Wednesday 2 July 2014

विन्ध्यक्षेत्र की मध्यपाषाणिक संस्कृति में जीवन निर्वाह के साक्ष्य (Evidence of subsistence pattern in the Mesolithic Culture of the Vindhyas)


रमाकान्त 

विन्ध्य क्षेत्र का परिचय रू भारत एक विशाल देश है। भौगोलिक विविधता के कारण यह अनेक पारिस्थितिकी क्षेत्रों में विभक्त है जिनमें मानव के उद्भव और विकास की दृष्टि से विन्ध्य क्षेत्र विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। विगत चार दशकों में सम्पादित प्रागैतिहासक अनुसंधानों से स्पष्ट हुआ है कि यह क्षेत्र मानव.जीवन के उषाकाल से ही अनेक संस्कृतियों के उद्भव और विकास का साक्षी रहा है। भौगोलिक विविधता वाला यह भू.क्षेत्र दकन तथा उत्तरी भारत के मध्य एक अन्तस्थ क्षेत्र की तरह स्थित है प्राकृतिक सम्पदा तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध यह भूक्षेत्र ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रागैतिहासिक शिलाचित्र के लिए प्रसिद्ध भीमबैतका नामक पुरास्थल इसी क्षेत्र में स्थित है। यहाँ पर नृजातीय तथा सांस्कृतिक विविधता वाली अनेक जनजातियाँ भी निवास करती हैं जिनके अध्ययन से हम अतीत के पुनर्निर्माण के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेत पा सकते हैं।

भारत में मध्यपाषाणिक संस्कृति की खोज का इतिहास . पाषाण युगीन संस्कृतियों के उद्भव और विकास के क्रम में मध्य पाषाण कालए पुरापाषाणकाल और नवपाषाण काल के मध्य एक संक्रमणात्मक अवस्था का अभिद्योतन करता है। इस काल में मानव.जीवन विधा में नवीन परिवर्तनों के कारण सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सांस्कृतिक विकास की इस अवस्था में कुछ विशेष सांस्कृतिक तत्व उद्भूत हुए जिन्होनें समयान्तराल में नवपाषाणिक संस्कृति के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।1 प्रागैतिहासिक अनुसंधान की शैशवावस्था में पुराविदों का विचार था कि पुरापाषाण तथा नवपाषाण युगीन संस्कृतियों के मध्य एक लम्बा अन्तराल था। परन्तु कालान्तर में जो अनुसंधान हुए उनसे यह ज्ञात हुआ कि इन दोनों कालों के मध्य एक संक्रमणात्मक अवस्था थी जो दोनों को आबद्ध करके संयोजित करती थी। इस संदर्भ में १८८७ में फ्रांस की ष्मास द एजिलष् ;डें क् ।्रपसद्ध नामक गुफा के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य विशेष महत्व रखते हैं। कालान्तर में विद्वानों ने इस संक्रान्ति अवस्था को ष्मध्यपाषाण कालष् का नाम दिया। भारतीय उपमहाद्वीप में मध्यपाषाणिक संस्कृति के अध्ययन के संदर्भ में विवेच्य है कि प्रारम्भ में यहाँ ष्लघुपाषाणोपकरणष् केवल भूतल से प्रतिवेदित थेए स्तरित जमाव से नहीं मिले थे। अतरू प्रायरू ऐसी धारणा थी कि यहाँ पर भी लघुपाषाण उद्योग का विकास अफ्रीका के अनुरूप मध्य पुरापाषाणिक उद्योगों से हुआ होगा। लेकिन बीसवीं शताब्दी ई० के साठ एवं सत्तर के दशकों में भीमबैटकाए रेणुगुण्टाए मध्य सोनघाटी2ए बेलन घाटी3 तथा भारत के अन्य क्षेत्रों में पुराविदों द्वारा किये गये उत्खननों के फलस्वरूप ऐसे साक्ष्य प्रकाश में आये हैं जिनसे यह बात स्पष्ट हो गयी कि भारत में लघु पाषाण उद्योग का विकास उच्च पुरापाषाणिक ब्लेड उद्योग से हुआ। भारत में मध्य पाषाणिक अनुसंधान का इतिहास लगभग १००वर्ष से अधिक पुराना है। सन् १८६७ में एण्सीण् एलण् कार्लाइल ने विन्ध्य क्षेत्र से ही लघुपाषाण उपकरणों को प्रतिवेदित किया था।4 उस समय से लेकर आज तक भारत के विभिन्न भागों से लघुपाषाण उपकरण प्रतिवर्ष प्रतिवेदित होते रहे हैं जिससे भारतीय प्रतिवेदित मध्यपाषाणिक संस्कृति के संदर्भ में हमारा ज्ञानवर्धन हुआ है। प्रसिद्ध विद्वान एच०डी० सांकलिया बेलन नदी.अनुभाग को देखकर बड़े प्रभावित हुए तथा उन्होनें इसे ष्टेक्स्ट बुक सेक्शनष् की संज्ञा प्रदान की ;रेखाचित्र १ए२द्ध।


चित्र-१ बेलन नदी: भूतात्विक जमाव की रूपरेखा (१९६७) (एस.एन.राजगुरू एवं जी.जी.मजूमदार के अनुसार)


चित्र.२ मध्य सोनघाटी का समेकित अनुभाग ;विलियम एवं कीथ रायस ;१९८३द्ध के अनुसारद्ध
उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र की मध्यपाषाणिक संस्कृति रू सामान्य विशेषाताएं. विगत दशकों में सम्पादित प्रागैतिहासिक अनुसंधान के फलस्वरूप विन्ध्यक्षेत्र  मानव के उद्भव एवं विकास के मूल केन्द्र के रूप में प्रकाश में आया है। भारत में मध्यपाषाणिक संस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से यह क्षेत्र विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में स्थित बेलनए अदवा तथा सोन नदी घाटियाँ प्रारम्भ से ही मानव संस्कृति के विकास में सहायक रहीं हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहासए संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा सम्पादित अनुसंधान के फलस्वरूप इस क्षेत्र की नदियों के भूतातत्विक जमावों से तो मध्यपाषणिक उपकरण मिले ही हैं साथ ही इस क्षेत्र से अनेक पुरास्थल भी प्रकाश में आये हैं जिनमें ज्यादातर खुले स्थान में नदियों के तटवर्ती ऊचें स्थान मेंए पहाड़ियों की तलहटीए ढलानों या उनके ऊपरी भाग में स्थित हैं। दूसरी स्थिति में ये शिलाश्रय या गुफाओं के रूप में प्रकाशित हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख मध्यपाषाणिक पुरास्थलों में चन्दौली जिले में कर्मनाशा नदी घाटी में स्थित लतीफशाहए कौड़िहार और चन्दौली जिले में ही चन्द्रप्रभा नदी की घाटी में भदहवाँ पहार बैरा.