Wednesday 2 January 2013

‘चुटकी चुटकी चांदनी’ में सामयिक यथार्थ-बोध


शौकतअली अजमुद्दीन सय्यद

कवि चंद्रसेन ‘विराट’ साठोत्तरी युग के समर्थ गीतकार, गजलकार तथा सशक्त मुक्तक रचयिता है। आपका जन्म 3 दिसंबर सन 1936 में इन्दौर नगर (म.प्र.) के निकट बलवाड़ा ग्राम में हुआ था। गीत, गजल और मुक्तक काव्य विधाओं में दो दर्जन से अधिक कृतियाँ हिंदी जगत् को देने के बाद कवि ‘विराट’ द्वारा ‘चुटकी चुटकी चाँदनी’ नामक दोहा-संग्रह की नई किताब प्रकाशित की गई है। दोहा-संग्रह की यह नई किताब समांतर प्रकाशन, तराना, उज्जैन (म. प्र.) द्वारा सन् 2009 ई0 में प्रकाशित की गई है। इसमें व्यक्त यथार्थ-बोध की समीक्षा प्रस्तुत है।

‘चुटकी चुटकी चाँदनी’ कवि विराट का प्रथम दोहा-संग्रह होते हुए भी अपने समय की समझ, सोच, परिस्थिति एवं परिवेश को मुख्य विषय बनाने के कारण यह दोहा संग्रह हिंदी काव्य की विशिष्ट उपलब्धि बन चुका है। कवि ‘विराट’ ने प्रस्तुत दोहा-संग्रह में आज के यथार्थ परिवेश को अपने काव्य का मुख्य विषय बनाया है। कवि ‘विराट’ कविता में सामाजिक चेतना की अनिवार्यता को स्वीकारते हैं। वे साहित्य से संबंधित अपनी मान्यताएँ अभिव्यंजित करते हुए कहते हैं कि वह रचना सार्थक है जिसमें समाज का यथार्थ चित्रण चित्रित किया हो, जिस रचना को आम आदमी स्वीकारता है। वे लिखते हैं-
‘‘कुछ मेरा, कुछ आपका, है सबका संदर्भ, पूरा रूप समाज का, है कविता के गर्भ।’’
‘‘रचना है रचना वही, स्वीकारे जो लोक, जिस दिन लिख दे एक भी, तोड कलम की नोक।’’ पृ 150
कवि ‘विराट’ की राजनीतिक समझ, ऐतहासिक बोध एवं सामाजिक बोध के साथ वर्ग-चेतना की सही पहचान की अभिव्यक्ति सपाट एवं संक्षिप्त है। कवि को चिंता लगी है कि देश की अर्थनीति वर्गभेद को बढ़ावा दे रही हैं-
‘‘अर्थनीति इस देश की, ऐसी रही अजीब, धनी धनी होते गए, और गरीब गरीब।’’ पृ 54
कवि देख रहे हैं कि देश में आज भी सामंतवर्ग पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया है। वह पंचो, सरपंचों, भूमिपतियों, दलालों और छोटे-बडे नेताओं के लिबास में आज भी विद्यमान है-‘‘राजा है, सामंत भी, केवल बदला वेष, जनतांत्रिक परिवेश में, राजतंत्र है शेष।’’ पृ 58
आज शोषण कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ा ही हैं। कवि चिंतित है कि श्रमिकों के श्रम का कोई मूल्य नहीं रहा, दिनरात श्रम करने पर भी वे आज मजबूर हैं, भूखे हैं, नंगे हैं-‘‘छतें बनाते हैं श्रमिक, पर खुद छतों बगैर, तब भी नंगे पैर थे, अब भी नंगे पैर।’’ पृ 45
कवि ‘विराट’ ने आज की सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों के मूल में मुख्यतः राजनीतिक विडंबना को ही स्वीकारा है। 1960 के बाद देश में मोहभंग की स्थितियाँ निर्मित हुईं। चारों ओर निराशा का वातावरण फैल गया। आज देश की राजतीति का नैतिकता से कोई संबंध नही रहा। इसलिए कवि ‘विराट’ आज की राजनीति को चित्रित करते हुए लिखते हैं- ‘‘विशद विसंगति से भरा राजनीति का चित्र, छवि से तो वीरांगना, वारांगना चरित्र।’’ पृ 54
आज का लोकतंत्र कलंकित हो गया है। विसंगतियों से भरे आज के लोकतंत्र को कवि ‘विराट’ ने भीड़-तंत्र की संज्ञा दी है। चतुर नेताओं ने आज लोकतंत्र को वोट का यंत्र बना दिया है। राजनीतिक नेता बाहर से कुछ तथा भीतर से कुछ और दिखाई देते है। आज राजनीति में दोगलापन की प्रवृत्ति बढ गयी है। वर्तमान नेता जनता के पहरेदार बनकर जनता का ही शोषण कर रहे हैं। कवि ‘विराट’ लिखते हैं-
‘‘लोक तंत्र है नाम का, कहाँ लोक का तंत्र, भीड़-तंत्र कहना उचित, इसमें भीड़ स्वतंत्र।’’ पृ 58
‘‘राजनीति का चेहरा, शायद किया न गौर, बाहर से कुछ और है, भीतर से कुछ और।’’  पृ 54
आज देश में रिश्वत-खोरी बढ़ गई हैं। सामान्यजन कठिन यातनाएँ भुगत रहे हैं। सामान्य कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक, छुटभैय्या नेता से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत बाँट-बाँटकर खा रहें हैं, धीरे धीरे देश को निगल रहे हैं। कवि ‘विराट’ लिखते है-
‘‘ जुड़ी कड़ी से हर कड़ी, बनी एक जंजीर, नीचे से ऊपर चढे़ यह रिश्वत का नीर।’’ पृ 45
सांप्रदायिकता की समस्या दिन-प्रति-दिन बढती ही जा रही हैं। इस समस्या का हल करने के बदले, देश के स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने इसे अपनी राजनीति के लिए भुनवाना ही उचित समझा। समय समय पर वे सांप्रदायिकता की इस आग को हवा देते रहे। परिणामतः लोगों में धर्मांधता बढ़ गई है। कवि ‘विराट’ इस संबंध में लिखते है-
‘‘दाढ़ी चोटी में कभी, रहे नहीं सद्भाव, यह गंुडों की कामना, यह नेता का चाव।’’ पृ 43
शांति का संदेश देने वाले इस देश में ही अशंाति का वातावरण निर्माण हो गया है। सारा देश सांप्रदायिकता की आग में जल रहा है। धार्मिक उन्माद जब चरमावस्था पर पहुँचता है तो अत्याचार और अनाचार फैलता है। बेगुनाह, निरपराध लोगों को, मासूमों को ही मौत के घाट उतारा जाता है। कवि ‘विराट’ इस वास्तविकता को व्यक्त करते हुए लिखते हैं-‘‘अति कठोर धर्मांधता, क्रूर अंध आतंक, बेगुनाह पाते सजा, मासूमों को डंक।’’ पृ 57
इसी धर्मांधता के कारण आज आतंकवाद बढ़ गया है। यह आतंकवाद आज विश्व समस्या बन गया है। भारत समेत अमेरिका, इंग्लैंड, रूस आदि सभी देश आतंकवाद से आतंकित हैं। कवि ‘विराट’ इस वास्तविकता को बताते हुए कहते हैं-
‘‘विश्व समस्या बन गया, यहा राक्षस निःशंक, मनुष्यता के नाम पर, है अतिवाद कलंक’’ पृ 54
हर नागरिक के मन में निस्वार्थ देशपे्रम होना चाहिए, देश के लिए त्याग तथा आत्मसमर्पण करना चाहिए। हमें देश ने क्या दिया है इसी की अपेक्षा हम देश के लिए क्या करते हैं, यह हमेशा सोचना चाहिए। कवि ‘विराट’ इस संबंध में लिखते हैं-
‘‘दिया देश ने क्या हमें, पूछो यह न सवाल, तुम क्या लौटा सके, इसका करो खयाल।’’ पृ 56
सारांश रूप में कहेंगे कि प्रस्तुत देाहा-संग्रह ‘चुटकी चुटकी चाँदनी’ में कवि‘विराट’ की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक चिंताओं की सोच दिखाई देती है। परिवार, समाज, सामाजिक वर्गभेद, सामंतवाद, श्रमिकों की दयनीय स्थिति, राजनीति का असली चेहरा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, लोकतांत्रिक परिवेश की असलियत आतंकवाद, देश के प्रति आत्मसमर्पण एवं त्याग की भावना इत्यादि सामयिक परिदृश्यों पर सैंेकडों मर्मस्पर्शी दोहे कहे गये हैं। इस संबंध में डाॅ. अनंत राम मिश्र ‘अनंत’ प्रस्तुत दोहा-संग्रह के फलैप पर लिखते हैं ‘‘संदर्भ वैविध्य को सहेजे ‘विराट’ के दोहे जीवन जगत् के बाह्यांतर से संबंद्ध, एक ‘विराट’ सृजन के फलक पर प्रकट हुए हैं। उनका सृजन धर्म श्रद्धेय है, प्रेरक है और प्रणम्य है।’’

शौकतअली 
अजमुद्दीन सय्यद
असो. प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग
आर्टस, काॅमर्स काॅलेज मायणी