Wednesday, 2 July 2014

भारत में महिला शिक्षा के बदलते आयाम तथा उनका महिलाओं पर प्रभाव


अमित तिवारी

भारतीय परम्परा में नारी को देवि, माँ, सहचरि, प्राण के रूप में बताया गया है, पर क्या पुरुष ने नारी के इन रूपों का सम्मान करके, उसकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की है? इसका उत्तर स्वामी विवेकानन्द ने निम्न प्रकार दिया हैः- स्त्रियों को सदैव असहायता और दूसरों पर दासवत् निर्भरता की शिक्षा दी गई है। यह शिक्षा देकर ही पुरुष-युगों से नारी पर शासन करता आ रहा है। किन्तु अब नारी, घर की चहारदीवारी के अन्दर घुट-घुटकर जिन्दगी के दिन काटने वाली बेपढ़ी-लिखी घूँघट की गुड़िया नहीं है। आज वह शिक्षित महिला के रूप में बाह्य जगत् में प्रवेश कर रही है। और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष से होड़ ले रही है। प्राचीन भारत से लेकर वर्तमान भारत तक महिला शिक्षा के विकास पर निम्नलिखित प्रकार दृष्टि डाली जा सकती है-

वैदिक काल में महिला शिक्षा- इस युग में घोषा, गार्गी, मैत्रेयी, शकुन्तला आदि के समान अनेक विदुषी महिलाएँ थी। यह प्रमाण है कि महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था किन्तु, उनके लिए पृथक् शिक्षालयों की व्यवस्था नहीं थी। हाँ, सह-शिक्षा का प्रचलन अवश्य था। परन्तु उस युग में परिवार ही स्त्रियों की शिक्षा का केन्द्र था, जहाँ उनको अपने पिता, पति या कुल-गुरू से शिक्षा प्राप्त होती थी। यह आज्ञा केवल कुलीन और व्यवसायिक वर्गों की महिलाओं को दी गई थी। अतः केवल उन्हीं की शिक्षा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, बहुसंख्यक सामान्य महिलायें शिक्षा से विमुख ही रहीं।
मुस्लिम शासन काल में महिला शिक्षा- मुस्लिम युग में हिन्दुओं और मुसलमानों-दोनों में पर्दा-प्रथा एवं बाल-विवाह का प्रचलन था। इसलिए छोटी बालिकाओं के अतिरिक्त, शेष स्त्रियों का विशाल समूह शिक्षा-प्राप्ति के लाभ से वंचित रहा। जहाँ तक अल्प आयु की बालिकाओं का प्रश्न था, वे भी केवल कुछ ही वर्षों की प्राथमिक शिक्षा से लाभान्वित होती थीं। शाही घरानों की अनेक विदुषी नारियों के नाम आज भी इतिहास में पढ़ने को मिलते हैं यथा- रजिया सुल्ताना, चाँद सुल्ताना, गुलबदन बेगम, जेबुन्निसा बेगम आदि। हिन्दू विदुषियों में रानी रूपमती, रानी दुर्गावती, इन्दौर की शासिका अहिल्याबाई और शिवाजी की माता जीजाबाई के नाम महिला शिक्षा के जगत् में आज भी स्मरणीय है।
ब्रिटिश भारत में महिला शिक्षा
(क) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन-काल में- ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महिला शिक्षा को अनावश्यक समझकर उसकी ओर रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया क्योंकि उसे अपने प्रशासकीय एवं व्यावसायिक कार्यालयों के लिए शिक्षित महिलाओं की आवश्यकता नहीं थी। इसके अतिरिक्त, महिला शिक्षा के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण अत्यधिक रूढ़िवादी था। सन् 1938 में विलियम एडम ने महिला शिक्षा का वर्णन करते हुये लिखा- शिक्षा केवल पुरुषों के लाभार्थ है, और समस्त महिला-जगत् को विधिपूर्वक अज्ञानता को अर्पित कर दिया गया है।
कम्पनी के शासनकाल में बालिका-विद्यालयों की स्थापना मिशनरियों और सरकारी एवं गैर-सरकारी व्यक्तिगत प्रयासों के फलस्वरूप हुई। सन् 1851 में मिशनरियों द्वारा 371 बालिका-विद्यालयों का संचालन किया जा रहा था, जिनमें शिक्षा ग्रहण करने वाली बालिकाओं की संख्या 11,193 थी। व्यक्तिगत प्रयासों के फलस्वरूप स्थापित किये जाने वाले बालिका-विद्यालयों में सबसे प्रसिद्ध कलकत्ता का बैथ्यून स्कूल था। इसका शिलान्यास सन् 1849 में सरकार के कानून-सदस्य, जे0ई0डी0 बैथ्यून के द्वारा किया गया था।
(ख) 1854 से 1882 तक- सन् 1854 के ‘वुड के आदेश-पत्र’ में सर्वप्रथम महिला-शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया गया और कहा गया कि इस शिक्षा का प्रसार करने के लिये सभी सम्भव प्रयास किये जायें। परिणामतः नव-निर्मित शिक्षा-विभागों ने अनेक स्थानों पर बालिकाओं के लिए प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की। इस प्रकार, कम्पनी द्वारा महिला-शिक्षा की प्रगति आरम्भ हुई। ‘‘सन् 1882 में 2,697 बालिका शिक्षालय थे और उनमें अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 1,27,066 थी।’’
(ग) 1882 से 1902 तक- सन् 1882 के ‘हण्टर कमीशन’ ने तत्कालीन महिला-शिक्षा की दयनीय दशा से द्रवित होकर, जोरदार शब्दों में यह सिफारिश की महिला-शिक्षा अब भी अत्यधिक पिछड़ी हुई दशा में है और प्रत्येक उचित विधि से उसका विकास किया जाना आवश्यक है। ‘कमीशन’ के विचारों ने न केवल सरकार को, वरन् जनता को महिला-शिक्षा का प्रसार करने की प्रेरणा प्रदान की। एम0एन0 मुकर्जी के अनुसार जनता एवं सरकार के सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप बालिकाओं की शिक्षा की द्रुतगति से प्रगति हुई और 1902 में सब प्रकार के बालिका-शिक्षालयों की संख्या 6,107 हो गई।
(घ) 1902 से 1921 तक- 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आरम्भ होने वाले पुनरुत्थान के कारण महिला-शिक्षा की प्रभूत प्रगति हुई। विद्या-प्रेमी लार्ड कर्जन ने महिला-शिक्षा की पतित अवस्था से क्षुब्ध होकर, उसका उत्थान करने का संकल्प किया। उन्होंने 1904 का शिक्षा-सम्बन्धी सरकारी प्रस्ताव पारित करवा के महिला शिक्षा के प्रसार के लिये अधिक धन व्यय किया, आदर्श बालिका-विद्यालयों की स्थापना की और अध्यापिका-प्रशिक्षण का प्रावधान किया। 1913 के शिक्षा-सम्बन्धी सरकारी प्रस्ताव की सिफारिशों के फलस्वरूप महिला-शक्षा की प्रत्येक स्तर पर प्रगति हुई।
ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज, सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी जैसी अनेक सुधारवादी सामाजिक संस्थाओं ने महिला-शिक्षा के मार्ग को प्रशस्त कया। 1904 में श्रीमती एनी बेसेन्ट ने बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू गर्ल्स स्कूल का निर्माण किया। सन् 1916 में कर्वे और भंडारकर के प्रयासों के परिणाम स्वरूप पूना में महिला विश्वविद्यालय (एस0एन0डी0टी0) का शिलान्यास हुआ। 1916 में दिल्ली में महिलाओं के लिए लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज की स्थापना हुई। सन् 1921 में बालिकाओं की कुल शिक्षा-संस्थायें 26,144 थीं और उनमें अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 14 लाख से अधिक थी।
(ङ) 1921 से 1947 तक- इस अवधि में अग्रांकित कारणों के फलस्वरूप महिला-शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई- (1) महात्मा गाँधी के राष्ट्रीय आन्दोलन के कारण महिलाओं में उत्पन्न होने वाली जागृति; (2) सन् 1925 में ‘‘राष्ट्रीय महिला परिषद’’ की स्थापना; (3) 1927 में आयोजित किये गये ‘‘अखिल भारतीय महिला-शिक्षा-सम्मेलन’’ द्वारा शैक्षिक अवसरों की समानता की माँग; (4) द्वैध शासन की अवधि में भारतीय शिक्षा पर भारतीय मंत्रियों का नियंत्रण; (5) प्रान्तीय स्वशासन की अवधि में महिला-शिक्षा को प्रोत्साहन; (6) द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में विभिन्न प्रशासकीय एवं व्यावसायिक कार्यालय के लिए शिक्षित पुरुषों एवं महिलाओं की माँग; और (7) ‘‘शारदा अधिनियम’’ द्वारा बाल-विवाह का निषेध। उल्लिखित कारणों ने महिला-शिक्षा के विकास में अपूर्व योग दिया। 1947 में महिला-शिक्षा सम्बन्धी संस्थाओं की संख्या 28,196 थी और उनमें अध्ययन करने वाली बालिकाओं की 42,97,785 थी।
स्वतंत्र भारत में महिला शिक्षा- स्वतंत्र भारत में नारी की सामाजिक स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। जिन बन्धनों में वह बँधी हुई थी, वे शनैः-शनैः ढीले हुए। जिस स्वतंत्रता से उसे वंचित कर दिया गया था, वह उसे पुनः प्राप्त हुए। उसके सम्बन्ध में पुरुषों का दृष्टिकोण और मान्यताएँ बदली। भारतीय संविधान ने भी नारी को समकक्षता प्रदान करते हुए घोषित किया हैः- ‘‘राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।’’
स्वतंत्र भारत में नारी-जाति ने करवट बदली है। उसने अपने वास्तविक महत्व को जानना और पहिचानना शुरू कर दिया है और वह अपनी गिरी हुई दशा के प्रति सचेत हुई है। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत नारी- जागरण का युग बन गया है और महिला-शिक्षा के सभी क्षेत्रों में विलक्षण क्रान्ति से सम्बन्धित तथ्यों एवं परिणामों का विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत यथस्थान वर्णन कर रहे हैं।
(क) राष्ट्रीय महिला-शिक्षा समिति, 1958- भारत सरकार ने सन् 1958 में महिला शिक्षा, की विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव प्रस्तुत करने के लिये श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में राष्ट्रीय महिला शिक्षा-समिति की नियुक्ति की। इस समिति को देशमुख समिति भी कहा जाता है।
(ख) राष्ट्रीय महिला-शिक्षा परिषद्, 1959- देशमुख समिति की सिफारिश को स्वीकार करके, केन्द्रीय शिक्षा-मंत्रालय ने 1959 में राष्ट्रीय महिला-शिक्षा परिषद का निर्माण किया। 1964 में इसका पुनर्गठन किया गया।
(ग) हंसा मेहता समिति, 1962- राष्ट्रीय महिला-शिक्षा-परिषद् का एक मुख्य कार्य-विद्यालय स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करना था। इन समस्याओं में सर्वप्रमुख यह था क्या विद्यालय स्तर पर बालकों एवं बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में अन्तर होना चाहिए?’ परिषद ने इस समस्या पर विचार करने हेतु श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की, जिसे हंसा मेहता समिति कहा गया।
(घ) कोठारी कमीशन व महिला-शिक्षा, 1964- कोठारी कमीशन ने महिला-शिक्षा के समस्त पक्षों के विषय में महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं जो निम्नलिखित हैंः-
1. प्राथमिक शिक्षा-
(क) भारतीय संविधान द्वारा प्रतिपादित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बालिकाओं में अनिवार्य शिक्षा    का प्रसार करने के लिये विशेष प्रयास किये जायें।
(ख) बालिकाओं के बालकों के प्राथमिक विद्यालय में भेजने के लिये जनमत का निर्माण हो।
(ग) उच्च प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं के पृथक् विद्यालयों की स्थापना करने का प्रयत्न हो
(घ) बालिकाओं को मुफ्त पुस्तकें, लेखन सामग्री एवं वस्त्र देकर, शिक्षा प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित किया जाये।
(ङ) 11-13 वय-वर्ग की बालिकाओं के लिये अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
2. माध्यमिक शिक्षा-
(क) बालिकाओं के लिये पृथक विद्यालयों की स्थापना की जाये जहाँ यह सम्भव नहीं हैं, वहाँ के विद्यालय में कुछ अध्यापिकाओं की अनिवार्य रूप से नियुक्ति की जाये।
(ख) बालिकाओं को छात्रावास एवं यातायात के साधनों की सुविधाएँ प्रदान की जायें।
(ग) छात्रवृत्तियों और अल्पकालीन एवं व्यावसायिक शिक्षा की योजनाएँ आरम्भ की जायें।
3. उच्च शिक्षा
(क) छात्रवृत्तियों एवं मितव्ययी छात्रावासों की व्यवस्था करके, बालिकाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त       करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
(ख) बालिकाओं के लिए पूर्व-स्नातक स्तर पर पृथक कॉलेजां का निर्माण किया जाए।
(ग) बालिकाओं को कला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, मानवशास्त्र आदि पाठ्य विषयों में से चयन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाये।
(घ) शिक्षा, गृह-विज्ञान एवं सामाजिक कार्य के पाठ्य-विषयों को विकसित करके, उनको बालिकाओं के लिए अधिक आकर्षक बनाया जाये।
(ङ) बालिकाओं को प्रबन्धन एवं प्रशासन की उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाये।
(च) एक या दो विश्वविद्यालयों में महिला-शिक्षा की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए अनुसन्धान केन्द्रों की स्थापना की जाए।
(ङ) महिला समाख्या कार्यक्रम, 1988- इस कार्यक्रम को 1988 में नई शिक्षा नीति (1968) का एक परिणाम के रूप में शुरू किया गया था। यह विशेष रूप से ग्रामीण सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में पिछड़े समूहों से महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए बनाया गया था। जब सर्व शिक्षा अभियान का गठन किया गया था, उस समय एक समिति का गठन कर इस कार्यक्रम को देखने के लिए कि यह कैसे काम कर रहा है, और किस प्रकार नए परिवर्तन कर इसे बनाया जा सकता है इसकी शुरुआत की गई।
(च) कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय (के0जी0बी0वि0), 2004- इस योजना को जुलाई 2004 में शुरू किया गया था। प्राथमिक स्तर पर लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने के लिये यह वंचितों और ग्रामीण क्षेत्रों में जहां महिलाओं के लिये साक्षरता का स्तर बहुत कम है के लिए मुख्य रूप से शुरू किया गया था। पिछड़े वर्ग के लिए 75 प्रतिशत और बी0पी0एल0 के लिए 25 प्रतिशत महिला स्कूलों की स्थापना की गई।
(छ) प्राथमिक लेवल (एन0पी0ई0जी0ई0एल0) पर लड़कियों की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम, 2003- इस कार्यक्रम को जुलाई, 2003 में शुरू किया गया था। यह लड़कियों को सर्व शिक्षा अभियान के जो अन्य योजनाओं के माध्यम से उन तक पहुँचने में सक्षम नहीं थे, के लिये शुरू किया गया था। सर्वप्रथम इस योजना में भारत के 24 राज्यों को कवर किया गया है। एन0पी0ई0जी0ई0एल0 के तहत मॉडल स्कूलों को सेट किया गया है जिससे कि लड़कियों के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर प्रदान किये जा सकें।
प्रत्येक पंचवर्षीय योजनाओं में भी महिला शिक्षा के उत्थान के लिए विविध योजनाओं को क्रियान्वित किया गया है। जिनके परिणाम स्वरूप पिछले सात दशकों में महिला साक्षरता दर में होने वाली वृद्धि को निम्न तालिका द्वारा समझा जा सकता है।


जनगणना वर्ष कुल साक्षरता पुरुष साक्षरता महिला साक्षरता पुरुष,महिला साक्षरता दर में अन्तर

1951 18-33 27-16 8.86         18-30
1961 28-3         40-4         15-35 25-05
1971 34-45 45-96 21-97 23-98
1981 43-57 56-38 29-76 26-62
1991 52-21 64-13 39-29 24-84
2001 64-83 75-26 53-67 21-69
2011 74-04 82-14 65-46 16-68

उपर्युक्त आँकड़ों के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सरकार व अन्य समाजसेवी संस्थाओं के प्रयासों द्वारा भारत में महिला शिक्षा में निरन्तर उत्थान हो रहा है। परन्तु आज भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर कम है जो कि हमें यह संदेश दे रही है कि हमारी सरकार व समाज को महिला शिक्षा के उत्थान के लिये पुनः दृढ़ संकल्प लेने की आवश्यकता है क्योंकि जब तक भारत की प्रत्येक माँ, बेटी शिक्षित नहीं हो जाती है तब तक भारत का विकास अधूरा रहेगा।
महिला शिक्षा की समस्यायें एवं समाधान- निःसंदेह स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं। के0 नटराजन ने महिलाओं की स्थिति में आए परिवर्तन के सम्बन्ध में लिखा है कि यदि सौ वर्ष पूर्व मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति आज के जीवन को देखे तो उसे आश्चर्यचकित कर देने वाला सबसे पहला तथा सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन महिलाओं की स्थिति में हुई क्रान्ति ही दृष्टिगोचर होगा। परन्तु इनके बावजूद भी महिला शिक्षा की वर्तमान स्थिति को सन्तोषप्रद स्वीकार नहीं किया जा सकता है। महिला शिक्षा के मार्ग में आने वाली कुछ ज्वलन्त समस्याओं तथा उनके समाधान की चर्चा निम्नलिखित है।
1. शैक्षिक अवसरों की समानता की समस्या- भारत में शिक्षा के सभी स्तरों और लगभग सभी पक्षों पर लड़के तथा लड़कियों की शिक्षा में असमानतायें पाई जाती हैं। आवश्यकता है कि शैक्षिक अवसरों की समानता स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास हों  प्रत्येक माता-पिता को अपनी बेटियों को पुत्रवत शिक्षित कराने का संकल्प लेना पड़ेगा।
2. लड़कियों की शिक्षा के प्रति उचित दृष्टिकोण का अभाव- भारत में लड़कियों की शिक्षा के प्रति अभी भी सीमित, संकुचित, रूढ़िवादी, संकीर्ण विचार पाये जाते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के रूढ़िवाद तथा परम्पराओं के प्रति जनमानस का दृष्टिकोण बदला जाये जिससे कि महिला शिक्षा की दर में और भी अधिक वृद्धि होगी।
3. अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या- अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत में महिला शिक्षा में अपव्यय तथा अवरोधन अधिक पाया जाता है। प्रायः देखा गया है कि कक्षा एक में प्रवेश लेने वाली प्रत्येक सौ लड़कियों में साठ लड़कियाँ ही कक्षा पाँच में पहुँच पाती हैं तथा लगभग चालीस ही कक्षा आठ में पहुँच पाती हैं। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में अपव्यय व अवरोधन अधिक पाया जाता है। निर्धनता, अशिक्षित माता-पिता, लड़कियों की शिक्षा के प्रति संकुचित व नकारात्मक दृष्टिकोण, नीरस पाठ्यक्रम, परामर्श व निर्देशन का अभाव, अध्यापिकाओं की कमी आदि इस समस्या के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी होते हैं।
4. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम- लड़कियों की शिक्षा की एक बड़ी समस्या उचित पाठ्यक्रम का अभाव है। हमारे यहाँ लड़के तथा लड़कियों का एक समान पाठ्यक्रम है। प्रचलित पाठ्यक्रम नीरस तथा अरुचिकर है। वर्तमान तथा भावी सामाजिक, आर्थिक तथा औद्योगिक परिवर्तनों को दृष्टिगत रखते हुए भी पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाना चाहिये।
5. दोषपूर्ण प्रशासन- लगभग सभी राज्यों में महिला शिक्षा का प्रशासनिक भार भी पुरुष अधिकारियों पर है। पुरुष होने के कारण सम्भवतः वे न तो महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं को समझ पाते हैं और न ही महिला शिक्षा में विशेष रुचि लेते हैं। महिला शिक्षा के प्रशासन का भार पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को सौंपा जाना चाहिये।
6. अध्यापिकाओं का अभाव- महिला शिक्षा के प्रसार में एक बहुत बड़ी बाधा आध्यापिकाओं की कमी भी है। न केवल उच्च माध्यमिक स्तर पर वरन् प्राथमिक स्तर पर भी प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की कमी है जिसके कारण अनेक माता-पिता अपनी लड़कियों को विद्यालय नहीं भेजना चाहते हैं। अतः सरकार को प्राथमिक शिक्षा की भाँति माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा विभाग में पचास प्रतिशत नियुक्तियाँ महिलाओं की करनी चाहिए।
उपर्युक्त समस्याओं का समाधान कर महिला शिक्षा के रथ को तीव्र गति प्रदान की जा सकती है। जिसके परिणाम स्वरूप हमारी माँ, बहिन, बेटियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और भी अधिक संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर एक नये भारत की रचना करेंगी।
संदर्भ ग्रन्थ
1. स्वामी विवेकानन्द, कम्प्लीट वर्क्स, पार्ट-7, पृष्ठ-41
2. एडम, विलियम, बासु ए0एन0, एडमस रिपोर्ट, पृ0 452
3. शेर्रिंग, एम0 ए0,  द हिस्ट्री ऑफ प्रोटेस्टेंट मिशन, पृ0 442
4. पाठक, पी0डी0, भारतीय शिक्षा और उसकी समस्यायें, विनोद पुस्तक मन्दिर आगरा,8वॉ संस्करण-1992,पृ 549
5. एस0 एन0 मुखर्जी : एजूकेशन इन इण्डिया, टूडे एंड टुमारो, पृ0 242
6. फर्स्ट इयर बुक ऑफ एजूकेशन, पृ0 914
7. आर्टिकल 15 ऑफ द कान्सटीट्यूशन ऑफ फ्री इण्डिया
8. कोठारी कमीशन रिपोर्ट : पृ0 164
9. कोठारी कमीशन रिपोर्ट, पृ0- 176
10. कोठारी कमीशन रिपोर्ट, पृ0 651
11. सर्व शिक्षा अभियानः बालिका शिक्षा योजनाएॅ - 1988
12. संक्षिप्त एन0पी0ई0जी0एल0- 2003
डॉ0 अमित तिवारी
अध्यापक विज्ञान संकाय, कर्नल ईश्वरी सिंह इण्टर कॉलेज,
शेखपुर-बुजुर्ग, जालौन, उ0प्र0।