताओं, गुणों और विधाओं की प्राप्ति होती है। ये साधारण से साधारण कार्य है - देखना, सुनना, बातचीत करना, हंसना, खाना या तब भी जब उनका ध्यान कहीं और लगा हो। यह सत्य अद्वैत बोधिचित्त, व्युत्पन्न वज्रसत्व की भांति भी माना जाता है। यह ‘प्रज्ञापारमिता’ की भांति भी माना जाता है। जो कि सभी पारमिताओं की मूर्तिमत्ता है। इसमें से जगत् व उसकी चर अथवा अचर वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और इसमें असंख्य बोधिसत्वों, सम्बुद्धों व श्रावकों का जन्म होता है। योगी को सभी सत्यता व असत्यता के विचारों को छोड़कर इसका ध्यान करना चाहिए। जो कोई भी सत्यता व असत्यता के विचारों को छोड़ सकता है वही षीघ्रातिषीघ्र पूर्णता प्राप्त कर सकता है। इस तरह पापों से मुक्ति पाने पर वह सभी दुःखों व क्लेषों से मुक्त हो जाता है और सदैव सर्वश्रेष्ठ गुणों को प्राप्त करता है।
इसके पष्चात् ‘प्रज्ञोपायविनिष्चय सिद्धि’ के रचयिता संसार व निर्वाण के संबंध में दो छंद लिखते हैं, जो संभवतः गूढ़ दर्षन की उन ऊंचाइयों को प्रदर्षित करते प्रतीत होते हैं, जहाँ तक वज्रयानी पहुंच सके थे। संसार के संबंध मेें1(10) ‘वज्र को धारण करने वाला संसार को चित्त को उस अवस्था की भांति परिभाषित करता है जो असंख्य मिथ्या विचारों, संकल्पनाओं आदि से उत्पन्न अज्ञानता से व्यग्र, व्याकुल है (जो) क्षणिक है जैसे तूफान में बिजली की चमक और जो आसक्ति व लगाव की गर्त से लिपा पुता है, यह गर्त सरलता से हटाई नहीं जा सकती है।’ निर्वाण की स्थिति संसार की स्थिति से सर्वथा भिन्न है।1 ‘श्रेष्ठ निर्वाण चित्त की दूसरी अवस्था है जो विषुद्धता से उज्ज्वल है, सभी मिथ्या विचारों, संकल्पनाओं और आसक्ति के ख्ंिाचाव की गर्त से विमुक्त है, जिसे न तो अनुभव कर सकते हैं न जाना जा सकता है और जो शाष्वत है।’’
पंचम अध्याय में पापों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु षिष्य को ‘तत्वाचर्या’ (तांत्रिक आचरण) के संबंद्ध में अभ्यासिक संकेत दिए गए है। प्रणेता का तो यह भी कहना है कि यह ‘तत्वाचर्या’ हिंदू देवताओं मुरारि, षिव, इंद्र, कुबेर द्वारा भी आदृत व पूजित है। इन आचरणों को निरंतर नियम पूर्वक अभ्यास में लाते रहने से सर्वोच्च निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।1(11)
इस तरह देखा जा सकता है कि वज्रयान ने प्रायः सर्वश्रेष्ठ दार्षनिक मतों व सिद्धांतो को ग्रहण किया। संभवतः यही कारण था कि वज्रयान ने अतिषय लोकप्रियता अर्जित की। इसने सभ्य सुसंस्कृत, असभ्य, सज्जन, दुरात्मा निम्न तथा श्रेष्ठ (उच्च) सभी वर्गो को संतुष्ट करने का सफल प्रयास किया।
यह कहना कठिन है कि तंत्रयान, वज्रयान ने कहाँ जन्म लिया। ‘साधनमाला’1(12) में चार पीठों का उल्लेख है जो वज्रयानियों से संबंधित थे-कामाख्या, सिरिहट्ट, पूर्णगिरी उड्डियान। कामाख्या का समीकरण गुवाहटी से कुछ मील की दूरी पर इसी नाम के स्थान से किया जा सकता है। सिरिहट्ट संभवतः आधुनिक सिल्हट है। पूर्णगिरी का समीकरण पुण्यतीर्थ से किया गया है। यह भी असम में ही है। चारों मठों में उड्डियान का उल्लेख अत्याधिक हुआ है। इसके निष्चित समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है। किन्हीं विद्वानों द्वारा इसका समीकरण स्वात घाटी में उड्यान के साथ तो किन्हीं विद्वानों ने उड्डियान को उडि़सा से समीकृत किया है।2(12)
तिब्बती ग्रन्थ ‘पग-सम-जोन-जंग’1(13) के आधार पर कहा जा सकता है कि उड्डियान में तंत्रयान सर्वप्रथम विकसित हुआ।2(13) प्रारंभिक सिद्धाचार्यो में से एक लुई-पा को पग-सम-जोन-जंग’3(13) में मछुआरा जाति का बाताया गया है तथा वह उड्डियान के राजा द्वारा लेखक के रूप में नियुक्त हुआ। वह शबरी-पा से मिला, जिन्होंने उसे तंत्रयान में दीक्षित किया। तंग्युर में लुई-पा को ‘महायोगिश्वर’ कहा गया है। लुई-पा ने बाग्लां भाषा में अनेक गीत रचे जो ‘बुद्ध गान ओ दोहा’ के अंतर्गत है। लुई पा ने संभवतः ‘लुई-पाद-गीतिका’ की रचना की। यह अब तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित है। इस प्रकार लुई पा के मूल निवास स्थान के विषय में दो तथ्य मिलते हैंै। इसको पग सम जोन जग में