Wednesday, 2 July 2014

प्राचीन भारतीय शिक्षा में लेखन की परम्परा

दिनेश कुमार

प्राचीन भारतीय लेखन परम्परा की चर्चा करने के पूर्व संक्षिप्त रूप में यह विचार कर लेना अप्रासंगिक न होगा कि भारत में लिखने की कला का प्रचार कब से हुआ। लेखन कला की प्राचीनता के स्थिर प्रमाण नहीं मिलते। आरम्भिक प्राच्य विषारदों की धारणा थी कि भारत में लिखने का प्रचार काफी बाद में हुआ प्राच्य विशारदों में मेक्समूलर, बर्नेल, बूलर, डेविड तथा कुछ भारतीय विद्वानों का कथन है कि भारतीय आर्यों का पठन-पाठन केवल श्रवण परम्परा पर आधारित था। अतः वे लेखन कला से पूर्व परिचित नहीं थे। उन्होंने विदेशियों से लिखना सीखा। ये विद्वान किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्व लेखन कला की प्राचीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मैक्समूलर, पाणिनि (पाणिनि का समय ईसा पूर्व चौथी शती मानते हैं।) के पूर्व भारतीयों में लेखन कला के प्रचार को स्वीकार नहीं करते।1 बर्नेल भारतीयां को क्रिश्च्यिनों से लेखन कला सीखने की बात करते हुए ईसा पूर्व की पाँचवी शती के पहले लेखन का इतिहास नहीं मानते।2 बूलर, जिनके पास भारतीय लिपि विज्ञान के इतिहास पर परवर्तीत विद्वानों की अपेक्षा अधिक साधन उपलब्ध थे, उक्त दोनों विद्वानों से थोड़ी भिन्नता रखते हुए कहते हैं- भारत की आदि लिपि ब्राह्मी का उद्भव सेमेटिक लिपि से हुआ। उनकी दृष्टि में सेमेटिक अक्षरों का भारत में प्रवेश ईसा पूर्व आठवीं शती के आस-पास हो गया था। मैक्समूलर, नये अनुसंधानों के आधार पर इसकी प्राचीनता ईसा पूर्व दशवीं शताब्दी तक ले जाते हैं।3
डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, राजबली पाण्डेय आदि विद्वान् संस्कृत भाषा और साहित्य के इतिहास पर नवीन शोधों को प्रमाण मानते हुए सिन्धु घाटी क्षेत्र से लिपि की खोज मध्य पूर्व और भारत से उस के सम्बन्ध एवं आर्यों के मूल निवास स्थान पर पड़े नवीन प्रकाश के आधार पर यह मानते हैं कि- भारतीय आर्यों में पहले से ही लेखन कला का प्रचार था। आर्यों में प्रचलित ‘ब्राह्मी’ लिपि संसार भर की लिपियों में सबसे सरल एवं निर्दोष मानी गयी है। जिसकी उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा ने की है।4 चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार ‘‘भारतवासियों की वर्णमाला के अक्षर ब्रह्मा ने बनाये थे और उनके रूप (रूपान्तर) पहले से अब तक चले आ रहे हैं।5    
महाभारत6 स्मृति7 (धर्मशास्त्र), कौटिल्य के अर्थशास्त्र8 वात्स्यायन के कामसूत्र9 आदि ग्रन्थों में, जहाँ व्यावहारिक विषयों का वर्णन है वहीं लिखना और लिखित पुस्तकों का भी उल्लेख मिलता है।
पाणिनी ने अपने ग्रन्थ ‘अष्टाध्यायी’ में लिपि (लिखना) और लिपिकार10 (लिखने वाला) तथा यवनानी11 (कात्यायन12 और पतंजलि13 के अनुसार इसका अर्थ यवनों की लिपि है।) शब्द बनाने के नियम के साथ ही साथ ‘स्वरित’ के चिह्न14 तथा ग्रन्थ15 का भी उल्लेख किया है। उस समय चौपायों के कानों पर ‘सुव’ ‘स्वस्ति’ आदि के और पाँच तथा आठ के अंकों के चिह्न भी बनाये जाते थे और उनके कान काटने तथा छेदने का उल्लेख मिलता है।16 पास्क ने (पाणिनि से पहले) अपने निरूक्त में औदुम्बरायण, क्रौष्टुकी, शाकटायन, कौत्स, गार्ग्य, गालव, शाकल्य आदि वैयाकरणों और निरूक्तकारों के नाम और विचार का उल्लेख है।17 इनमें से गार्ग्य, शाकटायन, गालब और शाकल्य के नाम का उल्लेख पाणिनी ने भी किया है। स्पष्ट है कि पाणिनी और यास्क के पूर्व भी व्याकरण के ग्रन्थ उपलब्ध थे।
उपनिषदों में अक्षर18 शब्द ही नहीं मिलता बल्कि ‘ई’, ‘ऊ’ ओर ‘ए’ स्वर ईकार, ऊकार और एकार शब्द में सूचित किये गये हैं।19 वर्ण और मात्रा का भी उल्लेख मिलता है।20 आरण्यक में ऊष्मन, स्पर्श, स्वर और अंतःस्थ की, व्यंजन और घोष की, णकार और शकार (मूर्धन्य) के नकार और शकार के भेद के साथ सन्धि की भी विवेचना मिलती है।21 ब्राह्मण में ऊँ अक्षर को अकार, उकार और नकार वर्णों के संयोग से22 बना  हुआ कहा गया है। ‘एक वचन’ बहुवचन तथा तीनों लिंगों के भेद का भी उल्लेख है।23 तैत्तिरीय संहिता में वर्णित है कि अस्पष्ट और अनियमित वाणी (बिना व्याकरण के) को देवताओं के अनुरोध पर ‘इन्द्र’ ने बीच में से व्याकृत किया, इसीलिए वाणी व्याकृत (व्याकरण वाली नियमबद्ध) कही गयी।24 इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण एवं संहिता के समय तक व्याकरण का अस्तित्व विद्यमान था। यदि उस समय लेखन-कला का प्रचार न होता तो व्याकरण और उसके पारिभाषिक शब्दों की चर्चा भी न होती।
‘ऋग्वेद’ में गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, विराज, त्रिष्टुप ओर जगती छन्द का उल्लेख मिलता है।25 संहिताओं26 एवं ब्राह्मण ग्रन्थों27 में भी ‘पंक्ति’ छन्द के नाम एवं संख्या तथा द्विपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा, षट्पदा, ककुभ आदि छन्दों के भेद का भी उल्लेख है। ब्राह्मण वेदों में मिलने वाले छन्दों के नाम आदि उस समय लेखन कला की उन्नत दशा के परिचायक हैं। ऋग्वेद में हजार अष्टकर्णी28 (जिनके कान पर आठ के अंक का चिह्न हो) गायें दान करने की चर्चा है।29 वैदिक युग में जुआ का खेल काफी लोकप्रिय था। जुआ खेलने में प्रयुक्त होने वाले पासे पर क्रमशः 4.3.2.1. (कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि) के चिह्न खुदे होत थे।30 ऋग्वेद के एक पूरे सूक्त है में31 जुआरी (कितब) के विलाप का वर्णन है जिसमें वह कहता है कि एक पर (अक्षस्याहमेकपरस्य पासे32 के कारण मैंने अपनी पतिव्रता स्त्री खो दी। अथर्ववेद में जीत की प्रार्थना से सम्बन्धित एक सूक्त मिलता है33 कि मैंने तुमसे संलिखित (जुए के हिसाब में जीत का लिखा हुआ धन) और ‘संरूध’ (जुए में धरा हुआ धन) जीत लिया।34 इससे स्पष्ट है कि पशुओं के कानों में समान पासों पर भी अंक खुदे रहते थे तथा जुए में जीते हुए धन का हिसाब-किताब लिखा जाता था।
‘ब्राह्मण’ में गणना के आधार पर ऋग्वेद के कुल अक्षरां (12000× 36त्र432000) की संख्या तथा पंक्ति छन्द (432000झ् 40त्र10800) की संख्या दी गयी है। इसी तरह समय विभाग विषय के अन्तर्गत वर्ष को 360 दिन और दिन के तीस मुहूर्त (360×30त्रवर्ष भर का मुहूर्त 10800), एक मुहूर्त के 15 क्षिप्र, एक शिप्र के 15 एतर्हि, 1 एतर्हि के 15 इदानीं और 1 इदानीं को 15 प्राण में विभाजित किया गया है। एक रात-दिन में कुल (30×15×15) की गणना की गई है।
प्राचीन भारत में लेखन कला के प्रसार के सम्बन्ध में गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा महोदय का कहना है कि ‘परार्द्ध’ तक की संख्याओं का ज्ञान और प्रयुत, अयुत आदि बड़ी संख्याओं के सूचक शब्दों की जानकारी तभी सम्भव है जब गणित विद्या उन्नत अवस्था में हो। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जैसे ग्रन्थों के जो एक हजार पृष्ठ में भी लिखकर पूरे नहीं होते और जिनके सुनने में कई दिन लगे सकते हैं, अक्षरों की तथा उनसे बनने वाले छन्दों की गिनती बिना लिखित पुस्तक की तथा गणित की सहायता के, करना मनुष्य की शक्ति के बाहर है।
अतएव यह मानना पड़ेगा कि जिसमें तीनों वेदों के अक्षरों की संख्या और उससे बनने वाले वृहती और पंक्ति छन्दों की संख्या बतलायी है, उसके पास उक्त तीनों वेदों की लिखित पुस्तक अवश्य होगी। वह छन्दशास्त्र से परिचित होगा और कम से कम भाग का गणित भी जानता होगा। यज्ञ की दक्षिण तथा समय विभाग आदि के विषयों से अंक विद्या की उन्नत दशा का होना मानना पड़ता है। ओझा महोदय यहाँ तक कहते हैं कि यदि ऋग्वेद का लिखित रूप न होता तो इस पर न तो भाष्य किया जा सकता था और न ही ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हो पाती। पाणिनी और यास्क के समय अनेक विषयों के ग्रन्थ विद्यमान थे। वेदों और ब्राह्मण के समय व्याकरण, छन्दशास्त्र, अंक विद्या, अनुव्याख्यान, गणक, जानवरों के कानां और जुए के पासों पर अंक का होना, समय के एक सेकेण्ड के सत्रहवें हिस्से का सूक्ष्म विभाजन इंगित करता है कि वैदिक आर्य लेखन कला से भली-भॉति परिचित थे  बूलर महोदय का कथन है कि वैदिक समाज में लिखित पुस्तकें थी। मौखिक शिक्षा और दूसरे अवसरों पर सहायता के लिए ये पुस्तक के काम में लायी जाती थी।35
प्राचीन काल में लेखन सामग्री के रूप में पाषाण-शिलाओं, मिट्टी के फलकों, धातु के पतरों, काष्ठ-फलकों आदि का प्रयोग होता था। प्रस्तर शिलाओं और भित्तियों पर अभिलेखों को खोद भी दिया जाता था। कुछ समय बाद ताड़पत्रों36 और भोजपत्रों का भी प्रयोग बहुतायात से होता रहा। कालिदास आदि कवियों ने इनका उल्लेख किया है। वस्त्र पट्टिकाओं का प्रयोग भी विदित होता है।

सन्दर्भ-ग्रन्थ
1. थ्ण् डंग डनससमतए भ्पेजवतल वि ।दबपमदज ैंदेतपज स्पजमतंजनतमण् चण् 262
2. ठनतदमसए ैवनजी प्दकपंद च्ंसंसवहतंचीलण् च्ण्9
3. ळण् ठनीसमतए प्दकपंद च्ंसंमवहतंचीलण् च्ण् 17
4. न्कारि श्यद्यदि ब्रह्म लिखित चक्षुरूत्तमम। त तेयमस्य लोकस्य नाभिविष्यत् शुभा गतिः।। नारद स्मृति, वृहस्पतिरचित मनु के वर्तिका में भी उल्लिखित है। (सेक्रेड, बुक ऑब दी ईस्ट, जिल्द 23, पृ0 304) गौरी शंकर हीराचन्द ओझा, भारतीय प्राचीन लिपिमाला मुंशीराम मनोहर लाल, नई दिल्ली, 1971 पृ0 1 से उद्धृत।
5. ै ठमंस ठनककीपेज त्मबवतक वि जीम ॅमेजमतद ॅवतसकए टवस 1ए चण् 77
6. महाभारत आदिपर्व 1.112 (व्यास ने स्वयं गणेश को ही महाभारत का लेखक कहा है।)
7. बलादत्तं बलाद्भुक्तं बलाघच्चापिलेखितम् सर्वान्बलकृतानर्थानकृ-तान्मनुरब्रवीत।। मनु0 08.168 वषिष्ठ धर्मसूत्र 16.10.14-15।
8. वृत्तचौल कर्मा लिपि संख्यानं चोपयुंजीत, 1.5.2,
   संज्ञालिपिभिश्चारसंचार कुर्युः, 1-12.8,  पंचमें मंत्रिपरिषदा पत्रसम्प्रेषणेन मंत्रयेत, 1.19.6,
   अमात्यमम्पदोपेतः सर्वसमविदाशु ग्रन्थश्चार्वक्षरो लेखवाचनसमर्थों लेखकः स्यात् 2.9.28 अर्थशास्त्र।
9. पुस्तकवाचनम् एवं य कश्चित्पुस्तकः, वात्स्यायन, कामसूत्र पृ0 33 एवं 45।
10. ट्विमिभानिषा.................लिपिलिपलालि-1 अष्टाध्यायी 3.2.21।
11. इन्द्रवरूणभव..........यवयवन.......। वही 4.1.49।
12. यवनाल्लिप्या, कात्यायन वार्तिक 4, 1.49।
13. यवनाल्लिप्यामिति वक्तव्यम यवनानी लिपि, 4.1.49 पर पतंजलि भाष्यमहा।
14. स्वरितेनाधिकारः अष्टाध्यायी। 1.3.11।
15. समुदाड्.भ्यो यामोडग्रन्थे, 1.3.75, अधिकृत्य कृते ग्रन्थे 4.3.87 अष्टाध्यायी।
16. कर्णे लक्षणस्थाविष्टाष्टपंचमणिभिन्न छिन्नछिदचुस्वास्तिकस्य 6.3.115, कर्णों वर्णलाक्षणान, 6.2.112 पाणिनी अ0
17. यास्क निरूक्त 1.2.17, 8.2.1, 11.6.3, 7.14.6, 1.3.; 10.1.3, 10.8.9, 10.8.10, 7.15.1, 8.5.3, 115.2, 1.3.5, 4.3.2, 3.15.1; 4.3.2, 1.2.8; 6.28.3।
18. हिंकार इतिह च्यक्षरं प्रस्ताव इति च्यक्षरं तत्समं। आदिरिति द् व्यक्षरं, छान्दोग्य उप0 2.10।
19. अग्रिरीकारः आदित्य ऊकारो निन्हवएकारः, वही, 1.13।
20. वर्गः स्वरः। मात्रा बलम, तैत्तिरीय उपनिषद् 1.1।
21. ऐतरेय आरण्यक, 3.2.1, 2.2.4, 3.2.6, 3.1.5।
22. ऐतरेय ब्राह्मण, 5.32, कौषीतकी ब्राह्मण 26.5
23. तैत्तिरीय संहिता, 6.4-7।
24. ऋग्वेद संहिता, 10,14.16, 10.132.34।
25. यजुर्वेद वाजसनेयि संहिता, 11.8, 14.19, 23.33, 28.14, अथर्ववेद संहिता, 8.9.19।
26. विराऽष्टमानि छनदांसि, शतपथ ब्राह्मण, 8.3.3.6; द्वादशाक्षरा वै जगती।4।........षट्चिंष दक्षरा वृहती..............।8।.....................दशाक्षरा विराट् ।11। शतपथ ब्राह्मण 8.3.3।
27. सहस्रं मे ददतो अष्टकर्ण्यः, ऋग्वेद 10.62.7।
28. अष्टाध्यायी 6.3.115; 6.2.112।
29. कलि नामक पासा सो गया है, द्वापर स्थान छोड़ चुका है, त्रेता अभी खड़ा है, कृत चल रहा है, परिश्रम करता जा, ऐतरेय ब्राह्मण, 7.15।
30. ऋग्वेद संहिता 10,34।
31. ऋग्वेद संहिता 10.34.2।
32. अथर्ववेद संहिता, 7.50.52।
33. अथर्ववेद संहिता 7.50 (52) 5।
34. शतपथ ब्राह्मण 10.4.2.22-25; 12.3.2.1।
35. कुमार सम्भव, 1.7।
36. विद्वसालभिंजका 3.21।
डॉ0 दिनेश कुमार
पी- एच्0 डी0, संस्कृत विभाग,
महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी।