Wednesday, 2 July 2014

प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की जन प्रतिबद्धता


ऋतु माथुर

प्रगतिवाद हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में मील का पत्थर है। पहली बार कवियों ने कविता को सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ने की कोशिश की। वर्गीय विषमताओं से मुक्ति के स्वर प्रगतिवादी कविता की ही देन है। नागार्जुन इसी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। यानी हिन्दी कविता जिस दौर में स्वप्निल यथार्थ के लोक से ठोस वास्तविकताओं की जमीन पर उतर रही थी- प्रगतिवाद की धूम थी, नागार्जुन का कवि व्यक्तित्व उसी परिवेश में आकार पा रहा था। उनकी कविता कोटि-कोटि दुखियों की व्यथा-पूरित कविता है, कोटि-कोटि दुखियों के मुक्ति-संघर्ष की कविता है। ‘‘हिन्दी साहित्य की जीवन्त परम्परा और भारतीय जनता के साहसी अभियान के प्रतीक है : कवि नागार्जुन।’’1

वस्तुतः प्रगतिवाद शब्द से अभिप्राय उस साहित्यिक प्रवृत्ति से है जिसमें एक प्रकार की इतिहास चेतना, सामाजिक यथार्थ दृष्टि, वर्गचेतन विचारधारा, प्रतिबद्धता या पक्षधरता, परिवर्तन के लिए सजगता और एक प्रकार की भविष्योन्मुखी दृष्टि मौजूद हो। रूप के स्तर पर प्रगतिवाद एक सीधी-सहज, तेज-प्रखर, कभी-व्यंग्यपूर्ण आक्रामक काव्य-शैली का वाचक है। प्रगतिवाद का विरोध करने वाले उसकी सीमा यह बताते हैं कि वह मार्क्सवाद का साहित्यिक रूपान्तर मात्र है। परन्तु नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, मुक्तिबोध जैसे समर्थ कवियों ने अपनी लोकोन्मुखी प्रतिभा से यथार्थ के नए-नए रूपों की समझ के अनुरूप प्रगतिवाद का एक समर्थ काव्य प्रवृत्ति के रूप में विकास किया है। व्यापक अर्थों में प्रगतिवाद न स्थिर मतवाद है न स्थिर काव्य रूप। उसमें निरन्तर विकास हुआ है। आज प्रगतिशीलता के व्यापक अर्थ में ऐतिहासिक चेतना, जीवनानुभवों के विस्तार, यथार्थ के मूल रूपों की समझ, जीवनधर्मी सौन्दर्यबोध, प्रकृति बोध का उल्लेख किया जाता है, फिर भी जीवन को देखने की यथार्थवादी दृष्टि को यहाँ प्रमुखता प्राप्त है।
कवि नागार्जुन भी एक जनवादी कवि के रूप में अपने समय तथा समाज की विसंगतियों का यथार्थ चित्रण करते हैं। समाज में बढ़ती बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, दरिद्रता, अकाल तथा अभावभरी जिन्दगी का यथार्थ नागार्जुन की कविता में दिखाई देता है। उनकी ‘अकाल और उसके बाद’ शीर्षक कविता से एक उद्धरण-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त2
बाबा के काव्य संसार में जहाँ एक ओर ‘भूखे खेतिहरों का स्वर’ है तो दूसरी ओर ‘गंगा मइया’ के जल में पैसे ढूँढ़ते मल्लाहों के नंग-धड़ंग छोकरे भी हैं। नागार्जुन की कविता में भूख, अकाल, पेट, का क्षोभ अनेक बार व्यक्त हुआ है, उनका प्रयास है कि प्रथमतः जन-जन वर्ग चेतन तो बनें। बौद्धिक प्रशिक्षण से वर्ग चेतन बनाना कहीं अधिक टिकाऊ होता है; उत्पीड़ित जन का अभावजन्य भाव-विगलित चित्र खींचकर वर्ग चेतन बनाना ही श्रेयस्कर है। जिस देश में सौ में से सिर्फ दस काम में लगे हों और नब्बे बेकार हों वहाँ पेट और प्लेट तो खाली होंगे ही। आश्चर्य तो यह है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ बेकार लोग काम-काजियों से अधिक व्यस्त होते हैं, नागार्जुन कहते हैं-
‘‘खाली नहीं ट्राम, खाली नहीं ट्रेन, खाली नहीं माइंड, खाली नहीं ब्रेन,
खाली है हाथ, खाली है पेट, खाली है थाली, खाली है प्लेट।’’3
नागार्जुन मुक्तिकामी कवि थे, अस्वतन्त्रता के सख्त विरोधी थे। 1975 में जब समस्त देश में आपातकाल की घोषणा हुई, तब कवियों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, समाज के विचारकों और चिन्तकों ने अपना पक्ष तय कर लिया। कुछ रचनाकार कलावादी लेखन के लिए प्रतिबद्ध हुए तो कुछ ने निम्नवर्ग की समस्याओं, उनकी कठिनाइयों और उनकी दुदर्शाओं के साथ अपने आपको जोड़ा। ‘प्रतिबद्ध हूँ’ नामक कविता में नागार्जुन ने समाज के शोषित, उत्पीड़ित वर्ग के साथ स्वयं को पंक्तिबद्ध किया है-
‘‘प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त/ संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ...
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अन्ध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आपको भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर......
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ।’’4
नागार्जुन ने बहुत बड़ी संख्या में मेहनतकश लोगों की तबाह जिन्दगी और अनेक राजनीतिक संघर्षों पर कविताएँ लिखी हैं। जहाँ कहीं भी जनता शोषण, हिंसा का प्रतिकार करती है या संघर्ष करती है, वे पूरे मन से उसे समर्थन देते हैं, चाहे वह तेलंगाना विद्रोह हो, नक्सलवादी आन्दोलन हो या इमरजेंसी से मुक्त होने के लिए जनता का संघर्ष और छटपटाहट हो। देशी नहीं, विदेशी जनता के प्रति भी उनकी सहानुभूति बराबर रही है।
नागार्जुन की अनेक राजनीतिक कविताएँ किसी विशेष चिंतन पर आधारित नहीं है अपितु तीव्र ‘कामनसेंस’ पर आधारित है। किन्तु ऐसा नहीं है कि वे किसी विचारधारा पर विश्वास नहीं करते हैं। बहुत ही मोटे शब्दों में कहें तो उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिशील कवि कहा जा सकता है। परमानन्द श्रीवास्तव जी के अनुसार- ‘‘नागार्जुन की विचारधारा व्यापक अर्थ में मार्क्सवाद की ऐसी-तैसी कर सकते हैं। ‘कम्प्लीटली लिबरेटेड’ कुछ यों ही नहीं कहा गया है नागार्जुन को।’’5
मानव मुक्ति के लिए मानसिक दासता से मुक्ति जरूरी है। वैचारिक संघर्ष भी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा है। इस संघर्ष के लिए नागार्जुन प्राचीन पौराणिक कथाओं, सन्दर्भों एवं चरित्रों को अपनी कविता में उतारते हैं। ये पौराणिक सन्दर्भ मिथक कथाएँ भारतीय जनमानस के संस्कार में रची बसी हैं। जनभाषा में लोक प्रचलित कला रूपों का यह उन्मेष भारतीय नवजागरण की शक्ति का बोध कराता है। सामन्तवाद-साम्राज्यवाद विरोधी हिन्दी साहित्य की धारा की यह रूपगत परम्परा है। ये काव्य-रूप नागार्जुन को सीधे हिन्दी नवजागरण की चेतना से जोड़ते हैं।
नागार्जुन की आशाओं का केंद्र जनता है, जनता में इतने गहरे विश्वास के कारण ही नागार्जुन सर्वहारा का, शोषण में पिसती हुई जनता की मुक्ति का स्वप्न देखते हैं। जनता की अदम्य शक्ति में उनका पूरा विश्वास है। जनता कष्ट में है, तबाह है, फिर भी उसका जो चित्र उनमें प्राप्त होता है, वह उदात्त है। नागार्जुन की कविता ‘शासन की बंदूक’ सीधे सत्ता में संवाद करती है। इसमें जनता के अदम्य साहस की अभिव्यक्ति हुई है-
खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक, नभ में विपुल विराट सी शासन की बन्दूक।
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक, जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक।
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक, बाल न बाँका कर सकी शासन की बन्दूक।।6
वर्तमान राजनेताओं के असली चरित्र तथा स्वार्थी राजनीति का कवि नागार्जुन ने पर्दाफाश किया है। वह यह है कि स्वतन्त्रता के बाद देश के सत्तालोलुप राजनेताओं ने पूँजीवादियों के साथ साँठ-गाँठ कर आम जनता को जनतन्त्र के नाम पर ठगा है, जो नेता आजादी के आन्दोलन में आग उगलते थे वे ही अब मुखिया, विधायक, तो कोई लोकसभाई बनकर जन सामान्य के बीच जाति-पाँति की राजनीति का जहर घोलते जा रहे हैं।
चुनाव-प्रक्रिया के माध्यम से राजनेता लोग भोली-भाली जनता को बहला-फुसलाकर तथा झूठे वादे करके पाँच साल तक जनता की ओर देखते तक नहीं। इस खेल में पैसों का लेन-देन आम बात हो गई है। लेकिन जनता अब इसे पहचान गई है। इसी कारण गाँव की सौ वर्ष बुढ़िया गाँव में चुनाव प्रचार में जुटे युवक से सवाल करती है कि- ‘‘तुमको केत्ता मिला है’’7
नागार्जुन यह अनुभव करते हैं कि प्रजातन्त्र का मरण हुआ है, अब उसकी लाश मात्र बच निकली है। खद्दरधारी राजनीतिज्ञ उस लाश को भी बेंचकर पेट भरने को तैयार खड़े हैं। उन्होंने ‘प्रजातन्त्र का होम’ में इन कपटियों का इस प्रकार चित्र खींचा है-
‘‘सामन्तों ने कर दिया प्रजातन्त्र का होम, लाश बेचने लग गए खादी पहने डोम।
खादी पहने डोम लग गए लाश बेचने, माइक गरजे, लगे जादुई ताश बेचने।
इंद्रजाल की छतरी ओढ़ी श्रीमती ने, प्रजातन्त्र का होम कर दिया सामन्तों ने।।’’8
नागार्जुन ने बार-बार अपने को जनकवि कहा है। उन्हें जहाँ कहीं भी शक हुआ कि इस नेता की छवि जनता के हक में नहीं जा रही है वे तुरन्त उसके खिलाफ खड़े हो गए। ‘‘वे जमीन से जुड़े कवि लेखक थे। अपने सहज अनुभव से राजनीति और समाज की उन बारीकियों को समझ लेते थे, जिन्हें बहुतेरे बुद्धिजीवी प्रायः पोथियों से समझने की कोशिश करते हैं। वे न सिर्फ राजनीतिक घटनाक्रमों के अच्छे विश्लेषक थे, बल्कि व्यक्तियों को भी समझने में माहिर थे। वह व्यक्ति चाहे साहित्य का हो या राजनीति का।’’9
प्रगतिशील कवि जीवन की स्वीकृत के कवि होते हैं। जीवन धर्मी लगाव उनके यहाँ रेखांकित करने की चीज है। यह सकारात्मक दृष्टिकोण प्रगतिवाद की महत्वपूर्ण विशेषता है। प्रगतिवादी कवि कठिन अंधकार और भयानक निराशा में भी एक प्रकार के सकारात्मक दृष्टिकोण को जीवित रखता है। मानवीय सम्बन्धों में समानता के पक्षधर कवि नागार्जुन इसीलिए ‘हरिजन गाथा’ कविता में नवजातक को गौरव प्रदान करते हैं। पत्नी के प्रति प्रेम, आकर्षण और सहानुभूति की अभिव्यक्ति भी उनकी कविता में इसी समानता के विवेक से आलोकित है। नागार्जुन ने स्त्री प्रेम के बारे में बड़े आदर से लिखा-
‘‘कर गई चाक..  तिमिर का सीना..  जोत की फाँक..  यह तुम थी।’’10
प्रगतिवाद में प्रकृति और परिवेश के प्रति कवि का लगाव भी ध्यान आकृष्ट करता है। यहाँ प्रकृति बोध भी यथार्थ बोध, सामाजिक वास्तविकता के अनुभव से विच्छिन्न नहीं है। नागार्जुन की ‘धूप सुहावन’ कविता में प्रकृति में जो धूप सुहावन है वह गरीबी का तीखा चित्र उपस्थित करने वाली है। दो स्थितियों का यह तनाव महत्वपूर्ण है। इसी से कविता बड़ी बनती है। वस्तुतः नागार्जुन की कविताएँ धूल-मिट्टी में सने निश्छल लोगों के प्रति एक उतने ही निश्छल हृदय की कविताएँ हैं। बिरला ही कोई कवि होगा जिसकी कविताओं में जीवन के कार्य व्यापार में रचे-बसे सच्चे और वास्तविक लोगों की इतनी सहज और साधिकार उपस्थित हो। स्पष्ट हो, सामान्य जन-जीवन की ये छवियाँ नागार्जुन की कविता को जन-संवेद्य बनाने में प्रभावी योग देती है-
‘‘पूस मास की धूप सुहावन फटी दरी पर बैठा है चिर रोगी बेटा
राशन के चावल के कंकड़ बिन रही पत्नी बेचारी गर्भ भार से आलस शीतल है अंग-अंग।’’11
नागार्जुन की कविताओं की शिल्पगत संरचना बहुत वैविध्यपूर्ण है। उनकी राजनीतिक कविताओं में व्यंग्य की जो तीखी धार है उसे लक्ष्य करते हुए नामवर सिंह ने उन्हें कबीर के बाद हिन्दी का सबसे बड़ा व्यंग्यकार माना है। नागार्जुन के व्यंग्य के विषय ही नहीं- काव्य-रूप भी विविध हैं। उदाहरणस्वरूप लोक धुनों पर आधारित रचे गए व्यंग्य यथा- ‘‘दस हजार, दस लाख मरें, पर झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
कुछ हो, कांग्रेसी शासन का डण्डा ऊँचा रहे हमारा।’’12
वस्तुतः नागार्जुन के काव्य का कोई एक रूप नहीं है। इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक विभिन्नताओं की तरह ही उनके अनेकों काव्य रूप हैं। दोहे, गीत, छंदबद्ध कविता, मुक्तक और विभिन्न लोक धुनों पर रचे गए व्यंग्यों की उनके यहाँ भरमार है। नागार्जुन की भाषा में बोलियों, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी के अनेक शब्द आते हैं। ये वे शब्द हैं जो विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली खड़ी बोली में घुलमिल गए हैं। डॉ0 रामविलास शर्मा के शब्दों में- हिन्दी भाषी प्रदेश के किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा आसानी से समझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है।13
कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर नागार्जुन जन प्रतिबद्धता से युक्त होकर प्रस्तुत हुए है। प्रगतिवाद के संबंध में यह धारणा बहुत प्रचलित है कि इस धारा के कवि वस्तु या कथ्य को ही महत्व देते है, रूप या शिल्प को नहीं। प्रगतिवादी कवियों का बल उस रूप या शिल्प पर है जो कथ्य या विषय वस्तु के सम्प्रेषण के लिए धारदार साबित हो। नागार्जुन ने यहाँ रूप की जो आश्यर्चजनक विविधता है वह किसी से छिपी नहीं है। वे दोहा भी लिखेंगे तो पूरी शक्ति के साथ। गीत जैसे रूपाकार के भीतर भी उन्होंने दुर्लभ- संगठन का प्रमाण दिया है। वस्तुतः प्रगतिशील कवियों ने साधारण से असाधारण का काम लिया है। निराला ने ‘नयें पत्ते’ में जो रूप या शिल्प अपनाया था, प्रगति वादियों ने उसका अनेक रूपों में अनेक स्तरों पर विकास किया है। उन्होंने भाषा का आदर्श गुण माना है- संप्रेषणीयता। उनकी काव्यभाषा में भी अलंकार, बिम्ब, प्रतीक मिल जाएंगे पर अलंकरण बनकर नहीं- भाषा की सादगी, सरलता, क्षमता और जीवनी शक्ति का प्रमाण बनकर। स्पष्टता, सहजता, प्रखरता, व्यंग्यविदग्धता, उग्रता, साहस और मूर्तता- ये सभी प्रगतिवादी काव्यभाषा के गुण हैं। कहना न होगा कि नागार्जुन की कविता में ये सभी भाषाई और शिल्पगत विशेषताएँ प्रभूत मात्रा में विद्यमान हैं।भाषण, भाव आदि दृष्टियों से नागार्जुन की कविता भावुकता से मुक्त एक ऐसे तनाव बिन्दु पर केन्द्रित कविता है, जो भावुकता और बौद्धिकता के बीच को संतुलन बिन्दु है।14 डॉ0 नामवर सिंह ने भी नागार्जुन की कविता की शक्ति को इन पंक्तियों में व्यक्त किया है- इस बात में तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है कि तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुँच किसानों की चौपालों से लेकर काव्य-रसिकों की गोष्ठी तक है।
सन्दर्भ
1. शर्मा डॉ0 राम विलास, नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ0 152.
2. मिश्र शोभाकान्त, (सं.) नागार्जुन रचनावली खण्ड- 1, पहला संस्करण- 2003, पृ. 226.
3. मिश्र शोभाकान्त, नागार्जुन चुनी हुई रचनाएँ- 2, प्र.सं-1985, पृ. 29.
4. खिचड़ी विप्लव देखा हमने- नागार्जुन, द्वितीय संस्करण 1999, पृ. 60.
5. नागार्जुन आज’, परमानन्द श्रीवास्तव, आलोचना, सहस्त्राब्दी अंक43,अक्टूबर-दिसम्बर-2011, पृ076-77.
6. मिश्र शोभाकान्त, (सं.) नागार्जुन रचनावली खण्ड-1, पहला संस्करण 2003,, पृ. 450.
7. मिश्र शोभाकान्त, (सं.) नागार्जुन रचनावली खण्ड-2, पहला संस्करण- 2003, पृ. 404-405.
8. मिश्र शोभाकान्त, (सं.) नागार्जुन रचनावली खण्ड-2 पहला संस्करण-2003 पृ. 72.
9. नागार्जुनःनई कविता की ऐसी-तैसी प्रो.गोपेश्वर सिंह,आलोचना, सहस्त्राब्दी अंक44, जनवरी-मार्च 2012 पृ 117.
10. नागार्जुन रचनावली खण्ड-1, पहला संस्करण- 2003, पृ. 315.
11. नागार्जुन, इस गुब्बारे की छाया में, वाणी प्रकाशन-1998, पृ. 81.
12. मिश्र शोभाकान्त, (सं.) नागार्जुन रचनावली खण्ड-1, पहला संस्करण- 2003, पृ. 282.
13. शर्मा डॉ0 राम विलास, नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 140.
14. नागार्जुनःनई कविता की ऐसी-तैसी प्रो.गोपेश्वर सिंह आलोचना, सहस्त्राब्दी अंक 44, जनवरी-मार्च 2012 पृ 112.
ऋतु माथुर
शोध छात्रा, हिन्दी विभाग,
यू.पी.आर.टी.ओ.यू. इलाहाबाद।