उड्डियान व ताग्यूर में बंगाल बताया गया है। इस आधार पर यह संभावना अधिक है कि उड्डियान असम तथा बंगाल में कहीं स्थित रहा हो। उड्डियान में ही सर्वप्रथम विकसित होने के बाद तंत्रयान अन्य पीठों कामाख्या, सिरिहट्ट, पूर्णगिरी में फैला। बौद्ध धर्म ने बंगाल में काफी पहले ही प्रवेष पा लिया था। ह्वेनसांग ने बंगाल में प्रसरित बौद्ध धर्म के विषय में विवरण दिया है किन्तु पाल काल में जो बौद्ध धर्म का स्वरूप था वह काफी भिन्न था। प्राचीन सर्वास्तिवाद, संपतीय, आदि अब पूर्वी भारत में विस्मृत किए जा चुके थे। तंत्रयान, वज्रयान, की जड़े काफी गहरी पहुंच गई थी, जिन्होंने असंख्य मनुष्यों को प्रभावित किया।
आधुनिक विद्वानों की ऐसी धारणा है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म सातवीं शताब्दी ईसवीं में प्रकट हुआ। यद्यपि बिनोयतोष भट्टाचार्य, तुची, गोपीनाथ कविराज व गोविन्द चन्द्र पाण्डेय तंात्रिक धर्म की तिथि मैत्रेय व असंग के समय रखते है। इन विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि तारानाथ का ऐसा विष्वास है था कि तंत्र व गुह्य प्रकृति के तांत्रिक विचार महायानी नागार्जुन के जितने प्राचीन हैं और वे लगभग तीन सौ वर्षों तक गुरू से षिष्यों तक पहुँचते रहे। इसके अतिरिक्त बहुत से तांत्रिक व अर्द्धतांत्रिक ग्रन्थ हैं जो 700 ईंसवी के पूर्व के हैं। तांत्रिक बौद्ध धर्म से संबंधित जो पहली कृति है वह हैं-‘गुह्य समाज-तंत्र’ (तीसरी अथवा चैथी शताब्दी ईसवीं) और ‘मंजुश्री मूल कल्प’। पहली योग व अनुन्तरयोग से संबंधित है और दूसरी मुद्रा, मण्डल, मंत्र, क्रिया, चर्या, शील, व्रत शौचाचार, नियम, होम जप व ध्यान से संबंधित है। ‘मंजुश्रीमूल कल्प’ में तांत्रिक बौद्ध धर्म से संबंधित देवी-देवताओं को चित्रित किए जाने के निर्देष मिलते हैं।1(14) इस प्रकार यह ग्रन्थ न केवल महायान के विकसित रूप को प्रकट करता है अपितु तांत्रिक कर्मकांडो व उपासना के विकास को दर्षाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गुप्तोत्तर काल में संषोधित हुआ, तथापि इसे मूल रूप से द्वितीय शताब्दी ईसवीं में रखा जा सकता है। अन्य तांत्रिक ग्रन्थों में संभवतः चैथी शताब्दी ईसवी का ‘करण्डव्यूह सूत्र’ मध्य एषिया का धारिणी व ‘महाप्रत्यंगिराधारणी’ जो बौद्ध देवी तारा की स्तुति में है, छठीं शताब्दी ईसवी का है।
इससे ऐसा प्रतीत होत है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म का आरंभ महायान के आरंभ के साथ रहा। तिब्बतियों ने महायान व वज्रयान में कभी भी अंतर नहीं किया2(14) नागार्जुन ने स्वयं भी महायान को ‘गुहृा’ वर्णित किया है। इस वज्रयान बौद्ध धर्म के कुछ प्रमुख मत अभिप्राय सिद्वांत थे। ये निम्न लिखित प्रकार के वर्णित किए जा सकते हैं -
भारत में प्राचीन काल से ही चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो अथवा धर्मेंतर, गुरू की आवष्यकता सर्वदा ही अनुभव की गई परंतु गुरू को जैसा महत्व वज्रयान बौद्ध धर्म में मिला, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे यह निष्चय के साथ उद्घाटित करते हैं कि गुरू के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। गुरू के बिना रहस्यपूर्ण उपदेष व कृत्यों का अनुसरण करना ही संभव नहीं है। यह गुरू का ही कार्य था कि वह षिष्य को उसी केन्द्र बिंदु की ओर निर्देषित करें जिसके कि वह योग्य है। षिष्य किस तरह की सिद्धि प्राप्त कर सकता है यह भी गुरू ही निर्दिष्ट करता था। वैसे तो बुद्ध के समय में ही बौद्धों में गुरू की परंपरा विद्यमान थी किंतु वज्रयान में गुरू की स्थिति अत्यंत विषिष्ट थी। तांत्रिक कृतियों में गुरू के प्रति उच्च आदर मान-सम्मान के साक्ष्य हैं।1 यह ठीक है कि षिष्य को कोई मंत्र ज्ञात है और सर्वथा सही ज्ञात है, किन्तु यह आवष्यक नहीं कि इसकी सहायता से षिष्य ‘‘सिद्धि’’ प्राप्त कर लें। यह प्रायः वज्रयान के नियमों के विरूद्ध है। सर्वप्रथम उसे गुरू द्वारा दीक्षित तथा विभिन्न प्रकार से अभिषिक्त होना पड़ता है, तथा जब गुरू द्वारा दिये गये सभी निर्देष षिष्य द्वारा ठीक-ठीक पालित होते हंै तब ही सिद्धि सम्भव होती है।
वज्रयान बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत षिष्य को अपना जीवन किस तरह व्यतीत करना चाहिए; इस सन्दर्भ में परस्पर विरोधी तथ्य देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ-उन्हें अधिक भोजन से दूर रहना चाहिए, सभी प्रकार के प्रतिबंधित भोज्य पदार्थों जैसे-प्याज, तेल, नमक आदि को त्याग देना चाहिए तथा अविवाहित जीवन की मर्यादा का उल्लघंन नहीं करना चाहिए। अन्य स्थानों पर उन्हें मांस, मदिरा तथा अन्य प्रतिबन्धित पदार्थों का व्यवहार करते बताया गया है। ऐसे ही एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि उन्हें स्नान आदि के पष्चात् शरीर शुद्धि होने पर पूजा-अराधना करनी चाहिए तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। एक स्थान पर तो किसी प्रकार के नियमों का प्रतिबंध नहीं है न तो भोजन के सम्बन्ध में और न किसी और के सम्बन्ध में। एक सामान्य नियम यह था कि बिना व्रत, उपवास के स्वयं को शुद्ध किए ही केवल मंत्रों के जाप से सिद्धि की जा सकती है।1(15) इस सम्पूर्ण विवरण में जो प्रतिकूलता दृष्टिगत होती है वह सम्भवतः इसलिए है कि वज्रयानियों ने आराधकों की विभिन्न श्रेणियों को देखा तथा उन्होंने अलग-अलग वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न नियम बनाए। ‘‘अद्वयवज्र’’ ने बौद्धों को शैक्ष व अषैक्ष दो वर्गों में विभाजित किया। शैक्षों के लिए, जो अपेक्षाकृत कम उन्नत थे, कठोर नियम बनाए तथा अशैक्षों को, जो आध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक अनुगामी था योग तंत्रों द्वारा निर्धारित उच्च रूप वाले उन्नत कृत्यों का अनुसरण करने की अनुमति थी।1(16)
वज्रयान का अनुसरण करने वालों को सम्भवतः चार प्रमुख वर्गों में रखा गया था। किन्तु काजी दवसम्दुण ने वज्रयान को 6 चरणों में रखा है2(16) क्रिया तंत्रयान, चर्यातंत्र व अनुत्तरयोग तंत्र ही भारत में ज्ञात थी ये चार ही तंात्रिक बौद्ध साहित्य में स्वच्छन्द रूप से मिलते हंै। क्रियातंत्र षिष्यों के लिए निम्नतम स्थिति थी। इसमें उन्हें अनुषासन के कठोर नियमों तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता था। योगतंत्र की स्थिति सम्भवतः तब समझी जाती थी जब वह ‘‘षक्ति’’ के साथ संयुक्त होने हेतु योग्य हो जाता था तथा रहस्यपूर्ण कृत्यों को ध्यान से देखता था। अनुत्तर योगी इन सब नियमों से चाहे वे मानवीय हो अथवा दैवीय मुक्त था। इस वर्ग से सम्बन्धित योगी ही सम्भवतः सिद्ध समझा जाता था, जो विविध आष्चर्यपूर्ण कर्मों को करने की विलक्षण प्रतिभा रखता था।
बोधिचित्त की वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा योगाचार दर्षन की अवधारणा की भांति है। इस दर्षन के अनुसार मानव चित्त अथवा बोधिचित्त क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना बोध का निरन्तर प्रवाह है। यह क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना-बोध, प्रत्येक क्षण पूर्व क्षण के ज्ञान अथवा चेतना-बोध को परिवर्तित करता है। अग्रगामी चेतना-बोध सर्वदा पूर्व चेतना-बोध का कारण भूत होता है। इस क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना-बोध का आरम्भिक बिन्दु पहचान लेना कठिन होता है। प्रायः बोधिचित्त को स्वाभाविक रूप से स्मृतियों, इच्छाएं, घृणित विचार तथा मिथ्या कल्पनाएं आदि अषुद्ध करते हैं। इनका ज्ञान होने पर इनको दूर करने का प्रयास किया जाता है और जब तक अषुद्धियाँ दूर नहीं हो जाती तब तक बोधिचित्त को पुनः-पुनः रूपान्तरित होना पड़ता है। जब सभी अषुद्धियाँ एक के बाद एक दूर हो जाती हैं तब बोधिचित्त विभिन्न अध्यात्मिक चक्रों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होना प्रारम्भ करता है। महायानियों ने इन चक्रों को ‘भूमि’ कहा है। इन ‘भूमियों’ की संख्या दस है और ‘दषभूमिक सूत्र’ में इन दस भूमियों का वर्णन है-प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अचिंती, सुदुरजया, अभिमुक्ति, दूरंगमा, अचला, साधुमती, धर्ममेंध्या। इस सबके बाद ही बोधिचित्त को अनन्तज्ञान अथवा सर्वज्ञान प्राप्त होता है। बोधिचित्त की परिभाषा व वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा बोधिसत्वयान के मत अभिप्राय व सिद्धान्त के अनुरूप है। यह सर्वप्रथम ‘‘गुह्य समाज’’ के उद्घाटित हुआ था। इसके अनुसार बोधिसत्व वह है जहाँ शून्यता व करूणा स्वरैक्य होकर कार्य करते हैं।