Wednesday, 2 July 2014

वेदों के अनुसार आचार व्यवस्था


ज्योति शुक्ला

मानव संस्कृति के विकास में सदाचार और उत्तम-चरित्र का आरम्भिक युग से महत्व रहा है। इनके बिना सामाजिक जीवन असम्भव सा लगता है तथा व्यक्तिगत सुख और शान्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भारतवर्ष में आचार तथा चरित्र के सम्मान का प्रधान-आधार प्रकृति की उदारता एवं सहनशीलता रही है। प्रकृति संपन्नता ने मानव को शरीर से सुखी ही नहीं बनाया, अपितु अपनी उदारता के अनुसार मानव के हृदय को भी उदार बना दिया। इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य आपसी व्यवहार में स्वार्थ और छोटे विचारों से उपर उठा और उसके हृदय में उदार भावनाओं का संचार हुआ1।
वैदिक काल में आचार-पद्धति में ऋत अथवा सत् या सत्य की सर्वोच्च-प्रतिष्ठा सामाजिक जीवन में की गई। प्राकृतिक ऋत को आदर्श मानकर उन्होंने अपने जीवन के क्रमबद्धता और व्यवस्था को प्रथम स्थान प्रदान किया। उनके यज्ञ के विद्वानों में क्रियाओं का क्रम था। उस क्रम में कोई भी व्यवधान उत्पन्न नहीं होता था। वैदिक मन्त्रों के पाठों का क्रम से उच्चारण किया जाता था। यदि मन्त्र के उच्चारण में कोई त्रुटि हो जाती थी, तो वह दण्ड का पात्र होता था।
उन महर्षियों का जीवन सुव्यवस्थित था2। वैदिक ऋषियों का यह विश्वास था कि देवता मानव के चरित्र का अवलोकन करते हैं तथा अक्रत्य कर्म वाले मनुष्यों को दण्ड देते है। ऋग्वेद के अनुसार सूर्य मानवों के साधु और असाधु आचार को देखते हुए ऊपर चढ़ता है3। अथर्ववेद में वर्णित है कि वरुण की दोनों आँखे सम्पूर्ण संसार को देखती है कि मनुष्य जाति किस प्रकार के कार्य कर रही है। वरुण प्रहरी सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरण करते है तथा सबके कार्यो का निरीक्षण करते है और अपराधियों को ढूंढ लेते है-
अव मा पाप्मनसृज वशी मन मृडयासि नः। आ मां भद्रस्य लोके पाप्सन् थेहयविहुतम्।।4
ऋषियों को देवताओं के परोपकार और अच्छे कर्मों का परिचय प्राप्त था। वैदिक साहित्य में इन्द्र और अश्विनद्वय आदि देवताओं की परोपकार सम्बन्धी भावनाओं का जो आदर्श है, वह ऋषि-वर्ग में सम्मानित हुआ5।
अथर्ववेद में पाप का मानवीकरण करते हुए ऋषि ने अपने हृदय की वेदना को दाक्षिण्यपूर्वक व्यक्त करते हुए कहा है- हे मन के पाप दूर चले जाओ क्योंकि आप ऐसी बात करते हो जो कहने के योग्य नहीं है, दूर जाइये, मैं आपको नहीं चाहता, वृक्षों के ऊपर चले जाइये। वनों में चले जाइये मेरा मन पशुओं और घरों में आसक्त हो (आपके प्रति नहीं) पापी मन यदि आप मेरा त्याग नहीं करते है तो मैं आप का त्याग कर दूंगा। आप किसी दूसरे का अनुसरण करें-
परोडपेहि मनस्पाप किमशक्तानि शंससि।
परेहि न त्वा कामये वृक्षां बनानि स चर गहेष गोषु मनः।।
यज्ञ के अवसर में स्वीकार न किया गया अनुचित कर्म यजमान के सम्बन्धियों को कष्ट में डालता है7। चिन्तन के लिये शरीर की एकाग्रता तथा शान्ति की आवश्यकता थी। इनकी प्राप्ति के लिये ऋषियों ने मात्र अपने लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज के लिये ऊँची आचार-पद्धति प्रदान की8। मित्र और वरुण सत्य के द्रष्टा है वे ऊँचे आकाश से सबको देखते हैं- अधि या वृहतो दिवोइऽभि यूथेव पश्यातः! ऋतावाना सम्राज्ञा नमसे हिता।।9
शतपथ ब्राह्मण में भी सत्य को सर्वोच्च गुण बताया गया है। असत्य बोलने वाला व्यक्ति अशुद्ध होता है, उसे किसी यज्ञ आदि पवित्र कर्मों के लिये अधिकार नही होता है10। जो व्यक्ति सत्य बोलता है, उसका यशरूपी प्रकाश प्रतिदिन बढ़ता जाता है। इसके विपरीत जो असत्य बोलता है उसका यशरूपी प्रकाश क्षीण होता जाता है। मनुष्य को सत्य बोलना चाहिये11। उपनिषद काल में ऋषियों का दार्शनिक जीवन सदाचार के आधार पर स्थिर रह सका।
उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में आचार पर न केवल बल दिया जाता था अपितु उसका अनुपालन भी किया जाता था। वर्तमान समय में मनुष्य वैदिक आचार की शिक्षा ग्रहण करके अपना अपने परिवार व समाज का कल्याण कर सकता है।
सन्दर्भ-
1. उपाध्याय, रामजी, प्राचीन भारती साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका, पृ0-482
2. तदैव, पृ0-483
3. ऋग्वेद, 5, 1, 17
4. अथर्ववेद, 4.16
5. शतपथ-ब्राह्मण, 7.3.2.6
6. अथर्ववेद, 6.4.5.1ः6.26.1-2
7. शतपथ ब्राह्मण, 2.5.2.20
8. उपाध्याय, रामजी, प्राचीन भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका, पृ0 485.
9. ऋग्वेद, 8.25.7
10. शतपथ ब्राह्मण, 3.1.2.10 तथा 1.1.1.1
11. तदैव, 2.2.19
डॉ0 ज्योति शुक्ला
मनोहर लाल महाविद्यालय, 
जाजमऊ, कानपुर, उ0प्र0।