राजेश कुमार
प्राचीनकाल में जब अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विश्व के अन्य भू-भागों के निवासी असभ्य तथा जंगली जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब भारत वर्ष में एक ऐसी शिक्षा पद्धति का जन्म हो गया था जो व्यक्ति के सांस्कृतिक के उत्थान के लिए अनिवार्य समझी जाती है।
भारत के सुदूर अतीत में जिस शिक्षण पद्धति का आविर्भाव हुआ था, उसे हम वैदिक कालीन शिक्षा पद्धति के नाम से जानते हैं क्योंकि इसके अन्तर्गत हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति के मूलाधार वेद यथा- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद थे। वैदिक कालीन शिक्षा पद्धति का समय ऋग्वेद के रचनाकाल (लगभग 25000 ई0पू0) से लेकर बौद्ध धर्म के उदय लगभग (500 ई0पू0) तक है।
वैदिक कालीन संगीत शिक्षण प्रणाली- शिक्षा ग्रन्थों में ऐसे संकेत निहित हैं जिनसे ज्ञात होता है कि आरम्भिक युग में वैदिक शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र आदि विषयों का अध्ययन अध्यापन उन विद्यालयों में होता था जिन्हें प्राचीन साहित्य में चरण कहते थे। साधारण रूप से वैदिक साहित्य में संगीत प्रशिक्षण के तीन रूप प्रचलित होने का संकेत मिलता है। 1.पिता-पुत्र रूप में, 2.गुरू-शिष्य परम्परा के रूप में तथा 3.गुरूकुल भेजकर शिक्षा ग्रहण करना। वैदिक काल में 12 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने वाले को स्नातक 24 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने वाले को ‘वसु’ 36 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने वाले को ‘रुद्र’ 48 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति को ‘आदित्य’ कहा जाता था। शिक्षा सत्र श्रावण मास की पूर्णिमा से लेकर पौष मास की पूर्णिमा तक चलता था।
मध्यकालीन संगीत शिक्षण प्रणाली - इस समय जनसाधारण के लिए किसी प्रकार की संगीत शालाओं अथवा विद्यालय की व्यवस्था राज्य की ओर से नहीं पायी गई। इससे स्पष्ट होता है कि संगीत शिक्षण संगीतज्ञ संगीतकारों आदि से व्यक्तिगत रूप से ही ग्रहण किया जाता था। ये कलाकार संगीत कला की शिक्षा ग्रहण करने का एकमात्र साधन होने के कारण अपने अथवा अपनी संतान व कुछ प्रमुख शिष्यों तक ही सीमित रखना चाहते थे। परन्तु संगीतकारों की ऐसी विचारधारा होने पर भी रियासती शासकों में संगीत के प्रति श्रद्धा भाव के परिणामस्वरूप संगीत रूपी दीप शिक्षा प्रज्ज्वलित होती रही।
वास्तविकता यह है कि पाठ्य पुस्तक पूरा संगीत नहीं सिखा सकते। यह स्मृति के लिए एक ढाँचे को खड़ा कर देगा। उसकी पूर्ति करना है, उसमे जो भराव लाना है वह तो गुरूमुख से ही सीखना होगा। कुछ आलाप बाँधकर प्रकाशित करने की कोशिश शुरू की गयी। विष्णु दिगंबर जी ने कम से कम पूरे 5 रागों में 3 गायकी लिखने की कोशिश की। नोटेशन का सहारा तो 19वीं सदी के उपरांत से शुरू हुआ और 20वीं सदी में उसमें प्रगति हुई। आज तक लोग बना रहे हैं।
संस्थागत संगीत शिक्षण की एक सीमा है। इंस्टिट्यूशन्स शुरू-शुरू में यही समझते थे कि जो काम गुरू मुख से होता था वह संस्था में भी हो सकेगा। लेकिन यह सहज नहीं है क्योंकि संस्था में समय की सीमा बहुत है। पहले गांधर्व महाविद्यालय थे। जो शाम-शाम को चलते थे। लोग दिन भर दूसरे काम करते और शाम को आ जाया करते थे। रोज आ जाये तो बहुत अच्छा नही तो हफ्ते में दो दिन, 4 दिन या जिसे जो भी समय मिला उसमें आता था। लेकिन शिष्य परम्परा को तैयार कराना लक्ष्य हो तो इस तरह केवल शाम को सीखना शिष्य-परम्परा नहीं है।
लेकिन कहा ला सकता है कि गुरु शिष्य परम्परा एवं संस्थागत शिक्षण दो पद्धतियों ने ही संगीत शिक्षण को जीवित रखा है।
राजेश कुमार
शोध छात्र (जे0आर0एफ0), स्ांगीत एवं प्रदर्शन कला विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद।