Wednesday 2 January 2013

सर्वोदय की अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन

सुधांशु कुमार

सर्वोदय समाजिक आदर्श का एक सम्प्रत्यय है जिसका प्रतिपादन गाँधी जी ने सत्य अहिंसा एवं अद्वैत के मूल भावना को साकारित करने के लिए किया था। सर्वोदय वस्तुतः समाज के समस्त वर्गों के पुनरूत्थान का एक अद्वितीय मानवीय प्रयास है। जिसका लक्ष्य एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है जिसमें शोषण, संघर्ष एवं प्रतियोगिता के स्थान पर प्रेम एवं सहयोग, विषमता के स्थान पर समता वर्गहित के स्थान पर सर्वहित की मंगल कामना निहित होती है। गाँधी सर्वोदय को जीवन दर्शन के मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार करते हैं। गाँधी के इस धारणा का पोषण एवं व्यावहारिक रूप कालांतर में आर्चाय विनोवा भावे, जय प्रकाश नारायण आदि ने देने का प्रयास किया।

सर्वोदय की अवधारणा पर उपनिषद, गीता, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन के बोधिसत्व, वेदांत दर्शन के साथ-साथ बाइबिल और कुरान की शिक्षाप्रद बातों का प्रभाव था। पुनः गाँधी के सर्वोदय पर थोरो, टालस्टाय, रस्किन आदि के विचारों का भी प्रभाव था। गाँधी रस्किन की पुस्तक अनटू दी लास्ट से विशेष रूप से प्रभावित थे। इसमें तीन बाते थी।
1. व्यक्ति का हित समष्टि के हित में समाहित है।
2. सभी लोगों की श्रम की कीमत एवं महत्ता बराबर है।
3. कामगार का जीवन ही सच्चा जीवन है। अर्थात् उत्पादन प्रक्रिया में श्रम महत्वपूर्ण है।
रस्किन के इन बातों से गाँधी ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव जीवन का कल्याण तभी हो सकता है जब विश्व के अंतिम व्यक्ति का भी कल्याण हो। गाँधी ने इस विचार के अनुरूप ही सर्वोदय के विचार को स्थापित करने का प्रयास किया।
सर्वोदय दो शब्दों के योग से बना है। पहला सर्व तथा दूसरा उदय। यहाँ सर्व का आशय है सभी का और सभी प्रकार से, जबकि उदय, उत्थान परिष्करण या कल्याण को इंगित करता है। ‘यहाँ सभी का से तात्पर्य अमीर-गरीब स्त्री-पुरूष आदि सबसे है तथा ‘सभी प्रकार का’ से आशय जीवन के समस्त पक्षों अर्थात् सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं धार्मिक पक्ष से है। इस प्रकार सर्वोदय का अर्थ समाज के सभी वर्गों के जीवन के सभी पक्षों के सर्वांगीण उत्थान से है। यहाँ जाति धर्म, वर्ण, समुदाय, लिंग, सम्पत्ति जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेद-भाव को स्वीकार नहीं किया गया है। यहाँ गरीब के उत्थान से तात्पर्य है, उनका भौतिक कल्याण जबकि अमीर के उत्थान का तात्पर्य इनके नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान से है। सर्वोदय के इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए दादा धर्माधिकारी कहते हैं कि सर्वोदय ऐसे वर्ग विहीन, जाति विहीन, शोषण विहिन समाज का स्थापना करना चाहता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समूह को अपने सर्वांगीण विकास के साधन एवं अवसर उपलब्ध होंगे। सर्वोदय की अवधारणा गुणात्मक, मात्रात्मक एवं भावनात्मक रूप से अन्य समकालीन अवधारणओं से श्रेष्ठ है।
मात्रात्मक रूप से:- उपयोगितावाद के अनुसार अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुखी जीवन का चरम आदर्श है। यहाँ अधिकतम शब्द संख्या को संकेत करता है जबकि सर्वोदय के सर्व में सबका समावेश होता जा रहा है। इसमें अखण्डता, समग्रता एवं अद्वैत का बोध होता है। पुनः उपयोगितावाद में अधिकतम के हित के लिए कुछ लोगों को साधन बनाया जा सकता है। सर्वोदय में यह असंभव है। माक्र्सवाद में वर्ग हित की बात निहित है जबकि सर्वोदय में सबके हित की मंगल कामना निहित है।
गुणात्मक रूप सेः- बेंथम के उपयोगिता में सुखों में गुणात्मक भेद नहीं माना गया है। यहाँ भौतिक सुखों की वरीयता दी गयी है। माक्र्स जीवन के आर्थिक पक्ष के उत्थान पर बल देते हैं जबकि सर्वोदय की अवधारणा में जीवन के समग्र उत्थान की बात है। यहाँ भौतिक उत्थान के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान को भी महत्ता दी गयी है।
भावनात्मक रूप से:- डार्विन मनुष्यों के बीच संघर्ष को स्वाभाविक मानते हैं और योग्यतम के जीवन रक्षा की बात करते हैं जबकि सर्वोदय में परस्पर सहयोग की भावना निहित है। यहाँ प्रेम त्याग और अहिंसा के माध्यम से सबकी कल्याण की बाित कही गयी है। ‘जीयो और जीने दो’ का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं इससे मनुष्यों के बीच तटस्थता उदासीनता, सह-अस्तित्व मात्र का भाव उभरता है जबकि सर्वोदय की अवधारणा में प्रेम सहयोग एवं सह-अस्तित्व के साथ-साथ सह-सम्पन्नता का भाव भी निहित है। हाब्स मनुष्य को स्वभावतः स्वार्थी मानते हैं। जबकि सर्वोदय की विचार में गाँधी मनुष्य में ईश्वरीय अंश की विद्यमानता के कारण उसे मूलतः अच्छा आदमी मानते हैं।
गाॅधी सर्वोदय समाज में सभी व्यक्तियों के श्रम करने पर बल देते है ताकि उनका आर्थिक विकास सुनिश्चत हो सके तथा उनमें निर्भरता का भाव समाप्त हो सके। गाॅधी नाई और वकील दोनों के श्रम की कीमत की महत्ता समान मानते है। वस्तुतः गाॅधी का मत्तव्य यह था कि शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम में आथर््िाक और सामाजिक विषमता स्थापित नहीं होनी चाहिए। गाॅधी जी भारतीय सन्दर्भ में कुटीर एवं लघु उद्योगों का समर्थन करते है। इसमें सभ्ी व्यक्ति स्वावलम्बी बनकर अपना भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान सुनिश्चत कर सकता है। गाॅधी जी सर्वोदय समाज की स्थापना के लिए पवित्र साधनों को स्वीकार करते है। यहाॅ सर्वोदय के साधन के रूप में सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह, शुद्ध चित्त, भूदान, गा्रमदान आदि को स्वीकार किया गया है।
इस प्रकार सर्वोदय की अवधारणा में त्याग और हृदय परिवर्तन के तर्क द्वारा विचार परिवर्तन, शिक्षा के द्वारा संस्कार परिवर्तन एवं पुरुषार्थ के द्वारा स्थिति परिवर्तन के माध्यम से क्रांति करने पर जोर दिया जाता है। ऐसी क्रांति ही पूर्ण एवं स्थायी क्रांति होगी जो जीवन के समस्त पक्षों पर प्रभाव डाल सकती है। ऐसी क्रांति में प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा, समाज में प्रेम और सहयोग का वातावरण तैयार होगा।
सन्दर्भ-
1. डाॅ0 रमेन्द्र, समाज राजनीति एवं धर्म दर्शन, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी
2. पाठक राममूत्तर््िा, सामाजिक-राजनीति दर्शन की रूपरेखा, अभिमन्यु प्रकाशन इलाहाबाद
3. शर्मा देवदत्त, गाॅधी और विश्वशान्ति, अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, 1960
4. डाॅ माथुर एस0, समाज मनोविज्ञान, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा 1976
5. महाजन विद्याधर, आधुनिक भारत का इतिहास, एस चन्द एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली

डाॅ0 सुधांशु कुमार
पी0-एच0डी0, पटना विश्वविद्यालय, पटना।