Wednesday 2 January 2013

महाकाव्यों का उद्भव और विकास

सन्ध्या शुक्ला

लोकविश्रुत देववाणी संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं की शिरोमुकुट उदात्त एवम् उज्ज्वल विचारों की मनोरम मंजूषा, प्राचीन भारत के साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन की कमनीय कुंजिका तथा पुरुषार्थ चतुष्टय की निर्मल मुकुर है। इस भूमण्डल पर सर्वाधिक प्राचीन कही जाने वाली यही आर्यों की गीर्वाणवाणी है। संस्कृत साहित्य भारत का राष्ट्रीय गौरव है, वह भारतीय संस्कृति का निर्मल दर्पण है। उसमें हमे अपने गौरवमय अतीत की झाँकी देखने को मिलती है।1
भारतीय काव्य के निर्माण की पूर्व प्रेरणा कवियों को रामायण तथा महाभारत जैसे महनीय महाकाव्यों के अध्ययन से प्राप्त हुई। प्रस्तुत है महाकाव्य के उद्भव और विकास का निरूपण-
महाकाव्य के विकास का इतिहास
रूपगत विकास शैलीगत विकास
वैदिक काल वीर महाकाव्य काल लौकिक महाकाव्य काल प्रसादात्मक शैली अलंकारात्मक शैली श्लेषात्मक शैली
आख्यान, देवस्तुति, भाव प्रधानता रामायण, महाभारत, भाव एवं आख्यान तत्वों की प्रधानता कालिदास एवं परवर्ती काव्यकार, भावपक्ष की अपेक्षा कला पक्ष उदात्त यह शैली रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है यह शैली भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। यह शैली द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है।
द्वयर्थक
काव्य-धनंजय-द्विसन्धानकाव्य कविराजसूरिकृत-राघवपाण्डवीय त्र्यर्थक काव्य-राघवचूड़ामणिदीक्षित राघवायादवपाण्डवीय।
महाकाव्यों का उद्भव ऋग्वेद के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और उषा आदि के स्तुति मन्त्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन आख्यान आदि का वृहद रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में परिवर्तित हो गया। क्रौंच वध से खिन्न मन वाले महाकवि वाल्मीकि के वाणी से प्रस्फुटित व्याध्या-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठा त्वम्) वाल्मीकि कृत रामायण के रूप में आदिकाव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया, तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ।2 वाल्मीकि रामायण काव्यरूपी गंगोत्री का उद्गम है जहाँ से विभिन्न कवियों को काव्यस्रोतस्विनी रूपी मन्दाकिनी अविरल प्रवाहित हो रही है। रामायण के बाद वेदव्यास कृत महाभारत भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गया। रामायण और महाभारत आगे चलकर परवर्ती काव्यों और महाकाव्यों के लिए उपजीव्य ग्रन्थ हो गये।3
रामायण और महाभारत के प्रणयन के उपरान्त प्राप्त होने वाले विपुल महाकाव्य साहित्य के बीज वैदिक साहित्य में खोजना व्यर्थ सा ही है। किन्तु भारतीय परम्परा वेद को ही प्रत्येक शास्त्र काव्य आदि का उत्पत्ति स्थल मानती रही है। वैदिक ऋषि की सर्वाधिक मनोहर कल्पनाएं ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ प्रस्फुटित हुई है।4 देवस्तुति के अतिरिक्त नराशंसियों में भी काव्यस्वरूप झलकता है। तत्कालीन उदार दानी राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ ही नराशंसी कहलाती है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ की सप्तम पंचिका में ‘शुनः शेप आख्यान’ एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’ के अनेक अंश सुन्दर काव्य ही छटा बिखेरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्य तत्वों का अस्तित्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं प्राप्त नहीं होता है। संस्कृत महाकाव्य धारा का मूल उद्गम स्थल आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी प्रवृत्तियों का सम्यक् दर्शन हो जाता है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य पर इस आदिकाव्य का दाय प्रत्येक साहित्यानुरागी को विदित ही है।
संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों के विकास परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ पाणिनि, वररूचि तथा पतंजलि का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।5 आचार्य रुद्रट कृत ‘काव्यालंकार सूत्र’ के टीकाकार नेमिसाधु ने पाणिनी के द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविज’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के महाभाष्य (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध है। इन प्रमाणों के आधार पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनी द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में ‘राजशेखर’ ने पाणिनी को व्याकरण तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है।
‘‘नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।6
‘वररूचि’ के नाम से भी अनेक सुन्दर श्लोक विभिन्न सुभाषित संग्रहों में उपलब्ध होते हैं। न केवल ‘सुभाषितावलि’ तथा शारंगधरपद्धति’ में ही इनके पद्य पाए जाते हैं। बल्कि इससे भी प्राचीन ‘सदुक्तिकर्णमृत’ में वररूचि कृत श्लोकों की उपलब्धि होती है। पतंजलि ने वररूचि के बनाये हुए किसी काव्यग्रन्थ (वाररूचं काव्यं) का उल्लेख महाभारत में किया है। ‘‘यथार्थता कथं नाम्नि मा भूद वररूचेरिह। व्यघत्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः।।’’7
वररूचि कृत महाकाव्य का नाम ‘कण्ठाभरण’ है। वररूचि ने पाणिनी का अनुसरण ‘वार्तिक’ लिख कर ही नहीं किया प्रत्युत, काव्य रचना से भी उसकी पूर्ति की।
‘पतंजलि’ ( 150 ई0पूर्व) ने अपने महाभाष्य में दृष्टान्त के ढंग पर बहुत से श्लोकों या श्लोक खण्डों को उद्धृत किया। जिनके अनश्ुाीलन से संस्कृत काव्यधारा की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है। ‘छन्दशास्त्र’ के अनुशीलन से भी महाकाव्य की प्राचीनता विषदरूपेण प्रमाणित होती है। काव्य अपने रूचिर निर्माण तथा रचना के निमित्त शान्त वातावरण, आर्थिक समृद्धि तथा सामाजिक शान्ति की जितनी अपेक्षा रखता है उतनी ही वह किसी गुणग्राही आश्रयदाता की प्रेरणा की भी।8 प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष विक्रमादित्व का है।9 इसी युग में भारतीय संस्कृति के उपासक हमारे राष्ट्रीय कवि कालिदास का काव्याकाश मे उदय होता है। कालिदास को ही वस्तुतः प्रौढ़ परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्य शैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है।10 उन्होंने जो आदर्श उपस्थित किया वह परकालिन कवियों एवं महाकवियों के लिए अनुकरणीय हुए।
संस्कृत महाकाव्य के विकास को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
1. कालिदास के पहले का समय जिसमे कथानक की प्रधानता रही। रामायण और महाभारत इस समय के आदर्श काव्य है।
2. कालिदास का समय जिसमे आडम्बरों में रहित, सहज एवं सरल ढंग से भाव तथा कला का मंजुल समन्वय स्थापित करके काव्य की धारा प्रवाहित हुई। जैसे- ‘रघुवंशम’ और कुमारसम्भवम्’ इत्यादि।
3. कालिदास के बाद का समय जिसमें काव्य लेखन भाषा और भाव की दृष्टि से क्लिष्ट होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसकी परम्परा ‘भारवि’ से शुरू होकर ‘श्रीहर्ष’ की रचना तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और एक वैदग्ध तथा पाण्डित्यपूर्ण परम्परा का निर्माण होता है।
विद्वानों ने कालिदास के पूर्ववर्ती कवि व्यास और वाल्मीकि को ऋषिकोटि में माना है। इनकी रचनाओं में सरलता और स्वाभाविकता का पुट है। संस्कृत साहित्य में महाकवि ‘भारवि’ का नाम विशेष उल्लेखनीय रहेगा क्योंकि संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में समय एवं कवित्व दोनों दृष्टियों से कालिदास के बाद भारवि का प्रमुख स्थान है।11 इनका एकमात्र महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ है जो अपनी अर्थपूर्ण उक्तियों के लिए विद्वान्मण्डली में लोकप्रिय हो गया। इसके बाद उसी कोटि का महत्वपूर्णकाव्य ‘माघ’ का ‘शिशुपालवधम्’ है। कवि के नाम पर इसे ‘माघकाव्य’ भी कहा जाता है।12 संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा में कालक्रम के अनुसार सबसे अन्तिम और महत्वपूर्ण काव्य 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया महाकवि ‘श्रीहर्ष’ का ‘नैषधीयचरितम्’ है। इन्होंने अपने महाकाव्य को तत्कालीन समाज में प्रचलित परम्परा के अनुरूप ही आगे बढ़ाया और उस शैली के विकास को चरम तक पहुँचा दिया।13
इस प्रकार महाकाव्य के विकास पर दृष्टिपात करने से स्पष्टतः प्रतीत होता है। कि आरम्भिक युग में नैसर्गिकता का ही काव्य में मूल्य था।14 वहीं गुण आदर की दृष्टि से देखा जाता था। कवियों ने अपने काव्यों में अक्षराडम्बर तथा अलंकार विन्यास की ओर अपना दृष्टिपात किया और उन्हें ही काव्य का जीवन मानने लगें।
संदर्भ ग्रन्थ
1. द्विवेदी कपिल देव, संस्कृत साहित्य का इतिहास
2. वाल्मीकि रामायण
3. आदिपर्व 1/68-69
4. ऋग्वेद: उषस् सूक्त
5. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास (वाराणसी 1969 पृष्ठ 416)
6. राजशेखर,  सूक्तिग्रन्थ
7. पतंजलि, महाभाष्य 4/2/65
8. आचार्य उपाध्याय बलदेव संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 137, 138
9. उपाध्याय गुप्त साम्राज्य का इतिहास - 2 पृष्ठ 100
10. ए0ए0 मैक्डोनेल: ए हिस्ट्री आॅफ संस्कृत लिटरेचर पृ0 343
11. भारतीय साहित्य शास्त्र ‘दूसरा खण्ड’ पृष्ठ 186, 196
12. डाॅ0 व्यास: संस्कृत कवि दर्शन
13. कीथ: ए हिस्ट्री आॅफ संसकृत लिटरेचर पृ0 140
14. गैरोला वाचस्पति, संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ0 756

सन्ध्या शुक्ला
शोधच्छात्रा, उ0प्र0रा0ट0मु0 विश्वविद्यालय।