Wednesday, 2 July 2014

स्वातन्त्रोतर संस्कृत हास्य साहित्य में ‘व्यंग्यार्थकौमुदी’ की प्रासंगिकता


शैला भारती

संस्कृत वांगमय में काव्य,नाटक, आख्यान, आख्यायिका आदि काव्य के समस्त भेदोपभेद प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है। परन्तु अल्प कवियों ने हास्य को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। जबकि यह हास्य साहित्य भी स्वाधीनता के लिए तप एवं वैज्ञानिक युग की ज्वलन्त समस्याओं के निदान के प्रति सोच को नया क्षितिज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रस्तुत शोध-पत्र में आचार्य प्रशस्यमिश्र कृत व्यंग्यार्थकौमुदी में जिस हास्य कविता पर विहंग्म दृष्टि डाली गयी है उसका विवेचन इस प्रकार है।

संस्कृत साहित्य में 1901 ई. से 2000 ई. के मध्य का काल 20वीं शताब्दी के रूप में मान्य है। इस कालावधि में संस्कृत रचनाकारों ने पारम्परिक शास्त्रीय ग्रन्थों के प्रणयन से हटकर तात्कालिक विविध विषयों को आधार बनाकर नवीन विधाओं में रचना करते हुए युगानुकूल रचनाधर्मिता का प्रकाशन किया है, जो किसी भी भाषा की जीवन्तता का ज्वलन्त प्रमाण है। बीसवीं शती में युग-परिवर्तन के साथ तत्कालीन धार्मिक तथा सामाजिक नवचेतना का जागरण भी संस्कृत रचनाकारों की रचनाधर्मिता का विशिष्ट अंग बना। किन्तु वर्तमान में आधुनिक समाज व्यवस्था एवं लोक व्यवहार में आधृत हास्य या व्यंग्य को संस्कृत भाषा में उपस्थित करना सहज नहीं है। अग्निपुराण में कहा गया है कि- मनुष्य होना दुर्लभ है, मनुष्य होकर विद्या प्राप्त करना और भी दुर्लभ है, विद्या प्राप्त हो भी गई तो कवि होना कठिन है। क्यांकि कवि होने के बाद काव्यशक्ति नितान्त आवश्यक होती है और यही काव्यशक्ति रचनाधर्मिता की लोकप्रियता को निर्धारित करती है। कविता तो जोड़-तोड़ कर बहुत लोग लिख लेते हैं, परन्तु काव्यशक्ति को प्राप्त करना अलग बात है।1
संस्कृत कवि अपनी परम्परा का पोषक होता है। उसकी स्थिति में परिवर्तन उतनी शीघ्रता से नहीं दिखता है जितना अन्य साहित्य में। संस्कृत वांगमय में काव्य, नाटक, आख्यान, आख्यायिका आदि काव्य के समस्त भेदोपभेद प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है। परन्तु बहुत ही अल्प कवियों ने हास्य को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। जबकि यह हास्य साहित्य भी स्वाधीनता के लिए तप एवं वैज्ञानिक युग की ज्वलन्त समस्याओं के निदान के प्रति सोच को नया क्षितिज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आधुनिक संस्कृत कवियों में ख्यातिलब्ध नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा के धनी एवं संस्कृत नवगीत परम्परापोषक ‘आचार्य प्रशस्यमिश्र शास्त्री’ हास्य परम्परा के नितान्त ख्याति प्राप्त कवि है। इनकी अनेक हास्य रचनायें आधुनिक साहित्य अनुरागी विद्वानों में अति प्रसिद्ध हैं। इनकी अनेक रचनाओं में हासविलासः, संस्कृतव्यंग्यविलासः, कोमलकण्टकावलिः, व्यंग्यार्थकौमुदी इत्यादि प्रमुख हैं।
‘व्यंग्यार्थकौमुदी’ आचार्य प्रशस्यमिश्र की प्रकृष्टतम रचना है जो प्रसाद दीप्ति, व्यंग्यदीप्ति, एवं हास्यदीप्ति नामक तीन दीप्तियों में विभक्त है।
व्यंग्यार्थकौमुदी की प्रथम दीप्ति जो ‘प्रसाद दीप्ति’ के नाम से है उसमें संस्कृत के स्रग्विणी, वंशस्थ, मालिनी आदि शास्त्रीय छन्दों का प्रयोग किया गया है। पर्यावरण के सम्बन्ध में व्यंग्यार्थ कौमुदी में शास्त्री जी ने स्रग्विणी का बहुत सुन्दर उद्धहरण प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है- सागरा दूषिता येन मत्स्या मृताः निम्नगानां जलं केन वा दूषितम्?।
साम्प्रतं पुण्यतोयं तथा सौरव्यदम् दुःखमेतद् हि गंगा जलं दूषितम्।।
कार्यशाला समुत्सारिता या घना धूमरेखा विषाक्ता नभो व्याप्रुते।
तस्य यः कुप्रभावस्तु जीवेषु स्यात् कस्य दोषो भवेदत्र कैश्चिन्त्यते?।।3
आज के मानव के आचरण और व्यवहार में इतनी लघुता आ गई है कि उसे अपने स्वार्थ के अलावा कुछ नहीं दिखता है। मानव के स्वार्थ के वशीभूत होने के कारण सागरों की दशा दोषपूर्ण हो गई है, पावनीय गंगा अपावन हो रही है, सभी जलीय जीवजन्तु मृत हो रहे हैं, और फैक्टरी एवं कारखानों के हानिकारक धुएँ से समस्त प्रणियों की स्थिति दयनीय हो गई है। इसे ही इस कविता की इन पंक्तियों में प्रदर्शित किया गया है।
डॉ0 प्रशस्यमिश्र शास्त्री कृत ‘व्यंग्यार्थकौमुदी’ की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसमें संस्कृत का पद्य जिस छन्द में है उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी उसी छन्द में है। ‘व्यंग्यार्थकौमुदी’ की इन पंक्तियों में इसको प्रदर्शित किया गया है। यथा-
सागरों की दशा दोष से पूर्ण है मौत से जन्तु सारे विदा हो रहे।
है नदी भी यहाँ गन्दगी से भरी पावनी आज गंगा कहाँ से बहे।।
फैक्टरी बो रहा आज का आदमी फैलता जा रहा है धुआं ही धुआं।
जीव कैसे बचेगें यहाँ सोचिये मौत का दीखता है कुआँ ही कुआँ।।4
व्यंग्यार्थकौमुदी की द्वितीय दीप्ति में व्यंग्यात्मक कवितायें हैं जो संस्कृत छन्दों की दृष्टि से शास्त्रीय तो नहीं हैं, परन्तु इन पद्यों में एक विशिष्ट प्रयोग है तथा विचारों की अत्यन्त नवीनता है इनमें प्रबल व्यंग्य का बोध होता है। शास्त्री जी ने अपने इस ग्रन्थ के हिन्दी पद्यानुवाद में भी इसका विशेष ध्यान रखा है। यथा-
इयम् एकविंशतिः शताब्दी पश्य सखे! आगता भारते।
श्वानो गच्छति कारयानके, मार्जारः पर्य०शेते किन्तु निर्धनो मानवबालः, बुभुक्षितो रोदनं विधत्ते
अचेतनाः पाषाणमूर्तयः वस्त्रसज्जिताः संराजन्ते किन्तु दरिद्रो वृद्धोङशक्त शीते वस्त्रं विना कम्पते।
इयम् एकविंशतिः शताब्दी पश्य सखे! आगता भारते।।5
अर्थात-   भारत में आ रही साथियों देखों इक्सवीं शताब्दी
कुत्ता चलता कार यान में बिस्तर पर बिल्ली सोती हैं बेचारे गरीब की सन्तति, किन्तु भूख सहती रोती हैं। पत्थर की निर्जीव मूर्तियाँ, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनती। किन्तु गरीबों की सन्ततियाँ, बिना वस्त्र के रहें काँपती। आयी इक्कीसवीं शताब्दी।।
व्यंग्यार्थकौमुदी का तृतीय दीप्ति अंश जो ‘हास्य दीप्ति’ के नाम से अभिहित किया गया है। इस अंश के पद्यानुवाद में भी पूरी तत्परता के साथ मौलिक संस्कृत हास्य को सुरक्षित रखते हुए प्रस्तुत किया गया है जिसमें प्रायः अनुष्टुप छन्दों का संग्रह है। यथा-
  शोडषी सुन्दरी दृष्ट्वा छात्रः सव्यंग्यम् उक्तवान्। अहो! मध्याह्नकालोषपि चन्द्रः समुदितः कथम्?।।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शोडषी प्रत्युवाच यत्। उलूकोऽयं दिनेऽव्यद्य कथं शब्दायते प्रभो!।।6
किसी शोडष वर्षीया नायिका को देखकर नायक मुस्कराकर कहता है कि आज दोपहर को ही चाँद कैसे दिख गया? तो नायिका कहती है कि अचानक समय परिवर्तन कैसे हो गया कि आज दिन में ही उल्लू बोल रहा है। इसी प्रकार-
    प्रकुर्वन् गणिते प्रश्न गुरुश्छात्रमुवाच यत्। को बिन्दु-रेखायोर्मध्ये भेद इति तु मां वद?।।
    गुरोत्सात्प्रश्नामाकर्ण्य छात्रस्तं प्रत्युवाच यत्। रेखा तु नायिका ख्याता बिन्दुस्तु खलनायिका।।7
अर्थात छात्रों की एक कक्षा में अध्यापक ने एक छात्र से पूछा कि रेखा और बिन्दु में क्या अन्तर है, छात्र ने कहा कि रेखा नायिका है और बिन्दु को खलनायिका समझें।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक यह कहा जा सकता है कि संस्कृत कवि युग-धर्म के प्रति उदासीन नहीं रहा। स्वातन्त्रयोत्तर साहित्य में राष्ट्र को खण्डित करने वाले कारकों का दिग्दर्शन है तो कहीं उनकों विनष्ट करने वाले कारकों का भी संकेत हैं। राष्ट्र की समस्यायें विकराल रूप में है। इन समस्याओं के समाधान का दायित्व भी समाज के प्रत्येक मानव पर है। मानव का भारत को मातृदेव व पितृदेव स्वरूप मानकर उसके आत्म समर्पण सम्पूजन व चिन्तन का भाव रखकर ही राष्ट्र को मजबूत बनाया जा सकता है। डॉ0 प्रशस्यमिश्र शास्त्रीकृत ‘व्यंग्यार्थकौमुदी’ राष्ट्र के प्रति इस आत्म समर्पण की भावना को प्रत्येक व्यक्ति में जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हास्य एवं व्यंग्य जहॉ एक ओर पाठक के हृदय को रोमांच से भर देता है। वहीं दूसरी और समाज के प्रत्येक अंगों पर प्रहार कर बुद्धिजीवियों को विचार करने के लिए बाध्य भी कर देता है।
सन्दर्भ सूची-
1. व्यंग्ययार्थकौमुदी, पृ0-5
2. तत्रैव, पृ0-06
3. तत्रैव, पृ0-14
4. तत्रैव, पृ0-15
5. तत्रैव, पृ0-62
6. तत्रैव, पृ0-148
7. तत्रैव, पृ0-142
8. उपाध्याय बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास।
9. उपाध्याय बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास।
10. कीथ ए0 बी0, संस्कृत साहित्य का इतिहास।
11. शास्त्री, आचार्य प्रशस्यमिश्र, संस्कृत व्यंगयविलासः।
12. शास्त्री, आचार्य प्रशस्यमिश्र, कोमलकण्टकावलिः ।
13. शास्त्री, आचार्य प्रशस्यमिश्र, हासविलासः।
शैला भारती, 
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग,
म0 गॉ0 का0 विद्यापीठ, वाराणसी।