Wednesday, 2 July 2014

भाषा कौशल पर शैक्षिक कारकों का प्रभाव


गोविन्द प्रसाद

भाषा किसी भी सामाजिक समुदाय के सदस्यों को अन्दरूनी तौर पर जोड़ने और बांधने वाली एक जबरदस्त ताकत के रूप में अपनायी जा सकती है। दूसरी और किसी एक संगठित समुदाय में अलगाव और बिखराव करने वाले एक हथियार के रूप में भी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है। भाषा में जोड़ने या तोड़ने वाली ताकत एक ही चीज के दो पहलू है। एक ही समस्या को देखने की दो दृष्टियॉ हैं, और वह चीज या समस्या है- सामाजिक अस्मिता (आइडेंटिटी)1
इस सामाजिक अभिन्नता के सवाल के सन्दर्भ में जब हम हिन्दी पर विचार करते हैं तब उसके अनेक पहलू स्वयमेव उभर आते हैं। किसी जाति या राष्ट्र के उठने में उसकी भाषा सबसे सशक्त पक्ष है। इसीलिए हिन्दी आधुनिक काल के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भाषा को सब उन्नति का मूल माना है।

निज भाषा उन्नति वही सब उन्नति को मूल। जिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिए को शूल।।2

भाषा मानवीय विचाराभिव्यक्ति का सबसे सबल माध्यम है। यथार्थ रूप में भाषा रहित समाज की कल्पना नही की जा सकती। भाषा एक सामाजिक यथार्थ है - इस तथ्य को नकारा नही जा सकता। भाषाविद् उसकी परिभाषा देते हुए यह कहते हैं कि भाषा, शाब्दिक प्रतीकों की व्यवस्था है और शिक्षाविद् यह जताते हैं कि वह हमारे विचारों की अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम है।3 ऐसी परिभाषाएं भाषा-सम्बन्धी यथार्थ के अधूरे पक्ष पर ही प्रकाश डालती हैं। भाषा को व्याकरणिक व्यवस्था अथवा अभिव्यक्ति का माध्यम बताकर वस्तुतः हम न केवल उचित सन्दर्भ से काटकर उसे देखना-परखना चाहते हैं, बल्कि भाषा को उसके सामाजिक शक्ति से भी आंख बन्द कर लेना चाहते हैं, जो किसी एक समुदाय के सभी व्यक्तियों की भावना, चिंतन और जीवन-दृष्टि के धारतल पर एक दूसरे के समीप लाती है।4
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज में रहने के नाते उसे सर्वदा आपस में विचार विनिमय करना पड़ता है। कभी हम स्पष्ट शब्दों या वाक्यों द्वारा अपने को प्रकट करते हैं तो कभी केवल सर हिलाने से हमारा काम चलता है। स्काउट का विचार-विनियम  सीटियों द्वारा होता है, तो बिहारी के नायक नायिका भरे भवन में करत हैं नयनन ही सो बात। और कोई अंधेरे में एक दूसरे का हाथ दबाकर ही अपने को प्रकट कर लिया करते है। इसी प्रकार करतल ध्वनि करना, हाथ हिलाना, संकेत करना, चुटकी बजाना, आंख दबाना, खांसना, मुह बिचकाना या टेढ़ा करना, उंगली दिखाना तथा गहरी स्वास लेना आदि अनेक प्रकार के साधनों द्वारा हमारे विचार-विनिमय का कार्य चलता है।
भाषा पैतृक सम्पत्ति नही है, यदि यह पैतृक सम्पत्ति या गुण होती तो पैतृक सम्पत्ति की भांति अनायास ही प्राप्त हो जाती, जबकि भाषा सामाजिक परिवेश में रहकर अर्जित की जाती है। व्यक्ति में भाषा का विकास शनैः शनै होता है।5
प्रारम्भिक अवस्था में बच्चा उॅ ऑ आदि बोलता है परन्तु उसके इन शब्दों का कोई अर्थ व्यंजित नही हो पाता। बच्चा भी मानव शब्दों को नही पहचान पाता। दूसरी अवस्था तीन माह से प्रारम्भ होती है और नौ माह तक रहती है। इसमें बच्चा कुछ ध्वनियां (आवाजें) करता है। तृतीयावस्था में बच्चा अनुकरण करना सीख लेता है। वह दूसरों को देखकर, सुनकर कुछ आवाज करता है। चतुर्थावस्था वास्तविक बोली की अवस्था है। डेढ़ वर्ष के बाद यह अवस्था प्रारम्भ होती है, वह मां, दादा, बाबा, पापा आदि शब्द उच्चारण करने लगता है। शनैः शनै शब्दों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इन शब्दों की वृद्धि में उसकी शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तथा शैक्षिक विकास और वृद्धि का प्रभाव परिलक्षित होता है।

शैक्षिक कारक- शैक्षिक कारक के अन्तर्गत मुख्य रूप से बालक की शैक्षिक उपलब्धि होती है। जिसमें उच्च उपलब्धि, निम्न उपलब्धि तथा वास्तविक शैक्षिक उपलब्धि सन्निहित है। साथ-साथ बालक की प्रेरणा तथा अभिवृत्ति कारक भी सन्निहित है।6

ऐसा निरीक्षण किया गया है कि जिस बालक की प्रेरणा तथा अभिवृत्ति अधिक होती है, वह अध्ययन करने में अधिक समय भी दे पाता है और जिससे वह उपलब्धि प्राप्त करता है, अपेक्षाकृत निम्न अभिवृत्ति वाले बालक से अधिक होती है। उच्च शैक्षिक उपलब्धी से अभिप्राय है कि बालक आशा से अधिक अंक प्राप्त करता है।
इसके विपरीत यदि उसे अपने आयु स्तर के अपेक्षित भाषा ज्ञान नहीं है तो कक्षा में पिछड़ जायेगा और उसकी शैक्षिक उपलब्धि निम्न स्तर की होगी जिससे उसमें आत्महीनता की भावना घर कर जायेगी तथा उसका जीवन दुःखमय होगा और वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में निम्न उपलब्धि प्राप्त करेगा।

सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. वर्मा धीरेन्द्र, हिन्दी भाषा का इतिहास।
2. जायसवाल डॉ0 सीताराम, शिक्षा के सामाजिक आधार।
3. बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दशा।
4. तौमर रामबिहारी सिंह, सामाजिक मनोविज्ञान परीक्षण एवं मापन।
5. कपिल एच0के0, अनुसन्धान विधियॉ।
6. शर्मा रामविलास, भाषा और प्रभाव।
गोविन्द प्रसाद
एम0 फिल0 एवं नेट, शिक्षाशास्त्र।