Wednesday 2 January 2013

विकास नीति और पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन


अवधेन्द्र प्रताप सिंह

भारत में स्वतंत्रयोत्तर समग्र विकास की अपरिहार्यता सीमित संसाधनों के कारण एक गम्भीर चुनौती बन कर खड़ी होती है। संसाधन से तात्पर्य मानव के भौतिक पर्यावरण में मौजूद उन सभी वस्तुओं से है जिस पर वह अपनी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर होता है। भूमि, जल, बन आदि प्राकृतिक संसाधन इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं। जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विलियम जे0 बाॅमाल कहते हैं कि- ‘‘प्राकृतिक संसाधन आर्थिक संवृद्धि के महत्वपूर्ण निर्धारक होते है।1 इसीलिए देश के भौतिक विकास के साथ साथ उत्पादक गतिविधियों हेतु उर्जा की तीव्र माॅग और उपभोग का स्तर भी बढ़ता जाता है। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं0 जवाहर लाल नेहरू के निर्देशन में दीर्घ कालीन उर्जा आयोजन और भविष्य के लिए उर्जा युक्ति पर सुझाव हेतु गठित भारतीय ऊर्जा सर्वेक्षण समिति (1965), ईंधन नीति समिति, ऊर्जा विषयक कार्यकारी दल आदि द्वारा, एकीकृत दीर्घकालीन उर्जा आयोजन की आवश्यकता पर जोर दिया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विशेषकर द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-1961) से ही तीव्र औद्योगीकरण की आॅधी ही चल पड़ती है जिसमें पर्यावरण की उपेक्षा करते हुए अन्ध विकास को ही प्राथमिकता दी जाती है। नदी घाटी परियोजनाओं के माध्यम से बड़े बड़े बांधों के निर्माण की अनवरत श्रृंखला प्रारम्भ कर दी जाती है। प्रधानमन्त्री नेहरू द्वारा तत्कालीन विकासनीति के अन्तर्गत बांधों की अपरिहार्यता को देखते हुए इसे ‘‘आधुनिक सभ्यता का मन्दिर’’ कहकर इसे सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक सभी प्रकार का प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है।
भारत की ऊर्जा नीति जो प्रारम्भ में विकास नीति का ही मूल पर्याय होती है, का सबसे बड़ा आधार बनते हैं विभिन्न नदी घाटी परियोजनाओं के तहत निर्मित होने वाले बड़े बड़े बांध। भाखड़ा नांगल बांध परियोजना, दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड परियोजना और नर्मदा बांध परियोजना टिहरी बांध परियोजना आदि इसी विकास नीति के प्रतिफल है। स्वतंत्रता के तुरन्त बाद ही 1950 के दशक में एशिया के सबसे बड़े बांध की आधारशिला रख दी जाती है। इसके पश्चात दामोदर घाटी परियोजना और हीराकुंड परियोजना देश की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना बनकर उभरती है। विद्युत उत्पादन और सिंचाई व्यवस्था को लक्ष्य करते हुये 7 जुलाई 1948 को संवैधानिक एक्ट के तहत दामोदर घाटी बांध परियोजना की शुरुआत की गयी और 5 वर्ष के भीतर 1953 में ही तिलैया में दामोदर की एक सहायक नदी बनाकर पर पहला बांध बनकर तैयार हो गया। 1960 के दशक में संकल्पित सबसे बड़ी बांध परियोजना नर्मदा घाटी विकास परियोजना विवादों के साथ अन्ततः 1980 के दशक में सामने आयी। इस बांध परियोजना के तहत नर्मदा तथा उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े बांधो, 135 मध्यम बांधों तथा 3000 छोटे बांधों के निर्माण की योजना बनायी गयी।2 जिसके परिणामस्वरूप नर्मदा नदी पर 5 बड़े बांधों का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ जिसमें विश्व बैंक द्वारा अनुदानित सरदार सरोवर परियोजना गुजरात प्रान्त की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय परियोजना बनती है। भारत में ऊॅचाई की दृष्टि से इस बाॅध का तीसरा स्थान है। किन्तु इस परियोजना के डूब क्षेत्र के कारण व्यापक विनाश की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गयी है। हजारों एकड़ बन भूमि नष्ट हो चुकी है। लोगों का समुचित पुनर्वास न किये जाने के कारण सरकार के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश व्याप्त है। आज इस मानवीय विनाश के विरुद्ध विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से (नर्मदा घाटी के) अभिशप्त लोग लम्बे समय से आन्दोलन चला रहे हैं।
किन्तु आधुनिक सभ्यता के प्रतीक इन विशालकाय बांधों का निर्माण पर्यावरण की कीमत पर किया जाता है। यह हमारी असन्तुलित विकास नीति का प्रतिफल बनता है। नेहरूवादी विकास नीति विस्फोटक रूप से बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निरन्तर बनाये जा रहे बांधों और पर्यावरण के मध्य सन्तुलन बनाने में निरन्तर अक्षम ही सिद्ध होती गयी। इन बांधों से उत्पन्न होने वाली गम्भीर पर्यावरणीय समस्याओं की घोर उपेक्षा की गयी। प्रारम्भ में ऐसे विकास की कीमत कुछ क्षेत्र विशेष के निरीह लोगों को अकेले चुकानी पड़ी है। यह विकास उनके जीवन पर विनाश का कहर बनकर टूट पड़ाा है। जंगलों एवं वन वृक्षों पर आश्रित उन आदिवासियों का जीवन बड़े बड़े जलाशयों में डूब गया। उनका समूचा समाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन ही बार्बाद हो गया। अनगिनत लोग विस्थापित हो गये, हजारों एकड़ बन भूमि विनष्ट हो गयी जैव विविधता का विनाश हो गया है, किन्तु आज भी उन विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हो सका है। लोग अपने मूलभूत मानवाधिकारों के लिए गुहार लगा रहे हैं, लेकिन सरकार आज भी बांधों को विनाश का नहीं विकास का प्रतीक मान रही है। आज भी पूर्वोत्तर में बड़े बांधों की योजना बनयी जा रही है। जब कि नर्मदा घाटी विकास परियोजना को ‘विश्व की सबसे बड़ी नियोजित बर्बादी’ के रूप में उल्लिखित किया जा चुका है।3 आज अनेक गैर सरकारी संगठन इन बड़े बड़े विनाशक बांधों के विरूद्ध आन्दोलन चला रहे हैं।
राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा बड़ी बांध परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन अनेक बिन्दुओं के आधार पर चलाया जा रहा है जो निम्नलिखित हैः- 1.विभिन्न पर्यावरणी समस्याओं के आधार पर, 2.सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं के आधार पर, 3.परियोजना की आर्थिक उपयोगिता के आधार पर और, 4.विस्थापित लोगों के पुनर्वास के आधार पर आदि।
बड़े बांधों से प्राकृतिक परिस्थितिकीय तन्त्र के हजारों कि0मी0 बन एवं कृषि क्षेत्र के डूब जाने के कारण पारिस्थितिकीय असन्तुलन की विनाशक समस्या उत्पन्न हो गयी है। भारत की राष्ट्रीय धरोहर जैव-विविधता विनष्ट हो रही है। इटली के वेजन बांध (1963) और महाराष्ट्र के कोयना बांध (1967) के टूटने से क्षणभर में हजारों लोग काल कवलित हो गये। आज यही आशंका अन्य बांधों के सम्बन्ध में भी पर्यावरणविदों द्वारा व्यक्त की जा रही है। इसी प्रकार आर्थिक उपादेयता की दृष्टि से भी इन विकास परियोजनाओं के कारण वृहद पैमाने पर वन क्षेत्र और कृषि की दृष्टि से उपजाऊ भूमि जलमग्न हो गयी जिसकी भरपायी कभी भी नहीं हो सकती है। यह एक अपूर्णनीय क्षति है। आज अकेले इन्दिरा सागर परियोजना से जहाँ 4000 करोड़ रुपये की क्षति की अनुमानित सम्भावना व्यक्त की जा रही है। वहीं पर सबसे बड़ी परियोजना सरदार सरोवर बांध से तो 7000 करोड़ रुपये की अपूर्णनीय क्षति हो रही है।
बाँध परियोजना के कारण होने वाले महाविस्थापन की विभीषिका से आज समूची नर्मदा घाटी 1950 से लगातार कराह रही है। लोगों की आज तक रहने के लिए परिपूर्ण रूप से एक छत भी नसीब नहीं हो सका है। वे जीवन के मूलभूत अधिकारों से भी वंचित कर दिये गये हैं। विस्थापन की भयावहता को निम्न रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है।4
क्र0सं0 बँाध विस्थापित परिवार
1 दामोदर घाटी बाँध (1954) 4,000 परिवार आन्दोलनरत पुनर्वास हेतु
2 इन्दिरा सागर बाँध 30739 परिवार
3 ओंकारेश्वर बाँध 50,000 छोटे किसान
4 महेश्वर बाँध 35,000 (61 गाँव)
5 सरदार सरोवर बाँध 32,000 हेक्टेयर भूमि डूब क्षेत्र में
6 टिहरी बाँध 85,000 व्यक्ति (23$72 गाँव)
7 भाखड़ा नागल बाँध अनुपलब्ध
उपरोक्त विनाशक बाँधों के कारण विस्थापित हो चुके परिवार संगठित होकर विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के नेतृत्व में वर्षों से आन्दोलन चला रहे हैं।
दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ जैसे गैर सरकारी संगठन उत्तर औपनिवेशिक भारत की पहली नदी घाटी परियोजना से विस्थापित लोगों के पुनर्वास हेतु आज भी आन्दोलन चला रहे है। विगत 57 वर्षों से पुनर्वास की आस लगाये 4 हजार प्रभावित लोगों ने 27 फरवरी 2011 को आमरण अनशन पर जाने का फैसला किया।5 इस आन्दोलन में आन्दोलन कर रहे लोगों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी भी शामिल हो रही है जो विस्थापित अवस्था में ही पैदा और जवान हुये है। इसलिये आज दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ के नेतृत्व में निर्णायक लड़ाई लड़ी जा रही है। हीराकुण्ड नागरिक परिषद नामक गैर सरकारी संगठन का भी आन्दोलन आज जारी है। नदी घाटी परियोजनाये जिन लक्ष्यों को लेकर स्थापित की गयी थी उसके विपरीत आज कदम उठाया जा रहा है। इसीलिये इस गैर सरकारी संगठन द्वारा औद्योगिक क्षेत्र को पानी बेचने और समुचित पुनर्वासन न करने के विरोध में अक्टूबर 2006 में बाँध के एक छोर से दूसरे छोर तक 20 किलोमीटर लम्बी मानव श्रृंखला बनाकर लोगों का ध्यान खींचा था। बाँध के मुद्दे पर ऐसे कई संघर्ष कई रूपों में और कई मामलों को लेकर चलाये जा रहे है। भाखड़ा बाँध विस्थापितों का आन्दोलन भी कई वर्षों से लम्बी लड़ाई लड़ रहा है। उन्हें झूठे वायदों का प्रलोभन देकर प्रबंधकों द्वारा चुप कराया जा रहा है। यहाँ तक कि विस्थापित परिवारों को मुफ्त विद्युत भी नहीं दी जा रही है। आज वे विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के नेतृत्व में भाखड़ा बाँध पर कब्जा करने की अंतिम रणनीति बना रहे हैं। उन्होंने सरकार को चेतावनी भी दे डाली है कि अब विकास के नाम पर हमारा विनाश और नहीं हो सकता। इस आन्दोलन को अब राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है।
नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत विस्थापित हुये लाखों लोगों की दशा और भी पीड़ादायी है। 1960 के दशक में प्रारम्भ होने वाली हजारों बाँधों वाली इस परियोजना6 से विस्थापित हुये लोगों को आन्दोलन करते हुए 25 साल बीत गये परन्तु उन्हें आज भी नर्मदा घाटी विवाद न्यायाधिकरण अवार्ड के बावजूद राहत और पुनर्वास की न्यूनतम सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी है। इस सम्बन्ध में अनेक न्यायिक निर्णयों के बावजूद परियोजनाकारों द्वारा भूमि उपलब्ध कराने की असमर्थता भी जतायी गयी। यहाँ तक कि 2003 और पुनः संशोधित रूप में 2007 में बनाये गये पुनर्वास और पुनव्र्यवस्थापन (आर एंड आर पालिसी-2007) नीति के बावजूद विस्थापितों को आज भी समुचित न्याय नहीं प्राप्त हो पाया है। इसीलिए नर्मदा बचाओं आन्दोलन आज वैश्विक स्वरूप धारण कर चुका है।
नर्मदा बचाओं आन्दोलन ( एन बी ए ) प्रारम्भ ही हुआ बाँध विरोधी व्यापक आन्दोलन के रूप में जिसका कुशल नेतृत्व किया मेधा पाटेकर, डाॅ0 बी डी शर्मा नगवे, बाबा आम्टे, अरुन्धती राय आदि ने।7 1989 में मेधा पाटेकर के प्रभावी नेतृत्व में नो बिग डैम के उद्देश्य के साथ वैश्विक स्तर का एक आन्दोलन चलाया गया। इसने विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलनों को और संगठित स्वरूप प्रदान किया। यह बरगी बाँध विस्थापितों को न्याय दिलवाने में सफल हुआ। आज यह आन्दोलन पूरी तरह विस्थापितों के समुचित पुनर्वास हेतु चलाया जा रहा है। नर्मदा बचाओं आन्दोलन को इस क्रान्तिकारी आन्दोलन की अवस्था में राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी संगठनों को पूर्ण सहयोग प्राप्त होता है। वैश्विक स्तर के गैर सरकारी संगठन जैसे- आई0यू0सी0एन0 (जेनेवा) आई0आर0एन0 (कैलिफोर्निया) इण्डिया एलर्ट (शिकागो) फ्रेंड्स आॅफ दि अर्थ (1980) फ्रेंड्स आॅफ दी रीवर नर्मदा आदि मिलकर विश्व बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय अनुदान देने वाली संस्थाओं को परियोजना से पीछे हटने हेतु विवश कर देते हैं। इसके साथ ही विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से परियोजनाओं की भयंकर त्रासदी को दुनिया के सामने उजागर करते हैं। इस प्रकार की विकास नीति पर पूरी तरह प्रश्न चिन्ह लगाते हैं जिसके कारण 2 लाख से अधिक जिन्दगियाँ उजड़ गयी, 243 गाँव डूब गये और 4,200 एकड़ वन भूमि विनष्ट हो गयी। इसी प्रकार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में निर्मित होने वाली टिहरी बाँध परियोजना (1978) की भी यही स्थिति है। क्योंकि यह एशिया का सबसे बड़ा और विश्व का चैथा सबसे बड़ा बाँध है। इसके जलाशय में 5 दिसम्बर 2001 से जल संग्रहण शुरू हो चुका है जिससे भयावह परिस्थितिकीय विनाश की आशंका उत्पन्न हो चुकी है। इसके विरोध में भी टिहरी बाँध विरोधी संघर्ष समिति नामक एन0जी0ओ0 द्वारा आन्दोलन चलाया जा रहा है।
प्रख्यात पर्यावरणविद एवं चिपको आन्दोलन के पुरोधा सुन्दर लाल बहुगुणा तथा अन्य लोगों द्वारा हिमालय और गंगा की रक्षा हेतु टिहरी बाँध के विरोध में एक संघर्ष समिति बनायी गयी। प्रारम्भ में जहाँ विरोध का स्वरूप केवल पुनर्वास को लेकर था वही पर सुरक्षा सम्बन्धी गम्भीर स्थिति को देखते हुये यह और आक्रामक हो गया। एक बड़े कृत्रिम जलाशय के भर जाने के पश्चात बन एवं जैव विविधता को महाविनाश हो गया है। हजारों वनस्पतियाँ नष्ट हो गयी हैं। चट्टान निर्मित इस सबसे बड़े बाँध का जलाशय भूकम्प अधिकेन्द्र क्षेत्र में स्थित होने के कारण बाँध के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया। इस बाँध विरोधी समिति ने नवम्बर 1985 में संविधान के अनुच्छेद 21 के जीवन जीने के मूलाधिकार के तहत न्यायालय में एक याचिका दायर की। आज पुनर्वास के नाम पर व्यापक भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है। पर्यावरणविदों का यह अनुमान भी है कि भूकम्प आने की दशा में 42 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हुये इस टिहरी बाँध के टूटने पर यह एशिया की सबसे बड़ी दुर्घटना होगी।8 इटली का वेजन बाँध इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसके कारण देखते ही देखते लाखों लोग कालकवलित हो गये। यही सबसे भयावह पक्ष है इस नदी घाटी परियोजना का।
इस प्रकार उत्तर औपनिवेशिक भारत में नदी घाटी विकास परियोजनाओं के माध्यम से अपनायी गयी राष्ट्रीय विकास नीति विकास विरोधी ही नहीं अपितु महाविनाश का कारण भी सिद्ध होती है। यह पूरी तरह असन्तुलित विकास नीति रही है जो वर्तमान पीढ़ी के साथ आगे आने वाली पीढ़ी के लिये भी त्रासदी पूर्ण परिवेश में जीने के लिये विवश कर रही है। आधुनिक सभ्यता के मंदिर कहे जाने वाले इन बड़े बड़े बाँधों के कारण, 60 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी भारत की पहली नदी घाटी विकास परियोजना के विस्थापितों की नयी पीढ़ी को न्याय नही मिल पा रहा है। नर्मदा घाटी विवाद न्यायाधिकारण आवार्ड, पुनर्वास और पुनव्र्यवस्थापन नीति 2003, 2007 और सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सब कुछ निरर्थक सिद्ध हो गया। यू0पी0 के अति पिछड़े जनपद सोनभद्र का उदाहरण ले तो जहाँ 1960-70 के दशक में औद्योगिक विकास जहाँ बहुत तेजी से शुरू हुआ था, पं0 जवाहर लाल नेहरू के सपनों का स्वीटजरलैंड कहा जाने वाला यह जनपद आज प्रदूषणलैंण्ड बन गया है।9
इसलिए राष्ट्रीय विकास नीति की पुनर्समीक्षा करते हुये पूर्णतया पर्यावरण के अनुकूल सन्तुलित एवं समावेशी विकास नीति अपनाने की परम अपरिहार्यता है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र में देर से ही सही त्वरित, सतत और समावेशी विकास नीति का लक्ष्य एक सार्थक सोच को प्रदर्शित कर रहा है। विकास के किसी वैकल्पिक माॅडल पर भी विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर विचार करने की भी आज आवश्यकता है।10 साथ ही वैयक्तिक स्तर पर भी अति उपभोक्तावादी पाश्चात्य मूल्यों की जगह हम सभी को गाँधीवादी मूल्यों को अपनाना होगा क्योंकि प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं को तो पूरा करने में सक्षम है किन्तु उसकी लालसाओं को हरगिज नहीं। आज इन्हीं मूल्यों से प्रेरित होकर यू0एन0ओ0 के महासचिव बान की मून ने विश्व को चेताया है - ‘अभी भी समय है, चेत जाएं कहीं ऐसा न हो कि वापसी के सारे रास्ते ही बन्द हो जाएं।’कि
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. वाॅमल, जे विलियम, इकोनामिक डायनामिक्स, न्यूयार्क प्रकाशन, अध्याय-2, 1999।
2. शर्मा, सुभाष, हवाई पीपुल प्रोटेस्ट, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 2009, पृष्ठ 125।
3. गाडगिल, और गुहा, इकोलाजिकल कानफिलिक्टस एंड इनवायरमेन्ट मूवमेन्ट इन इंण्डिया, पेज 112।
4. दुबे, एम0सी0, कमिश्नर जबलपुर डिवीजन, रिपोर्ट, 28 फरवरी, 1987।
5. दामोदर नदी नहीं संस्कृति व आजीविका, सेमिनार रिर्पोट 2007, ;ूूूण्चतंइींजाींइंतण्बवउद्धण्
6. मैक्यूले, पैट्रिक, सरदार सरोवर प्रोजेक्ट: एन ओवरव्यू, (आई0 आर0 एन0 एस0 निदेशक) 25 मई 1994।
7. विस्थापित आवाम संघ (एन0जी0ओ0 रिपोर्ट), समीक्षा और अपेक्षा, 26 अप्रैल, 1996।
8. शर्मा, मुकुल, इकोनामिक एण्ड पालिटिकल वीकाली लेख, 21 फरवरी 1999।
9. पर्यावरण चेतना, हिन्दी मासिक पत्रिका (अंक-7) नवम्बर 2011, पृष्ठ 28-30।
10. गुर्जर, राम कुमार, व जाट वी0सी0, जल संसाधन भूगोल, 2007 पृष्ठ 56-75।

अवधेन्द्र प्रताप सिंह
परामर्शदाता, राजनीति विज्ञान
उ0प्र0 मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उ0प्र0