दोमुहवाए कपिशहाए सोनवर्साए पंचपेड़ियाए राजा बाबा की पहाड़ीए भैंसहवा और कुसुम्हार का उल्लेख किया जा सकता है।5 मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों से  भी पचास से अधिक मध्यपाषाणिक पुरास्थल प्रकाशित हैं। प्रो० आर० के० वर्मा ने इस क्षेत्र से ३२ खुले स्थान में स्थित पुरास्थल तथा २७ शिलाश्रयों की खोज की थी।6 मिर्जापुर जिले में स्थित पुरास्थलों में लेखहियाए मोरहना तथा बगहीखोरए धनुहीए बैधा तथा लहरियाडीह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। शिलाश्रय प्रायरू बेलन तथा अदना घाटी में ऊँचें स्थान में कैमूर की पहाड़ियों में स्थित है। बेलन घाटी में स्थित अन्य पुरास्थलों में चोपनी.माण्डोंए कुण्डीडीहए लोनामाटी कपासी कलाए बदउआ कलाए मंझगवाँ और महुली विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अनुसंधानों के फलस्वरूप सोन नदी घाटी में भी अनेक पुरास्थल प्रकाशित हैं जिनमें बाघोर प्प्ए घघरिया शिलाश्रय प्ए कुनझुन प्प्ए मेढ़ौली और बांकी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।6 इसके अतिरिक्त चित्रकूट जनपद में लालापुरए भौंरीए ऐंचवारा और पहारा नामक स्थलों से भी लघुपाषाणोपकरण प्रतिवेदित हैं। विन्ध्यक्षेत्र के अन्य जिलों यथा. महोबाए हमीरपुरए झाँसी तथा ललितपुर से भी उक्त संस्कृति के साक्ष्य प्रकाशित हुये हैं। इस प्रकार से हम देखते हैं कि मध्यपाषाणिक मानव ने विन्ध्यक्षेत्र के एक बड़े भू.भाग को आबाद किया था।
विन्ध्यक्षेत्र में यद्यपि अनेक मध्यपाषाणिक पुरास्थल प्रकाशित हैं लेकिन अद्यतन उत्खनित पुरास्थलों की संख्या बहुत सीमित है। प्रमुख उत्खनित पुरास्थलों में विन्ध्य क्षेत्र की महत्वपूर्ण नदी बेलन की घाटी में स्थित उच्च कैमूर में मोरहना पहाड़ए बगहीखोरए लखहिया नामक शिलाश्रय तथा चोपनीमाण्डों नामक महत्वपूर्ण मध्यपाषाणिक पुरास्थल विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके अलावाँ चन्दौली जिले में भदहवाँ पहार मिर्जापुर जिले में स्थित लहरियाडीहए कैधाए धनुही और मध्य प्रदेश के सीधी जिले में स्थित बाघोर प्प्ए मेढ़ौलीए बाँकीए कुनझुन प्प् तथा घघरिया नामक शिलाश्रय का भी उत्खनन किया गया है।
मोरहना पहाड़ रू मोरहना पहाड़ए बगहीखोर तथा लेखहिया शिलाश्रय मिर्जापुर से दक्षिण की ओर जाने वाली ग्रेट डकन रोड पर भैंसोर ग्राम से लगभग पाँच किमी दूरी पर स्थित हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के निर्देशन में सन् १९६२.६४ के बीच इनका उत्खनन सम्पादित कराया गया। यहाँ के शिलाश्रय संख्या.४ के अन्दर तथा शिलाश्रय संख्या.१ के बाहर स्थित खुले क्षेत्र में एक.एक खत्तियाँ प्रो० आर०के०वर्मा द्वारा डाली गयी। शिलाश्रय संख्या.४ के अन्दर उत्खनन से ५५ सेमी मोटा मध्य पाषाणिक जमाव प्रकाश में आया जिसे चार स्तरों में विभाजित किया गया। यहाँ सभी स्तरों से ज्यामितीय लघुपाषाण उपकरण तथा मिट्टी के बर्तन के टुकड़े प्राप्त किये गये। यहाँ पर स्तर २ तथा स्तर १ से प्राप्त लघुपाषाण उपकरण अपेक्षाकृत लघु आकार के हैं।6 मोरहना पहाड़ के शिलाश्रय संख्या.१ के बाहर जो खन्ती डाली गयीए उसमें १ण्१५ मीटर मोटा सांस्कृतिक निक्षेप मिला जिसे ६ स्तरों में विभाजित किया गया। छठा स्तर अपघटित शिला का ही भाग हैए जिससे किसी प्रकार के कोई पुरावशेष नहीं मिले हैं। इसके ऊपर के स्तर ५ से अज्यामितीय लघुपाषाण उपकरण मिले हैं। चौथे स्तर से अज्यामितीय तथा ज्यामितीय दोनों प्राकर के लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। लघुपाषण उपकरणों के अतिरिक्त इस स्तर से हस्तनिर्मित मृदभाण्ड के कुछ टुकड़े भी मिले हैं जो अत्यन्त क्षणभंगुर हैं। स्तर ३ से सबसे अधिक संख्या में लघुपाषाण उपकरण मिले हैं। इस स्तर से प्राप्त मृदभाण्ड स्तर ४ से प्राप्त मृदभाण्डों की ही तरह हैं। स्तर२ तथा स्तर१ से हस्तनिर्मित मृद्भाण्डों के टुकड़ों के साथ लघुतर आकार के मध्यपाषाणिक उपकरण प्राप्त हैं। ऊपरी सतह के लगभग 1इंच नीचे चतुर्भुजाकार क्रास अनुभाग का लौह निर्मित एक बाणाग्र भी प्राप्त है। रेखा चित्र.३।






चित्र.३ मोरहना पहाड़रू शिलाश्रय के बाहर उत्खनित खन्ती का अनुभाग ;आरण् केण् वर्मा ;१९८६द्ध के अनुसारद्ध