1(17) वज्रयान में एक विषिष्ट लक्षण है जो कि ‘अहंकार’ के मत में निहित है। जिस भी देवी या देवता की अराधना की जा रही है। उससे बोधिचित्त का सादृष्य स्थापित हो जाना ही ‘अहंकार’ है। इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है- ‘मैं ही देवी हूँ और देवी मुझमें है।’1(18) इसके अनुसार आराधक को स्वयं ईष्वर मान लेना चाहिए, सर्वथा उसी रंग-रूप के अनुरूप जैसा कि साधन में वर्णित है। अतः किसी बाह्य विषय के स्थान पर स्वयं ही आराधना करनी चाहिए।
अद्वय की वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा को समझने के लिए शून्यता व करूणा के सिद्धान्त को ध्यान में रखना आवष्यक है। शून्यता तथा करूणा परस्पर मिलकर बोधिचित्त की रचना करते हैं। शून्यता व करूणा का परस्पर संयोग ही अद्धय है। शून्यता पर प्रायः सभी तांत्रिक कृतियों में विचार किया गया है। यह सोचने-विचारने में, सभी सांसारिक दृष्टि विषयों, क्षणिक अस्थायी, अनात्मा में, ऐसे पदार्थ जो स्वप्न अथवा जादू में देखे जाते हों, निहित है।1(19) अद्वय को इस उपमा द्वारा भी समझा जा सकता है- ‘‘जिस प्रकार ताम्र विषिष्ट प्रकार के घोल के सम्र्पक में आने पर अपनी कृष्णता को तज देता है उसी प्रकार शरीर से भी प्रेम, अनुराग, घृणा, अनिष्ठा आदि विकार अद्वय के मद्यकि के सम्पर्क में आते ही दूर हो जाते हैं।’’2(19)
शून्यता व करूणा का संयोजन जल में घुले लवण (नमक) की भांति है। जहाँ द्वैतता समाप्त होती है और अद्वैतता जन्म लेती है। वज्रयान से सम्बन्धित हेरूक व प्रज्ञा शून्य करूणा के मूर्तिरूप हैं। वे युग नद्ध रूप अथवा ‘युव-युग’ रूप में परस्पर आलिंगित होकर एकात्मकता की सृष्टि करते हैं। द्वैयता एक में मिल जाती है और केवल मात्र हेरूक रूप का ही उदय होता है।
सम्भवतः तांत्रिक रूप के कारण ही बौद्ध धर्म विस्तृत व असंख्य कोटि देवी देवताओं पर गर्व कर सकता है, जिनकी जानकारी हम बौद्ध साहित्य से प्राप्त करते हैं। उनसे विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति की याचना की गई है। सम्भवतः यह भी एक कारण हो सकता है कि वज्रयान बौद्ध धर्म ने अपने विषिष्ट मतों, सिद्धान्तों, परम्पराओं, कृत्यों तथा असंख्य मूर्तियों द्वारा जनसामान्य में विषिष्टता प्राप्त की। ऐसा कह सकते हैं कि देवी-देवताओं की अवधारणा अविभेद्य रूप से वज्रयान के दर्षन से सम्बन्धित है। यह सम्भवतः शून्य की अवधारणा से सम्बन्धित है। बौद्ध तंत्रों के अनुसार कह सकते हैं कि वज्रयान से सम्बन्धित देवी-देवता शून्य का प्रकाषन है। पाल सत्ता के पुनस्र्थापक महीपाल प्रथम का समकालीन अद्वयवज्र, जो 978 ईंसवी से 1030 ईंसवी तक रहा ‘अद्वयवज्र संग्रह’ के एक स्थल पर कहता है कि देवतागण और कुछ नहीं बल्कि शून्य का प्रकाषन है और स्वभावतः अस्तित्वहीन है जब कभी भी प्रकाषन है, तब स्वत्व-नित्कर्ष में शून्य हैं।1(20) ‘अद्वयवज्र संग्रह’ के ही एक अन्य स्थल पर देवताओं के शून्य से क्रमिक विस्तार की व्याख्या की गई है। इस क्रमिक विस्तार में चार चरण बताए गए हैं-प्रथम है शून्यता का उचित बोध अथवा ज्ञान, द्वितीय है बीज (मंत्र) से संबंध, तृतीय है मूर्ति की अवधारणा और चतुर्थ चरण है देवताओं का बाह्य प्रकटीकरण।1(21)
बिखरे हुए अनेक संदर्भों के आधार पर बिना किसी ऊहा-पोह के स्वीकार किया जा सकता है कि वज्रयानी देवी-देवताओं का वास स्थान बौद्धों का अकनिष्ठ स्वर्ग था, जो की रूप स्वर्गों में सर्वोच्च है।2(21) यदाकदा देवताओं को तथागतों के समान वर्णित किया गया है। इससे तात्पर्य संभवतः पंचध्यानी बुद्धों में से है। इसका अर्थ हो सकता है कि देवी-देवता पंच स्कंधों के मूर्तीमत्ता है। प्रत्येक स्कंध एक बुद्ध ध्यानी के अधीन है।3(21) ‘विज्ञान’; वैरोचन के ‘रूप’ रत्नसंभव के ‘वेदना’ अमिताभ के ‘संज्ञा’ तथा अमोघसिद्धि के अधीन है ‘संस्कार’। जब इन पंच स्कंधो में से कोई एक विषिष्ट स्थान रखता तब वह देवी या देवता उस ध्यानी बुद्ध से उत्पन्न माना जाता है और जब वह विषिष्ट देवी या देवता कला रूप में प्रकट होता है तब वह अपने मस्तक पर उसी ध्यानी बुद्ध को धारण करता है और उसी की संतान समझा जाता है तथा उसके ही कुल से संबंधित माना जाता है। अन्य ध्यानी बुद्ध उस मुख्य देवी या देवता के प्रभामण्डल पर अंकित किए जाते हंै।
बौद्ध तंत्रों ने सभी देवी-देवताओं को विषिष्ट रंग प्रदान किए हैं। सम्भवतः इन रंगों से गहरी आध्यात्मिक भावना संबंद्ध है। प्रत्येक ध्यानी बुद्ध का अपना अलग रंग है। उस विषिष्ट ध्यानी बुद्ध से जो भी देवी-देवता उत्पन्न होते हैं वे साधारण रूप से उस ही विषेष रंग के होते है। उदाहरणार्थ विज्ञान स्कंध के मूर्तिमत् अक्षोभ्य नीलवर्णी है, अतः जो भी देवी या देवता इनके परिवार से संबंधित होगा वह नीलवर्णी होगा यह एक सामान्य नियम है, किंतु इसके अपवाद भी हैं। यदि कोई विषिष्ट देवी या देवता विनाष व रक्षा दोनों प्रकार के कार्य कर सकता है तो यह आवष्यक नहीं कि वह एक ही रंग वाला हो क्यांेकि विभिन्न प्रकार के कार्य रंग, रूप, स्थिति में भिन्नता रखते हैं।1(22)
बहुधा उत्तरकालीन बौद्ध धर्म के साथ यह दोष संयुक्त हो जाता है कि वह केवल मूर्ति पूजा का रूप था। संम्भवतः आंकने की इस क्रिया में कहीं ना कहीं अषुद्धि अवष्य है। एक ऐसा विचार जो रूप विहीन है, एक अदृष्य शक्ति जिसे ईष्वर कहा जाता है यह ऐसा विषय है जिसे महायोगियों द्वारा भी ध्यान में लाया जाना कठिन है। अतः उन साधारण मनुष्यों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है जो इस बात का विचार नहीं रखते कि ईष्वर वास्तव में कौन-कौन से विशिष्ट गुण रखता है। मूर्तियों के माध्यम से संभवतः यह कार्य संभव है। मूर्तियों के माध्यम से लोगों को उस परब्रह्म, अदृष्य शक्ति का विश्वास दिलाया जा सकता है तथा पीडि़त, क्लेषित मानव के प्रति उसकी असीमित करूणा की प्रतीति कराई जा सकती है। उनमें यह समझ बैठाई जा सकती है कि पाप से डरना चाहिए तथा धर्मनिष्ठ व ईष्वर के प्रति आसक्त होना चाहिए। मूर्ति पूजा महान उपयोगिता से परिपूर्ण है तथा इसमें सामाजिक कल्याण संभव है। संभवतः जब कुछ अर्थहीन शब्दों का जाप मूर्ति मंे जीवन का संचार करने हेतु किया जाता है तो ईष्वर द्वारा मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेना सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु इस वैज्ञानिक युग में यह विष्वास करना अत्यन्त कठिन है। सम्भवतः अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि क्यों मूर्ति पूजा केवल मूढ़ विष्वास मूलक मानी गई तथा मूर्ति की पूजा करने वाला मूर्ति पूजक।
बौद्ध धर्म में बाह्य जगत का कोई अस्तित्व नहीं है। यह शरीर सचेतन इंन्द्रियों से युक्त होने पर भी असत्य, असार व दिखावा मात्र है। वास्तविक ज्ञान न होने योग्य विषय केवल ‘षून्य’ है जो कि ‘करूणा’ के साथ संयुक्त होकर ‘‘बोधिचित्त’’ की सृष्टि करता है। अतः बोधिचित्त भी सत्य है और बाह्य जगत में इस चित्त से परे कुछ भी नहीं है। शरीर भी बाह्य होने पर वास्तविकता को धारण नहीं कर सकता। वज्रयान में यही चित्त व बाह्य जगत की अवधारणा है। वज्रयान का अनुसरण करने वाले के लिए एक मूर्ति में भी किस प्रकार वास्तविकता हो सकती है।
बौद्ध धर्म में आराधना करने वाला ‘बोधिसत्व’ कहलाता है। गुरू के आदेषों के अनुरूप निर्दिष्ट रीति का अनुसरण कर वह स्वयं को और कुछ नहीं बल्कि क्षणिक चेतना की श्रृंखला मानता है। पीडि़त मानव के प्रति करूणा से युक्त रहता है। ‘षून्य’ ‘विज्ञान’ व महासुख से ध्यानी बुद्धों को उनकी विषिष्टताओं के साथ निम्न प्रकार समझा जा सकता है -
परिवार
ध्यानी बुद्ध का नाम वर्ण (रंग) मुद्रा वाहन प्रतीक ‘‘षक्ति’’ का नाम बोधिसत्व
द्वेष अक्षोभ्य नील भू-स्पर्ष गज वज्र लोचना वज्रपाणि
मोह बैरोचन श्वेत धर्मचक्र ड्रेगन चक्र वज्रधालीष्वरी सामन्त भद्र
राग अमिताभ रक्त समाधि मयूर कमल पण्डरा महापाणिपद्य
चिंतामणि रत्नसम्भव पीत वरद अश्व रत्न मामकी रत्नपाणि
समय अमोधसिद्धि हरित अभय गरूड़ विष्ववज्र आर्यतारा विष्वपाणि
युक्त ‘षून्य’ की सहायता की याचना करता है। यह सहायता तभी मांगी जा सकती है जब बोधिसत्व का ‘बोधिचित्त’ शून्य के साथ पूर्णतः एकीकृत हो। बीजमंत्र के अनुरूप अथवा उद्देष्य के अनुरूप जिसके लिए सहायता मांगी गई; यह उद्देष्य एक देवत्तव के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिसके साथ बोधिचित्त एकीकृत हो जाता है। जब बोधिचित्त देवता के साथ एकीभूत होता है तो बोधिचित्त एकीकृत हो जाता है। जब बोधिचित्त देवता के साथ एकीभूत होता है तो बोधिचित्त महान शक्ति प्रकाषित करता है, नहीं तो देवता विषिष्ट नियम द्वारा चित्त से अलग हो जाता है। देवताओं की सूची देखने पर वज्रयानियों के लक्ष्यों व उद्देष्यों को जानने पर पता चलता है कि ‘षून्य’ को कितने प्रकार के कार्य करने पड़ते थे एवं यह अनेक रूपों में परिवर्तित होता है। किसी भी देवता या देवता की बाह्य उपस्थिति को ध्यान में लाना, किसी मूर्ति या चित्र के बिना और वह भी वहाँ जहाँ असंख्य देवी देवता हों, एक कठिन कार्य है। सम्भवतः इसी कारण वज्रयानी बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियों प्रस्तर, धातु आदि में गढ़ी गई। उनके सारणी साहित्य में भी इस तथ्य का अनुसरण करते साक्ष्य विद्यमान है।
‘द्वेष’ परिवार अक्षोभ्य से संबंधित हैं। उनका तथागत रूप में सर्वप्रथम उल्लेख संभवतः ‘अमितायुस-सूत्र’ में मिलता है। अक्षोम्य से जो देव उत्पन्न होता है उनमें हेरूक, हयग्रीव व यमारि प्रमुख हैं। अक्षोभ्य का नीलवर्ण संभवतः उग्र देवों व तंत्र में भीषण-भंयकर कृत्यों से संबंधित है। जो देव इनसे उत्पन्न होते हंै वे भी सामान्यतः नीलवर्णी होते हैं। वे सामान्यतः भयावह उपस्थिति, विकृत चेहरे, बड़े नोकीले दांत, तीन नेत्र, बाहर निकली जीह्वा मुण्डमाला धारण करने व्याघ्रचर्म धारण करने व सर्पाभूषण पहनने वाले होते हंै। इनमें हेरूक संभवतः सर्वाधिक प्रचलित, प्रसिद्ध व शक्तिषाली हैं। वे विभिन्न शक्तियों के साथ संयुक्त माने गये हंै। इस प्रकार उनके रूप पृथक-पृथक माने गए हैं-बुद्धकपाल, सम्वर, वज्रडाक, सप्ताक्षर, महामाया आदि। उन्हें द्विभुजी षडभुजी, द्विनेत्र, त्रिनेत्र आदि माना गया। जब वे ‘चित्रसेना’ के साथ यब-युम (आलिंगन बद्ध) रूप से होते हैं तो यह रूप ‘बुद्ध कपाल’ का था। जब ‘वज्रराही’ के साथ संयुक्त होते हैं तब रूप ‘वज्रडाक’ ‘सम्बर’ व ‘सप्ताक्षर’ था। जब वे ‘वज्रयोगिनी’ (बुद्धडाकिनी) के साथ संयुक्त होते है तब रूप ‘महामाया’ का था।
‘यमारि’ को दो विभिन्न रूपों रक्त व नीलवर्ण वाला बताया गया है। यद्यपि ‘यमारि’ के और भी रूप वर्णित हैं किन्तु सम्भवतः उपर्युक्त दो रूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध व प्रचलित थे। ऐसा कहा जा सकता है उनकी उपासना विषेषतः अन्य स्त्री व पुरूषों को मंत्रों द्वारा वषीभूत करने के लिए की जाती थी। ऐसा विवरण मिलते हैं कि वे वृषभमुखी व उनके असीन होने का स्थान भी वृषभ ही था। इस भयंकर रूप वाले देव के संबंध में एक अच्छी जानकारी तिब्बती साक्ष्यों में है। उनकी उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि एक समय एक पवित्र आत्मा व्यक्ति एक गुफा में गहन ध्यान में लगभग 50 वर्षों से लीन था, जिसके पष्चात् उसे निर्वाण प्राप्त होने वाला था। इस काल के समाप्त होने से कुछ वर्ष पूर्व दो चैरात्मा पुरुष एक चोरी किया हुआ वृषभ लेकर उस गुफा में आए व वहाँ उसका वध कर दिया। किन्तु जब उन्होंने वहाँ अपने इस दुष्कृत्य के साक्षी योगी को देखा जो उन्होंने उसका (योगी का) मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया। शीघ्र ही उन्होंने यम का भयंकर रूप ग्रहण किया तथा वृषभ का मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया तथा वृषभ का मस्तक अपने कटे हुए मस्तक के स्थान पर स्थापित कर दिया और उन दोनों चोरों को मारकर उनके कपाल को प्याला बनाकर उसमें उनके रक्त का पान किया। अपने इस तीक्ष्ण, उग्र व प्रचण्ड रूप से उन्होंने संपूर्ण तिब्बत को जन शून्य करने की धमकी दी। तिब्बतियों ने अपनी रक्षा करने वाले देव ‘मंजूश्री’ से अनुनय विनय किया। इस पर उन्होंने भयंकर ‘यमान्तक’ रूप धारण किया व यम को एक क्रूर युद्ध में परास्त किया। ‘यमारि’ को संभवतः एक मुखी, त्रिमुखी व षडमुखी, चतुर्भुजी, द्विभुजी अथा षट्भुजी माना गया।
‘द्वेष’ परिवार के स्त्री सदस्यों में ‘एक जटा’ महत्वपूर्ण है। वे नीलवर्णी, उग्र उपस्थिति वाली, भय बढ़ाने वाली, अग्नि की ज्वाला के समान ऊपर उठे हुए केषों वाली, प्रत्येक जबड़े से नुकीले दांतो वाली, व्याघ्रचर्म के वस्त्र धारण करने वाली, रक्तपूर्ण तीन नेत्रों वाली तथा बाहर निकली जिह्वा वाली मानी गई। सम्भवतः तिब्बत में एकजटा की उपासना सातवीं शताब्दी ईसवी के मध्य में सिद्ध नागार्जुन द्वारा आरंभ की गई। ‘निरात्मा’ भी द्वेष परिवार की प्रमुख देवी हैं। नौरात्मा का तात्पर्य है- आत्मा विहीन। यह सम्भवतः शून्य का दूसरा नाम है। ऐसा माना गया कि निर्वाण प्राप्ति होने पर बोधिसत्व इसी में मिल जाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि वज्रयान में शून्य की अवधारणा ने एक देवी का रूप ले लिया, जिसके शाष्वत आलिंगन में बोधिसत्व नित्य परमसुख व मोक्ष का अनुभव करता है। सम्भवतः शून्य के कारण निरात्मा का वर्ण भी नीला माना गया।
‘मोह’ परिवार के उत्पत्तिकर्ता ‘वैरोचन’ माने गए। ‘मोह’ परिवार के सदस्यों में से ‘मारीची’ व ‘वज्रवाराही’ को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। तिब्बत के लामाओं के अनुसार ‘मारीची’ की स्तुति प्रातःकाल के आगमन पर होती है। सम्भव है कि उनका संबंध सूर्य के साथ करने की चेष्टा हो। हिन्दू देवता सूर्य की भांति वह भी एक रथ पर आरूढ़ हैं। ‘मारीची’ का रथ सात सूकरों द्वारा खींचा जाता है जबकि सूर्य का रथ सात अष्वों द्वारा। सूर्य के सारथि अरूण पगविहिन है तो मारीची के सारथि राहू मात्र सिर वाले हंै। मारिची के छः विभिन्न रूपों की कल्पना की गई। उन्हें एक, त्रि, पंच अथवा षडमुखी तथा द्वि, अष्ट दष अथवा द्वादषमुखी माना गया। उनके साथ उनके चार अनुचर वर्ताली, वदाली, वराली बारहमुखी, भी माने गए। उन्हें उनके सूकर (स्त्री सूकर) द्वारा पहचाना जा सकता है। सुई तथा धागा उनके विषिष्ट प्रतीक माने गए। ‘वज्रवाराहि’ ‘मोह’ परिवार की दूसरी प्रमुख देवी हंै। सम्भवतः ‘वज्रवाराहि’ व हेरूक का संयोग ही दो प्रसिद्ध तंत्रों ‘चक्रसंमरतंत्र’ व वज्रवराहीतंत्र’ का प्रमुख विषय है। उन्हें साधनों में श्री हेरूक की प्रथम राज्ञी बताया गया है। उन्हें सम्भवतः डाकिनी भी कहा गया है। यह इसलिए भी हो सकता है कि बौद्ध तंत्र उस देवी को ‘डाकिनी’ अर्थ में सूचित करते हैं जो पुरुष देवता के साथ आलिंगनबद्ध हो।
‘राग’ परिवार के प्रमुख ‘अमिताभ’ माने गए हंै। ‘लाकेष्वर’ अथवा ‘अवलोकितेष्वर’ वज्रयान में सम्भवतः सर्वाधिक प्रचलित देव थे; क्यांेकि उन्हें ही करूणा की प्रतिमूर्ति माना गया। ‘रवसर्पण’ व ‘सिंहनाद’ उनके दो प्रमुख रूप थे। ‘कुरूकुल्ला’ को इस परिवार की देवियों में से उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। ऐसा कहा गया है कि ‘कुरूकुल्ला’ वंषीकरण के तांत्रिक कृत्य में सफलता प्रदान करती हैं। यदि उनके मंत्र को दस हजार बार जपा जाए तो किसी भी साधारण मनुष्य को वष में किया जा सकता है। ऐसा भी कहा गया है कि उनका मंत्र सर्पदंष व रोगी के शरीर में से विष को निकालने की भी शक्ति रखता है और यदि तीस हजार बार जपा जाए तो यह मंत्री को व एक लाख बार जपा जाए तो राजा को भी वष में किया जा सकता है।
चिन्तामणि परिवार के प्रमुख ‘रत्नसंभव’ माने गए। इनसे अधिक देव नहीं उत्पन्न होते हैं तथा सम्भवतः इन्हें आदि बुद्धि भी नहीं माना गया। इनके परिवार के सदस्यों में धन-वैभव के देव ‘जम्भल’ व समृद्धि की देवी ‘वसुंधरा’ प्रमुख है। ‘समय’ परिवार के प्रमुख ध्यानी बुद्ध ‘अमोधसिद्धि’ माने गए। सामान्य रूप से अधिक देव उनसे उत्पन्न हुए माने जाते हैं। एक विषिष्ट बात जो देखने को मिलती है वह यह है कि ‘विष्वपाणि’ को छोड़कर इस परिवार के सभी सदस्य स्त्री हैं। ‘खदिरवणी’ तारा व ‘पर्णषवरी’ प्रमुख देवियाँ मानी गई। जो मंत्र ‘पर्णषवरी’ के साथ संबंधित है वे उन्हें ‘पिषाची’ व सर्व ‘मारिप्रषमनी’ की भाँति सूचित करते हैं। उन्हें सर्वप्रकार के रोगों को दूर करने वाला बताया गया। यह बहुत सम्भव है कि उस समय महामारियों - हैजा, प्लेग व चेचक आदि से मुक्ति पाने हेतु पर्णषवरी की स्तुति उपासना की गई।
इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वज्रयान बौद्ध धर्म की परिकल्पना अत्यंत विस्तृत थी। इसने अपने विषिष्ट रूप से जन मानस में गहरी जड़े जमा ली थी। वज्रयान बौद्ध धर्म में बुद्ध को सामान्य मत्र्य मनुष्य मानकर, पंच ध्यानी बुद्धों को सर्वोच्च माना गया। गुरू षिष्य बोधिचित्त, अंहकार, अद्वय आदि इसके प्रमुख मत अभिप्राय व सिद्धांत थे।
तंत्रों में वर्णित धर्म, मंत्रों, मण्डलों, मुद्राओं, मेंथुन योग, विस्तृत देवकुल, जादुई कृत्यों, संकेतों, ज्यातिषविद्या, रसायन विद्या, स्त्री साहचर्य का विषिष्ट मिश्रण था। भौतिक संसार को स्पष्ट मान्यता मिली। यह मत दिया गया कि मानव शरीर में समस्त देवता श्रेष्ठतम सत्य के साथ विद्यमान रहते हैं। स्त्री का साहचर्य शक्ति साहचर्य है। यहाँ एक बात विषिष्ट थी कि निर्वाण को महासुख बताया गया। पुरुष (उपाय) व स्त्री (प्रज्ञा) के सम्मिलन (यब-युग) से महासुख की उत्पत्ति होती है। ‘म’ से उत्पन्न होने वाले निम्न पंाच-मद्य मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन को तंत्र के अंतर्गत खुली मान्यता दी गई।
सन्दर्भ:
(1) 1. षर्मा रामषरण, पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति।
(2) 1. जर्नल आॅफ द यू.पी., हिस्टाॅरिकल सोसाइटी ग्ग्प्प् (1951-52) पृ0 214 में वी.एस. पाठक द्वारा उद्घत।
(3) 1. बार्डर ए.के., इंडियन, बुद्धिज्म, दिल्ली, 1970, पृ0 485
   2. बार्डर ए.के. इंडियन बुद्धिज्म, दिल्ली, 1970, पृ0 487
(4) 1. चक्रवर्ती चिन्ताहरण, द तंत्र स्टडीज आॅन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर, पृ0 21
   2. बागची पी.सी., स्टडीज इन द तंत्रण, पृ0 74
   3. चक्रवर्ती चिन्ताहरण,  द तंत्र स्टीइज आन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर, पृ0 343
(5) 1. बनर्जी जे.एन., पौराणिक एण्ड तांत्रिक रिलीजन, पृ0 130-31
   2. पांडे के.सी., अभिनव गुप्त, एन. हिस्टोरिकल एण्ड फिलाॅसिफिकल स्टडी, वौपांवा, बनारस, 1435-85
   3. वही, पृ 4
(6) 1. मजूमदार आर.सी., ‘हिस्ट्री आॅफ बंेगाल’, पृ0 325, पाद टिप्पणी - 4
(7) 1. जनरल आॅव बिहार एण्ड ओरिसा रिसर्च सोसाइटी, 1928, पृ0 341
   2. जर्नल एषियाटिक, ब्ब्ग्ग्ट, 1934, पृ0 209
   3. जर्नल एषियाटिक ब्ब्ग्ग्ट, पृ0 211
(8) ‘‘तत्वसंग्रह’’, पृ0 ग्स्टप्प्
(9) 1. गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज में प्रकाषित ‘वज्रयान ग्रंथ द्वय’।
(10) 1. पृ0 18, ष्लोक - 22
‘अनल्पसंकल्पतओऽभिकूतं प्रभंजनान्यत्तताईच्चलं च। रागा दिदु र्वारअलावालिप्तं चितं हि संसारभुवाचवज्री।।’’
(11)  1. पृ0 18, ष्लोक - 23
‘‘प्रभास्वरं कल्पनमा विमुक्तं प्रहीणरागाविमल प्रलेपम्। ग्राह्यं न च याहकमग्रसत्वं तदेव निर्वाणवरं जगाद।।’’
(12) 1.पृ 453, 455
    2. भट्टाचार्य बी. - ‘एन इन्ट्रोडक्षन टू बुद्धिस्ट एसोटेरिज्म, पृ0 43, टिप्पणी - 3
    3.बागची, इण्डियन हिस्टाॅरिकल क्र्वाटरली 6
    4.वेडेल - ‘लामाइज्म’, पृ0 380 पृ0 576
(13) 1.‘पग-सम-जोन-जंग’, पृ0 ब्ग्स्प्
    2. भट्टाचार्य बी. एन इन्ट्रोक्षन टू बुद्धिस्ट एसोटेरिज्म’ पृ 45, इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली-जिल्द 2, जून, पृ 354
    3.पृ ब्ग्ट
(14) 1. दत्त एन., द एज आॅव इम्पीरियल कन्नौज, पृ॰ 265-66
   2. दासगुप्ता एन.एन., द स्ट्रगल फाॅर एम्पायर, पृ 406
(15) 1. ‘वज्रनाथ ग्रंथ द्वय’ गायकडवाड़ ओरियण्टल सीरीज, सं 44, पृ 12,  ष्लोक 9-16
(16) 1. अद्वयवज्रसंग्रह - अध्याय - 1, पृ 1
    2. ‘‘चक्रसम्भार तंत्र’’ (तांत्रिक ग्रंथ), भूमिका, पृ ग्ग्ग्प्प्
(17) 1. ‘वज्रयान ग्रंथ द्वयं’, पृ 75
(18) 1. साधन माला, पृ 318
(19) 1. ‘साधन माला’, पृ 111, अनित्य श्रेणिका
    2. ‘साधन माला’, पृ 82
(20) 1. अद्वय वज्र संग्रह, पृ0 51
(21) 1. अद्वयवज्र संग्रह, पृ 50 ‘‘षून्यता बोधितो बींज बीजा हिम्बं प्रजायते। सिम्बे च न्यासविन्यासौ आदि।
    2.साधन माला, पृ 47, 64
    3.‘वज्रयान ग्रंथ द्वय’
(22) 1. ‘साधन माला’, पृ 556, कर्मानुरूपतो वर्ण, पृ0 395

डाॅ0 जी0 यस0 तिवारी एवं सुनीता पाण्डेय
प्राचीन इतिहास विभाग,
के0एस0 साकेत महाविद्यालय, अयोध्या,
फैजाबाद, उ0प्र0