Wednesday, 2 July 2014

वैदिक कालीन राजनैतिक व्यवस्था के प्रतिमान


भानु प्रकाश त्रिपाठी 

वेदों के अनुशीलन से उस युग की राजनैतिक दशा तथा शासन सम्बन्धी धारणाओं  का परिज्ञान हमें भली-भॉति होता है। उस समय राजा का निर्वाचन, राजा के कर्तव्यों का निर्धारण, मंत्रिमंडल का गठन, सभा-समिति के विभिन्न कर्तव्यों, विविध शासन प्रणाली, अर्थव्यवस्था, कर-निर्धारण, विविध अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख राजनीति की उन्नत दशा का परिचायक है।

वेदों में राष्ट्र और देश शब्दों का प्रयोग मिलता है। अथर्ववेद के एक मंत्र में राष्ट्र शब्द का बहुवचन में प्रयोग मिलता है, जिससे उस समय अनेक राष्ट्र थे, ऐसी प्रतीति होती है।1 देश पर आने वाले संकटां या दैवीय आपदाओं से रक्षा के लिए देशोपसर्गाः के द्वारा प्रार्थना की गयी है।2 यजुर्वेद में राष्ट्र के विषय में एक आदर्श प्रस्तुत किया गया है कि राष्ट्र में तीन गुण होने चाहिए पहला स्वराजस्व अर्थात् राष्ट्र स्वतंत्र हो, दूसरा जनभृतस्थ, वह जनहितकारी हो और अन्तिम विश्वभृतस्थ, वह विश्व के कल्याण के लिए प्रयत्न हो।3 अथर्ववेद के एक मन्त्र में राष्ट्र की उन्नति के लिए दो गुणों को अनिवार्य बताया गया है ये हैं तप (अनुशासन) और दीक्षा (समर्पण)। इन दो गुणों को अपनाने से ही कोई राष्ट्र उन्नत होता है।4
प्राचीन युग में राजनीतिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम प्रमुख या ग्रामप्रधान के लिए ‘ग्रामणी’ शब्द का व्यवहार किया जाता था। इसका विधिवत् निर्वाचन होता था। ग्रामणी को राजा के निर्वाचन में वोट या मत डालने का अधिकार प्राप्त था, इसीलिए उसे राजकृत् कहा गया है।5 ग्राम सम्बन्धी सभी मामलों को निपटाना ग्रामणी का प्रधान कार्य था। यजुर्वेद में आया है कि ग्रामणी का सेनापति के साथ सम्बन्ध था तथा वह सेना के लिए सैनिकों को भी तैयार करता था।6 अनेक ग्रामों के समूह को विश कहते थे। तथा विशपति इसका सर्वोच्च अधिकारी था। ऋग्वेद में विशपति को पुरों का पालक और पिता कहा गया है।7 इससे विदित होता है कि वह आधुनिक समय के नगराध्यक्ष या मेयर के समान था। विशों का समूह जन कहा जाता था। और जन का सर्वोच्च शासक राजा होता था। जनों का निवास जनपदों में होता था। अनेक जनपदों के समूह को राष्ट्र कहा जाता था। ऋग्वेद काल के प्रत्येक जन का आधिपत्य राजा के हाथ में होता था। राजसत्ता का प्रादुर्भाव वेद की दृष्टि में युद्धकाल से सम्बन्ध रखता है। ऐतरेय ब्राह्मण की मान्यता के अनुसार देवों ने विचार किया था कि असुरों के हाथों हमारे पराजय का यही कारण है कि हम लोग राजा से विहीन हैं। अतएव उन लोगों ने एक बलिष्ठ तथा ओजिष्ठ इन्द्र को अपना राजा बनाया।8
ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के कई सूक्तों में प्रजा के द्वारा राजा के निर्वाचन का उल्लेख है। अथर्ववेद के एक मंत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि पॉचो दिशाओं से आयी हुई ये प्रजाएं तुझे राज्य के लिए निर्वाचित करती हैं राजा की नियुक्ति का कार्य समिति करती थी।10 अथर्ववेद के एक मंत्र से ज्ञात होता है कि राजा का निर्वाचन सर्व सम्मति से किया जाता था जिसका आधार गुणों में सर्वोत्कृष्टता था। इन्द्र गुणों में सर्वोत्कृष्ट था इसलिए उसे राजा बनाया गया।11 राजा के निर्वाचन के पश्चात् उसका राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के साथ ही राजा के कर्तव्यों का भी निर्देश किया गया है। यजुर्वेद के एक मंत्र में राजा के कर्तव्यों के बारे में कहा गया है कि राजा के चार प्रधान कर्तव्य हैं- कृषि की उन्नति, श्रेय या जनकल्याण, रयि अर्थात् आर्थिक समुन्नति और पोष अर्थात् राष्ट्र की सुदृढ़ता।12
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में राजकार्य में सहायकों को राजकृत् कहा गया है। ये राजा के निर्वाचन में भी भाग लेते थे। शतपथ ब्राह्मण13 में इनकी संख्या 11थी तथा इन्हें एकादश रत्नानि कहा गया है। इनका क्रम है- 1.सेनानी/सेनापति 2.पुरोहित 3.महिषी/महारानी 4.सूत 5.ग्रामणी/वैश्य 6.क्षत्ता/आय-व्यय-अधिकारी 7.संग्रहीता/कोषाध्यक्ष 8.भागदुध/राजस्व अधिकारी 9.अक्षावाप/आय-व्यय निरीक्षक 10.गोविकर्त/अरण्यपाल 11.पालागल/सन्देश वाहक।
वैदिक युगीन राजनीति में सभा और समिति दो महत्वपूर्ण अंग थे। अथर्ववेद में सभा और समिति को राजा की दो पुत्रियां कहा गया है। तात्पर्य यह है कि राजा ही सभा और समिति की स्थापना करता है। सभा के सदस्य को सभ्य, सभेय और सभासद् कहते थे। सभा के अध्यक्ष के लिए सभापति शब्द का व्यवहार होता था। सभा का मुख्य कार्य था विवादग्रस्त सभी विषयों को निपटाना। सभा का निर्णय अन्तिम होता था। अथर्ववेद में सभा को नरिष्टा कहा गया है। सायण ने नरिष्टा की व्याख्या में कहा है कि नरिष्टा अर्थात् जिसके निर्णय को कोई टाल न सके। इससे स्पष्ट होता है कि न्याय के मामले में सभा सर्वोच्च संस्था थी।
समिति राष्ट्रीय स्तर की महासभा थी। इसमें राष्ट्र के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होता था। पारस्कर गृह्यसूत्र में समिति के अध्यक्ष को ईशान तथा समिति को पर्षद् कहा गया है।14 समिति का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था। इसके कुछ प्रमुख कार्य हैं- राजा को चुनना, राजा के कर्तव्यों का निर्धारण, कर्तव्य निर्वाह न करने पर राजा को पदच्युत् करना और राज्य से निर्वासित करना,15 प्रायश्चित्त करने पर पुनः राजा को राजगद्दी पर बैठाना, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियन्त्रण, राज्य में अन्याय, अत्याचार को रोकना आदि। समिति की अध्यक्षता राजा करता था अतः समिति में राजा की उपस्थिति अनिवार्य थी।16
राज्य की समस्त व्यवस्था का आधार वित्त है। यजुर्वेद में श्री और लक्ष्मी को राजा की दो पुत्रियाँ बताया गया है।17 अर्थ ही राजशक्ति को स्थिरता प्रदान करता है। राजस्व की वृद्धि के लिए दो प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है- बलि और शुल्क/चुंगी। ऋग्वेद में राजा को प्रजा से बलि ज्ंग लेने का अधिकार था।18 साथ ही यह भी उल्लेख है कि इस कर को उपयोगी कार्यों में ही लगावे। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में कर आय का सोलहवाँ भाग अर्थात 6ः ही लिया जाता था19 परन्तु मनु आदि के समय में यह बढ़कर आय का 16ः हो गया। अथर्ववेद से स्पष्ट होता है कि कुछ कर शुल्क (चुंगी) के रूप में भी वसूल किया जाता था। नावों से नदी पार करने पर, कृषि कार्य हेतु नाली के द्वारा जल लेने पर, दूध और घी की बिक्री पर चुंगी कर लिया जाता था। अथर्ववेद में उल्लेख है कि जो ब्राह्मणों पर किसी प्रकार का कर लगाते हैं, वे पापी होते हैं।20स्पष्ट है कि वैदिक युग में ब्राह्मण कर मुक्त थे।
ऐतरेय ब्राह्मण में वैदिक कालीन विविध शासन प्रणाली का उल्लेख है।21 ये हैं-
1. साम्राज्य- इस प्रणाली का शासक ‘सम्राट्’ कहलाता था जो कि राष्ट्र का एकछत्र अधिकारी होता था। यह प्रणाली मगध, कलिंग आदि में प्रचलित थी।
2. भौज्य- इस प्रणाली में शासक ‘भोज’ कहलाता था। यह प्रणाली दक्षिण दिशा के राज्यों में प्रचलित थी। इसमें जनहित की भावना अधिक होने के कारण काफी लोकप्रिय थी।
3. स्वाराज्य- यह स्वशासित प्रणाली है। इसके शासक को ‘स्वराट्’ कहते थे। इसमें राजा स्वतंत्र रूप से शासन करता था। यह सौराष्ट्र, कच्छ, सौवीर आदि राज्यों में प्रचलित थी।
4. वैराज्य- यह शासन प्रणाली संघ शासन प्रणाली है इसमें प्रशासन का उत्तरदायित्व व्यक्ति पर न होकर समूह पर होता है। इसमें शासक को ‘विराट्’ कहते थे।
5. पारमेष्ठ्य- इसमें शासक को ‘परमेष्ठी’ कहते थे। यह गणतन्त्रात्मक पद्धति थी। इसका मुख्य उद्देश्य प्रजा में शांति-व्यवस्था की स्थापना था।
6. राज्य- इसका शासक ‘राजा’ होता था। जिसकी सहयता के लिए मंत्रियों की परिषद् थी।22
7. माहाराज्य- इसमे शासक ‘महाराज’ कहलाता था। यह राज्य पद्धति का उच्चतर रूप है।
8. आधिपत्य- इसका शासक ‘अधिपति’ होता था। छान्दो0उपनि0् में इसे श्रेष्ठ बताया गया है।23
9. सार्वभौम- इसमें शासक को ‘एकराट्’ कहते थे। इसमें राजा सम्पूर्ण भूमि का स्वामी होता है।
10. जनराज्य- इसमें शासक ‘जनराजा’ कहा जाता था। ऋग्वेद में राजा सुदास के साथ 10 जनराजाओं के युद्ध का वर्णन है।24
11. आधिराज्य- इसमें शासक ‘अधिराज’ कहा जाता था। इसमें शासक निरंकुश होता था।
12. विप्रराज्य- ऋग्वेद और अथर्ववेद में इसका वर्णन है।25 यज्ञ कर्मकांड पर विशेष बल था।
13. समर्यराज्य-यह धनाढ्यां का राज्य था। इसमें व्यापार, पर विशेष ध्यान दिया जाता था। समर्य का अर्थ है-श्रेष्ठ वैश्य। ऋग्वेद में समर्य राज्य का उल्लेख मिलता है।26
सन्दर्भ-
1. त्वं राष्ट्राणि रक्षसि। अथर्ववेद 19.30.3
2. देशोपसर्गाः शमु नो भवन्तु। अथर्ववेद 19.9.9
3. स्वराजस्थ जनभृत स्थ विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त। यजुर्वेद 10.4
4. भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।। अथर्ववेद 19.41.1
5. ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये। अथर्ववेद 3.5.7.
6.  सेनानी-ग्रामण्यौ यजुर्वेद 15.15.
7. अत्रा वो विश्वपतिः पिता पुराणाम्। ऋग्वेद 10.135.1.
8. ऐतरेय ब्राह्मण, 1.14.
9. त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पंच देवीः। वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो विभजा वसूनि।।अथ3.4.2
10. धु्र्रवाय ते समितिः कल्पतामिह। अथर्ववेद 6.88.3
11. विश्वाः पृतना अभिभूतरं नरं, सजूस्ततक्षुरिन्द्रं जजनुश्च राजसे। अथर्ववेद 20.54.1
12. इयं ते राड् यन्ताऽसि यमनो धु्रवोऽसि धरूणः। कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा।। यजुर्वेद 9.22
13. शतपथ ब्राह्मण 5.3.1.1 से 13
14. अस्याः पर्षद ईशानः सहसा दुष्टरो जन इति। पारस्कर गृह्य सूत्र 3.13.4
15. मा त्वद् राष्ट्रमधि भ्रशत्। ऋग्वेद 10.173.1
16. राजा न सत्यः समितीरियानः। ऋग्वेद 9.92.6
17. श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ। यजुर्वेद 31.22
18. अग्निर्विशश्चक्रे बलिहृतः सहोभिः। ऋग्वेद 7.6.5
19. यद् राजानो विभजन्त इष्टापूर्तस्य षोडशं यमस्यामी सभासदः। अथर्ववेद 3.29.1
20. ये वाऽस्मिन् शुल्कमीषिरे। अथर्ववेद 5.19.3
21. ऐतरेय ब्राह्मण 8.4.18
22. आग्रवाल, डॉ0 वासुदेव शरण, पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृष्ठ 389-400
23. स हि ज्येष्ठः राजाऽधिपतिः। छान्दोग्य उपनिषद् 5.6
24. ऋग्वेद 1.53.9
25. शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये। ऋग्वेद 8.3.4
26. अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये। ऋग्वेद 9.110.2
भानु प्रकाश त्रिपाठी
शोधच्छात्र, संस्कृत-विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।