बगहीखोर रू यह पुरास्थल मोरहना पहाड़ के पूर्व में एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर शिलाश्रय संख्या १ में प्रोण् आरण् केण् वर्मा ने उत्खनन कराया था जिसके फलस्वरूप ५५ सेमी मोटा मध्यपाषाणिक जमाव प्रकाश में आया है। यह जमाव चार स्तरों में विभाजित है।6 बगहीखोर के उत्खनन से भी मोरहना पहाड़ के उत्खनन के परिणामों से मिलता.जुलता लघुपाषाणोपकरणों का विकासात्मक क्रम ज्ञात हुआ है। यहाँ पर सबसे निचले चतुर्थ स्तर से केवल अज्यामितिक प्रकार के लघुपाषाणोपरकण मिले हैं। तीसरे स्तर से भी के अज्यामितिक प्रकार के लघुपाषाणोपरकण मिले हैं। इस लेयर से मृदभाण्ड के टुकड़े भी मिले हैं। दूसरे स्तर से अज्यामितिय तथा ज्यामितीय लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं जो आकार में अपेक्षाकृत छोटे हैं। मिट्टी के बर्तनों के नमूनों की संख्या भी इस स्तर में बढ़ जाती है। लेयर २ए से लेयर ३ और ४ को काटते हुये एक गढ्ढा आधारशिला को काटकर बनाया गया था। इस गढ्ढे में एक विस्तीर्ण शवाधान मिला है। कब्र में मानव कंकाल पश्चिम की ओर सिर तथा पूर्व दिशा की ओर पैर करके दफनाया हुआ मिला है। प्रथम स्तर से जो लघुपाषाण उपकरण मिले हैं वे आकार में अपेक्षाकृत छोटे हैं। मिट्टी के बर्तनों के नमूनों की संख्या भी इस स्तर में बढ़ जाती है। सबसे ऊपरी प्रथम स्तर से लोहे के बने हुये दो बाण तथा लोहे का एक टुकड़ा भी प्राप्त हुआ है।6 रेखा चित्र.४।



 चित्र.४ बगहीखोररू उत्खनित खन्ती का अनुभाग ;आरण् केण् वर्मा ;१९८६द्ध के अनुसारद्ध
लेखहिया रू यह पुरास्थल भैसोंर ग्राम से पूर्व में लगभग ३ किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ पाँच शिलाश्रय स्थित हैंए जिनमें से चार चित्रकारी युक्त हैं। इस पुरास्थल का उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोण्जीण्आरण् शर्मा के निर्देशन में वीण्डीण्मिश्र ने कराया था। शिलाश्रय संख्या १ तथा २ का चयन उत्खनन के लिए किया गया। शिलाश्रय संख्या १ में उत्खनन के फलस्वरूप ४८सेमीण् मोटा मध्यपाषाणिक जमाव प्राप्त हुआ जिसे चार स्तरों में विभाजित किया गया। शिलाश्रय संख्या २ के बाहर खुले हुए क्षेत्र में उत्खनन के फलस्वरूप १ण्१०मी० मोटा जमाव मिला। जमाव की संरचना तथा रंग के आधार पर इसे ९ स्तरों में विभाजित किया गया। इनमें से ऊपरी आठ स्तरो से लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुये हैं जिन्हें नीचे से ऊपर की ओर चार श्रेणियों में विभाजित किया गया हैए जो लघुपाषाण उपकरणों के क्रमिक विकास का अभिद्योतन करते हैं.
;१द्ध अज्यामितीय मृदभाण्ड.रहित लघुपाषाण उपकरण
;२द्ध ज्यामितीय मृदभाण्ड.रहित लघुपाषाण उपकरण
;३द्ध ज्यामितीय मृदभाण्ड.सहित लघुपाषाण उपकरण
;४द्ध लघुतर ज्यामितीय मृदभाण्ड.सहित लघुपाषाण उपकरण
लेखहिया शिलाश्रय संख्या १ एक से मध्य पाषाणिक लघुपाषाण उपकरणों के अतिरिक्त १७ मानव कंकाल भी प्राप्त हुए हैं। स्तरीकरण के आधार पर १४ कंकालों को आठ कालखण्डों में विभाजित किया गया है। अधिकांश विस्तीर्ण शवाधान है। कंकाल प्प् और ग्प्प् को छोड़कर शेष सभी का विस्थापन पश्चिम पूर्व की ओर थाए जो मध्यपाषाणिक मानव द्वारा सूर्य.उपासना का संकेत माना जा सकता है।7 अमेरिका के ऑरेगान विश्वविद्यालय के जॉन० आर० लुकास के अनुसार लेखहिया में कुल २७ मानव कंकालों की हड्डियाँ मिली हैं।8 पूर्णतरू निर्मित तथा अर्धनिर्मित लघुपाषाण उपकरण बहुत बड़ी संख्या में कंकालों के साथ प्राप्त हुए हैं। कंकाल संख्या प्प् तथा ट के साथ अन्त्येष्टि सामग्री के भी प्रमाण मिले हैं। कंकाल प्प् के साथ किसी पशु के जबड़े का एक हिस्साए हिरण के दो सींग तथा एक घोंघा रखा हुआ मिला है। कंकाल ट के साथ भैंस की एक पसली मिली है। 
चोपनी.माण्डो रू यह मध्यपाषाणिक पुरास्थल इलाहाबाद नगर से दक्षिणपूर्व की दिशा में ७७ किमी कोरांव तहसील में, देवघाट से पूर्व दिशा में लगभग ३ किमी० की दूरी पर बूढी बेलन के बायें तट पर स्थित है। यह पुरास्थल लगभग १५०० वर्गमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। इस पुरास्थल पर सर्वप्रथम १९६७ में बीण्डीण्मिश्र ने जीण् आरण्शर्मा के निर्देशन में उत्खनन किया था जिसके द्वारा इस पुरास्थल का कालक्रम निर्धारित हुआ। तत्पश्चात १९७८.८२ के बीच अपेक्षाकृत बड़े पैमाने पर उत्खनन के फलस्वरूप १ण्५५मी० मोटा सांस्कृतिक जमाव प्रकाश में आया ;रेखाचित्र ५द्ध। 





 चित्र.५ चोपनी.माण्डोरू अनुभाग ;जीण्आरण् शर्मा ;१९८०द्ध के अनुसारद्ध
इस जमाव को १०स्तरों तथा 4सांस्कृतिककालों में विभाजित किया गया है।9
;१द्ध अनुपुरापाषाणकाल ;म्चप.चंसंमवसपजीपबद्ध
;२द्ध आरम्भिक मध्यपाषाण काल ष्अष् ;म्ंतसल डमेवसपजीपब.।द्ध
;३द्ध प्रारम्भिक मध्यपाषाण काल ष्बष् ;म्ंतसल डमेवसपजीपब.ठद्ध
;४द्ध विकसित मध्य पाषाणकाल अथवा आद्य नव पाषाण काल ;।कअंदबम डमेवसपजीपब वत च्तनजु छमवसपजीपबद्ध
अनु.पुरापाषाण काल नामक प्रथम उपकाल चोपनीमाण्डो के २० सेमी० मोटे दसवें अन्तिम स्तर से सम्बन्धित है। इस उपकाल के पाषण उपकरण परवर्ती उपकालों के पाषाण उपकरणों की तुलना में बड़े आकार के हैं। इसलिए इसको उच्च पुरापाषाण काल तथा मध्यपाषाण काल के बीच की संक्रमणात्मक अवस्था का द्योतक माना गया है। चोपनीमाण्डो के नवें तथा आठवें स्तर आरम्भिक मध्य पाषाण काल ष्अष् का द्योतन करते हैं। इससे अज्यामितीय प्रकार के उपकरण मिलते हैं जो अधिकांशतरू चर्ट पर निर्मित हैं। इस उपकाल के प्रमुख उपकरणों में समानान्तर पार्श्व वाले ब्लेडए कुंठित ब्लेडए बेधकए खुरचनी आदि उल्लेखनीय है। इस उपकाल से सम्बन्धित ३ण्८०मी० व्यास की दो गोलाकार झोपड़ियों के साक्ष्य भी प्रकाश में आये हैं। प्रारम्भिक मध्य पाषाणकाल ष्बष् का सम्बन्ध सांस्कृतिक जमाव के सातवें स्तर से लेकर चौथे स्तर तक है। इस जमाव से ज्यामितीय लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुये हैं जिनका आकार अपेक्षाकृत छोटा है। प्रमुख उपकरणों में विभिन्न प्रकार के ब्लेडए त्रिभुजए चतुर्भुजए दांतेदार ब्लेड आदि उल्लेखनीय हैं। इस उपकाल से सम्बन्धित गोलाकार पांच झोपड़ियों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें से तीन झोपड़ियाँ सातवें स्तर से और दो झोपड़ियां छठवें स्तर से सम्बन्धित हैं। विकसित मध्य पाषाण काल नामक इस उपकाल से ज्यामितीय उपकरणों के साथ.साथ हस्तनिर्मित मृद्भाण्ड भी मिले हैं। इस उपकाल से त्रिभुज तथा ट्रांचेट नामक कुछ नये प्रकार के उपकरण मिले हैं।
चोपनी.माण्डों के इस तीसरे उपकाल से १३ गोलाकारध्अण्डाकार झोपड़ियों तथा ग्यारह गर्तचूल्हों के प्रमाण भी मिले हैं। झोपड़ियों के फर्श पर लघुपाषाण उपकरणए निहाईए विविध आकार प्रकार के हथौड़ेए सिल.लोढ़ेए गदाशीर्ष आदि भी मिले थे। सात तथा टप् नम्बर के फर्श पर दो विशालकाय निहाईयां भी मिली थी। यहाँ के गर्त चूल्हों में राखयुक्त मिट्टीए हड्डी के टुकड़ेए कोयले आदि मिले थे।10
बाघोर. प्प्रू यह पुरास्थल मध्य प्रदेश के सीधी जिले की सिहावल तहसील में सिहांवल टाउन से ८ किमी पूर्व सोननदी के सहायक कुढ़ेरी नाला के बायें तट पर स्थित है। इस पुरास्थल का उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोण् जीण्आरण् शर्मा तथा कैलीफोर्निया स्थित बर्कले विश्वविद्यालय के जेण्डीण् क्लार्क के संयुक्त निर्देशन में १९८०.८१ और १९८१.८२ के दो सत्रों में सम्पादित किया गया।11 पुरास्थल पर परीक्षण खन्ती में लगभग २ मीटर गहराई तक उत्खनन के बाद उत्खनन समाप्त कर दिया गया क्योंकि इसके नीचे पुरावशेष विद्यमान नहीं थे। परीक्षण खन्ती में उत्खनन के फलस्वरूप छरू स्तर पहचाने गये। स्तर १ से चल्सिडनी तथा अगेट के अनेक तरह के पिण्ड और टुकड़े प्राप्त हुए। स्तर २ए से भारी मात्रा में तथा स्तर २बी से अपेक्षाकृत कम मात्रा में लघुपाषाण उपकरण प्रतिवेदित हुए। स्तर ३ से एकाकी चर्ट निर्मित ब्लेडलेट मिला। स्तर ४ए ५ तथा ६ से कोई पुरावशेष प्रतिवदेवित नहीं हुए। उत्खनन के परिणाम स्वरूप लेयर २बी से अर्धगोलाकारध्चतुर्भजाकार 5 या 6 झोपिड़यों के साक्ष्य प्रकाश में आये। इन झोपड़ियों के फर्श परए पत्थर के टुकडेए निहाइयाँए हैमरस्टोनए सिल.लोढेए रबरस्टोनए विभिन्न अवस्थाओं में निर्मित लघुपाषाण उपकरणए चर्टए चल्सिडनीए और क्वाटर्ज पत्थर के टुकडे मिले। इस पुरास्थल के लेयर १ से कुछ मृद्भाण्ड के टुकड़े भी मिले थे जिनकी समता चोपनी.माण्डों के विकसित मध्य पाषाण अवस्था के मृदभाण्डों से की जा सकती है। बाघोर प्प् से एक रेडियो कार्बन तिथि भी उपलबध है जो इस पुरास्थल को मध्य पाषाण काल के प्रारम्भिक चरण ;अर्ली होलोसीनद्ध में रखती है। इस तिथि का मान ८३३०़ २२० ठण्ब्ण् है 12।
घघरिया शिलाश्रय प् . यह पुरास्थल मध्य प्रदेश के सीधी जिले में सिहांवल से उत्तर.पूर्व की दिशा में २० किमी की दूरी पर कैमूर श्रृंखला में स्थित है। यहाँ पर चार शिलाश्रय हैं जिनमें शिलाश्रय संख्या.१ का उत्खनन १९८० में इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा बर्कले विश्वविद्यालय की संयुक्त टीम ने सम्पादित कराया था।13 उत्खनन के परिणाम स्वरूप ण्५८मी० मोटा सांस्कृतिक जमाव प्रकाशित हुआ जिसे चार स्तरों तथा दो सांस्कृतिक कालों में विभाजित किया गया। इस पुरास्थल के सबसे ऊपरी स्तर १ से प्रस्तर.फलकए सिल.लोढ़े के टुकड़ेए मृदभाण्डए प्रस्तर पर निर्मित एक मनका कुछ जीवाश्म तथा चारकोल मिला है। दूसरे स्तर से आभूषण को छोड़करए स्तर १ के समान ही पुरावशेष प्राप्त हुए। तीसरे स्तर से अपेक्षाकृत कम मात्रा में पुरावशेष प्राप्त हैं तथा जीवाश्म और मृदभाण्ड नदारत हैं। स्तर ४ से मात्र कुछ प्रस्तर.फलक ही प्रतिवेदित हैं। यहाँ पर खन्ती सी.१ में उत्तर.पूर्वी कोने में तथा खन्ती बी१ के मध्य में पत्थर एकत्रित पाये गये जिसमे माइक्रोलिथ भी शामिल थे। इस पुरास्थल के द्वितीय सांस्कृतिक काल से ;स्तर.१.२द्ध हड्डियों के १५० टुकड़े और दो दांत तथा हड्डी के दो प्वाइंट भी प्राप्त हैं। लघुपाषाण उपकरण आकार में छोटे हैं तथा अच्छी तरह तैयार समपाश्विक क्रोड से निपीड पद्धति से निकाले गये ब्लेड पर बने हैं। जिनका सम्बन्ध विकसित मध्य पाषाणिकए नवपाषाणिक तथा परवर्ती लौहयुगीन अवस्था से था।14
कुनझुन प्प् रू  यह पुरास्थल मध्य प्रदेश के सीधी जिले में सिंहावल से १० किमी दक्षिण.पश्चिम दिशा में सोन नदी के दाहिने तट पर स्थित है। यह नवपाषाणिक पुरास्थल कुनझुन प् से ५०० मी० की दूरी पर पश्चिम दिशा में वेदिका १ और वेदिका २ के मध्य में स्थित है।15 वेदिका २ को ही खुटेली जमाव की संज्ञा दी गयी है।16 प्रो० जी० आर० शर्मा तथा प्रो० जे० डी० क्लार्क के निर्देशन में सम्पादित उत्खनन के फलस्वरूप यहाँ पर ८ स्तरों से सम्बन्धित दो सांस्कृतिक कालों की पहचान की गयी। इस पुरास्थल के सभी स्तरों से बड़ी संख्या में लघु पाषाण उपकरणए चर्टए अगेट और चल्सिडनी के हीटट्रीटेड टुकड़ेए जानवरों की हड्डियाँए कई आकार के बलुआ पत्थर के टुकड़ेए हैमरस्टोनए सिलए वनिर्ससए रवर्स आदि बिखरे हुए मिले थे। नीचे के स्तरों की अपेक्षा उपरी स्तरों से अपेक्षाकृत ज्यादा संख्या में उपकरण प्राप्त होते हैं। इस पुरास्थल के कुछ हड्डियों पर कटने के निशान भी मिले हैंए जिससे संकेतित होता है कि इस पुरास्थल के मध्य पाषाणिक लोगों के जीवन में शिकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पुरावशेषों के स्वरूप और चरित्र के आधार पर यह पुरास्थल मध्य पाषाणिक संस्कृति के परवर्ती चरण का अभिद्योतन करता है।17 इस पुरास्थल पर शिल्प.तथ्यों के वितरण से स्पष्ट है कि ष्हीटट्रीटमेन्ट ओवनष् का उपयोग अच्छे फलक निकालने तथा शिकार से प्राप्त मांस को भूनने में किया गया होगा। रेखाचित्र ६





चित्र.६ पुरावशेषों का वितरण और हीटट्रीटमेंट ओवनए लेवेल प्प्प्ए कुनझुन प्प्प् ;जीण्आरण् शर्मा और जेण्डीण् क्लार्क ;१९८३द्ध के अनुसारद्ध
मेढ़ौली रू यह पुरास्थान मध्य प्रदेश के सीधी जिले की सिंहावल तहसील में कुढेरी नाला के दाहिने तट पर उत्खनित मध्य पाषाणिक पुरास्थल बाघोर प्प् के विपरीत दिशा में स्थित है।18 यह पुरास्थल लगभग ९६०० मीटर2 क्षेत्र में विस्तृत है। १९८२.८३ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा उत्खनित इस पुरास्थल के ऊपरी धरातल पर विभिन्न आकार के बलुए पत्थर के टुकड़ेए विभिन्न कालों में निर्मित लघुपाषाण उपकरणए चर्टए चल्सिडनी तथा अगेट पत्थर के टुकड़ेए हैमरस्टोनए रबरस्टोन तथा सिल.लोढ़े के टुकड़े प्राप्त किये गये हैं। इस पुरास्थल पर एक परीक्षण खन्ती में १ण्०५ मी० की गहराई तक उत्खनन किया गया तथा ६ स्तरों की पहचान की गयी।
इस पुरास्थल के उत्खनन से प्राप्त उपकरण अपने विकासात्मक क्रम का अभिद्योतन करते हैं। इस पुरास्थल पर अन्तिम उत्खनित स्तर५ उच्च पुरा पाषाणकाल और मध्य पाषण काल के बीच की संकमणात्मक अवस्था का अभिद्योतन करता है। इस स्तर से प्राप्त उपकरणए उच्चपुरापाषाणिक उपकरणों से छोटे तथा मध्य पाषाणिक उपकरणों से आकार में बड़े हैं। ये बहुतायत चर्ट पर निर्मित हैं। स्तर ४ और स्तर ३ से अनेक प्रकार के ब्लेडए प्वाइंटए बोररए और त्रिभुज मिले हैं जिनका आकार स्तर ५ से प्राप्त उपकरणों से छोटा दिखायी देता है। इस काल के उपकरणों के निर्माण में नानचर्टी मेटेरियल बढ़ जाता है। स्तर ३ से स्तर १ तक मिले उपकरणों में निपीड पद्धति से निर्मित ब्लेड बहुतायत हैं। अन्य उपकरणों में बोररए लुनेट्सए विषमबाहु तथा समद्धिबाहु त्रिभुजए ट्रैपेजए ट्रॉचेटए व्यूरिन आदि मिले हैं। उपकरण नये और आकार में छोटे हैं। उत्खनन में मिट्टी के बर्तन के साक्ष्य नदारत हैं।
बांकी रू यह मध्य पाषाणिक पुरास्थल मध्य प्रदेश के सीधी जिले के सिहावल से २ किलोमीटर उत्तर की दिशा में कुढ़ेरी नाले के बायें तट पर स्थित है।19 यह पुरास्थल उत्तर से दक्षिण ११४ मीटर तथा पूर्व से पश्चिम १०० मीटर के आकार में २मीटर ऊचें टीले के रूप में स्थित हैं। इस पुरास्थल की खोज इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग ने सन् १९८२.८३ की थी। पुरास्थल के ऊपरी धरातल पर अनेक मध्य पाषाणिक उपकरण बिखरे हुए मिले थे। उत्खनन के परिणामस्वरूप १ण्१७मी० मोटा सांस्कृतिक जमाव प्रकाश में आया जिसे पांच स्तरों में विभाजित किया गया। सबसे ऊपरी स्तर १ से जो पुरावशेष मिले उनमें माइक्रोलिथए प्रयुक्त नोडुल्सए अपशिष्ट आदि उल्लेखनीय हैं। दूसरा स्तर २ए और २बी नामक दो उपस्तरों में विभाजित है। इन दोनों स्तरों से चर्टए चल्सिडनीए अगेटए कार्नेलियन पर निर्मित अनेक प्रकार के ब्लेडए त्रिभुजए लुनेट्सए प्वाइंटए बोरर प्राप्त हुए। स्तर ३ से प्राप्त उपकरणों में हल्की वृद्धि दिखायी देती है। स्तर ४ से प्राप्त उपकरण इस शृंखला में सबसे बड़े आकार के हैं जिनकी तुलना बाघोर प्प्प् तथा चोपनीमाण्डों के पेजप् से प्राप्त उपकरणों से की जा सकती है।20
इस पुरास्थल पर स्तर २ के फर्श २ए और फर्श २बी के उद्घाटन के बाद मुख्य ग्रिड में उत्खनन स्थगित कर दिया गया। इन दोनों ही फर्शों पर हाईकसेन्ट्रटेड जोन के बीच बलुए पत्थर के रबर्सए सिलए लोढ़ेए हैमरस्टोनए निहाईए चर्टए चल्सिडनीए अगेट के टुकड़ेए अर्धनिर्मित उपकरणए रिंगस्टोन के टुकड़े भारी संख्या में मिले हैं जो पुरास्थल पर उपकरणों के निर्माण और फूडप्रोसेसिंग के संकेत माने जा सकते हैं।21 इस पुरास्थल के फर्श २बी से बाघोर प् तथा चोपनीमाण्डो की तरह अर्धवृत्ताकार या वृत्ताकार झोपड़ियों के स्तम्भगर्त भी मिले हैं।
इस पुरास्थल से प्राप्त मध्य पाषाणिक उपकरणों में एक विकासात्मक क्रम भी परिलक्षित होता है। स्तर ४ से स्तर १ तक उपकरण आकार में क्रमशरू छोटे होते जाते हैं तथा उपकरणों के निर्माण में प्रयुक्त चर्ट पत्थर का प्रतिशत कम होता जाता है।22 इस प्रकार इस पुरास्थल के उत्खनन से उच्चपुरापाषाणिक संस्कृति के मध्य पाषाणिक संस्कृति में परिवर्तित होने की प्रक्रिया पर स्पष्ट प्रकाश पड़ा है।
उद्भव और तिथिक्रम रू बेलन तथा सोन नदियों के भूतात्विक जमाव तथा चोपनी.माण्डोंए लेखहियाए बाघोर प्प् और बांकी नामक पुरास्थलों के उत्खनन से न केवल मध्यपाषाणिक संस्कृति के विभिन्न चरण प्रकाशित हुए हैं बल्कि इस संस्कृति के उद्भव और कालानुक्रम पर भी प्रकाश पड़ा है।
उपलब्ध साक्ष्यों के आलोक में कह सकते हैं कि विन्ध्य क्षेत्र में मध्य पाषाणिक संस्कृति का विकास एक लम्बी और सतत् प्रक्रिया थी। विन्ध्य क्षेत्र की म0पा0 संस्कृति का विकास इसी क्षेत्र की पूववर्ती उच्चपुरापाषाणिक संस्कृति से हुआ।23 बेलन नदी अनुभाग १० इकाइयों में विभाजित है। इस भूतात्विक जमाव में निम्न पुरापाषाण काल से लेकर मध्य पाषाण काल तक संस्कृतियों का क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है। बेलन के प्प्प् ग्रेवेल से उच्च पुरापाषाणिक उपकरण प्राप्त होते हैं। प्प्प् ग्रेवेल के ऊपरी जमाव से उच्च पुरापाषाण काल के ब्लेड तथा मध्यपाषाण काल के अज्यामितीय उपकरण प्राप्त हुए हैं। अर्थात् यह जमाव उच्च पुरापाषाण काल और मध्यपाषाण काल के बीच एक संक्रमणात्मक अवस्था का द्योतन करता है। इस जमाव के ऊपर के दो मिट्टी के जमावों से भी म0 पाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैंए जो उक्त संस्कृति के क्रमिक विकास को दर्शाते हैं। सोन के भूतात्विक जमाव से प्राप्त साक्ष्य भी उपरोक्त बातों का ही समर्थन करते हैं। सोन के भूतात्विक जमाव बागोर के निचले रूक्ष वर्ग से उच्चपुरापाषाणिक उपकरण मिलते हैं जबकि ऊपरी महीन वर्ग अनुपुरापाषाणिक तथा मध्य पाषाणिक उपकरणों का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार यहाँ भी बिना किसी व्यवधान के उच्च पुरापाषाण काल तथा मध्य पाषाण काल के बीच विकास का सतत् अनुक्रम दिखायी पड़ता है।
नदियों के भूतात्विक जमावों से इस क्षेत्र की मध्य पाषाणिक संस्कृति के उद्भव एवं विकास सम्बन्धी प्राप्त जानकारी का समर्थन इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण पुरास्थल चोपनीमाण्डोए लेखहियाए बाघोर प्प् और बाँकी के उत्खनन से भी होता है। यहाँ पर मध्य पाषाणिक उद्योग परम्परा में एक विकास क्रम परिलक्षित होता है। उपकरण आकार में क्रमशरू छोटे होते जाते हैं। उपकरणो के निर्माण की तकनीकए प्रकार तथा इनके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री में भी विकासात्मक क्रम परिलक्षित होता हैं। इन पुरास्थलों के अन्तिम धरातल से प्राप्त उपकरण उच्च पुरापाषाण काल और मध्य पाषाण काल के बीच की संक्रमणात्मक अवस्था का अभिद्योतन करते हैं। उदाहरणार्थरू चोपनीमाण्डो ;पेज.१द्ध बगहीखोर ;लेयर ४द्धए लेखहिया के ओपेन एयर साइट के सबसे नीचे की लेयर से प्राप्त उपकरणए ग्रेवेल जमाव बेलन नदी अनुभागए बाघोर प्प् लेयर ३ए मेढ़ौली लेयर ५ और बाँकी लेयर ५ से प्राप्त उपकरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन स्तरों से प्राप्त उपकरणों के निर्माण में अधिकांशतया चर्ट पत्थर प्रयुक्त हैं। लेकिन इनके ऊपरी स्तरों से प्राप्त लघु पाषाण उपकरणों के निर्माण में नानचर्टी मेटेरियल यथा. अगेटए चल्सिडनीए कार्नेलियन आदि का प्रतिशत बढ़ने लगता है।
बेलन नदी अनुभाग में लघुपाषाण तृतीय ग्रेवेल के ऊपरी जमाव सेए सोन के बाघोर जमाव के ऊपरी महीन वर्ग से और सतना जिले के मैहर24 से अन्तिम भूतात्विक जमाव से प्राप्त हुए हैं जो इस क्षेत्र की मध्य पाषाणिक संस्कृति के कालानुक्रम को काफी पीछे ले जाने को विवश करते हैं। पुरास्थलों के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य भी इस क्षेत्र की म0 पा0 संस्कृति के दीर्घ जीवन का संकेत करते हैं।
विन्ध्य क्षेत्र की मध्यपाषाणिक संस्कृति के कालक्रम के निर्धारणार्थ तीन तिथियाँ हमारा ध्यानाकर्षण करती हैं। सोन घाटी के बाघोर प्प् से एक रेडियाकार्बन तिथि प्राप्त है जिसका समयमान ६३८०़२०० है।25 मिर्जापुर जिले के लेखहिया शिलाश्रय प् से दो एण्एमण्एसण् रेडियाकार्बन तिथियाँ भी प्राप्त हैं जिनका समयमान क्रमशरू ६४२०़७५ई०पू० और ६०५०़७५ ई०पू० है।26 इन तिथियों के आलोक में हम कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में मध्य पाषाणिक संस्कृति का उद्भव नूतनकाल के पहले चरण में हुआ।
आजीविका के साधन रू प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के विकास के क्रम में मध्यपाषाणिक मानव का जीवन और अर्थव्यवस्था एक ऐसे विशिष्ट तथा संक्रमणात्मक अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है जब मानव आखेट और संग्रह का जीवन यापन करते हुये एक ऐसी अवस्था में पहुँच गया था जहाँ से एक उद्पादनपरक अर्थव्यवस्था का उदय होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कृषि और पशुपालन पहली बार मध्यपाषाण काल में ही शुरू हुए जो आगे चलकर नवपाषाणिक मानव की आजीविका से स्थायी रूप से जुड़ जाते हैं।27
मध्यपाषाणिक मानव की आजीविका के निर्माणक साक्ष्य ;जीव.जन्तुओं तथा वनस्पतियों के अवशेषद्ध विन्ध्य क्षेत्र से यद्यपि बहुत ही सीमित मात्रा में उपलब्ध हुए हैं फिर भी इस क्षेत्र में स्थित पुरास्थलों के सर्वेक्षण तथा उत्खनन से जो साक्ष्य उपलब्ध हैं उनसे स्पष्ट होता है कि विन्ध्य क्षेत्र के मध्यपाषाणिक मानव के जीवन में जंगली पशुओ के शिकार तथा जंगली फलोंए कन्दमूल तथा अन्य वनस्पतियों के संग्रह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस क्षेत्र में स्थित मध्यपाषाणिक पुरास्थलों में भदहवाँ पहारए लहरियाडीहए वैधाए धनुहीए मोरहना पहाड़ए बगहीखोरए लेखहियाए चोपनीमाण्डो ;बेलनघाटीद्धए बाघोर प्प् घघरिया शिलाश्रय प्ए कुनझुन प्प्ए मेढ़ौली और बाँकी ;सोनघाटीद्ध के उत्खनन से जो जीव.जन्तुओं तथा वनस्पतियों के जीवाश्मए लघुपाषाण उपकरणए खाद्योत्पादक उपकरणए अन्य प्रस्तर.उपकरणए मिट्टी के बर्तनए गुफाचित्र आदि मिले हैं उनके विश्लेषण तथा संश्लेषण से हम विन्ध्य क्षेत्र के मानव की आजीविका का अनुमान लगा सकते हैं। विन्ध्यक्षेत्र में लेखहिया शिलाश्रय.१ के उत्खनन में प्रोण् वीण्डीण् मिश्रा को हड्डी निर्मित प्वाइन्ट्स तथा जानवरों की हड्डियों के टुकड़े प्राप्त हुये थे जिन पर काटने तथा प्रयोग के निशान विद्यमान थेध्हैं। इसी प्रकार प्रोण् मिश्रा ने चोपनी.मण्डो के फेज प्प् बी से झोपड़ियों के फर्श पर बिखरे हड्डी के कुछ टुकड़ो को प्रतिवेदित किया था।28 साथ ही साथ चोपनीमाण्डों के पेज प्प्प् से गर्तचूल्हों में भी भारी मात्रा में हड्डियों के टुकडे मिले हैं जो विन्ध्य क्षेत्र के मानव के जीवन में आखेट की भूमिका को रेखांकित करते हैं। सोनघाटी में स्थित पुरास्थलों में केवल कुनझुन प्प् से जानवरों की हड्डियाँ मिली हैं जिनमें विशेष प्रकार का प्रैक्चर है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें फाड़.चीरकर मज्जा निकाल लिया गया है। जिन जानवरों की पहचान की गयी है उसमें जंगली मवेशी ;गौरद्धए हिरणए तथा चौसिंगा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ से प्राप्त कुछ हड्डियों में कटमार्क भी है। इनसे संकेत मिलता है कि इस पुरास्थल से सम्बन्धित मध्य पाषाणिक मानव की आजीविका में जंगली पशुओं के शिकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उपरोक्त पुरास्थलों से भारी मात्रा में लघुपाषाण उपकरण प्रतिवेदित हैं जिनका उपयोग संयुक्त उपकरण बनाकर किया जाता था। इस काल के महत्वपूर्ण उपकरण धनुषबाणए बरछे और हंसिया थे। लघुपाषाण उपकरणों की भारी मात्रा में उपस्थिति भी अप्रत्यक्ष रूप में इनके जीवन में आखेट की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाते हैं।
चूँकि शिकार करना एक खतरे का काम थाय इसलिए उन क्षेत्रों में जहाँ जंगली फल.फूल विद्यमान थेए मध्यपाषणिक मानव की निर्भरता उन पर बढ़ती गयी। यह विश्वास किया जाता है कि जंगली फल.फूलों की सहज उपलब्धता ने लोगों को स्थायी.जीवन की ओर प्रेरित किया। इस संदर्भ में विन्ध्यक्षेत्र के चोपनीमाण्डों नामक पुरास्थल का उल्लेख आवश्यक है। इस पुरास्थल पर मध्यपाषिणक मानव काफी पहले से ही स्थायी जीवन शुरू कर देता है। इस बात का संकेत इस पुरास्थल से प्राप्त अण्डाकारए गोलाकार झोपडियोंए चूल्होंए स्टोरेज पिटए स्टोरेज विन्स तथा भारी मात्रा में प्राप्त प्रस्तर निर्मित रिंगस्टोनए सिल.लोढ़े आदि की उपस्थिति से होता है। खाद्य.संग्रह के साक्ष्य के संदर्भ में चोपनीमाण्डों विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इस पुरास्थल के से पेज प्प्प् से जहाँ एक ओर पकी मिट्टी के टुकड़ों में चावल की भूसीध्दाने मिले हैं वही दूसरी ओर मध्य गंगाघाटी की तरह ;दमदमाद्ध स्टोरेज पिट तथा झोपड़ियों के समीप कुछ गोलाकारध्अण्डाकार संरचनायें भी मिली है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सम्भवतरू बाँस तथा मिटृ से बने संग्रह.पात्रों के अधार थे। इस प्रकार यहाँ से प्राप्त साक्ष्य इंगित करते हैं कि यहाँ के मध्यपाषाणिक मानव के जीवन में जंगली खाद्यान्न ;चावलए ओरिजा निवाराए ओरिजारफिगोनाए फलों तथा वनस्पतियों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहाँ के फेज ३ से प्राप्त जँगली चावल तथा मृदभाण्ड के साक्ष्यों से यहां के मध्यपाषिणक मानव की अर्थव्यवस्था अधिक सुरक्षित तथा विकसित दिखायी पड़ती है।
विन्ध्य क्षेत्र के विभिन्न पुरास्थलों से लघुपाषण उपकरणों के साथ कुछ खाद्योत्पादक उपकरण भी प्राप्त हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से यहाँ के लोगों की खाद्य.संग्राहक अर्थव्यवस्था की ओर संकेत करते हैं। इन उपकरणों में मुख्यतया सिल.लोढ़े उल्लेखनीय हैं जिनका उपयोग संग्रहीत अनाजए जड़ें तथा कंद आदि को कूटने और पीसने के लिए किया गया होगा। इन पुरास्थलों से जो सिल.लोढ़े प्राप्त हैं उन पर प्रयोग के निशान स्पष्टतरू देखे जा सकते हैं। इन पुरास्थलों से रिंग.स्टोनए स्लिंग बालए हैमर.स्टोनए आदि पत्थर के औजार भी प्रकाशित हैं जिनकी भूमिका शायद मानव की आजीविका से ही सम्बन्धित रही होगी। इस प्रकार चोपनी.माण्डों से प्राप्त साक्ष्यों के आलोक में हम यह कहने की स्थिति में है कि आखेट के साथ.साथ जंगली धान्य तथा फलों के संग्रह ने भी विन्ध्य क्षेत्र के मध्यपाषाणिक मानव की आजीविका में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
विन्ध्यक्षेत्र के मध्यपाषाणिक मानव की आजीविका के प्रमाणक साक्ष्य इस क्षेत्र में स्थित अनेक शिलाश्रयों से भी प्राप्त हैं। इन शिलाश्रयों के कतिपय चित्रों के वण्र्यविषय मध्यपाषाणिक मानव की आजीविका से सम्बन्धित है। शैलचित्र मुख्यतरू पशुवर्ग से सम्बन्धित हैं जिनमें अधिकांशतया उन पशुओं का चित्रण किया गया है जिनका वे शिकार करते रहे होगें। पशुओं के अतिरिक्त उनके दैनिक जीवन से सम्बन्धित झाँकी भी शैलचित्रों  में दिखायी पड़ती है। इन चित्रों में आखेट के विविध दृश्यए मधुसंग्रह तथा नृत्य के दृश्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। विन्ध्य क्षेत्र में स्थित शिलाश्रयों से प्राप्त चित्रों का अध्ययन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग ने किया है। ये शिलाचित्र पाँच वर्गों में विभाजित है जिनमें से प्रथम से लेकर चौथे स्तर तक से सम्बन्धित शिलाचित्र मध्यपाषाण काल से सम्बन्धित है। इनका सूक्ष्म विश्लेषण भी मध्यपाषाणिक मानव की आखेट और खाद्य.संग्राहक अर्थव्यवस्था को प्रमाणित करता है।
इधर हाल के कुछ वर्षों में प्रस्तर.निर्मित पुरावशेषों की माइक्रोवीयर स्टडी आधारित प्रागैतिहासिक संस्कृतियों का अध्ययन काफी लोकप्रिय हो रहा है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि आरेगॉन विश्वविद्यालय के नृतत्व शास्त्र विभाग ने विन्ध्यक्षेत्र ;लेखहियाद्ध तथा गंगाघाटी से प्राप्त लघुपाषाण उपरकणों की माइक्रोवीयर स्टडी की है। माइक्रोवीयर एनालिसिस के लिए जो माइक्रोस्कोप प्रयोग में लाया जाता है वह उपकरण के स्वरूप को ५० गुणा सम्बर्धित कर देता है जिससे उपकरणों के कार्यांग के क्षतिग्रस्त होनेए रेखांकन ;ैजतपंजपवदद्धए उनके प्रयोग के दिग्विन्यासए गोलमटोल एवं तीक्ष्ण होने तथा इनके पालिश को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
विन्ध्य क्षेत्र के मध्यपाषाणिक लघुपाषाण उपकरणों के माइक्रोवीयर एनालसिस से ज्ञात होता है कि इनका उपयोग खुरचनेए चीरनेए काटनेए छिद्र करने तथा खाँचा बनाने में किया गया था। इन की एनालसिस से उन पदार्थों की भी जानकारी प्राप्त की गयी है जिन पर इनका प्रयोग किया गया था। इस अध्ययन से भी विन्ध्य क्षेत्र के मध्य पाषाणिक मानव की आजीविका शिकार तथा वन्य खाद्य के संग्रह पर अधारित दिखायी पड़ती है जैसा कि अन्य पुरातात्विक अवशेषों तथा जैव पुरातत्वीय अध्ययन से स्पष्ट है।
उपसंहार रू इस प्रकार हम देखते हैं कि विन्ध्यक्षेत्र की प्राकृतिक पृष्ठभूमि में अनेक जंगली जानवर यथा.हिरणए चौसिंगाए नीलगायए खरगोशए आदि तथा वन्यखाद्य यथा. मीठे फलए कन्दए जड़ें तथा अनाज मौजूद थे जिनके शिकार तथा संग्रह पर आधारित एक स्वस्थ जीवन यापन करते हुए मध्यपाषाणिक मानव ने इस क्षेत्र की नवपाषाणिक संस्कृति के उद्भव एवं विकास के लिए एक मजबूत एवं प्रशस्त पृष्ठभूमि तैयार की।
संदर्भ रू.
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डॉ० रमाकान्त
वरिष्ठ प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभागए
नागरिक पीण्जीण् कालेज जंघईए जौनपुर।