Wednesday, 2 July 2014

वाल्मीकीय रामायण में वार्णित सत्य-धर्म और उसके आदर्श श्री राम


कन्हैया लाल यादव

भारतीय वांगमय में वार्णित चार पुरुषार्थों में मोक्ष साध्य एवं अन्य तीन पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, एवं काम) उसकी प्राप्ति के साधनभूत हैं। इनमें भी अभ्युदय तथा निःश्रेयस का साधन धर्म, प्रधान माना जाता है। जो कि मोक्ष का प्रधान साधन है। अर्थ एवं काम की सिद्धि भी धर्म के द्वारा ही होती है भारतीय शास्त्रों में धर्म को अनेक रूपों में जैसे- जीव का प्रेरक, सुख का मूल, लोकरक्षक तथा आचार-शिक्षक आदि स्वीकार किया गया है, दूसरी ओर सत्य को धर्म का प्रधान अंग के रूप में तथा कहीं-कहीं तो उसे धर्म से भी व्यापक या धर्म का पर्याय स्वीकार करके उसे धर्म से भी श्रेष्ठ कहा गया है। जैसे प्राचीनकाल के गुरूकुल पद्धति में जब आचार्य आचार-शिक्षा देते थे तो उन्हें भी धर्म से पहले सत्य के पालन पर दृष्टि रखनी पड़ती थी।1
सत्य न केवल धर्म का एक प्रधान अंग है अपितु वह ब्रह्मस्थानीय भी है।2 वाल्मीकि के समय में तो जिस प्रकार नारीमात्र के लिये लज्जा आभूषण माना जाता है ठीक उसी प्रकार वाणी की शोभा मित तथा सत्य भाषण में ही थी। त्रिविध तप में वाक्-तप, सत्यभाषण ही श्रेष्ठ था और धर्म के चार चरणों में सत्य का स्थान सर्वोच्च माना गया था। इस पर सन्देह तभी किया जा सकता जबकि भारतीय जीवन के प्राण् सत्य के रक्षक सत्यव्रत हरिश्चन्द्र, उषीनर नरेश शिबि और अलर्क न रहे होते। इन्हीं सत्यवादियों की परम्परा में भगवान् श्रीराम की सत्यनिष्ठा अप्रतिम थी। भगवान् श्रीराम ने स्वयं ही सत्य को वेद से निःसृत चित्तशुद्धि एवं ब्रह्म रूपी परम पद की प्राप्ति का साधनभूत माना और कहा है कि इस जीवजगत् में पूर्वकृत कर्म के फल की प्राप्ति के अवसरों पर जो धर्म, अर्थ और काम तीनों देखे गये हैं। वे सब के सब जहां धर्म है वहां ठीक उसी प्रकार प्राप्त होते हैं जिस प्रकार भार्या धर्म, अर्थ और काम तीनों की साधन होती हैं, जहां एक ओर वह पति के वशीभूत या अनुकूल रहकर अतिथि सत्कार आदि धर्म के पालन में सहायक होती है वहीं दूसरी ओर प्रेयसी के रूप से काम का साधन बनती है और पुत्रवती होकर उत्तम लोक की प्राप्ति रूप अर्थ की साधिका भी होती है।3 साथ ही उन्होंने पुरूषार्थ हीन कर्मों को वर्जित करते हुए कहा है कि जिस कर्म में धर्म आदि सब पुरूषार्थां का समावेश न हो उसे न करके जिससे धर्म की सिद्धि होती है, उसी कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए। 4
श्रीरामचन्द्र के वन जाने पर जब भरत ने अयोध्या के प्रमुख लोगों को लेकर उन्हें पुनः अयोध्या लाने के लिये चित्रकूट गये तो उस समय जाबालि की दृष्टि में प्रत्यक्ष मात्र ही सत्य था, परोक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाण सत्य न थे इसलिए उन्हांने श्रीराम से कहा कि हे महामते। आप अपने मन में यह निश्चय कीजिये कि इस लोक के अतिरिक्त कोई दूसरा लोक नहीं है जो प्रत्यक्ष राज्यलाभ है उसका आश्रय लीजिये, परोक्ष (पारलौकिक) लाभ को पीछे ढकेल दीजिये।5 किन्तु सत्यपराक्रम श्रीरामचन्द्र ने वेद-शास्त्र-स्मृति-विहित कुलीन आचार को ही धर्म मानते हुए कहा- आपके बताये हुये मार्ग से चलने पर पहले तो मैं स्वेच्छाचारी हो जाऊँगा, तत्पश्चात् यह सारा लोक स्वेच्छाचारी हो जायेगा क्योंकि राजाओं के जैसे आचरण होते है, प्रजा भी वैसा आचरण करने लगती है।6 उनकी दृष्टि में तो कामवृत्त यथेच्छाचारी जीवन सर्वलोक विनाशक है और संसार में तो सत्य ही सर्वसमर्थ तथा सर्वधर्म का आश्रय है। सत्य से भिन्न कोई श्रेष्ठ पद ही नहीं।7 उन्हांने तो स्वयं दान, यज्ञ, हवन, तप तथा वेद सभी को श्रेयस्कर एवं फलप्रद माना है। किन्तु प्रमाणभूत होने के कारण सत्य तथा ईश्वर में वाच्य वाचकत्व के कारण अभेद माना है। सत्य के प्रतिपालन के लिये ही कैकेयी के कहने मात्र से उन्होंने तो वनवास के असह्य दुःख जटा-चीर को धारण किया था। भारतीय धर्म तो ईश्वर, वेद तथा परलोक को आस्था पूर्वक स्वीकार करता है, इसीलिये परलोक विरोधी जाबालि के विचारों को भी श्रीराम ने सत्य पालन के समक्ष अग्राह्य माना था, धर्ममय सत्य, पराक्रम, प्राणियों पर दया, प्रियवादिता, द्विजाति-देव-अतिथि पूजन इन स्वर्गप्रद साधनों में सत्य को प्रथम साधन मानते हुए-रामो द्विर्नाभिभाषते यह उक्ति स्वयं ही कही और इसी सत्य निष्ठा को उन्होनें जीवन पर्यन्त निभाया। सीता के द्वारा दण्डकारण्य में शस्त्र न ग्रहण करने का परामर्श देने पर भगवान् श्रीराम ने कहा कि- मैनें ऋषियों से दण्डकारण्य के राक्षसों (आततायियों) के नियमन की बात कह दी है। अतः उस सत्य की रक्षा करना मेरा कर्त्तव्य है।8 सत्य रक्षा के लिये ही श्रीराम चन्द्र ने अपने अन्तिम क्षणों में काल को वचन देने के कारण अपने बहिश्चर प्राण रूप लक्ष्मण को भी त्याग दिया था। इसीलिये सन्मार्गगामी पुरूषों में श्रीराम अग्रगण्य माने जाते हैं अतः नहि रामात् परो लोके विद्यते सत्यथे स्थितः यह उक्ति प्रासंगिक ही प्रतीत होती है। जहां एक ओर असत्य आग्नि के द्वारा जलाये गये वन के समान यश को नष्ट कर देने में समर्थ है वहीं सत्य जल सेचन से वृद्धि को प्राप्त वृक्षों के समान यश वृद्धि में भी समर्थ है। महर्षि वाल्मीकि ने जिस शाश्वत महिमा का उद्बोधन किया है उसी का अनुकरण करके और उसी सत्य धर्म के पालन से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्वहित के साधन में बड़ी सहायता प्राप्त हो सकती है और इस माध्यम से वर्तमान मानव अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच सकता है।
सन्दर्भ
1 सत्यं वद्’ ‘धर्मं चर’।
2‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’।
3 वा0रा0 अयोध्याकाण्ड-21/57
4 वा0रा0, अयोध्याकाण्ड 21/58
5 वा0रा0, अयोध्याकाण्ड 108/17
6 वा0रा0, अयोध्याकाण्ड 109/09
7 वा0रा0, अयोध्याकाण्ड 109/10-13
8 वा0रा0, अरण्यकाण्ड 10/17-19
कन्हैया लाल यादव
(जे0आर0एफ0) शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग, 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।