Wednesday, 2 July 2014

गंगा का व्यक्तित्व : एक अनुशीलन


निरूपमा सिंह

‘गंगा हरती पाप को’ कहावत को चरितार्थ करते हुए सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही गंगा समस्त भारत भूमि को औषधिभूत अमृतजल का वरदान देती रही है। जैसा कि महाभारत में आया है कि- पुनाति कीर्तिता पाप दृष्टवा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढ़ा च पीता च पुनाति सप्तमं कुलम।।1 अर्थात् गंगा अपना नामोच्चारण करने वाले व्यक्ति के पापों का नाश करती है। दर्शन करने वाले का कल्याण करती है तथा पान करने वाले सात पीढ़ियों तक को पवित्र करती है।

गंगा का प्राचीनतम उल्लेख सम्भवतः ऋग्वेद मे प्राप्त होता है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल में गंगा शब्द का उल्लेख मिलता है। सिन्धु क्षित् पैथमेध ऋषि द्वारा साक्षात्कृत प्रस्तुत सूक्त की देवता नदियों है। जगती छन्द में कुल 9 मंत्र हैं। 5वें मंत्र में ऋषि कहता है कि- इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रिस्तोमं सचता परूवणया। असिवत्या मरूद्वृधे वितस्तया जीर्कीये श्रृणुह्यासुषोमया।। इसी मंत्र का उद्धरण तैतिरीय आरण्यक2 तथा यास्काचार्य प्रणीत निरूक्त3 में भी प्राप्त होता है। ऋग्वेद के अनेकानेक सन्दर्भों 1/3, 1/89, 1/164, 2/3, 2/19, 2/41, 3/23, 3/33, 3/54, 5/43, 5/46, 6/49, 6/52, 6/61, 7/9, 7/35, 7/36, 7/37, 7/95, 7/96, 8/21, 9/67, 10/30, 10/64, 10/65, 10/67, 10/131 तथा 10/184 में अनेक नदियों का नामोल्लेख हुआ है। इन सभी सन्दर्भों में सरस्वती, सरयू, सिन्धु, शुतुद्री एवं विपाश्य को परस्पर बहन के रूप में कल्पित किया गया है।
छान्दोग्य उपनिषद् में आया है कि समुद्र में विलीन नदियाँ अपना अस्तित्व भूल जाती है। इमाः सोम्यः नद्यः पुरस्तात्प्राच्यः। स्यन्दन्ते पश्चात्प्रतीच्यस्ताः समुद्रात्समुद्रमेवा।। पियन्ति च समुद्र एवं भावन्ति ता यथा। तत्र न विदुरियमहमस्मीय महम स्मीति।।4 भाष्यकार शंकराचार्य ने इस मंत्र की व्याख्या करते हुए नद्यः का तात्पर्य गंगाद्याः किया है। व्याख्या के अन्त में वे कहते हैं।- ता नद्यो यथा ही तत्रसमुद्रे समुद्रात्यनैकतां। गता न विदुर्न जानन्तीयं गंगास्यस्मीयं यमुनाहमस्मीति च।। इस प्रकार छान्दोग्य उपनिषद में गंगा शब्द का साक्षात् प्रयोग नहीं हुआ है। परन्तु भाष्यकार के मतानुसार यहाँ गंगा का तात्पर्य परोक्ष रूप से ही अभीष्ट है।
मुण्डकोपनिषद् में भी नदियों की सामान्य चर्चा कर उनकी उत्पत्ति परब्रह्म परमेश्वर से की गई है- अथ समुद्रा गिरयश्च सर्वे स्मात्स्वद्रते सिन्धवः सर्वरूपाः।
अतश्च सर्वा ओषधयो रसश्च यथेष भूतैस्तिष्ठते अन्तरात्मा।।
यथा नद्यः स्यंन्दमानाः समुद्रे स्त गच्छति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्पर पुरूष भ्रयैतिरिव्यम्।।5
गंगा शब्द की निष्पत्ति गम्ल् गतौ धातु से गन् प्रत्यय यन् गम्यद्योः तथा स्त्रीवाचक टाप् प्रत्यय जोड़कर गंगा शब्द निष्पन्न होता है। इसका तात्पर्य है निरन्तर संचरणशील जो परब्रह्म परमेश्वर का ज्ञान करा दे अथवा वहाँ तक पहुँचा दे वही गंगा है।  गमयति प्रापयति ज्ञापयति वा भगवत्पद या शक्तिः। यद्वा गम्यते प्राप्यते ज्ञाप्यते मोक्षार्थिभियां सा गंगा।।
आचार्य हेमचन्द्र ने गंगा के 19 पर्याय दिये हैं। इन 19 पर्याय में कुछ तो पूर्व प्रचलित परम्परा से रहे तथा कुछ नये अभिधान भी रहे यथा- कुमारसुः, स्वरापगा, स्वर्ग्यापगा, खापगा, स्वर्पायी।6 अमरकोश गंगा के 8 पर्यायों का उल्लेख करता है गंगा, विष्णुपदी, जह्नतनया, सुरनिम्नगा, भागीरथी, त्रिपथगा, त्रिस्तोता एवं भीष्मसू।7 हलायुधकार ने 9 पर्यायों का उल्लेख किया है।8 त्रिकाण्ड शेष के कर्ता महाराज पुरूषोत्तम देव ने गंगा के 16 नाम दिए हैं जिनमें अधिकांश नवीन है- नदी, निर्झरिणी, रोधोवक्रा, सगरगामिनी, तलोदा, चाग्पिला, सिन्धु, ऋषिकुल्या, ब्रह्मा, चसा, अहवगा, गान्दिनी गंगा, हैमेत्वयुग्रशेखर। धर्मद्रवी सिद्ध सिन्धु.....।9 ग्ांगा के मानवी (स्त्रियोचित) रूप लावण्य के प्रमाण हैं पुराणों में वर्णित गंगोपाख्यान। इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपवृहंयेत् की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। सम्भवतः गंगा के सार्वभौम स्वरूप की स्थापना के लिए पुराणकारों ने इन गंगोपाख्यानों की सर्जना की हो।
गौतमीगंगोपाख्यान10, ऋषिकोपाख्यान11, अनुसूयोपाख्यान12, कुमारोपाख्यान13, गांगेयोपाख्यान14, सपत्न्युपाख्यान15, सगरोपाख्यान16, गोलोकोपाख्यान16, प्रेयस्युपाख्यान16, नारायणोपाख्यान16, भोगवती उपाख्यान20, नरनारायणोपाख्यान21 आदि पौराणिक उपाख्यानां में वर्णित गंगा के अनेकानेक रूप देखे जा सकते हैं। वे रूप देशकाल एवं व्यक्ति की सीमा के बन्धन के कारण एक दूसरे से पृथक् हैं। परन्तु उन समस्त रूपों में गंगा का नारीत्व अक्षुण्य रूप से अनुस्यूत है। देवी भागवत के एक प्रसंग में गंगा को ‘‘नवयौवनसम्पन्ना, सर्वभरणभूषिता, शरत्कालीन मध्याह्न पद्म के समान आनन वानी मुस्कानयुक्त अत्यन्त मनोहर, पिघले हुए सुवर्ण के रंग वाली कहा गया है। गंगा का मुख श्री अत्यन्त स्निग्ध है। वह स्वयं भी अति स्निग्ध स्वभाव वाली शुद्ध सात्विक प्रकृति वाली है। शिव पुराण के पार्वती खण्ड के अध्याय 50 में जाह्नवी यूथ वर्णन में गंगा की टोली में 16 देवांगनाओं का नाम वर्णित है। गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय 2 में जाह्नवी के 8, 16 तथा 32 संख्या वाले यूथ की बारी-बारी से गोवर्धन पर्वत पर आने का वर्णन है। देवीभागवत में गंगा की पवित्रता का वर्णन है। उसे सभी नदियों में श्रेष्ठ माना गया है। श्रावण तथा भद्रपक्ष महीना गंगा का रजःकाल है। फलतः इन महीनों में गंगा स्नान प्रशस्त नहीं-
नदीनां जाह्नवी श्रेष्ठा यमुना च सरस्वती। नर्मदा गण्डकी सिन्धु गौतमी तमसा तथा।।
कावेरी चन्द्रभागा च पुण्या वेत्रवती शुभा। चर्मण्वती च सरयूस्तापी साभ्रमती तथा।।
एताश्च कथिता राजन् अन्याश्च शतशः पुनः। तसा समुद्रगाः पुण्याः स्वल्प पुण्याह्य नब्धिगाः।।
समुद्रगा नान्ताः पुण्याः सर्वदौधवहास्तु यः। मासद्वय श्रावणदौताश्च सर्वा रजस्वत्भाः।।22
गर्ग संहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय 3 में ब्रह्मा एवं नारायण के संवाद में ब्रह्मा के पूछने पर नारायण अपने द्वापर युगीन अवतरण की बात बताते हुए कहते हैं कि गंगा ही द्वापर में मेरी पत्नी ‘मित्रवृन्दा’ होगी। अवान्तर युग में इन्हीं पौराणिक विवरणों के आधार पर गंगा के श्री विग्रह की मूर्तियों एवं चित्रों में अवतरण भी की गई है। मकरवाहिनी के रूप में गंगा की आकृति भारत के विभिन्न अंचलों में निर्मित की गई।
यदि भीष्म राजा शान्तनु एवं गंगा के पुत्र हैं तो गंगा का व्यक्तित्व कैसे नकारा जा सकता है। सूर्य, चन्द्र, बुध, चन्द्र, बुध, शनि, मंगल, तथा पृथ्वी आदि ग्रह मात्र नहीं बल्कि जीवन्त व्यक्तित्व है। भारतीय देवशास्त्र से लेकर पुराण मिथकों तक इन व्यक्तित्वों का व्यावहारिक रूप हम पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि प्राकृतिक उपादान सचमुच इतने शाश्वत तथा जीवन्त है तो इनका व्यक्तित्व अब क्यों नहीं दृष्टिगोचर होता? कहा जाता है कि सत्य वह नहीं है जो प्रत्यक्ष सिद्ध है। सत्य वह भी होता है जो परोक्ष होता है। आज के सूर्योदय की सत्यता तो प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। परन्तु कल होने वाले सूर्योदय परोक्ष होते हुए भी उतना ही सत्य है आखिर क्यों, इसलिए कि यह प्राप्त प्रमाण में सिद्ध है। इसी आप्त प्रमाण के आधार पर हम पितरों को पिण्डदान देते हैं। मृतकों का श्राद्ध करते हैं। पाप से बचते हैं तथ पुण्य में प्रवृत्त होते हैं। इस संसार का सारा अतिभौतिक सत्य प्राप्त प्रमाण के ही आधार पर स्वीकार्य सिद्ध होता है। गंगा की पवित्रता उसका नारीत्व, मातृत्व अथवा देवीत्व भी उसी दृष्टि से निर्विवाद तथा स्वीकार्य है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पौराणिक उपाख्यानों में गंगा को जीवन्त नारी की दृष्टि से देखा गया। मानवी बनते ही गंगा एक भौतिक जल प्रवाह नहीं रह जाती बल्कि वह नाना प्रकार के जीवन भोगों में आबद्ध एक सांसारिक प्राणी का रूप धारण कर लेती है। वह कभी दैवी शक्ति से ओत-प्रोत देवता के रूप में पृथ्वी पर उतरती है, तो कभी अष्टवसुओं की कातरता पर सदय बनकर उन्हें जन्म देने के लिए शान्तनु की पत्नी बन जाती है। कभी अपनी सपत्नियों से अभिशप्त होकर प्रिय वियोग का दुःख भागती है तो कभी किसी महान ऋषि की तपश्चर्या से प्रभावित होकर उस पर कृपालु बन जाती है। गंगा ने भारतीय संस्कृति धर्म एवं समाज का निर्माण किया है। वह भारत के उत्थान-पतन की मूक साक्षी रही है। वह सच्चे अर्थों में एक जीवन्त नारी है।
संदर्भ सूची-
1. ‘‘केचित्समरत्थनुसरन्ति च केचिदन्ये। पश्यन्ति पुण्यपुरूषाः कति च स्मृशन्ति।।
मातु मुरारि चरणाम्ब्रजमाध्वि! गंगे। भाग्याधिकाः कतिपय भवती पिबन्ति।। पं0 राज जगन्नाथ
2. तैत्तिरीय आरण्यक 10त्र.01.2013
3. निरूक्त 9/26
4. छा0उ0 6/10/1
5. मुण्डकोपनिषद 2/1/9
6. गंगा त्रिपथगा भागीरथी त्रिदशदीर्घिका त्रिस्तोता जाह्नवी मन्दाकिनी भीष्म कुमारसुः।।
सरिद्वरा विणुपदी, सिद्धस्वः सवर्गिखापगा। ऋषिकुल्या हैमवती स्वर्गपी हररखखरा।। अभिधान चिन्तामणि/तिर्यक काण्ड
7. गंगा विष्णुपदी जह्नुतनया सुरनिम्नगा। भागीरथी त्रिपथगा त्रिस्तोता भीष्मसूरिय।। अमरकोश 1/10/31
8. त्रिदशदीर्घिका प्रोक्ता 3/673
9. त्रिकाण्डशेष 1/10/22, 23
10. शिवपुराण, शतकोटि रूद्र संहिता, अध्याय 24 से 42 तक ब्रह्मपुराण अध्याय, पद्मपुराण अध्याय, 39
11. शिव पुराणः अध्याय 5 से 7
12. वही, अध्याय 3
13. वही, कुमार खण्ड अ0 2 से 5 तथा कुमारसम्भव सर्ग।
14. देवी भागवत, स्कन्ध 2 अ0 3.
15. वही, स्कन्ध 9 अ0 6.
16. वही, स्कन्ध 9 अ0 12.
17. वही, स्कन्ध 9 अ0 14.
18. गर्ग संहिता, वृन्दावन खण्ड अ0 3, श्लोक 31.
19. वामन पुराण, अ0 2 श्लोक 35 से 48 तक
20. देवी भागवत स्कन्ध, 9 अ0 13.
21. वही, 6/12/3 से 7.
22. विश्व सभ्यता का इतिहास : डॉ0 उदय नारायण राय पृ0 338
निरूपमा सिंह
(जे0आर0एफ0), शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।