अवधेश कुमार पाण्डेय
कविता-कामिनी-कान्त महाकवि कालिदास केवल संस्कृत साहित्य के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के मुकुटालंकार हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि बाह्यजगत् और अन्तर्जगत् की ताŸवक विधाओं का दर्शन करती हुई मनोरम पदावली में उनको अनुस्यूत करती है। महर्षि अरविन्द का यह कथन इनके सम्बन्ध में कितना सटीक है कि ‘‘वाल्मीकि व्यास तथा कालिदास प्राचीन भारतीय इतिहास की अन्तरात्मा के प्रतिनिधि हैं और सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी इनकी कृतियों में हमारी संस्कृति के प्राण तत्व सुरक्षित रहेंगे’’। कालिदास ने अपने काव्यों में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का जो सामन्जस्य स्थापित किया है उससे उनकी काव्य प्रतिभा परिलक्षित होती है। रस, छन्द, अलंकार, भाषा, शैली, भावों की अभिव्यक्ति एवं प्रकृति वर्णन आदि ऐसे प्रतिमान हैं जिनके आलोक में कालिदास का काव्य कौशल परिलक्षित होता है।
कालिदास का भाषा पर पूर्णं अधिकार है। उनकी भाषा सरल, सरस, परिष्कृत, प्रा०जल, मनोरम एवं प्रसादगुण से युक्त है। कवि ने अपने काव्यों में कहीं भी पाण्डित्य प्रदर्शन की चेष्टा नहीं की है इसी कारण छोटे-छोटे समास का प्रयोग सरल ढंग से हुआ है- जातं वंशे भुवनविदते पुष्करावर्तकानां। जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मधोनः।।1
शब्द और अर्थ का साम०जस्य वर्णित करना कवि की अपनी प्रमुख विशेषता है। किस शब्द का प्रयोग कब, कहाँ और किस अर्थ में किया जाय इसको कवि भलीभाँति जानता है। इसका सुन्दर उदाहरण कुमारसंभव महाकाव्य के प०चम सर्ग के निम्न श्लोक में देखा जा सकता है2- द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया पिनाकिनः।
कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्यलोकस्य च नेत्रकौमुदी।।
कालिदास की सरल शब्द-योजना उनके काव्य सौष्ठव को व्यक्त करती हैं। वे जिस प्रकार के भाव को जिस स्थल पर अभिव्यक्त करना चाहते हैं उसके अनुकूल ही भाषा का प्रयोग करते हैं। इनकी रचनाओं में जगह-जगह शब्दों की सरलता के साथ-साथ भावों की गम्भीरता के भी दर्शन होते हैं। पूर्वमेघ में कवि ने गम्भीरा नदी में नायिका का आरोप करके बड़ा ही सुन्दर भाव प्रस्तुत किया है3-
तस्याः किंचित्करघृतमिव प्राप्तवानीरशाखं हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम्।
प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः।।
इसी प्रकार कालिदास ने अन्य कृतियों में भी सरल और गम्भीर भाषा का प्रयोग किया है।4 उनके पास शब्दों का अगाध भण्डार है। भाषा और शब्दकोष पर अधिकार के कारण भाषा में असाधारण मनोरमता और सुन्दर प्रवाह है। संवाद सरल सूक्ष्म तथा आकर्षक है। संवादों में भाषा इतनी मधुर और सजीव है कि वह विषय को और अधिक आकर्षक एवं रोचक बना देती है। उनकी भाषा में कहीं भी अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते हैं। छोटे-छोटे सरल वाक्यों के प्रयोग से सूक्ष्मतम् भावों की अभिव्यक्ति की गयी है। पात्रों के अनुकूल ही भाषा का प्रयोग किया गया है जो जिस कोटि का है उससे उसी प्रकार की भाषा बुलवायी गयी है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में हम देखते हैं कि सभी उच्च श्रेणी के पुरुष पात्र संस्कृत बोलते हैं और निम्न श्रेणी के पुरुष तथा सभी स्त्री पात्र प्राकृत भाषा में बोलते हैं।5 यह कालिदास का अद्भुत वैशिष्ट्य है।
विश्व साहित्य में कालिदास ने जो सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की है उसमें उनकी शैली का विशेष योगदान है। उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति और सृष्टि निपुणता से रसहीन कथानक को सजीव और आकर्षक बनाने में अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है। कालिदास ने अपनी कृतियों की विषय-वस्तु को प्राचीन आख्यानों से लेकर उन्हें अपने काव्य-कौशल और कल्पना शक्ति से इस प्रकार सजाया है कि वह अत्यन्त रमणीय कथावस्तु बन गयी है। कालिदास वैदर्भी शैली के श्रेष्ठ कवि माने गये हैं- ‘‘वैदर्भी रतिसन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते।’’ प्रसाद गुण का होना वैदर्भी शैली की प्रमुख विशेषता है प्रसाद गुण को परिभाषित करते हुए आचार्य मम्मट ने कहा है सूखे इन्धन में अग्नि के समान, स्वच्छ घुले हुए वस्त्र में जल के समान जो चित्त में सहसा व्याप्त हो जाता है वह सर्वत्र सभी रसों मेंं रहने वाला प्रसाद गुण कहलाता है।6 कालिदास को प्रसाद-गुण युक्त उनकी शैली ने ही उन्हें कविकुल शिरोमणि का स्थान दिलाने में अपनी महती भूमिका अदा की।
व्यंजना शक्ति कालिदास की शैली की सबसे प्रमुख विशेषता है। वे किसी भी भाव का चित्रण करते समय व्यंजना शक्ति का आश्रय लेकर उसकी ओर सूक्ष्म संकेत करना ही आवश्यक समझते हैं। उनकी इसी विशेषता के सम्बन्ध में डॉ0ए0बी0 कीथ ने लिखा है कालिदास की भाषा में व्यंजना गुण विद्यमान है वह केवल स्पर्श मात्र से निर्देश करके सन्तुष्ट हो जाता है।
कालिदास की शैली में उत्कृष्ट कला साधना पद-पद पर परिलक्षित होती है। महर्षि अरविन्द ने इस विषय में लिखा है कि कालिदास मूर्धन्य कलाकार हैं उनकी कृतियों से निर्गत होने वाली ध्वनि वही ध्वनि है जो प्राक्तन साहित्य की सर्वोत्तम रचनाओं में मिलती है। इस साहित्य की शैलीगत विशेषताएँ हैं- एक सुसंगठित किन्तु स्वाभाविक संक्षिप्तता, एक मसृण गांभीर्य एवं सुस्निग्ध औदार्य, पद्यगत श्रेष्ठ स्वर-सामंजस्य, परिष्कृत गद्य का सशक्त एवं प्रांजल सौंदर्य और सबसे बढ़कर संक्षिप्त तथा पदविष्णु पदावली की निश्चित अर्थवत्ता, जिसमें रंग और माधुर्य लबालब छलकते हैं।8
महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों में मुख्य रूप से श्रृंगार रस का वर्णन किया है किन्तु अन्य रसों को भी यथास्थान महत्व दिया है। यह बात पूर्णतयः सत्य है कि श्रृंगार वर्णन में कालिदास अतुलनीय हैं, उनके काव्यों में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का सुन्दर परिपाक हुआ हैं उनका श्रृंगारिक वर्णन पाठक की आत्मा का स्पर्श कर लेता है। श्रृंगार के संयोग पक्ष की छलकती हुई मादकता का सुन्दर वर्णन कालिदास ने कुमारसंभव महाकाव्य के अष्टम सर्ग में विवाहोपरान्त नव समागम के प्रसंग में दृष्टव्य है-
व्याहृता प्रतिवचो न सन्दधे गन्तुमैच्छदवलाम्बितांशुका।
सेवते स्म शयनं पराड़्मुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः।।
इस प्रकार शिव के द्वारा कुछ कहने पर भी पार्वती कोई उत्तर नहीं दे रही हैं, आँचल खीचने पर भी हट जाना चाहती थी और सोने के समय दूसरी ओर मुख करके सोती थी। फिर भी मुग्धा की इन सरस चेष्टाओं के मर्मी शंकर जी पार्वती जी की इस प्रतिकूलता से और भी प्रसन्न होते जा रहे हैं।9
कालिदास ने पूर्व मेघ में स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु कहकर यह स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ प्रारंभ में अपने प्यार को कहकर प्रकट नहीं करती बल्कि अपने हाव भाव द्वारा प्रकट करती हैं।10 कालिदास ने संयोग श्रृंगार का मेघदूत में बड़ा ही मनोरम वर्णन किया है। गंभीरा नदी रूपी नायिका चंचल चितवन के साथ जब मेघ रूपी नायक से मिलती है तो भला वह उसे कैसे छोड़ सकता है। ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः।
कालिदास के काव्यों में रसों के सामंजस्य को देखने से उन्हें रस-सिद्ध कवीश्वर की उपाधि से विभूषित किया जाना उचित ही है। कवि ने श्रृंगार रस के अतिरिक्त करुण, शान्त, वीर, हास्य आदि सभी रसों का वर्णन किया है। रघुवंश में प्रायः सभी रसों का सुन्दर परिपाक देखने को मिलता है। कुमारसंभव के रति-विलाप और रघुवंश में अज-विलाप को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे करुण रस की धारा फूट पड़ी हो। इन्दुमती के आकस्मिक निधन पर जब अज बेहोश होकर गिर पड़ते हैं तो उन दोनों के पास उपस्थित सेवकों के रोने से उस उपवन के पक्षी उद्विग्न होकर इस प्रकार रोने लगे कि मानो वे भी उनके समान दुःखी होकर सम्वेदना प्रकट कर रहे हैं।11 इसी प्रकार कुमार संभव में कामदेव के भस्म हो जाने पर रति विलाप करती हुई कहती है कि पत्नियों का धर्म है कि वे पति के साथ चिता में जलकर उनका अनुगमन करें, क्योंकि जब अचेतनों में यह धर्म देखा जाता है तो फिर वह तो चेतन हैं।12
हास्य और वीर रस में भी कालिदास निपुण हैं। कुमारसंभव में हास्य का बड़ा सुन्दर उदाहरण पंचम सर्ग में उस समय मिलता है जब वटुवेषधारी शिव पार्वती से कहते हैं कि अब तक तो तुम श्रेष्ठ हाथी पर चढ़ती रही हो किन्तु विवाह के पश्चात् तुम्हें शिव के साथ बूढ़े बैल पर बैठे हुए देखकर साधुजन हंसने लगेंगे।13 इसी प्रकार रघुवंश में रघु और राम का युद्ध वीर रस का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यद्यपि यह निःसन्देह सत्य है कि कालिदास मुख्य रूप से कोमल एवं सुकुमार रसों के ही चतुर चित्रकार है तथापि उन्होंने अद्भुत शान्त, रौद्र, वीभत्स आदि रसों का प्रयोग उचित स्थानों पर करके अपना जो काव्य-कौशल प्रस्तुत किया है वह निश्चित रूप से श्लाघनीय है। इनके रस के सम्बन्ध में बलदेव उपाध्याय ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि कालिदास कोमल रसों के वर्णन में दक्ष हैं। उनके श्रृंगार और करुण रस के वर्णन अति उत्तम हैं। कालिदास का वीर रस का वर्णन इतना ओजस्वी नहीं है कि उसके सुनते ही हृदय में उत्साह की आग जलने लगे। इतना फड़कता हुआ नहीं कि कायर भी वीर बन जाय। उपाध्याय जी के इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास ने श्रृंगार और करुण रस का प्रयोग अधिक किया है और अन्य रसों का प्रयोग प्रसंग वश किया है।
किसी भी काव्य के उत्कर्ष में छन्द विधान का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। क्षेमेन्द्र ने अपने सुवृत्ततिलक में लिखा है कि काव्य में रस तथा वर्णनीय छन्दों का विधान सोच समझकर करना चाहिए।14- काव्ये रसानुसारेण वर्णानानुगुणेन च कुर्वीत सर्ववृŸानां विनियोगं विभागवित्।।
उक्त विधान के अनुसार कालिदास ने कुछ निश्चित प्रसंगों के लिए कुछ निश्चित छन्दों का प्रयोग किया है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे विशेष भावों और रसों के लिए कुछ विशेष छन्दों का प्रयोग ही उपयुक्त समझते हैं, जैसे वियोग या वर्षा का वर्णन करने में मन्दाक्रान्ता, वीरता के प्रकरण में वशस्थ, कार्य की सफलता पर बसन्ततिलका आदि का प्रयोग किया है।
कुमारसंभव और रघुवंश के अवलोकन से ज्ञात होता है कि कालिदास को उपजाति और अनुष्टुप जैसे छोटे-छोटे छन्द अधिक प्रिय थे। इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि उन्होंने बड़े छन्दों का प्रयोग नहीं किया है। सम्पूर्ण मेघदूत मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखा है। इसका कारण यह है कि इसका प्रारम्भ वर्षा ऋतु से होता है और उसमें विशेष रूप से प्रवास का वर्णन है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने भी कहा है- प्रावृष्ट्प्रवासव्यसने मन्दाक्रान्ता विराजते। यह मानना होगा कि कालिदास ने अपने ग्रन्थों में आवश्यकतानुसार छन्दों का प्रयोग किया हैं ऋतुसंहार में जहां उन्होंने बसन्तलिका उपजाति और मालिनी छन्दों का प्रयोग किया है, वहीं रघुवंश और कुमारसंभव में उपजाति, अनुष्टुप, वंशस्थ और मालिनी छन्दों का। शाकुन्तलम के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उनके द्वारा प्रयुक्त रसों में छन्द योजना की शिक्षा दी गयी हो।
काव्य में अलंकार का स्थान महत्वपूर्ण है। अलंड्क्रियतेऽनेनेति अलंकार अर्थात् जिससे किसी वस्तु की शोभा बढ़ायी जाय वह अलंकार है। जयदेव ने अपने चन्द्रालोक में अलंकार की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि जो आचार्य अलंकार रहित शब्दार्थ को काव्य मानता है वह यह क्यों नहीं मानता कि अग्नि उष्णता रहित होती है।15
महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग किया है किन्तु अधिकता अर्थालंकारों की है। महाकवि ने अलंकारों के प्रयोग मेे बड़ी चतुराई का परिचय दिया है। शब्दालंकार का मोह कवियों को कभी-कभी इतना बांध लेता है कि मूलभाव-तत्व पूर्णतः गौण हो जाता है लेकिन कालिदास ने उसका प्रयोग बहुत ही स्वाभाविक ढंग से किया है। इस सम्बन्ध में स्व0 श्री चन्द्रशेखर पाण्डेय का कथन है कि अलंकारों के प्रयोग में कवि ने अपनी सूक्ष्म मर्मज्ञता का परिचय दिया है। उनकी कविता अत्यधिक तथा अनावश्यक अलंकारों के भार से आक्रान्त कामिनी की भांति मन्द-मन्थर गति से चलने वाली नहीं है अपितु स्फुटचन्द्र तारका विभावरी की भांति अपने सहज सौन्दर्य से सहृदयों के चिŸा को आकृष्ट करने वाली है। उनके अनुप्रास अपनी काव्यधारा में सर्वत्र अप्रयास ही आ गये हैं, कहीं भी जबरदस्ती नहीं बैठाये गये हैं।16
आचार्य आनन्द वर्द्धन के अनुसार यमक के प्रयोग से काव्य के दुरूह होने के कारण विप्रलम्भ श्रृंगार के वर्णन में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।17 सम्भवतः इसलिए कालिदास ने यमक का प्रयोग बहुत कम किया है। फिर भी रघुवंश के नवम् सर्ग में दशरथ की राज्य व्यवस्था, बसन्त व ग्रीष्म ऋतु वर्णन तथा आखेट वर्णन में यमक का प्रयोग देखा जा सकता है।
यमक के समान ही कालिदास ने श्लेष के प्रयोग में भी विशेष कौशल का परिचय दिया है, जिससे वह केवल कोरी बुद्धि का व्यायाम न होकर विविक्षितार्थ को सुन्दर ढंग से व्यक्त करने में सहायक होता है। कालिदास के श्लेष आसानी से समझ में आ जाते हैं।
काव्य को ग्राह्य बनाने के लिए महाकवि सादृश्य विधान का प्रयोग करते हैं। सादृश्य विधान प्रस्तुत करने वाले अलंकारों में उपमा सर्वप्रमुख है। उपमा के ज्ञान से ही अन्य सादृश्यमूलक अलंकारों का ज्ञान भी सहज रूप से हो जाता है। कालिदास ने सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा और अर्थान्तरन्यास का प्रयोग अधिक किया है। संस्कृत जगत में कालिदास उपमा के धनी माने जाते हैं। बिल्कुल सीधे और नपे तुले शब्दों के द्वारा कालिदास ने अपनी उपमायें दी हैं। उनकी उपमा-सौन्दर्य की विशेषता को देखते हुए समीक्षकों ने उपमा कालिदासस्य कहकर उनकी दक्षता को प्रदर्शित किया है। रघुवंश में छठे सर्ग में इन्दुमती की तुलना जलती हुई दीपशिखा से की गयी है और दीपशिखा की यह उपमा इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसने कालिदास को दीपशिखा ही बना दिया।18
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।।
कालिदास की उपमाओं में जो भावाभिव्यक्ति और रस सौन्दर्य मिलता है वैसी ही ज्ञान धारा अर्थान्तरन्यास की भी बहती है। उनके अर्थान्तरन्यास से प्रभावित होकर किसी विद्वान प्रशंसक ने अर्थान्तरन्यास के प्रयोग में कालिदास को उपमा से भी अधिक श्रेष्ठ माना है- उपमा कालिदासस्य नोतकृष्टेति मतं मम्। अर्थान्तरस्य विन्यासे कालिदासो विशिष्यते।।
सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा और अर्थान्तरन्यास के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, रूपक, व्यतिरेक, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों की छटा भी उनके काव्य को मनोरम बनाने वाली है। यद्यपि उनकी प्रारम्भिक रचनाओें में उत्प्रेक्षा का प्रयोग कम ही मिलता है परन्तु मेघदूत आदि बाद की रचनाओं में तो मानों रसवर्षी एवं ललित उत्प्रेक्षाओं की झड़ी लग गयी है।
इन अलंकारों के अतिरिक्त कालिदास ने स्वाभावोक्ति, निदर्शना, व्यतिरेक, रूपक आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोग करके अपने काव्य कौशल का परिचय दिया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उनकी रचनाओं में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का सौन्दर्य समान रूप से मिलता है, जो उनके काव्य को सुन्दर एवं मधुर बनाता है। उनकी उपमाओं के सामन अर्थान्तरन्यास एवं उत्प्रेक्षा भी उत्कृष्ट हैं जहाँ एक ओर विद्वानों ने उनके उपमा-सौष्ठव की प्रशन्सा की है वहीं दूसरी ओर अर्थान्तरन्यास और उत्प्रेक्षाओं को भी सराहा है। कहा जा सकता है कि कालिदास का अलंकार कौशल सराहनीय है।
कालिदास ने अपने काव्यों में प्रकृति का जो मनोरम वर्णन किया है, उसे कोई प्रकृति का सूक्ष्म द्रष्टा ही कर सकता है। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में वन और पुष्पों का अद्वितीय वर्णन किया है। उनकी प्रकृति भी जीवन के स्पन्दन के साथ-साथ सजीव प्रतीत होती है और नित्य मनुष्य को नवीन शक्ति प्रदान करती है। कालिदास अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने सजीव प्रकृति का इतना सूक्ष्म और पूर्ण वर्णन किया है।
कालिदास ने अपने काव्यों में अन्तः एवं बाह्य प्रकृति में सुन्दर तादात्म्य स्थापित किया है तथा साथ ही प्रकृति को आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण एवं अलंकारिक आदि रूपों में चित्रित किया हैं प्रतिभा के विकास के साथ-साथ कालिदास का प्रकृति वर्णन में भी विकास हुआ है। अपनी प्रथम रचना ऋतुसंहार को उन्होंने पूर्णरूप से प्रकृति को समर्पित कर दिया है। इसमें उन्होंने प्रकृति के ही एक अंग ऋतुओं का वर्णन अपनी प्रिया को सम्बोधित करते हुए किया है। इसमें प्रकृति हो आलम्बन रूप में कम और उद्दीपन रूप में अधिक प्रयुक्त किया गया है। इस काव्य में जहां एक ओर ग्रीष्म की प्रचण्डता का वर्णन है वहीं दूसरी ओर बसन्त की समरसता की भी झांकी प्रस्तुत की गयी है।
रघुवंश महाकाव्य में भी प्राकृतिक दृश्यों के स्वाभाविक एवं मनोहारी चित्रण प्राप्त होते हैं। वशिष्ठ के आश्रम का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। ऋषियों की पर्णशालाओं के द्वार को मृग रोककर बैठे हुए हैं और उन ऋषियों के द्वारा इन पर सन्तान के समान स्नेह होने के कारण नीवार के कुछ अंश इन्हें भी दिये जाते हैं।
अकीर्णमृषिपत्नीनाममुटजद्वाररोधिभिः। अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचिमर्त्तैगैः।।
कुमारसंभव महाकाव्य का प्रारम्भ ही प्रकृति की रमणीयता के साथ हुआ है। मंगलाचरण के रूप में कालिदास ने भारत के उत्तर में स्थित पर्वतराज हिमालय का ही गुणगान किया है-19 अस्त्युत्तरस्यां दिषि देवतात्मा, हिमालयो नाम नागाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।।
कालिदास ने प्रकृति को अनेक रूपों में चित्रित किया है। उनके अनुसार प्रकृति मानव की चिरन्तन सहचरी तथा उसके स्वस्थ, सरस एवं मौलिक जीवन के लिए अपरिहार्य हैं यद्यपि कालिदास का प्रकृति का कोमल रूप ही अधिक प्रिय रहा है फिर भी उनको इस क्षेत्र तक सीमित रखना उनके साथ अन्याय होगा। मेघदूत में पद-पद पर प्रकृति की छटा के दर्शन होते हैं। पूर्व मेघ मे आम्रकूट पर्वत का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। जहाँ इसके शिखर पर काला मेघ है और आस पास पके फलों से युक्त आम्र के वृक्ष होने के कारण यह पृथ्वी के स्तन के समान शोभा को प्राप्त हो गया है। इतनी सुन्दर और मनोरम कल्पना कालिदास के काव्य कौशल का ही परिणाम है। उन्हें यदि प्रकृति का कवि कहा जाय तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
प्राचीन भारतीय परम्परा के सभी कवियों तथा आलोचकों ने कालिदास के काव्य-कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। एक प्राचीन कवि ने कहा है कि जब कवियों की गणना की जाने लगी तो पहला नाम कालिदास का था, परन्तु आगे कालिदास के समान दूसरा कवि न होने के कारण दूसरी अंगुली पर गणना के लिए कोई दूसरा नाम न मिला, इसलिए उनका अनामिका नाम सार्थक ही रहा- पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः। अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती वभूव।।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कालिदास ने अपने काव्यों में भाषा, शैली, रस, छन्द, अलंकार, प्रकृति वर्णन आदि को प्रसंग के अनुसार अपने काव्य कौशल से इस प्रकार प्रयुक्त किया है कि उनके काव्य कौशल का चमत्कार भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में फैल गया। उनके काव्यों ने जिस प्रकार आज से 1500 वर्ष पहले मानव हृदय को आह्लादित किया था उसी प्रकार आज भी मानव हृदय को प्रेरणा एवं स्फूर्ति प्रदान कर रही है। इनका काव्य कौशल ही इन्हें संसार में हमेशा के लिए अमर कर दिया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1.झा तारिणीश, पूर्व मेघ, श्लोक संख्या 6.
2.कुमारसंभव, 5/71 चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी।
3.झा तारणीश, पूर्वमेघं श्लोक संख्या 45.
4.रघुवंश, कुमार संभव, अभिज्ञान शाकुन्तल 2/10.
5.द्विवेदी डॉ0 कपिल देव, अभिज्ञान शाकुन्तलम् भूमिका, पृष्ठ 84.
6.आचार्य मम्मट, काव्य प्रकाशः अष्टम् उल्लास।
7.कीथ डॉ0 ए0 बी0, संस्कृत ड्रामा।
8.अरविन्द, कालिदास, पृष्ठ 16-17.
9.कुमारसंभव महाकाव्य- 8/2- चौखम्भा., विद्याभवन वाराणसी।
10.झा तारिणीश, पूर्वमेघ- श्लोक संख्या 29.
11.रघुवंश 8/39 चौखम्भा सुरभारती वाराणसी।
12.कुमार संभव 4/33 चौखम्भा विद्याभवन।
13.कुमार संभव-5/70 चौखम्भा विद्या भवन।
14.क्षेमेन्द्र, सुवृत्ततिलकः।
15. जयदेव, चन्द्रालोकः।
16.पाण्डेय स्व0 चन्द्रशेखर, संस्कृत साहितय की रूपरेखा, चतुर्दश संस्करण, पृष्ठ 49।
17.ध्वन्यालोक 2/15
18.रघुवंश 6/67 चौखम्भा सुरभारती वाराणसी।
19.कुमार संभव 1/1 चौखम्भा विद्याभवन वाराणसी।
अवधेश कुमार पाण्डेय
शोधच्छात्र (नेट), संस्कृत विभाग,
गाँधी शताब्दी स्मा0 स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कोयलसा- आजमगढ,़
सम्बद्ध-वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर।