Wednesday 2 January 2013

भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्य शब्द के पर्याय


अनुराधा शुक्ला

सौन्दर्य एक भावना है जिसे हम अपने दैनिक जीवन में अपनी इन्द्रियों द्वारा अनुभव करते हैं। सौन्दर्य का स्पष्ट गुण सुख है, सुखानुभूति एक सकारात्मक अनुभूति है। सुन्दर वस्तु पाने की इच्छा ही सौन्दर्य-बोध है तथा सौन्दर्य का विश्लेषण करने वाले शास्त्र को ‘सौन्दर्य- शास्त्र’ नाम से बोधित किया गया है। सौन्दर्यबोध ही सौन्दर्य-शास्त्र की प्रथम कड़ी है। पाश्चात्य काव्य शास्त्र में सौन्दर्य शब्द के लिए ब्यूटी शब्द का प्रयोग किया जाता है किन्तु भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्य शब्द के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है। वेदों एवं उपनिषदों में भी सौन्दर्य शब्द का साक्षात् रूप उपलब्ध नहीं है। अपितु उसके वाचक व्य्ंजक शब्दों का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। संस्कृत वाङ्मय में सुन्दर शब्द के निम्नलिखित पर्याय प्राप्त होेते है:-

‘‘सुन्दर रुचिरं चारू सुषमं साधु शोभनम्। कान्तं मनोरमं रूच्यं मनोज्ञं मंजु मंजुलम्।
अभीष्टेऽभीप्सितं हृदयं दयितं बल्लभ प्रियम्।।’’1
प्रो0 ब्रजमोहन चतुर्वेदी ने ‘सौन्दर्यकारिका’ नामक कृति में सौन्दर्य पद के चित्ताह्लादक भाव की प्रतीति कराने वाले अट्ठारह पर्यायवाची शब्दों को उद्दिष्ट किया है-
रमणीयता च शुचिता लावण्यं चारूता च सौन्दर्यम्।
शोभा कान्तिः सुषमा श्रीश्च रूपं च सौकुमार्यम्।।
सौभाग्यं विच्छित्तिः कला च मुग्धताऽथ मनोहारिता।
अभिरामता मधुरता दश चाष्टौ सौन्दर्य पर्यायाः।।2
इस प्रकार सौन्दर्य शब्द की वस्तुपरक एवं भावपरक अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाले पर्याय है- सुन्दर, रमणीयता, शुचिता, लावण्य, चारूता, शोभा, कान्ति, सुषमा, श्री, रूप, सौकुमार्य सौभाग्य, विच्छिति, कला, मुग्धता, मनोहारिता, अभिरामता आदि।
सुन्दर शब्द ‘सु’ उपसर्ग पूर्वक ‘उन्द’ धातु से ‘अरन्’ प्रत्यय लगकर बनता है।3 जिसका अर्थ है- सु अर्थात सुष्ठु या अच्छी प्रकार अर्थात आर्द्र करना और अरन् कर्तृवाचक प्रत्यय अर्थात सुन्दर। इस प्रकार सौन्दर्य शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ है- ‘भली-भँाति आर्द्र या सरस करने वाला’। सुन्दर शब्द की एक और व्युत्पत्ति भी होती है। सुन्दराति इति सुन्दरम् तस्य भावः सौन्दर्य।4
अंग्रेजी में सौन्दर्य शब्द का पर्याय ठमंनजल है।5  ठमंऩजल न्यू अर्थात प्रिय रसिक अथवा श्रृङ्गारी पुरुष तथा जल भाववाचक प्रत्यय है। इस प्रकार इसका अर्थ है- ‘रसिक का भाव या रसिकता अथवा श्रृङ्गारी पुरुष का गुण’।
रमणीयता शब्द का प्रयोग भी सौन्दर्य के पर्याय के रूप में किया है। ‘रमु क्रीडायां’ धातु में ‘अनीयर प्रत्यय’ के योग के द्वारा रमणीयता शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। रमणीय का भाव ही रमणीयता है। नित्य नवीनता का भाव ही रमणीय है। महाकवि माघ ने चिर-नवीन आकर्षण का पर्याय सौन्दर्य को माना है। तथा रमणीयता को परिभाषित करते हुए लिखा है- ‘‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः’’।6 पण्डितराज जगन्नाथ ने भी काव्य-लक्षण में रमणीयता अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य माना है रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्ः।7
शुचिता शब्द ‘इशुचिर् पूतिभावे’ धातु से कृदन्त ‘इन् प्रत्यय’ के द्वारा शुचि पद निष्पन्न हुआ है। शुचिता का अर्थ है- पवित्रता। वस्तु या विषय का वह धर्म जो हृदयाङ्गम होते ही मन को पवित्रता से ओत-प्रोत कर दे वह ‘शुचिता’ कहलाता है। सौन्दर्य एवं शुचिता दोनों के पर्याय भिन्न-भिन्न होते है। सौन्दर्य की परिणति जहां आनन्द में होती है। वहीं शुचिता की परिणति प्रसन्नता में होती है।
