सुमीत द्विवेदी
भारत में इन दिनों लाखों की संख्या में स्त्रियां अखबार पढ़ रही हैं, कार चला रही हैं, बड़े पद संभाल रही हैं, तो क्या वे वही स्त्रियां रह जाने वाली हैं जो हमारे पुरुषवादी समाज के मानस में बैठी हैं। विज्ञापनों में बदलती स्त्रियां यही हैं। जिस परम्परागत भारतीय स्त्री की छवि की हमें तलाश है, उसे हमें आज की आत्मनिर्भर स्त्री के बीच ही कहीं खोजना होगा या कह लें दुबारा रचना होगा।
विज्ञापन उत्पादकों द्वारा तैयार उत्पादों की जानकारी ग्राहकों या उपभोक्ताओं तक पहुंचाकर उन्हें सही वस्तु खरीदने में मदद करता है। डरबन के अनुसार- विज्ञापन के अन्तर्गत वे सब क्रियाएं आती हैं, जिनके अनुसार दृश्य अथवा मौखिक संदेश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व निश्चित विचारों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से सम्बोधित किए जाते हैं।1
आधुनिक युग की उपभोक्तावादी संस्कृति में विज्ञापन के द्वारा उपभोक्ताओं को उत्पादक अपने उत्पाद के प्रति बड़ी कुशलता से आकर्षित करने में सफल रहे हैं। विज्ञापन भी अनेक तरीकों से आकर्षक बनाया जाता है, परन्तु इसमें सर्वाधिक प्रयोग नारियों का ही किया जाता है। आज विज्ञापनों की दुनिया की नारी सम्पूर्ण स्त्रीत्व की प्रेरणा और मनोबल से ओत-प्रोत लगती है। वह सुन्दर ही नहीं अतिसुन्दर है। उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा दिखता है। वह पत्नी, मां, सहेली, सास, बहू और प्रेमिका जैसी भूमिकाओं में सिद्धहस्त है। विज्ञापन चाहे साबुन का हो, श्रृंगार-प्रसाधन का हो या फिर शराब का, हर जगह नारी को पेश कर दिया जाता है। इस क्षेत्र में नारी का दायरा अत्यधिक विस्तृत हुआ है।2
विज्ञापनदाताओं द्वारा इस नए अवतार में गढ़ी गयी नारी अपने व्यक्तित्व के साथ जोड़े गए उत्पादों में विश्वास रखते हुए, अपने रिश्तों में सच्चे प्रेम को बखूबी दर्शाती है। विज्ञापन नारी को आधुनिकता की तेज रफ्तार की बीच समय, पैसे और ऊर्जा की बचत करते दर्शाते हैं। अब विज्ञापनों की स्वाभिमानी नारी सपने बुनने की स्थिति से कहीं आगे निकल चुकी है। स्टाइल, फैशन, फिटनेस, मातृत्व या कैरियर हो, वह सभी कुछ बखूबी संभालती है। विज्ञापनों में उभरती नारी की यह तस्वीर संदिग्ध रूप से सुपर वूमन की भी हो सकती है, जो बेहद नाटकीय ढंग से सुन्दर और सम्पूर्ण होने की अनुभूति देती है।
लेकिन इन विज्ञापनों से नारी के शरीर को अभद्र ढंग से पेश करने में वृद्धि भी हो रही है। विज्ञापनों के माध्यम से प्रदर्शित नारी के पोस्टर अत्यधिक अश्लील हैं। फिल्मों और सैटेलाइट चैनलों पर उत्तेजकता व अश्लीलता को देखकर एक सामान्य दर्शक लज्जित हो जाता है। एक राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक युवा वर्ग औसतन 7-8 घंटे टेलीविजन देखता है। अंग्रेजी चैनलों के कार्यक्रमों का विश्लेषण बताता है कि टेलीविजन कार्यक्रमों में पिछले दस वर्षों में लड़कियों के आमोद-प्रमोद के दृश्यों से लेकर संभोग के दृश्यों में तीन गुना की वृद्धि हुयी है। यह सत्य है कि इस रूप के समकक्ष सही रूपों को दर्शाने की अथक चेष्टा रहती है, किन्तु पहली छवि ही इतनी ज्यादा उत्तेजक तथा भयावह होती है कि आम व्यक्ति क्या, नारी भी अपनी छवि पर शंकित हो जाती है। यह स्थिति सांस्कृतिक प्रदूषण का भी माहौल पैदा कर रही है।3
किन्तु विज्ञापनों में नारी के बढ़ते दखल का एक दूसरा पहलू भी है। यहां हमें देखना होगा कि विज्ञापनों में बनती स्त्री की छवि कैसी है? वह किस वर्ग की स्त्री है और जिस वस्तु का विज्ञापन किया जा रहा है, उसका उपयोग किस वर्ग के लोग करेंगे?
हमारी कलाओं, फिल्मों, नाटकों आदि में अब तक जिस स्त्री छवि को हम देखते आये हैं, वह एक ऐसी स्त्री की है, जो त्यागमयी, ममतामयी, सहनशील है। सिर ढंके, काजल-बिंदी, मेंहदी लगाये, पायल की रुनझुन करती, वह एक ऐसी स्त्री है, जो घर की मालकिन है, लेकिन बिना किसी अधिकार के। उसके पास कोई चल-अचल सम्पत्ति नहीं है। वह एक आदर्श पत्नी है, आदर्श मां है, आदर्श बहू है। दिन-रात व्यंजन बनाती, सबकी इच्छाएं पूरी करती ऐसी स्त्री है, जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है। अरविंद जैन ने अपनी पुस्तक उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार में लिखा है कि कायदे से इस स्त्री छवि के पास अपना कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि दुनिया की अट्ठान्नबे प्रतिशत पूंजी पर पुरुषों का कब्जा है।4
स्टेटस ऑफ वूमेन इन इण्डिया रिपोर्ट के मुताबिक जिस परम्परागत भारतीय स्त्री की छवि को प्रोजेक्ट किया जाता रहा है, जिस भारतीय नारी की छवि के तहस-नहस हो जाने से हम परेशान हैं, वह अमीर वर्ग की स्त्री है, जो संख्या में बहुत कम है।5 आम भारतीय स्त्री वह है, जो घर का काम करती है, खेतों पर काम करती है, पशुओं को पालती है, पहाड़ो पर मीलों पैदल चलकर जलावन इकट्ठा करती है और कोसों दूर से पानी लाती है। इस श्रमशील स्त्री की न तो कोई शिनाख्त है, न इसके श्रम का कोई मूल्य है, क्योंकि परिवार के नाम पर उसका किया सारा श्रम बट्टेखाते में चला जाता है। इस स्त्री के लिए विज्ञापनदाताओें और विज्ञापन निर्माताओं के पास भी कुछ नहीं है, सिवाय उसे उपभोक्ता बनाने के। यह स्त्री संख्या में अधिक है, पर इसके पास स्वतंत्र क्रयशक्ति नहीं है। वह कंपनियों के बनाये ब्रांड को खरीद नहीं सकती। वह विज्ञापनों का लक्ष्य है, माध्यम नहीं। यदि हम टेलीविजन पर आने वाले अथवा पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों को देखें तो वे मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग की स्त्री को सम्बोधित हैं। मध्यवर्ग की स्त्री जो रोजगारशुदा है या जो घर में रहती है, उनकी छवि अलग-अलग है।6
आज हम अक्सर इस बात पर काफी विलाप करते दिखते हैं कि मीडिया और खासकर विज्ञापनों ने भारतीय स्त्री की छवि को तोड़ दिया है। भारतीय संस्कृति पर चहुंओर खतरा मंडरा रहा है। दरअसल, जो लोग भारतीय संस्कृतिवाली स्त्री की बात कर रहे हैं, वह स्त्री छवि वह है जिस पर आसानी से शासन किया जाता रहा है और आज भी किया जा सकता है। ‘परिवार’ के कोड़े से पीटकर जिसकी आवाज को दबाये रखा जा सकता है। ड्रेस कोड की बात इसीलिए बार-बार उठाई जा रही है, जबकि सच्चाई यह है कि भारत जैसे बहुआयामी, सांस्कृतिक, भाषाई और जैव विविधता वाले देश में कभी भी स्त्रियों के लिए एक ड्रेस कोड नहीं रहा है। ऐसे में सिर्फ साड़ी पहनने वाली स्त्री को भारतीय परम्परा का वाहक मानना उचित नहीं है। दरअसल, इस तरह का विलाप अक्सर आत्मनिर्भर स्त्री के खिलाफ है। पुरुषों ने जिस तरह चुपके से पश्चिमी ड्रेस कोड को अपना लिया, उसपर किसी ने कभी उफ तक नहीं की? जो स्त्री घर से बाहर निकल रही है, पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है, उससे वही उम्मीद नहीं की जा सकती जो अठारहवी या उन्नीसवीं सदी की औरत से थी। औरत खुलेआम नौकरी भी कर ले और छह गज की साड़ी का घूंघट भी काढ़ ले, यह उचित नहीं लगता।7
निष्कर्ष- एन0आर0एस0 सर्वे ने बताया है कि भारत में इन दिनों लाखों की संख्या में स्त्रियां अखबार पढ़ रही हैं, कार चला रही हैं, बड़े पद संभाल रही हैं, तो क्या वे वही स्त्रियां रह जाने वाली हैं जो हमारे पुरुषवादी समाज के मानस में बैठी हैं। विज्ञापनों की बदलती स्त्रियां यही हैं, विज्ञापन उन्हीं को सम्बोधित है, क्योंकि वही उनकी खरीददार हैं। जिस परम्परागत भारतीय स्त्री की छवि की हमें तलाश है, उसे हमें आज की आत्मनिर्भर स्त्री के बीच ही कहीं खोजना होगा या कह लें दुबारा रचना होगा। दबी-कुचली रहने के बजाय अपने पैरों पर खड़ी स्त्री की छवि को यदि विज्ञापन दिखाते हैं तो यह सकारात्मक ही है। हां, एक बात जो महत्वपूर्ण और गौर करने लायक है, वह यह कि अनेक कानूनों और संहिताओं के बावजूद दिनोंदिन इन विज्ञापनों के जरिये स्त्री को अश्लीलता की भट्ठी में झोंके जाने से बचाने का रास्ता निकालने की सख्त जरूरत है, और इसके लिए हम सबको ही मिलकर प्रयास करना होगा।
सन्दर्भ-
1. विज्ञापन का इतिहास,अर्थ,परिभाषा, प्रकार एवं आचार संहिता, ीजजचरूध्ध्अपबींतवांंदहंउण्इसवहेचवजण्पद ध्2013ध् 05
2. स्याल शांति कुमार, प्रगतिशील नारी, प्ैठछरू 8170436478, प्रकाशक- आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, 2010, पृष्ठ 228।
3. स्याल शांति कुमार, प्रगतिशील नारी, प्ैठछरू 8170436478, प्रकाशक- आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, 2010, पृष्ठ 231।
4. जैन अरविन्द, उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार, प्ैठछरू 8126701110, राजकमल प्रकाशन, वर्ष 2001।
5. ैजंजने वि ॅवउमद पद प्दकपं त्मचवतजए ब्मदजतम वित ेजनकल वि ेवबपमजल - ेमबनसंतपेउए ैंदजंबतन्रए डनउइंपए 2011ण्
6. शर्मा क्षमा, इक्कीसवीं सदी की ओर, सं0 सुमन कृष्णकान्त, प्ैठछरू 8126702443, राजकमल प्रकाशन, 2001, पृष्ठ 97।
7. शर्मा क्षमा, इक्कीसवीं सदी की ओर, पृष्ठ 99।
8. स्त्रीः मुक्ति का सपना, सं0- प्रो0 कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, अति0 सं0- अरविंद जैन व लीलाधर मंडलोई।
सुमीत द्विवेदी
शोध छात्र, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
नेहरू ग्राम भारती डीम्ड विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उ0प्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र0।