अंकुर त्यागी
कार्य-कारण सिद्धान्त को लेकर भारतीय-दर्शन में अनेक मत हैं किन्तु कार्य कारणात्मक होता है, इस विषय में प्रायः सभी एकमत हैं। अर्थात् कोई भी कार्य बिना कारण के सम्भव नहीं, प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। यही सिद्धान्त कारणतावाद कहलाता है।
साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी ईश्वरकृष्णकृत साङ्ख्यकारिका की सुप्रसिद्ध टीका है। इसके प्रणेता वाचस्पति मिश्र हैं। कार्य-कारण सिद्धान्त के विषय में इन्होंने तीन मतों को प्रस्तुत करके उनका खण्डन किया है तत्पश्चात् सांख्य सम्मत चतुर्थ मत की उपस्थापना की है। ये तीन मत क्रमशः बौद्धों अद्वैत वेदान्तियों तथा नैयायिकों के हैं।
प्रथम मत के अनुसार असत् कारण से सत् कार्य की उत्पत्ति होती है।1 बौद्धों का मत है कि कारण के नष्ट होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। उनके अनुसार बीज से अङ्कुर की उत्पत्ति तभी हो सकती है जब बीज नष्ट हो जाए।2
वाचस्पति मिश्र इस मत का खण्डन करते हैं। वह कहते हैं कि यदि असत् से सत् की उत्पत्ति मान ली जाए तो जगत् पा०चभौतिक, त्रिगुणात्मक, सुख-दुःख-मोहात्मक रूप वाला नहीं होगा क्योंकि कार्य सदैव कारण के गुण वाला होता है और असत् कारण से शब्दादि रूप वाला जगत् कैसे हो सकता है।3 वह कहते हैं कि यद्यपि कारण बीज व मृत्तिका-पिण्ड के प्रध्वंस से ही कार्य अङ्कुर व घट की उत्पत्ति होती है तथापि कार्य की इस उत्पत्ति में कारण का असद् रूप अभाव हेतु नहीं बनता अपितु सद् रूप भाव ही हेतु बनता है।4 यदि अभाव को ही कारण मान लिया गया तो अभाव तो सर्वत्र सुलभ है इससे तो सर्वत्र सभी कार्य उत्पन्न होने लगेंगे।5
द्वितीय मत वेदान्तियों का है। इनके अनुसार समस्त कार्य जगत् एक ही सत् (ब्रह्म) का कल्पित या अतात्त्विक परिणाम है।6 जैसे शुक्ति में रजत के न होने पर भी उसे रजत समझ लिया जाता है उसी प्रकार जगत् के वस्तुतः न होते हुए भी ब्रह्म में उसे कल्पित कर लिया जाता है। जिस प्रकार शुक्ति का वास्तविक ज्ञान होने पर रजत की पूर्व प्रतीति मिथ्या लगने लगती है उसी प्रकार तत्त्वज्ञान द्वारा माया का बन्धन हट जाने से पूर्व प्रतीत होने वाला जगत् मिथ्या लगने लगता है।
वाचस्पति मिश्र इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि शब्दादि समस्त प्रप०च को एक ब्रह्म का विवर्त अर्थात् अतात्त्विक परिणाम मान लेने पर भी सत् से सत् उत्पत्ति का यह सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यह ब्रह्म की प्रप०चात्मक प्रतीति भ्रम है।7 शब्दादि प्रप०चात्मक जगत् की यह प्रतीति मिथ्या है- यह बात उस प्रतीति में बिना कोई बाधक उपस्थित किए कैसे कही जा सकती है।8 यानि जब सीपी में रजत की प्रतीति होती है तो उसके बाद यह चाँदी नहीं केवल सीपी है इस प्रतीति से बाध होने पर उसका मिथ्यात्व प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म में विद्यमान जगत की प्रतीति का कोई बाधक दीख पड़ने पर ही उसे मिथ्या कहा जा सकेगा, अन्यथा नहीं। अतः अद्वैत वेदान्तियों का भी यह मत पूर्णतः उपयुक्त नहीं है।
कारणतावाद के तीसरा मत नैयायिकों व वैशेषिकों का है। इनके अनुसार सत् कारण से असत् कार्य की उत्पत्ति होती है।9 इनका मत है कि परमाणु आदि में पूर्णतः अविद्यमान द्वयणुक इत्यादि अभिनवकार्य उत्पन्न होते हैं।
इसका खण्डन करते हुए सांख्यवादी वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि सत् से असत् की उत्पत्ति सम्भव नहीं।10 सत् कारण से सत् कार्य की ही उत्पत्ति हो सकती है असत् कार्य की नहीं। यदि कारण-व्यापार से पूर्व कार्य असत् होता तो उसे कोई भी सत् नहीं बना सकता।11 एक ही घट कारण व्यापार के पूर्व असत् और कारण व्यापार के अनन्तर सत् नहीं हो सकता क्योंकि उस समय धर्मी घट के अविद्यमान रहने पर ‘असत्त्व’ धर्म उसमें आधेय रूप से कैसे रहेगा और आधेय धर्म तो आधार-भूत धर्मी में ही रह सकता है।12 अतः सत् से असत् की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त बिल्कुल उपयुक्त नहीं है।
इस तृतीय मत के खण्डन के लिए यह सांख्य सम्मत सत्कार्यवाद13 के प्रथम हेतु14 को प्रस्तुत करते हैं। इसके अनुसार कारण व्यापार से पूर्व कार्य यदि असत् हो तो वह कारण (उस कार्य के प्रति) अकरण बना रहता है। अर्थात् कार्य अपने कारण में यदि सत् होगा तो तभी उसकी उत्पत्ति हो सकेगी अन्यथा नहीं।
सत्कार्यवाद के पाँचों हेतुओं को सामान्य दृष्टि से हम इस प्रकार समझ सकते हैं-
1. ‘असदकरणात्’ अर्थात् यदि कार्य अपने कारण में सत् न होकर असत् हो तो वह कारण उसके प्रति ‘अकरण’ रहता है अर्थात् करण नहीं बन सकता। यदि ऐसा नहीं होता तो किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। इसके लिए दूसरा हेतु देते हैं-
2. ‘उपादान ग्रहणात्’ अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के लिए उसके उपादान कारण का ही ग्रहण किया जाता है। अतः इससे पहले हेतु को बल मिलता है कि कार्य कारण में सत् होता है। अब यह कि उपादान ही ग्रहण क्यों किया जाता है तब इसके लिए तृतीय हेतु है-
3. ‘सर्वसम्भवाभावात्’ अर्थात् सभी कारणों से सभी कार्य उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। यह प्रथम दोनों हेतुओं को बल देता है। यहाँ इस हेतु की पुष्टि के लिए चतुर्थ हेतु है कि सभी कारणों से सभी कार्य क्यों उत्पन्न नहीं होते तो इसके लिए कहते हैं कि-
4. ‘शक्तस्य शक्यकरणात्’ अर्थात् जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न करने में शक्त यानि समर्थ है वही कारण उस कार्य को उत्पन्न कर सकता है। जिसमें शक्तता नहीं, वह नहीं कर सकता। इसके बाद अन्तिम हेतु को प्रस्तुत करते हैं-
5. ‘कारणभावात्’ अर्थात् कार्य कारणात्मक अर्थात् कारण से अभिन्न उसी स्वरूप वाला होता है। इससे भी निष्कर्ष निकलता है कि कार्य कारणव्यापार से पूर्व ही अपने कारण में विद्यमान रहता है।
इन पाँचों हेतुओं को वाचस्पति मिश्र ने तत्त्वकौमुदी में बड़े स्पष्ट ढंग से सिद्ध किया है।
कारण-व्यापार के अनन्तर जैसे कार्य सत् होता है उसी प्रकार उसके पूर्व भी सत् ही होता है। सत् कार्य का कारण से केवल अभिव्यक्त होना भर शेष रहता है।15 जैसे तिलों को पेरने पर उनमें पहले से ही अनभिव्यक्त रूप से विद्यमान तेल की अभिव्यक्ति हो जाती है। इसी प्रकार अन्य बहुत से उदाहरण हैं किन्तु असत् वस्तु के उत्पन्न होने में कोई दृष्टान्त नहीं।16 वस्तुतः असत् वस्तु कभी उत्पन्न होती हुई देखी ही नहीं जाती।
उपादान ग्रहण का अर्थ है कार्य के साथ कारण का सम्बन्ध है।17 कार्य के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध कारण ही कार्य को उत्पन्न करता है और यदि कार्य पूर्वतः असत् है तो उसका कारण के साथ सम्बन्ध असम्भव है।18 इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि घटादि मृत्तिका से सम्बन्ध नहीं होते तो वे उससे उत्पन्न भी नहीं होते जैसे कि मृत्तिका से पटादि उत्पन्न नहीं होते।
अब यह जिज्ञासा होती है कि कार्य अपने से असम्बद्ध कारण से उत्पन्न क्यों नहीं होता तो इसका उत्तर है कि सभी कार्यों की सभी कारणों से उत्पत्ति सम्भव नहीं। कारण से असम्बद्ध कार्य की उत्पत्ति मान लेने पर असम्बद्धता के सर्वत्र समान रूप से प्राप्त होने के कारण सभी कार्य सभी कारणों से अनियन्त्रित रूप से उत्पन्न होने लगेंगे।19 इस प्रकार तो मृत्तिका से पट, जल से घट, तिल से अन्न होने लगेगा।
अब यदि उपरोक्त बात छोड़ भी दे तो भी बाधा है, क्योंकि कार्य विशेष की शक्ति या सामर्थ्य से युक्त कारण ही उस कार्य को उत्पन्न कर सकता है,20 अन्य नहीं। कारण की कार्य-विशेष को उत्पन्न करने की यह शक्ति अतीन्द्रिय या अगोचर होने के कारण उस कार्य-विशेष को देखकर अनुमान की जाती है।21 इस हेतु से पूर्व अव्यवस्थाओं का भी निवारण होता है। क्योंकि जो कारण जिस कार्य की उत्पत्ति में शक्त है, उस शक्त कारण से उसी शक्य कार्य के उत्पन्न होने से कारण और कार्य परस्पर असम्बद्ध भी नहीं हो सकते।22
अन्तिम हेतु ‘कारणभाव’ भी इसी की पुष्टि करता है कि कार्य कारण में पहले ही सत होता है क्योंकि कार्य कारण से भिन्न नहीं होता और कारण तो सत् है तब कार्य उससे भिन्न अर्थात् असत् कैसे हो सकता है।23 पट तन्तुओं का ही धर्म यानि विशेष अवस्था है।24 जो जिससे भिन्न होता है वह उसकी विशेष अवस्था नहीं हो सकता जैसे गौ और अश्व।25 तन्तु और पट में उपादानोपादेय-भाव है इसलिए दोनों में भेद नहीं26 किन्तु जब दो पदार्थ परस्पर भिन्न होते हैं तो उनमें उपादानोपादेय-भाव होता ही नहीं जैसे घट एवं पट।27
कारण और कार्य यानि तन्तु और पट में परस्पर संयोग या विभाग का अभाव होता है।28 उपादान भूत तन्तुओं का भार उससे उत्पन्न कार्यभूत पट के भार से भिन्न नहीं होता29 अतः इससे भी कारण-कार्य की अभिन्नता दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार कारण-कार्य में अभेद सिद्ध होने से स्पष्ट है कि तन्तु ही आतान-वितान रूप विशिष्ट अवयव-सन्निवेश के द्वारा भिन्न अवस्था को प्राप्त होने पर पट हो जाते हैं।30 जैसे कछुए के अंग उसके शरीर में प्रविष्ट होकर गुप्त हो जाते हैं और बाहर निकलने पर प्रकट हो जाते हैं उसी प्रकार मृत्तिका आदि से घट प्रकट होने पर उत्पन्न तथा उसी में मिलने पर नष्ट कहे जाते हैं।31
इस प्रकार कार्य-कारण में अभेद सम्बन्ध है और कारण कार्य को ही अभिव्यक्त करता है जिससे जगत् की समस्त वस्तुओं द्वारा उनके मूल कारण प्रकृति का अनुमान कर लिया जाता है। यही युक्ति सत्कार्यवाद की सिद्धि करती है।
संदर्भ
1.असतः सत् जायते। (सां.का.त.कौ., का. 9)
2.वहीं
3.यदि पुनरसतः सज्जायेत, असत्, निरुपाख्यं कारणं सुखादिरूपशब्दाद्यात्मकं कथं स्यात्? (सां.का.त.कौ., का. 9)
4.यद्यपि बीजमृत्पिण्डादिप्रध्वंसानन्तरमङ्कुरघटाद्युत्पत्तिरुपलभ्यते तथापि न प्रध्वंसस्य कारणत्वम्, अपितु भावस्यैव बीजाद्यवयस्य।
सां.का.त.कौ,का9
5.अभावात्तु भावोत्पत्तौ तस्य सर्वत्र सुलभत्वात् सर्वदा सर्वकार्योत्पादप्रसङ्ग इति। (सां.का.त.कौ., का. 9)
6.एकस्य सतो विवर्तः कार्यजातं न वस्तुसत्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
7.अथैकस्य सतो विवर्तः शब्दादिप्रप´्चस्तथापि सतः सज्जायेत इति न स्यात्। न चास्याद्वयस्य प्रप´्चात्मकत्वम्, अपि त्वप्रप´्चस्य प्रप´्चात्मकतया प्रतीतिर्भ्रम एव। (सां.का.त.कौ., का. 9)
8.प्रप´्चप्रत्ययश्चासति बाधके न शक्यो मिथ्येति वदितुम् इति। (सां.का.त.कौ., का. 9)
9.सतः असत् जायते। (सां.का.त.कौ., का. 9)
10. नासदुत्पादो नृश्रृङ्गवत्। (सांख्यसूत्र 1/114)
11.असत् चेत् कारणव्यापारात् पूर्वं कार्यम्, नास्य सत्त्वं कर्तुं केनापि शक्यम्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
12.वहीं
13.असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम्।(सांख्यकारिका,का9)
14.असदकरण (कारिकांश, सांख्यकारिका, कारिका 9)
15.कारणाच्चास्य सतोऽभिव्यक्तिरेववाशिष्यते। (सां.का.त.कौ., का. 9)
16.असतः करणे तु न निदर्शनं कि´्चदस्ति। (सां.का.त.कौ., का. 9)
17.उपादानानि करणानि, तेषां ग्रहणं कार्येण सम्बन्धः। (सां.का.त.कौ., का. 9)
18.कार्येण सम्बद्धं कारणं कार्यस्य जनकम्, सम्बन्धश्च कार्यस्यासतो न सम्भवति, तस्मादिति। (सां.का.त.कौ., का. 9)
19.असम्बद्धस्य जन्यत्वे असम्बद्धत्वाविशेषेण सर्वं कार्यजातं सर्वस्माद् भवेत्। (सा.का.त.कौ.का. 9)
20.असम्बद्धमपि सत् तदेव करोति यत्र, यत्कारणं शक्तं, शक्तिश्च कार्यदर्शनादवगम्यते। (सां.का.त.कौ., का. 9)
21.सांख्यतत्त्वकौमुदी, आद्या प्रसाद मिश्र कृत हिन्दी व्याख्या प्रभा सहित, पृष्ठ 149
22.सांख्यतत्त्वकौमुदी, आद्या प्रसाद मिश्र कृत हिन्दी व्याख्या प्रभा सहित, पृष्ठ 150
23.न हि कारणाद्भिन्नं कार्यम्, कारणं च सद्धिति कथं तदभिन्नं कार्यमसद्भवेत्? (सां.का.त.कौ., का. 9)
24.धर्मश्च पटस्तन्तूनां, तस्मान्नार्थान्तरम्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
25.इह यद्यतो भिद्यतो तत तस्य धर्मों न भवति, तथा गौरश्वस्य। (सां.का.त.कौ., का. 9)
26.उपादानोपादेयभावश्च तन्तुपटयोः, तस्मान्नार्थान्तरत्वम्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
27.ययोरर्थान्तरत्वं न तयोरुपादानोपादेयभावः, यथा घटपटयोः। (सां.का.त.कौ., का. 9)
28.नार्थान्तरत्वं तन्तुपटयोः संयोगप्राप्त्यभावात्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
29.पटस्तन्तुभ्यो न भिद्यते, गुरुत्वान्तरकार्याग्रहणात्। (सां.का.त.कौ., का. 9)
30.एवमभेदे सिद्धे तन्तव एव तेन-तेन संस्थानभेदेन परिणताः पटः, न तन्तुभ्योऽर्थान्तरं पटः। (सां.का.त.कौ.का. 9)
31. यथा हि कूर्मस्याङ्गानि कूर्मशरीरे निविशमानानि तिरोभवन्ति, निःसरन्ति चाविर्भवन्ति। (सां.का.त.कौ., का. 9)
अंकुर त्यागी
शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।