लावण्य पद ‘लुनाति इति लवणं’ के द्वारा ‘लू’ छेदने धातु के कर्ता अर्थ में ‘ल्युट्’ प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न होता है। ध्वनिवादी आचार्य अभिनवगुप्त ने लावण्य पद को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि- ‘‘लावण्य अवयव- संस्थानों से अभिव्य्ंजित होने वाला अवयवों से व्यतिरिक्त उनका एक भिन्न धर्म होता है। अवयवों की निर्दोषता या अलङ्कारता लावण्य नहीं है अपितु वह उनसे व्यतिरिक्त विलक्षण वस्तु है।’’8
      माधुर्य शब्द ‘मधु$रा’ तथा ‘क प्रत्यय’ के संयोग से निष्पन्न हुआ है। ‘मधु माधुर्यम् अस्ति अस्य’ अर्थात माधुर्य युक्त। आनन्दवर्धन ने मधुर का अर्थ ‘परप्रहलादन’ किया है।9 काव्यशास्त्र में भी माधुर्य गुण को प्रसाद एवं ओज गुण से अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। माधुर्य गुण के द्वारा सहृदय का चित्त शीघ्रता से द्रवित हो जाता है। मधुरता का सम्बन्ध हृदय की आर्द्रता से है।
मनोहरता का अर्थ है-‘‘वह तत्त्व जो मन को हरने में समर्थ हो।’’ प्रो0 ब्रजमोहन चतुर्वेदी ने कहा है कि सौन्दर्य के विविध पक्ष हमारी इन्द्रियों के विषय होते है और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करते है। उनके द्वारा ही वे व्यक्ति पर जब अपना प्रभाव प्रकट करते है किन्तु कुछ ऐसे भाव है जिनका ग्रहण साक्षात् मन से ही होने लगता है क्योंकि इन्द्रियाँ शिथिल होने के कारण उनके ग्रहण में समर्थ नहीं हो पाती उन्हीं को मनोहर कहते हैं जिनका भाव मनोहारिता है।10
सौकुमार्य अथवा सुकुमारता पद का भी प्रयोग सौन्दर्य शब्द के पर्याय के रूप में उपलब्ध होता है जिनका भाव है-‘सौम्य’। सौम्य पद के द्वारा व्यक्ति के आन्तरिक गुण कोमलता, मृदुता आदि का बोध होता है। भवभूति ने भी उत्तररामचरितं में सीता की सुकुमारता का वर्णन करते हुए कहा है कि -
‘‘किसलयमिव मुग्धं बन्धनाद् विप्रलूनं, हृदयमलशोवी दारूणो दीर्घशोकः।।
ग्लपयति परिपाण्डु क्षाममस्याः शरीरं, शरदिज इव धर्मः केतकीगर्भपत्रम्।।11
व्यक्ति या वस्तु के वे गुण जिनका बोध उसके क्रिया-कलापों से होता है, वे चारुता कहलाते है। चारुता मुख्यतः वस्तु या व्यक्ति में निहित धर्म है। प्रसन्नता में ही चारूता की परिणति होती है। किसी व्यक्ति या वस्तु के किसी विशिष्ट गुण पर आकृष्ट होना सौभाग्य है। महाकवि कालिदास ने चारुता को परिभाषित करते हुए कहा है कि- ‘‘प्रियेषु सौभाग्य फला हि चारूता’’12 भामह ने चारुता के विषय में कहा है कि- ‘‘न नितान्तादिमात्रेण जायते चारूता गिराम्’’13 अर्थात् किसी भी वस्तु या व्यक्ति विशेष के रूप में नितान्त आदि पदों का प्रयोग करने से अभिव्यक्ति में चारुता नहीं होती।
शोभा शब्द ‘शुभ्’ धातु से करण अर्थ में ‘घ्ं’ प्रत्यय के द्वारा ‘शोभन्ते अनया’ की व्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न हुआ है। प्राकृतिक वस्तुओं के रूपात्मक सौन्दर्य को शोभा शब्द के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। काव्य शास्त्रीय आचार्य वामन ने भी गुणों को शोभा का स्वरूपाधायक तत्त्व माना है- ‘‘काव्य शोभायाः कत्र्तारो धर्मा गुणाः’’।14
कान्ति पद ‘‘कमु कान्तौ’ धातु से स्त्री विवक्षा में ‘क्तिन् प्रत्यय’ के द्वारा निष्पन्न हुआ है। कान्ति का अर्थ है-‘चमक’ वस्तु की कान्ति ही दर्शक को उसे प्राप्त की इच्छा का मूल कारण स्वीकार किया जाता है।
‘श्रयतीति श्रीः’ अर्थात् श्री धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय के द्वारा श्री पद व्युत्पन्न होता है। यह पद जन्म से ही प्राप्त होता है। यह वस्तु या व्यक्ति के सहज धर्म का द्योतक होता है। श्री पद का सम्बन्ध आरोपित सौन्दर्य से न होकर स्वाभाविक एवं सहज सौन्दर्य से है।
सौन्दर्य के लिए रूप शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। रूप गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ ‘उज्ज्वलनीलमणि’ में ‘‘रूप’’ को परिभाषित करते हुए लिखा है-
‘‘अङ्गान्यभूषितान्येव केनचिद् भूषणादिना। येन भूषितवद् भान्ति तद्रूपमिति कथ्यते।।’’15
अर्थात् व्यक्ति के वाह्य अङ्गों के सौन्दर्य को ‘रूप’ शब्द के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।
विच्छित्ति पद ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक ‘छिद्’ धातु से ‘क्विन्’ प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न होता है। यह वस्तु एवं व्यक्ति का आन्तरिक धर्म है। यह सौन्दर्य के उस पक्ष को व्यक्त करता है, जिसके अवबोधन से इन्द्रियों का उनके विषयों से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है।
अभिरामता शब्द का प्रयोग उस सन्दर्भ में किया जाता है जहाँ व्यक्ति या वस्तु आभ्यान्तर एवं वाह्य उभयविध सौन्दर्य से संवलित हों।
सौन्दर्य के पर्याय रूप में सौभाग्य पद का प्रयोग होता है। सुभग का भाव ही सौभाग्य है। सौभाग्य पद सु उपसर्ग पूर्वक भाग्य पद के द्वारा व्युत्पन्न हुआ है। किसी व्यक्ति या वस्तु का सर्वोत्कृष्ट गुण सौभाग्य है।
सुषमा शब्द का प्रयोग भी सौन्दर्य के पर्याय के रूप में किया जाता है। वस्तु एवं व्यक्ति के वाह्य अंगों की परस्पर अनुरूपता में निहित धर्म सुषमा कहलाता है।
कला शब्द ‘कल्’ धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है- प्रकट करना, गिनना तथा संकलन करना। इस प्रकार कला वह मानवीय क्रिया है जिसका विशेष लक्षण ध्यान से देखना, गणना अथवा संकलन, मनन, चिन्तन एवं स्पष्ट रूप से प्रकट करना है।
निष्कर्षतः शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर कहा जाता है। शब्दार्थ शरीर को चमत्कृत करने के लिए जिन तत्वों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें विभिन्न आचार्य रस, ध्वनि आदि नामों से अभिहित करतेे हंै। उन्हीं को भारतीय साहित्य में विभिन्न आचार्यों ने चारुता, लावण्य, चमत्कार आदि शब्दों से विभूषित किया है। इस प्रकार सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने वाले विभिन्न पर्यायवाची शब्द एक दूसरे से सूक्ष्म दृष्टि से अन्तर रखते हंै।
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची
1. अमरकोश, तृतीय कारिका, पृ.- 52-53
2. आप्टे वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दीकोश, पृ.- 115
3. शर्मा अंजु, निराला की सौन्दर्य चेतना, पृ.- 15
4. वाचस्पत्यम्, पृ.- 5314
5. डाॅ. नगेन्द्र, भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका, पृ.-34
6. शिशुपालवधम्, 4/17
7. पण्डितराज जगन्नाथ, रसगङ्गाधरम, 1/1
8. पाठक जगन्नाथ, ‘लावण्यं हि नामावयवसंस्थानामिव्यंग्यमवयव्यतिरिक्तं धर्मान्तरमेव न चावायवानामेव निर्दोषता वा भूषणयोगी वा लावण्यम्’। ध्वन्यालोकलोचन, कारिका- 4 की वृत्ति
9. व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर, ध्वन्यालोक, कारिका- 2.7
10. चतुर्वेदी प्रो. बृजमोहन, भारतीय सौन्दर्यदर्शन, पृ.- 21
11. उत्तररामचरितम्, 3/5
12. अभिज्ञानशाकुन्तलम, चतुर्थ अङ्क, पृ.-96
13. भामह, काव्यालङ्कारम्, 1/26
14. वामन, काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति, 3/1/1-2
15. रूपगोस्वामी, उज्ज्वलनीलमणि, 11/23

अनुराधा शुक्ला
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद