प्रियंका
विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संसाधनो के अतिदोहन से पर्यावरण का अत्यंत क्षरण हुआ है। जिसका परिणाम यह है कि आज ग्लोबल वार्मिंग, अकाल, बाढ़, अम्लीय वर्षा प्रदूषण, भूस्खलन समुद्री तूफान इत्यादि दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। जिसके फलस्वरूप आज स्वयं मानव का अस्तित्व ही संकट की चपेट में आ गया है। चेतावनी है कि पर्यावरण की संरक्षा पर ही मानव जाति का वर्तमान व उसकी भावी पीढ़ी का अस्तित्व निर्भर करता है।
एन्साइक्लोपीडिया ऑफ एनवायरमेंट साइंस में जी0आर0 चटवाल ने पर्यावरण को इस प्रकार परिभाषित किया है- ‘‘ठपवेचीमतम बंद इम कमपिदमक ें जीम संलमत वि ेवपसए ूंजमत ंदक ंपत ूपबी ेनततवनदके चसंदमज मंतजी ंसवदह ूपजी जीम सपअपदह वतहंदपेउे वित ूपबी पज चतवअपकमे ेनचचवतजण्’’ इस परिभाषा में पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवन का आधार पर्याववरण माना गया है। इसी प्रकार अजय मेहरोत्रा ने भी पर्यावरण के बारे में कहा है कि पर्यावरण जैविक (पेड़-पौधे व जीवजन्तु) व अजैविक (जल, स्थल, वायु) दो मुख्य कारकों से मिलकर बनता है। ये दोनों सयुक्त रूप से विभिन्न प्रकार के परिस्थिति निकाय या तंत्र का निर्माण करते हैं। इनका संचालन व मानक निर्धारण वह स्वयं करती है। ये हमें विरासत में मिले हैं और इनका वितरण भी समान रूप से प्रकृति प्रदत्त है।
मनव सभ्यता का विकास प्रकृति की गोद में ही हुआ है। वेदों में कहा गया है-
संगच्छध्वं, संवदध्वम् सं वो मनासि जानताम्। देवा भागं यथापूर्वे सन्जनाना उपासते।।
स्मानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तुं वो मनो यथा व सुसहासति।।
अर्थात् सभी मनुष्य भली प्रकार मिल जुल कर रहें। सब लोग प्रेमपूर्वक आपस में बातचीत करें। सबके मन में एकता का भाव हो। सब अविरोधी ज्ञान प्राप्त करें। विद्वान लोग जिस तरह सदा से ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करके उपासना करते हैं, उसी तरह तुम भी ज्ञान और उपासना में लगे रहो। सबके मन में एक सी ऊँची भावना हो। सब लोग एक दूसरे से सहयोग करते हुए अच्छे ढंग से अपने कार्यां को पूरा करें।
वर्तमान् समय में वैश्वीकरण, भूमण्डलीकरण एवं तकनीकी विकास के कारण जहाँ एक ओर पूरा विश्व नित नई-नई ऊँचाईयों को छू रहा है, वहीं दूसरी ओर मानव अपने कार्यकलाप के कारण पर्यावरणीय संकट में फँसता जा रहा है, आज की भौतिकवादी सोच रखने वाला मानव अपने और समस्त जगत् के लिए संकट उत्पन्न करता जा रहा है।
आज पूरा विश्व केवल अंधाधुंध दौड़ में लगा हुआ है। इसकी परिणति अशांति, हिंसा, युद्ध व विकृतियों में होती जा रही है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने सारे विश्व चिंतन को झकझोर दिया है और अत्यधिक भोगवृत्ति से मानवीय संवेदनाओं तथा संबंधों को चकनाचूर कर दिया है। इन सब बातों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ा है। प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, वन समाप्त होते जा रहे हैं, रेगिस्तानों का विस्तार होता जा रहा है। हमारे सामने यह समस्या बढ़ती जा रही है कि हम अपनी आगामी पीढ़ियों को क्या देंगे? घायल धरती? जहर भरा वातावरण? बीमारियाँ और प्राकृतिक आपदाएँ, मानसिक विकृतियाँ, सूखा, बाढ़, विनाश या यूँ कहें तो समुचित दूषित पर्यावरण? आधुनिक पारिस्थितिक अनुसंधान से ज्ञात होता है कि जैवमंडल पर मनुष्य के अनवरत्, एकतरफा और काफी हद तक अनियंत्रित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्याता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुधानों में रूपांतरित करने के अलावा मरुधानों के स्थानों पर रेगिस्तानों को स्थापित कर देगी और पृथ्वी पर सारे जीवन के विनाश का खतरा पैदा कर देगा।
प्रकृति हमें विकास के लिए निरंतर समाधान प्रदान करती रही है, किन्तु उसमें भी समस्त पदार्थों की संख्या और अनुपात सीमित है। निरंतर उपभोग के कारण उसमें अपूर्णीय कमी आयी है। पर्यावरणीय हृस एवं असंतुलन के फलस्वरूप मनुष्य सहित समस्त जीवधारियों, पेड़-पौधों के स्वाभाविक विकास एवं क्रियाओं में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। पर्यावरण असंतुलन से हमारा अस्तित्व संकट में पड़ सकता है। पर्यावरण संरक्षण का प्रश्न विश्वजनीन है। पृथ्वी पर जो जीव वैविध्य है, उसकी उसी रूप में हमें रक्षा करनी होगी हमारे प्राचीन वन प्रदेश अनेक औषधियों के भण्डार है, वे जल के आगार है, नदियों के उद्गम स्थल हैं, पृथ्वी माता के हरित आवरण हैं।
ओस्लो सम्मेलन में विशेषज्ञों एवं पर्यावरणविदों ने एक शोध- ‘मिलेनिय इकोसिस्टम ऐससमेन्ट में यह बात कही है कि- मानवीय गतिविधियों से प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत ज्यादा दबाव पड़ रहा है। इन्हीं गतिविधियों के चलते स्तनधारियों, पक्षियों और उभयचरों की 10 से 30 प्रतिशत प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं। पिछले 50 वर्षों में पृथ्वी के पर्यावरण में बहुत तेजी से बदलाव-भोजन, पानी, लकड़ी और ईंधन की बढ़ती माँगों के कारण आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वातावरण के दूषित होने के दुष्परिणाम आगामी 50 वर्षों में और भयावह हो जायेंगे।
आज उपभोक्तावादी तथा यूज एण्ड थ्रो कल्चर ने मानवजाति का भविष्य अनिश्चित बना दिया है। 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन में यह घोषणा की गयी कि- मानवीय पर्यावरण का संरक्षण तथा सुधार एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। जिससे लोगों की खुशहाली तथा पूरे विश्व का आर्थिक विकास जुड़ा है। सभी सरकारों तथा सम्पूर्ण मानव जाति का यह दायित्व है कि वह मानवीय पर्यावरण के संरक्षण तथा सुधार हेतु मिल-जुल कर काम करें ताकि सम्पूर्ण मानव जाति तथा उसकी भावी पीढ़ियों का हित हो सके।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 48-क में कहा गया है कि- राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण और सुधान एवं वनों तथा वन्य जीवन की रक्षा का प्रयास करेगा साथ ही संविधान के अनुच्छेद 51-क में भी कहा गया है कि- भारत के हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य जीवन सहित प्राकृतिक, पर्यावरण का संरक्षण तथा सुधार करें एवं सभी सजीव प्राणियों के प्रति करुणा रखें। भारत के संविधान में पर्यावरण संबंधी कई कानूनों की भी व्यवस्था है जो इस प्रकार है।- 1. फैक्ट्री अधिनियम, 1948। 2. कीटनाशक अधिनियम, 1968। 3. जल (प्रदूषण, निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974। 4. वायु (प्रदूषण, निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981। 5. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980। 6. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986। 7. वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972।
पर्यावरण संरक्षण का प्रश्न विज्ञान या कानून का नहीं है, बल्कि भावना एवं अध्यात्म का है। हमारा भावनात्मक विस्तार इतना हो, कि उसकी परिधि में सारी प्रकृति समा जाए। आज आवश्यकता है कि हम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करें। पर्यावरण संतुलन हेतु कुछ महत्वपूर्ण विचार यहाँ दिए जा रहे है, जिस पर प्रत्येक नागरिक को ध्यान देना आवश्यक है-
1. प्रकृति का दोहन उसे अपनी तरह प्राणवान, परस्पर सहयोगी और सहचरी मानकर विनयपूर्वक करें, उसका निर्मम और अमानवीय शोषण न करें।
2. प्रकृति पर आधिपत्य मानव अधिकार नहीं है। सृष्टि में वह हमारी सहचरी, हितसाधक है। इसलिए प्रकृति में मात्र लें नहीं, बल्कि उसका यथोचित पोषण भी करें।
3. हमारे किसी कृत्य का भविष्य में क्या परिणाम होगा, हम अपने आगे आने वाली पीढ़ी के लिए कितना समृद्धशाली पर्यावरण छोड़कर जायेंगे, इसका विचार अवश्य करें।
4. विकास-योजनाएँ मनुष्य के हित के लिए है, व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा किसी राजनीतिक नारेबाजी या निजी आर्थिक हितलाभ के लिए नहीं है।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मानव को चाहिए कि वह प्रकृति का दोहन विवेकपूर्ण ढंग से करे। जो व्यक्ति विश्व कल्याण को सामने रखकर, जितना प्रकृति संरक्षण का कार्य करेगा, वह अपने तथा दूसरों के जीवन मार्ग को उतना ही प्रशस्त करेगा। हमें सारे प्राणियों के प्रति, पेड़ पौधों के प्रति आत्मवत्, सर्व भूतेषु का भाव रखना चाहिए।
संदर्भ ग्रन्थ
1. चटवाल, जी0 आर0, एनसाइक्लोपीडिया ऑफ एनवायरमेंटल साईंस।
2. मेहरोत्रा, अजय, पर्यावरण वानिकी, सूरज प्रकाशन, भोपाल, 1992
3. ऋग्वेद, 10/191/2 पृ0- 36-17।
4. व्यास, डॉ0 किशोरी लाल, भारतीय संस्कृति और पर्यावरण, संरक्षण, पृ0 -141-142।
5. पाण्डेय, जगदीश चंद्र (अनुवादक), समाज और पर्यावरण, मास्को पृ0 ‘6, प्रगति प्रकाशन, 1986।
6. राजकिशोर (संपादक) मानव अधिकारों का संघर्ष, पृ0-165।
7. व्यास, डॉ0 किशोरी लाल, भारतीय संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण, पृ0-26।
8. अस्थाना, डॉ0 मधु, पर्यावरण एक संक्षिप्त अध्ययन, पृ0-126।
9. वही, पृ0-127।
10. प्रो0 हरिमोहन, मानव अधिकार और पर्यावरण संतुलन, पृ0-117-118।
प्रियंका
शोध छात्रा, दर्शन शास्त्र विभाग,
जे0डी0 वीमेन्स कॉलेज,
मगध विश्वविद्यालय, बिहार।